चन्द्रकांता सन्तति 4/16.8
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आनन्दसिंह की आवाज सुनने पर इन्द्रजीतसिंह का शक जाता रहा और वे आनन्दसिंह के आने का इन्तजार करते हुए नीचे उतर आए जहाँ थोड़ी ही देर बाद उन्होंने अपने छोटे भाई को उसी राह से आते देखा जिस राह से वे स्वयं इस मकान में आये थे।
इन्द्रजीतसिंह अपने भाई के लिए बहुत ही दुःखी थे। उन्हें विश्वास हो गया था आनन्द सिंह किसी आफत में फंस गये और बिना तरवुद के उनका छूटना कठिन है, मगर थोड़ी ही देर में बिना झंझट के उनके आ मिलने से उन्हें कम ताज्जुब न हुआ। उन्होंने आनन्दसिंह को गले से लगा लिया और कहा-
इन्द्रदेव--मैं तो समझता था कि तुम किसी आफत में फस गए और तुम्हारे छुड़ाने के लिए बहुत ज्यादा तरदुद करना पड़ेगा।
आनन्दसिंह--जी नहीं, वह मामला तो बिल्कुल खेल ही निकला। सच तो यह है कि इस तिलिस्म में दिल्लगी और मसखरेपन का भाग भी मिला हुआ है।
इन्द्रदेव--तो तुम्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं हुई?
आनन्दसिंह--कुछ भी नहीं, हवा के खिंचाव के कारण जब मैं शीशे के अन्दर चला गया तो वह शीशे का टुकड़ा जिसे दरवाजा कहना चाहिए, बन्द हो गया और मैंने अपने को पूरे अन्धकार में पाया। तिलिस्मी खंजर का कब्जा दबाकर रोशनी की, तो सामने एक छोटा-सा दरवाजा एक पल्ले का दिखाई पड़ा, जिसमें खींचने के लिए लोहे की दो कड़ियाँ लगी हुई थीं। मैंने बाएँ हाथ से एक कड़ी पकड़ कर दरवाजा खींचना चाह, मगर वह थोड़ा-सा खिचकर रह गया। सोचा कि इसमें दो कड़ियां इसीलिए लगी हैं कि दोनों हाथों से पकड़कर दरवाजा खींचा जाये। अतः तिलिस्मी खंजर म्यान में रख लिया जिससे पुनः अंधकार हो गया और इसके बाद दोनों हाथों से दोनों कड़ियों को पकड़कर अपनी तरफ खींचना चाहा, मगर मेरे दोनों हाथ उन कड़ियों में चिपक गये और दरवाजा भी न खुला। उस समय मैं बहुत ही घबड़ा गया और हाथ छुड़ाने के लिए जोर करने लगा। दस-बारह पल के बाद वह कड़ी पीछे की तरफ हटी और मुझे खींचती हुई दूर तक ले गई। मैं यह नहीं कह सकता कि कड़ियों के साथ ही दरवाजे का कितना बड़ा भाग पीछे की तरफ हटा था, मगर इतना मालूम हुआ कि मैं ढलवां जमीन की तरफ जा रहा। हूँ। आखिर जब उन कड़ियों का पीछे हटना बन्द हो गया तो मेरे दोनों हाथ भी छूट गए, इसके बाद थोड़ी देर तक घड़घड़ाहट की आवाज आती रही और तब तक चुप- चाप खड़ा रहा।
जब घड़घड़ाहट की आवाज बन्द हो गई, तो मैंने तिलिस्मी खंजर निकाल कर रोशनी की और अपने चारों तरफ गौर करके देखा। जिधर से ढलवां जमीन उतरती हुई वहाँ तक पहुंची थी, उस तरफ अर्थात् पीछे की तरफ बिना चौखट का एक बन्द दरवाजा पाया, जिससे मालूम हुआ कि अब मैं पीछे की तरफ नहीं हट सकता, मगर दाहिनी तरफ एक और दरवाजा देखकर मैं उसके अन्दर चला गया और दो कदम के बाद घूमकर फिर मुझे ऊँची जमीन अर्थात् चढ़ाव मिला, जिससे साफ मालूम हो गया कि मैं जिधर से उतरता हुआ आया था, अब उसी तरफ पुनः जा रहा हूँ। कई कदम जाने के बाद पुनः एक बन्द दरवाजा मिला, मगर वह आपसे आप खुल गया। जब मैं उसके अन्दर गया, तो अपने को उसी शीशे वाले कमरे में पाया और घूमकर पीछे की तरफ देखा तो साफ दीवार नजर पड़ी। यह नहीं मालूम होता था कि मैं किसी दरवाजे को लाँघ- कर कमरे में आ पहुँचा हूँ, इसी से मैं कहता हूँ कि तिलिस्म बनाने वाले मसखरे भी थे, क्योंकि उन्हीं की चालाकियों ने मुझे घुमा-फिराकर पुनः उसी कमरे में पहुँचा दिया जिसे एक तरह की जबरदस्ती कहना चाहिए।
मैं उस कमरे में खड़ा हुआ ताज्जुब से उसी शीशे की तरफ देख रहा था कि पहले की तरह दो आदमियों की बातचीत की आवाज सुनाई दी। मैं आपके साथ जब उस कमरे में था, तब जो बातें सुनने में आयी थीं, ही पुनः सुनीं और जिन लोगों को उस आईने के अन्दर आते-जाते देखा था, उन्हीं को पुनः देखा भी। निःसन्देह मुझे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और मैं बड़े गौर से तरह-तरह की बातों को सोच रहा था कि इतने ही में आपकी आवाज सुनाई दी और आपकी आज्ञानुसार अजदहे के मुंह में जाकर यहाँ तक आ पहुँचा। आप यहाँ किस राह से आए हैं ?
इन्द्रजीतसिंह-मैं भी अजदहे के मुँह में होता हुआ आया हूँ और यहाँ आने पर मुझे जो-जो बातें मालूम हुई हैं उनसे शीशे वाले कमरे का कुछ भेद मालूम हो गया।
आनन्दसिंह-सो क्या ?
इन्द्रजीतसिंह-मेरे साथ आओ, मैं सब तमाशा तुम्हें दिखाता हूँ।
अपने छोटे भाई को साथ लिए कुंअर इन्द्रजीतसिंह नीचे के खण्ड वाली सब चीजों को दिखाकर ऊपर वाले खण्ड में गये और वहाँ का बिल्कुल हाल कहा। बाजा और मूरत इत्यादि भी दिखाया और बाजे के बोलने तथा मूरत के चलने-फिरने के विषय में भी अच्छी तरह समझाया जिससे इन्द्रजीतसिंह की तरह आनन्दसिंह का भी शक जाता रहा। इसके बाद आनन्दसिंह ने पूछा, "अब क्या करना चाहिए ?" इन्द्रजीतसिंह-यहाँ से बाहर निकलने के लिए दरवाजा खोलना चाहिए। मैं यह निश्चय कर चुका हूँ कि इस खण्ड के ऊपर जाने के लिए कोई रास्ता नहीं है और न ऊपर जाने से कुछ काम ही चलेगा, अतएव हमें पुनः नीचे वाले खण्ड में चलकर दरवाजा ढूंढ़ना चाहिए, या तुमने अगर कोई बात सोची हो, तो कहो।
आनन्दसिंह-मैं तो यह सोचता हूँ कि हम आखिर तिलिस्म तोड़ने के लिए ही यहाँ आए हैं इसलिए जहाँ तक बन पड़े, यहाँ की चीजों को तोड़-फोड़ और नष्ट-भ्रष्ट करना चाहिए, इसी बीच में कहीं-न-कहीं कोई दरवाजा दिखाई दे ही जायेगा।
इन्द्रजीतसिंह --(मुस्कराकर) यह भी एक बात है, खैर, तुम अपने ही खयाल के मुताबिक कार्रवाई करो, हम तमाशा देखते हैं।
आनन्दसिंह-बहुत अच्छा, तो आइये, पहले उस दरवाजे को खोलें, जिसके अन्दर पुतलियाँ जाती हैं।
इतना कहकर आनन्दसिंह उस दालान में गये, जिसमें कमलिनी, लाड़िली तथा और ऐयारों की मूरतें थीं। हम ऊपर लिख चुके हैं कि ये मूरतें लोहे की नालियों पर चल कर जब शीशे वाली दीवार के पास पहुँचती थीं तो वहां का दरवाजा आप-से-आप खुल जाता था। आनन्दसिंह भी उसी दरवाजे के पास गये और कुछ सोचकर उन्हीं नालियों पर पैर रखा जिन पर पुतलियाँ चलती थीं।
नालियों पर पैर रखने के साथ ही दरवाजा खुल गया और दोनों भाई उस दरवाजे के अन्दर चले गए। इन्हें वहाँ दो रास्ते दिखाई पड़े, एक दरवाजा तो बन्द था और जंजीर में एक भारी ताला लगा हुआ था और दूसरा रास्ता शीशे वाली दीवार की तरफ गया हुआ था, जिसमें पुतलियों के आने-जाने के लिए नालियाँ भी बनी हुई थीं। पहले दोनों कुमार पुतलियों के चलने का हाल मालूम करने की नीयत से उसी तरफ गए और वहां अच्छी तरह घूम-फिरकर देखने और जांच करने पर जो कुछ उन्हें मालूम हुआ उसका खुलासा हम नीचे लिखते हैं।
वहाँ शीशे की तीन दीवारें थी और हर एक के बीच में आदमियों के चलने-फिरने लायक रास्ता छूटा हुआ था। पहले शीशे की दीवार जो कमरे की तरफ थी, सादी थी अर्थात् उस शीशे के पीछे पारे की कलई की हुई न थी, हाँ उसके बाद वाली दूसरी शीशे वाली दीवार में कलई की हुई थी और वहाँ जमीन पर पुतलियों के चलने के लिए नालियाँ भी कुछ इस ढंग से बनी हुई थी कि बाहर वालों को दिखाई न पड़ें और पुत- लियाँ कलई वाले शीशे के साथ सटी हुई चल सकें। यही सबब था कि कमरे की तरफ से देखने वालों को शीशे के अन्दर आदमी चलता हुआ मालूम पड़ता था और उन नकली आदमियों की परछाईं भी जो शीशे में पड़ती थी, साथ सटे रहने के कारण देखने वाले को दिखाई नहीं पड़ती थी। मूरतें आगे जाकर घूमती हुई दीवार के पीछे चली जाती थीं, जिसके बाद फिर शीशे की दीवार थी और उस पर नकली कलई की हुई थीं। इस गली में भी नाली बनी हुई थी उसी राह से मूरतें लौटकर अपने ठिकाने जा पहुँचती थी। इन सब चीजों को देखकर जब कुमार लौटे, तो बन्द दरवाजे के पास आये जिसमें
एक बड़ा-सा ताला लगा हुआ था। खंजर से जंजीर काट कर दोनों भाई उसके अन्दर गये, तीन-चार कदम जाने के बाद नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ मिलीं। इन्द्रजीतसिंह अपने हाथ में तिलिस्मी खंजर लिए हुए रोशनी कर रहे थे।
दोनों भाई सीढ़ियाँ उतरकर नीचे चले गए और इसके बाद उन्हें एक बारीक सुरंग में चलना पड़ा। थोड़ी देर बाद एक और दरवाजा मिला, उसमें भी ताला लगा हुआ था। आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर से उसकी भी जंजीर काट डाली और दरवाजा खोलकर दोनों भाई उसके भीतर चले गये।
इस समय दोनों कुमारों ने अपने को एक बाग में पाया। यह बाग छोटे-छोटे जंगली पेड़ों और लताओं से भरा हुआ था। यद्यपि यहाँ की क्यारियाँ निहायत खूबसूरत और संगमर्मर के पत्थर से बनी हुई थीं, मगर उनमें सिवाय झाड़-झंखाड़ के और कुछ न था। इसके अतिरिक्त और भी चारों तरफ एक प्रकार का जंगल हो रहा था, हाँ दो-चार पेड़ फलों के वहाँ जरूर थे और एक छोटी-सी नहर भी एक तरफ से आकर बाग में घूमती हुई दूसरी तरफ निकल गई थी। बाग के बीचोंबीच में एक छोटा-सा बँगला बना हुआ था जिसकी जमीन, दीवार और छत इत्यादि सब पत्थर की और मजबूत बनी हुई थीं, मगर फिर भी उसका कुछ भाग टूट-फूटकर खराब हो रहा था।
जिस समय दोनों कुमार इस वाग में पहुँचे उस समय दिन बहुत कम बाकी था और ये दोनों भाई भी भूख-प्यास और थकावट से परेशान हो रहे थे ! अतः नहर के किनारे जाकर दोनों ने हाथ-मुंह धोया और जरा आराम लेकर जरूरी कामों के लिए चले गये। उससे छुट्टी पाने के बाद दो-चार फल तोड़कर खाये और नहर का जल पीकर इधर-उधर घूमने-फिरने लगे। उस समय उन दोनों को यह मालूम हुआ कि जिस दरवाजे की राह से वे दोनों इस भाग में आये थे, वह आप-से-आप ऐसा बन्द हो गया कि उसके खुलने की कोई उम्मीद नहीं।
दोनों भाई घूमते हुए बीच वाले बँगले में आये। देखा कि तमाम जमीन कूड़ा- कर्कट से खराब हो रही है। एक पेड़ से बड़े-बड़े पत्तों वाली छोटी डाली तोड़ जमीन साफ की और रात भर उसी जगह गुजारा किया।
सुबह को जरूरी कामों से छुट्टी पाकर दोनों भाइयों ने नहर में दुपट्टा (कमर- बन्द) धोकर सूखने को डाला। और जब वह सूख गया तो स्नान-पूजा से निश्चिन्त हो, दो-चार फल खाकर पानी पीया और पुनः बाग में घूमने लगे।
इन्द्रजीतसिंह--जहां तक मैं सोचता हूँ, यह वही बाग है जिसका हाल तिलिस्मी बाजे से मालूम हुआ था, मगर उस पिंडी का पता नहीं लगता।
आनन्दसिंह--निःसन्देह यह वही बाग है ! यह बीच वाला बँगला हमारा शक दूर करता है और इसीलिए जल्दी करके इस बाग के बाहर हो जाने की फिक्र न करनी चाहिए। कहीं ऐसा न हो कि 'मनुवाटिका' यही जगह हो, मगर हम धोखे में आकर इसके बाहर हो जायें। बाजे ने भी यही कहा था कि यदि अपना काम किये बिना 'मनु- वाटिका' के बाहर हो जाओगे, तो तुम्हारे किये कुछ भी न होगा, न तो पुन: 'मनु- वाटिका' में जा सकोगे और न अपनी जान बचा सकोगे।
इन्द्रजीतसिंह--रिक्तगन्थ में भी तो यही बात लिखी है, इसलिए मैं भी यहाँ से
च० स०-4-14
का पता लगाना चाहिए।
पाठक, तिलिस्मी किताब (रिक्तगन्थ) और तिलिस्मी बाजे दोनों से कुमारों को यह मालूम हुआ था कि मनुवाटिका में किसी जगह जमीन पर एक छोटी-सी पिंडी बनी हुई मिलेगी। उसका पता लगाकर उसी को अपने मतलब का दरवाजा समझना है, यहीं सबब था कि दोनों कुमार उस पिण्डी को खोज निकालने की फिक्र में लगे हुए थे, मगर उस पिण्डी का पता नहीं लगता था। लाचार उन्हें कई दिनों तक उस बाग में रहना पड़ा अाखिर एक घनी झाड़ी के अन्दर उस पिण्डी का पता लगा। वह करीब हाथ भर के ऊँची और तीन हाथ के घेरे में होगी और यह किसी तरह भी मालूम नहीं हो रहा था कि वह पत्थर की है या लोहे, पीतल इत्यादि किसी धातु की बनी हुई है। जिस चीज से वह पिण्डी बनी हुई थी उसी चीज से बना हुआ सूर्यसूखी का एक फूल उसके ऊपर जड़ा हुआ था और यही उस पिण्डी की पूरी पहचान थी। आनन्दसिंह ने खुश होकर इन्द्रजीत- सिंह से कहा-
आनन्दसिंह-वाह रे ! किसी तरह ईश्वर की कृपा से इस पिण्डी का पता लगा। मैं समझता हूँ, इसमें आपको किसी तरह का शक न होगा?
इन्द्रजीतसिंह-मुझे किसी तरह का शक नहीं है। यह पिण्डी निःसन्देह वही है, जिसे हम लोग खोज रहे थे। अब इस जमीन को अच्छी तरफ साफ करके अपने सच्चे सहायक रिक्तगन्थ से हाथ धो बैठने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
आनन्दसिंह जी हाँ, ऐसा ही होना चाहिए, यदि रिक्तगन्थ में कुछ सन्देह हो, तो उसे पुनः देख जाइए।
इन्द्रजीतसिंह-यद्यपि इस ग्रन्थ में मुझे किसी तरह का सन्देह नहीं है और जो कुछ उसमें लिखा है मुझे अच्छी तरह याद है, मगर शक मिटाने के लिए एक दफे उलट- पलट कर जरूर देख लूंगा।
आनन्दसिंह-मेरा भी यही इरादा है। यह काम घण्टे-दो-घण्टे के अन्दर हो भी जायेगा। अतः आप पहले रिक्तगन्थ देख जाइये, तब तक मैं इस झाड़ी को साफ किए डालता हूँ।
इतना कहकर आनन्दसिंह ने तिलिस्मी खंजर से काट कर पिण्डी के चारों तरफ के झाड़-झंखाड़ को साफ करना शुरू किया और इन्द्रजीतसिंह नहर के किनारे बैठकर तिलिस्मी किताब को उलट-पुलट कर देखने लगे। थोड़ी देर बाद इन्द्रजीतसिंह आनन्दसिं ह के पास आये और बोले-“लो, अब तुम भी इसे देखकर अपना शक मिटा लो, और तब तक तुम्हारे काम को मैं पूरा कर डालता हूँ !"
आनन्दसिंह ने अपना काम छोड़ दिया और अपने भाई के हाथ से 'रिक्तगन्थ' लेकर नहर के किनारे चले गये तथा इन्द्रजीतसिंह ने तिलिस्मी खंजर से पिण्डी के चारों तरफ की सफाई करनी शुरू कर दी। थोड़ी ही देर में जो कुछ घास-फूस, झाड़-झंखाड़ पिण्डी के चारों तरफ था, साफ हो गया और आनन्दसिंह भी तिलिस्मी किताब देखकर अपने भाई के पास चले आये और बोले, 'अब क्या आज्ञा है?" इसके जवाब में इन्द्रजीतसिंह ने कहा, "बस, अब नहर के किनारे चलो और रिक्तगन्थ का आटा गूंधो।"
दोनों भाई नहर के किनारे आये और एक ठिकाने सायेदार जगह देखकर बैठ गये। उन्होंने नहर के किनारे वाले एक पत्थर की चट्टान को जल से अच्छी तरह धोकर साफ किया और इसके बाद रिक्तगन्थ पानी में डुबोकर उस पत्थर पर रख दिया। देखते ही देखते जो कुछ पानी रिक्तगन्थ में लगा था, सब उसी में पच गया। फिर हाथ से उस पर डाला, वह भी पच गया। इसी तरह बार-बार चुल्लू भर-भरकर उस पर पानी डालने लगे और ग्रन्थ पानी पी-पीकर मोटा होने लगा। थोड़ी देर के बाद वह मुलायम हो गया और तब आनन्दसिंह ने उसे हाथ से मल के आटे की तरह गूंधना शुरू किया। शाम होने तक उसकी सूरत ठीक गूंधे हुए आटे की तरह हो गई, मगर रंग इसका काला था। आनन्दसिंह ने इस आटे को उठा लिया और अपने भाई के साथ उस पिण्डी के पास आकर उनकी आज्ञानुसार तमाम पिण्डी पर उसका लेप कर दिया। इस के बाद दोनों भाई यहाँ से किनारे हो गये और जरूरी कामों से छुट्टी पाने के काम में लगे।