चन्द्रकांता सन्तति 4/16.3
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दारोगा की सूरत देखते ही मेरी और अन्ना की जान सूख गई और हम दोनों को विश्वास हो गया कि पण्डितजी ने हमारे साथ दगा की। उस समय सिवा जान देने के और मैं क्या कर सकती थी? इधर-उधर देखने पर जान देने का कोई जरिया दिखाई न पड़ा, अगर उस समय मेरे पास कोई हर्बा होता तो मैं जरूर अपने को मार डालती। दारोगा ने भी मुझे दूर से देखा और कदम बढ़ाता हुआ हम दोनों के पास पहुँचा। मारे क्रोध के उसकी आँखें लाल हो रही थीं और होंठ काँप रहे थे। उसने अन्ना की तरफ देख कर कहा, "क्यों री कम्बख्त लौंडी, अब तू मेरे हाथ से बचकर कहाँ जायगी? यह सारा फसाद तेरा ही उठाया हुआ है, न तू दरवाजा खोलकर दूसरे कमरे में जाती न गदाधर- सिंह को इस बात खबर होती। तूने ही इन्दिरा को ले भागने की नीयत से मेरी जान आफत में डाली थी, अतः अब मैं तेरी जान लिए बिना नहीं रह सकता, क्योंकि तुझ पर मुझे बड़ा ही क्रोध है।"
इतना कह दारोगा ने म्यान से तलवार निकाल ली और एक ही हाथ में बेचारी अन्ना का सिर धड़ से अलग कर दिया, उसकी लाश तड़पने लगी और मैं चिल्लाकर उठ खड़ी हुई।
इतना हाल कहते-कहते इन्दिरा की आँखों में आंसू भर आये। इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और राजा गोपाल सिंह को भी उसकी अवस्था पर बड़ा दुःख हुआ और बेई- मान नमकहराम दारोगा को क्रोध से याद करने लगे। तीनों भाइयों ने इन्दिरा को दिलासा दिया और चुप करा के अपना किस्सा पूरा करने के लिए कहा। इन्दिरा ने आँसू पोंछकर फिर कहना शुरू किया-
इन्दिरा-- उस समय मैं समझती थी कि दारोगा मेरी अन्ना को तो मार ही चुका है, अब उसी तलवार से मेरा भी सिर काट के बखेड़ा तय करेगा, मगर ऐसा न हुआ, उसने रूमाल से तलवार पोंछकर म्यान में रख ली और अपने नौकर के हाथ से चाबुक ले मेरे सामने आकर बोला, "अब बुला गदाधरसिंह को, आकर तेरी जान बचाये।"
इतना कह उसने मुझे उसी चाबुक से मारना शुरू किया। मैं मछली की तरह तड़प रही थी, लेकिन उसे कुछ भी दया नहीं आती थी और वह बार-बार यही कहकर चाबुक मारता था कि "अब बता, मेरे कहे मुताविक चिट्ठी लिख देगी या नहीं ?" पर मैं भी इस बात का दिल में निश्चय कर चुकी थी कि चाहे कैसी ही दुर्दशा से मेरी जान क्यों न ली जाय, मगर उसके कहे मुताबिक चिट्ठी कदापि न लिखूंगी।
चाबुक की मार खाकर मैं जोर से चिल्लाने लगी। उसी समय दाईं तरफ से एक औरत दौड़ती हुई आई जिसने डपटकर दारोगा से कहा, "क्यों चाबुक मारकर इस बेचारी की जान ले रहे हो ? ऐसा करने से तुम्हारा मतलब कुछ भी न निकलेगा। तुम जो कुछ चाहते हो, मुझे कहो। मैं बात की बात में तुम्हारा काम करा देती हूँ।"
उस औरत की उम्र का पता बताना कठिन था, न तो वह कमसिन थी और न बूढ़ी ही थी, शायद तीस-पैंतीस वर्ष की अवस्था हो या इससे कुछ कम या ज्यादा हो। उसका रंग काला और बदन गठीला तथा मजबूत था, घुटने से कुछ नीचे तक का पाय- जामा और उसके ऊपर दक्षिणी ढंग की साड़ी पहने हुए थी, जिसकी लाँग पीछे की तरफ खुसी थी। कमर में एक मोटा कपड़ा लपेटे हुए थी जिसमें शायद कोई गठरी या और कोई चीज बँधी हुई हो।
उस औरत की बात सुनकर दारोगा ने चाबुक मारना बन्द किया और उसकी तरफ देखकर कहा, "तू कौन है?" औरत--चाहे मैं कोई होऊँ इससे कुछ मतलब नहीं तुम जो कुछ चाहते हो मुझसे कहो, मैं तुम्हारा काम पूरा कर दूंगी। चाबुक मारते समय जो कुछ तुम कहते हो, उससे मालूम होता है इस लड़की से तुम कुछ लिखाना चाहते हो ! इससे जो कुछ लिखवाना चाहते हो, मुझे बताओ मैं लिखवा दूंगी। इस समय मारने-पीटने से कोई काम न चलेगा क्योंकि इसके एक पक्षपाती ने, जिसने अभी तुम्हारे आने की खबर दी थी, इसे समझा- बुझा के बहुत पक्का कर दिया है और खुद (हाथ का इशारा करके)उस कुएँ में जा छिपा है, वह जरूर तुम पर वार करेगा। मेरे साथ चलो मैं दिखा दूं। पहले उसे दुरुस्त करो, उसके बाद जो कुछ इस लड़की से कहोगे यह झख मार के कर देगी।
दारोगा--क्या तूने खुद उस आदमी को देखा था?
औरत-–हाँ-हाँ, कहती तो हूँ कि मेरे साथ उस कुएँ पर चलो, मैं उस आदमी को दिखा देती हूँ। दस-बारह कदम पर कुआं है, कुछ दूर तो है नहीं।
दारोगा--अच्छा चलकर मुझे बताओ,(अपने दोनों आदमियों से) तुम दोनों इस लड़की के पास खड़े रहो।
वह औरत कुएँ की तरफ बढ़ी और दारोगा उसके पीछे-पीछे चला। वास्तव में वह कुआँ बहुत दूर न था। जब दारोगा को लिए हुए वह औरत कुएँ पर पहुंची तो अन्दर झांककर बोली, "देखो, वह छिपकर बैठा है !"
दारोगा ने ज्यों ही झांककर कुएं के अन्दर देखा उस औरत ने पीछे से धक्का दिया और वह कम्बख्त धड़ाम से कुएँ के अन्दर जा रहा। यह कैफियत उसके दोनों साथी दूर से देख रहे थे और मैं भी देख रही थी। जब दारोगा के दोनों साथियों ने देखा कि उस औरत ने जान-बूझकर हमारे मालिक को कुएँ में धकेल दिया है, तो दोनों आदमी तलवार खींचकर उस औरत की तरफ दौड़े। जब पास पहुंचे तो वह औरत जोर से हँसी और एक तरफ को भाग चली। उन दोनों ने उसका पीछा किया, मगर वह औरत दौड़ने में इतनी तेज थी कि वे दोनों उसे पा न सकते थे। उसी बगीचे के अन्दर वह औरत चक्कर देने लगी और उन दोनों के हाथ न आई। वह समय उन दोनों के लिए बड़ा ही कठिन था, वे दोनों इस बात को जरूर सोचते होंगे कि अगर अपने मालिक को बचाने की नीयत से कुएँ पर जाते हैं तो वह औरत भाग जायेगी या ताज्जुब नहीं कि उन्हें भी उसी कुएं में ढकेल दे। आखिर जब औरत ने उन दोनों को खूब दौड़ाया तो उन दोनों ने आपस में कुछ बात तय की और एक आदमी तो उस कुएं की तरफ चला तथा दूसरे ने उस औरत का पीछा किया। जब उस औरत ने देखा कि अब दो में से एक ही रह गया तो अब वह खड़ी हो गई और जमीन पर से ईंट का टुकड़ा उठाकर उस जादमी की तरफ जोर से फेंका। उस औरत का निशाना बहुत ही सच्चा था जिससे वह आदमी बच न सका और ईंट का टुकड़ा इस जोर से उसके सिर में लगा कि उसका सिर फट गया और वह दोनों हाथों से सिर को पकड़कर वहीं जमीन पर बैठ गया। उस औरत ने पुनः दूसरी इंट मारी तीसरी मारी और चौथी ईंट खाकर तो वह जमीन पर लेट गया। उसी समय उसने खंजर निकाल लिया जो उसकी कमर में छिपा हुआ था और दौड़ती हुई उसके पास जाकर खंजर से उसका सिर काट डाला। मैं यह तमाशा दूर से देख रही थी। जब वह एक आदमी को समाप्त कर चुकी तो उस दूसरे के पास आई जो कुएं पर खड़ा अपने मालिक को निकालने की फिक्र कर रहा था। एक ईंट का टुकड़ा उसकी तरफ जोर से फेंका जो गर्दन में लगा। वह आदमी हाथ में नंगी तलवार लिये उस औरत पर झपटा मगर उसे पा न सका। उस औरत ने फिर उस आदमी को दौड़ाना शुरू किया और बीच- बीच में ईंट और पत्थरों से उसकी भी खबर लेती जाती थी। वह आदमी भी ईंट और पत्थर के टुकड़े उस औरत पर फेंकता था, मगर वह औरत इतनी तेज और फुर्तीली थी कि उसके सब वार बराबर बचाती चली गई, मगर उसका वार एक भी खाली न जाता था। आखिर उस आदमी ने भी इतनी मार खाई कि खड़ा होना मुश्किल हो गया और वह हताश होकर जमीन पर बैठ गया। बस, जमीन पर बैठने की देर थी कि उस औरत ने धड़ाधड़ पत्थर मारना शुरू किया, यहाँ तक कि वह अधमरा होकर जमीन पर लेट गया। उस औरत ने उसके पास पहुँचकर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया, इसके बाद दौड़ती हुई मेरे पास आई और बोली, "बेटी, तूने देखा कि मैंने तेरे दुश्मनों की कैसी खबर ली? मैं तो उस कम्बख्त (दारोगा) को भी पत्थर मार-मारकर मार डालती मगर डरती हूँ कि विलम्ब हो जाने से उसके और भी संगी-साथी न आ पहुँचें, अगर ऐसा हुआ तो बड़ी मुश्किल होगी, अस्तु उसे जाने दे और मेरे साथ चल, मैं तुझे पूरी हिफाजत से तेरे घर या जहाँ कहेगी, वहां पहुंचा दूंगी।"
यद्यपि चाबुक की मार खाने से मेरी बुरी हालत हो गई थी, मगर अपने दुश्मनों की ऐसी दशा देख मैं खुश हो गई और उस औरत को साक्षात् माता समझकर उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसने मुझे बड़े प्यार से उठाकर गले लगा लिया और मेरा हाथ पकड़े हुए बाग के पिछली तरफ ले चली। बाग के पीछे की तरफ बाहर निकल जाने के लिए एक खिड़की थी और उसके पास सरपत का एक साधारण जंगल था। वह औरत मुझको लिये उसी सरपत के जंगल में घुस गई। उस जंगल में उस औरत का घोड़ा बँधा हुआ था। उसने घोड़ा खोला, चारजामा ठीक करके उस पर मुझे बैठाया और पीछे आप भी सवार हो गई, घोड़ा तेजी के साथ रवाना हुआ और तब मैं समझी कि मेरी जान बच गई।
वह औरत पहर भर तक बराबर घोड़ा फेंके चली गई और जब एक घने जंगल में पहुंची तो घोड़े की चाल धीमी कर देर तक धीरे-धीरे चलकर एक कुटी के पास पहुंची जिसके दरवाजे पर दो-तीन आदमी बैठे आपस में कुछ बातें कर रहे थे। उस औरत को देखते ही वे लोग उठ खड़े हुए और अदब के साथ सलाम करके घोड़े के पास चले आए। औरत घोड़े के नीचे उतरकर मुझे उतार लिया। उन आदमियों में से एक ने घोड़े की लगाम थाम ली और उसे टहलाने को ले गया, दूसरे आदमी ने कुछ इशारा पाकर कुटी से एक कम्बल ला जमीन पर बिछा दिया और एक आदमी हाथ घड़ा, लोटा और रस्सी लेकर जल भरने के लिए चला गया। औरत ने मुझे कम्बल पर बैठने का इशारा किया और आप भी कमर हलकी करने के बाद उसी कम्बल पर बैठ गई, तब उसने मुझसे कहा कि अब तू अपना सच्चा-सच्चा हाल बता कि तू कौन है और इस मुसीबत में क्योंकर फंसी तथा वह बुड्ढा शैतान कौन था, जब तक मेरा आदमी पानी लाता है और खाने-पीने का बन्दोबस्त करता है। उस औरत ने दया करके मेरी जान बचाई थी, और जहाँ मैं चाहती थी, वहाँ पहुँचा देने के लिए तैयार थी और मेरे दिल ने भी उसे माता के समान मान लिया था, इसलिए मैंने उससे कोई बात नहीं छिपाई और अपना सच्चा-सच्चा हाल शुरू से आखिर तक कह सुनाया। उसे मेरी अवस्था पर बहुत तरस आया और वह बहुत देर तक तसल्ली और दिलासा देती रही। जब मैंने उसका नाम पूछा तो उसने अपना नाम 'चम्पा' बताया।
इतना हाल कह इन्दिरा क्षण भर के लिए रुक गई और कुँअर आनन्दसिंह ने चौंककर पूछा, "क्या नाम बताया, चम्पा !"
इन्दिरा--जी हाँ।
आनन्दसिंह–-(गौर से इन्दिरा की सूरत देखकर) ओफ, अब मैंने तुझे पहचाना।
इन्दिरा-जरूर पहचाना होगा, क्योंकि एक दफे आप मुझे उस खोह में देख चुके हैं जहाँ चम्पा ने छत से लटकते हुए आदमी की देह काटी थी, आपने उसमें बाधा डाली थी और योगिनी का वेष धरे हाथ में अंगीठी लिए चपला ने आकर आपको और देवीसिंह को बेहोश कर दिया था।
इन्द्रजीतसिंह--(ताज्जुब से आनन्दसिंह की तरफ देखकर) तुमने वह हाल मुझसे कहा था, जब तुम मेरी खोज में निकले थे और मुसलमानिन औरत की कैद से तुम्हें देवीसिंह ने छुड़ाया था, उस समय का हाल है।
आनन्दसिंह--जी हाँ, यह वही लड़की है।
इन्द्रजीतसिंह--मगर मैंने तो सुना था कि उसका नाम सरला है!
इन्दिरा--जी हाँ, उस समय चम्पा ही ने मेरा नाम सरला रख दिया था।
इन्द्रजीतसिंह--वाह-वाह, वर्षों बाद इस बात का पता लगा।
गोपालसिंह--जरा उस किस्से को मैं भी सुनना चाहता हूँ। आनन्दसिंह ने उस समय का कुल हाल राजा गोपालसिंह को कह सुनाया और इसके बाद इन्दिरा को फिर अपना हाल कहने के लिए कहा।