चन्द्रकांता सन्तति 4/15.12
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काशीपुरी से निकल कर भूतनाथ ने सीधे चुनारगढ़ का रास्ता लिया। पहर दिन चढे तक भूतनाथ और बलभद्रसिंह घोड़े पर सवार बराबर चले गए और इस बीच में उन दोनों में किसी तरह की बातचीत न हुई। जब वे दोनों जंगल के किनारे पहुँचे तो बलभद्रसिंह ने भूतनाथ से कहा, "अब मैं थक गया हूँ। घोड़े पर मजबूती के साथ नहीं बैठ सकता। वर्षों की कैद ने मुझे बिल्कुल बेकाम कर दिया। अब मुझमें दस कदम भी चलने की हिम्मत नहीं। अगर कुछ देर तक कहीं ठहरकर आराम कर लेते तो अच्छा होता।" भूतनाथ--बहुत अच्छा! थोड़ी दूर और चलिये। इसी जंगल में किसी अच्छे ठिकाने, जहाँ पानी भी मिल सकता हो, ठहर कर आराम कर लेंगे।
बलभद्रसिंह--अच्छा तो अब घोड़े को तेज मत चलाओ।
भूतनाथ--(घोड़े की तेजी कम करके) बहुत खूब।
बलभद्रसिंह--क्यों भूतनाथ, क्या वास्तव में आज तुमने मुझे कैद से छुड़ाया है या मुझे धोखा हो रहा है ?
भूतनाथ--(मुस्करा कर) क्या आपको इस मैदान की हवा मालूम नहीं होती ? या आप अपने को घोड़े पर सवार स्वतन्त्र नहीं देखते ? फिर ऐसा सवाल क्यों करते हैं?
बलभद्रसिंह--यह सब कुछ ठीक है। मगर अभी तक मुझे विश्वास नहीं होता कि भूतनाथ के हाथों से मुझे मदद पहुँचेगी, यदि तुम मेरी मदद करना ही चाहते तो क्या आज तक मैं कैदखाने में ही पड़ा सड़ा करता ! क्या तुम नहीं जानते थे कि मैं कहाँ और किस अवस्था में हूँ?
भूतनाथ--बेशक, मैं नहीं जानता था कि आप कहाँ और कैसी अवस्था में हैं। अब उन पुरानी बातों को जाने दीजिए। मगर इधर जब से मैंने आपकी लड़की श्यामा (कमलिनी) की ताबेदारी की है, तब से बल्कि इससे भी बरस डेढ़ बरस पहले ही से मुझे आपकी खबर न थी। मुझे खूब अच्छी तरह विश्वास दिलाया गया था कि अब आप इस दुनिया में नहीं रहे। यदि आज के दो महीने पहले भी मुझे मालूम हो गया होता कि आप जीते हैं और कहीं कैद हैं तो मैं आपको कैद से छुड़ाकर कृतार्थ हो गया होता।
बलभद्रसिंह--(आश्चर्य से) क्या श्यामा जीती है?
भूतनाथ--हाँ, जीती है।
बलभद्रसिंह--तो लाड़िली भी जीती होगी?
भूतनाथ--हाँ, वह भी जीती है।
बलभद्रसिंह--ठीक है, क्योंकि वे दोनों मेरे साथ उस समय जमानिया में न आई थीं जब लक्ष्मीदेवी की शादी होने वाली थी। पहले मुझे लक्ष्मीदेवी के भी जीते रहने की आशा न थीं, मगर कैद होने के थोड़े ही दिन बाद मैंने सुना कि लक्ष्मीदेवी जीती है और जमानिया की रानी तथा मायारानी कहलाती है।
भूतनाथ--लक्ष्मीदेवी के बारे में जो कुछ आपने सुना हैसब झूठ है। जमाने में बहुत बड़ा उलट-फेर हो गया जिसकी आपको कुछ भी खबर नहीं। वास्तव में मायारानी कोई दूसरी ही औरत थी और लक्ष्मीदेवी ने भी बड़े-बड़े दुःख भोगे। परन्तु ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए जिसने दु:ख के अथाह समुद्र में डूबते हुए लक्ष्मीदेवी के बेड़े को पार कर दिया। अब आप अपनी तीनों लड़कियों को अच्छी अवस्था में पावेंगे। मुझे यह बात पहले मालूम न थी कि मायारानी वास्तव में लक्ष्मीदेवी नहीं है।
बलभद्रसिंह--क्या वास्तव में ऐसी ही बात है? क्या सचमुच मैं अपनी तीनों बेटियों को देखूगा? क्या तुम मुझ पर किसी तरह का जुल्म न करोगे और मुझे छोड़ दोगे?
भूतनाथ--अब मैं किस तरह अपनी बातों पर आपको विश्वास दिलाऊँ। क्या आपके पास कोई ऐसा सबूत है जिससे मालूम हो कि मैंने आपके साथ बुराई की? बलभद्रसिंह--सबूत तो मेरे पास कोई भी नहीं। मगर मायारानी के दारोगा और जैपाल की जुबानी मैंने तुम्हारे विषय में बड़ी-बड़ी बातें सुनी थीं और कुछ दूसरे जरिये से भी मालूम हुआ है।
भूतनाथ--अब तो बस, या तो आप दुश्मनों की बातों को मानिए या मेरी इस खैरख्वाही को देखिए कि कितनी मुश्किल से आपका पता लगाया और किस तरह जान पर खेल कर आपको छुड़ा ले चला हूँ।
बलभद्रसिंह--(लम्बी साँस लेकर) खैर जो हो, आज यदि तुम्हारी बदौलत मैं किसी तरह की तकलीफ न पाकर अपनी तीनों लड़कियों से मिलूंगा तो तुम्हारा कसूर यदि कुछ हो तो मैं माफ करता हूँ।
भूतनाथ--इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। लीजिए, यह जगह बहुत अच्छी है, घने पेड़ों की छाया है और पगडण्डी से बहुत हटकर भी है!
बलभद्रसिंह--ठीक तो है, अच्छा तुम उतरो और मुझे भी उतारो।
दोनों ने घोड़ा रोका, भूतनाथ घोड़े से नीचे उतर पड़ा और उसकी बागडोर एक डाल से अड़ाने के बाद धीरे-से बलभद्रसिंह को भी नीचे उतारा। जीनपोश बिछा कर उन्हें आराम करने के लिए कहा और तब दोनों घोड़ों की पीठ खाली करके लम्बी बागडोर के सहारे एक पेड़ के साथ बाँध दिया जिसमें वे भी लोट-पोट कर थकावट मिटा ले और घास चरें।
यहाँ पर भूतनाथ ने बलभद्रसिंह की बड़ी खातिर की। ऐयारी के बटुए में से उस्तरा निकाल कर अपने हाथ से उनकी हजामत बनाई, दाढ़ी मंडी, कैची लगा कर सिर के बाल दुरुस्त किए, इसके बाद स्नान कराया और बदलने के लिए यज्ञोपवीत दिया। आज बहुत दिनों के बाद बलभद्रसिंह ने चश्मे के किनारे बैठकर संध्या-वन्दन किया और देर तक सूर्य भगवान की स्तुति करते रहे। जब सब तरह से दोनों आदमी निश्चिन्त हुए तो भतनाथ ने खुर्जी में से कुछ मेवा निकाल कर खाने के लिए बलभद्रसिंह को दिया आर आप भी खाया। बलभद्रसिंह को निश्चय हो गया कि भूतनाथ मेरे साथ दुश्मनी नहीं करता और उसने नेकी की राह से मुझे भारी कैदखाने से छुड़ाया है।
बलभद्रसिंह--गदाधरसिंह, शायद तुमने थोड़े ही दिनों से अपना नाम भूतनाथ रखा है?
भूतनाथ--जी हाँ, आज कल मैं इसी नाम से मशहूर हूँ।
बलभद्रसिंह--अस्तु, मैं बड़ी खुशी से तुम्हें धन्यवाद देता हूँ, क्योंकि अब मुझे निश्चय हो गया कि तुम मेरे दुश्मन नहीं हो।
भतनाथ--(धन्यवाद के बदले में सलाम करके) मगर मेरे दुश्मनों ने मेरी तरफ से आपके कान बहुत भरे हैं और वे बातें ऐसी हैं कि यदि आप राजा वीरेन्द्रसिंह के सामने उन्हें कहेंगे तो मैं उनकी आँखों से उतर जाऊँगा।
बलभद्रसिंह--नहीं-नहीं, मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि तुम्हारे विषय में कोई ऐसी बात किसी के सामने न कहूँगा, जिससे तुम्हारा नुकसान हो।
भूतनाथ--(पुनः सलाम करके) और मैं आशा करता हूँ कि समय पड़ने पर आप मेरी सहायता भी करेंगे।
बलभद्रसिंह--मैं सहायता करने योग्य तो नहीं हूँ, मगर हाँ, यदि कुछ कर सकूँगा तो अवश्य करूंगा।
भूतनाथ--इत्तिफाक से राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने जैपालसिंह को गिरफ्तार कर लिया है. जो आपकी सूरत बनाकर वहाँ लक्ष्मीदेवी को धोखा देने गया था। जब उसे अपने बचाव का कोई ढंग न सूझा तो उसने आपके मार डालने का दोष मुझ पर लगाया। मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि आप जीते हैं। परन्तु ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि यकायक आपके जीते रहने का शक मुझे हुआ और धीरे-धीरे वह पक्का होता गया तथा मैं आपकी खोज करने लगा। अब आशा है कि आप स्वयं मेरी तरफ से जैपालसिंह का मुंह तोड़ेंगे।
बलभद्रसिंह--(क्रोध से) जैपाल मेरे मारने का दोष तुम पर लगाकर आप बचाना चाहता है?
भूतनाथ--जी हाँ।
बलभद्रसिंह--उसकी ऐसी की तैसी ! उसने तो मुझे ऐसी-ऐसी तकलीफें दी हैं कि मेरा ही जी जानता है। अच्छा, यह वताओ, इधर क्या-क्या मामले हुए और राजा वीरेन्द्रसिंह को जमानिया तक पहुँचने की नौबत क्यों आई?
भूतनाथ ने जब से कमलिनी की ताबेदारी कबूल की थी, कुल हाल कुंअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, मायारानी, दारोगा, कमलिनी, दिग्विजयसिंह और राजा गोपालसिंह वगैरह का बयान किया मगर अपने और जैपाल सिंह के मामले में कुछ घटा-बढ़ा कर कहा। बलभद्रसिंह ने बड़े गौर और ताज्जुब से सब बातें सुनीं और भूतनाथ की खैरख्वाही तथा मर्दानगी की बड़ी तारीफ की। थोड़ी देर तक और बातचीत होती रही। इसके बाद दोनों आदमी घोड़ों पर सवार हो चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए और पहर भर के वाद उस तिलिस्म के पास पहुँचे जो चुनारगढ़ से थोड़ी दूर पर था और जिसे राजा वीरेन्द्रसिंह ने फतह किया (तोड़ा) था।
काशी से चुनारगढ़ बहुत दूर न होने पर भी इन दोनों को वहाँ पहुँचने में देर हो गई। एक तो इसलिए कि दुश्मनों के डर से सदर राह छोड़ भूतनाथ चक्कर देता हआ गया था। दूसरे रास्ते में ये दोनों बहुत देर तक अटके रहे। तीसरे कमजोरी के सबब से बलभद्रसिंह घोड़े को तेज चला भी नहीं सकते थे।
पाठक, इस तिलिस्मी खंडहर की अवस्था आज दिन वैसी नहीं है जैसी आपने पहले देखी जब राजा वीरेन्द्रसिंह ने इस तिलिस्म को तोड़ा था। आज इसके चारों तरफ राजा सुरेन्द्रसिंह की आज्ञानुसार बहुत-बड़ी इमारत बन गई है और अभी तक बन रही है। इस इमारत को जीतसिंह ने अपने ढंग का बनवाया था। इसमें बड़े-बड़े तहखाने, सुरंग और गुप्त कोठरियाँ, जिनके दरवाजों का पता लगाना कठिन ही नहीं बल्कि असम्भव था, बनकर तैयार हुई हैं और अच्छे-अच्छे कमरे, सहन, बालाखाने इत्यादि जीतसिंह की बुद्धिमानी का नमूना दिखा रहे हैं। बीच में एक बहुत-बड़ा रमना छूटा हुआ है जिसके बीचोंबीच में तो वह खंडहर है और उसके चारों तरफ बाग लग रहा है। खंडहर की टूटी हुई इमारत की भी मरम्मत हो चुकी है और अब वह खंडहर नहीं मालूम होता। भीतर की इमारत का का काम बिल्कुल खत्म हो चुका है, केवल बाहरी हिस्से में कुछ काम लगा हुआ है वह भी दस-पन्द्रह दिन से ज्यादे का काम नहीं है। जिस समय बलभद्रसिंह को लिए भूतनाथ वहाँ पहुँचा, उस समय जीत सिंह भी वहाँ मौजूद थे और पन्नालाल, रामनारायण और बद्रीनाथ को साथ लिए हुए फाटक के वाहर टहल रहे थे। पन्नालाल, रामनारायण और पण्डित बद्रीनाथ तो भूतनाथ को बखूबी पहचानते थे, हाँ जीतसिंह ने शायद उसे नहीं देखा था मगर तेजसिंह ने भूतनाथ की तस्वीर अपने हाथ से तैयार करके जीतसिंह और सुरेन्द्रसिंह के पास भेजी थी और उसकी विचित्र घटना का समाचार भी लिखा था।
भूतनाथ को दूर से आते हुए देखकर पन्नालाल ने जीतसिंह से कहा, "देखिए, भूतनाथ चला आ रहा है।"
जीतसिंह--(गौर से भूतनाथ को देखकर) मगर यह दूसरा आदमी उसके साथ कौन है?
पन्नालाल--मैं इस दूसरे को तो नहीं पहचानता।
जीतसिंह--(बद्रीनाथ से) तुम पहचानते हो?
इतने में भूतनाथ और बलभद्रसिंह भी वहाँ पहँच गये। भूतनाथ ने घोड़े पर से उतरकर जीतसिंह को सलाम किया क्योंकि वह जीतसिंह को बखूबी पहचानता था, इसक बाद धीरे से बलभद्रसिंह को भी घोड़े से नीचे उतारा और जीतसिंह की तरफ इशारा करके कहा, "यह तेजसिंह के पिता जीतसिंह हैं।" और दूसरे ऐयारों का भी नाम बताया। बलभद्र सिंह का भी परिचय सभी को देकर भूतनाथ ने जीतसिंह से कहा, "यही बलमसिंह हैं जिनका पता लगाने का बोझ मुझ पर डाला गया था। ईश्वर ने मेरी जन रख ली और मेरे हाथों इन्हें कैद से छुड़ा दिया ! आप तो सब हाल सुन ही चुके होंगे?"
जीतसिंह--हाँ, मुझे सब हाल मालूम है, तुम्हारे मुकदमे ने तो हम लोगों का दिल अपनी तरफ ऐसा खींच लिया कि दिन-रात उसी का ध्यान बना रहता है, मगर तुम यकायक इस तरफ कैसे आ निकले और इन्हें कहाँ पाया?
भतनाथ--मैं इन्हें काशीपुरी से छुड़ाकर लिए आ रहा है, दुश्मनों के खौफ से दक्खिन दबता हुआ चक्कर देकर आना पड़ा इसीसे अब यहाँ पहुँचने की नौबत आई, नहीं व तक कब का चुनार पहुँच गया होता। राजा वीरेन्द्रसिंह की सवारी चुनार की नाम रवाना हो गई थी इसलिए मैं भी इन्हें लेकर सीधे चुनार ही आया।
जीतसिंह--बहुत अच्छा किया कि यहाँ चले आये। कल राजा वीरेन्द्रसिंह भी यहाँ पहँच जायँगे और उनका डेरा भी इसी मकान में पड़ेगा। किशोरी, कामिनी और कमला वाला हृदय-विदारक समाचार तो तुमने सुना ही होगा?
भूतनाथ--(चौंककर) क्या-क्या? मुझे कुछ भी नहीं मालूम!
जीतसिंह--(कुछ सोचकर) अच्छा, आप लोग जरा आराम कर लीजिये तो हाल कहेंगे क्योंकि बलभद्रसिंह कैद की मुसीबत उठाने के कारण बहुत सुस्त और कमजोर हो रहे हैं। (पन्नालाल की तरफ देखकर) पूरब वाले नम्बर दो के कमरे में इन लोगों को डेरा दिलवाओ और हर तरह के आराम का बन्दोबस्त करो, इनकी खातिरदारी और हिफाजत तुम्हारे ऊपर है।
पन्नालाल--जो आज्ञा।
हमारे ऐयारों को इस बात की उत्कण्ठा बहुत ही बढ़ी-चढ़ी थी कि किसी तरह भूतनाथ के मुकदमे का फैसला हो और उसकी विचित्र घटना का हाल जानने में आये क्योंकि इस उपन्यास भर में जैसा भूतनाथ का अद्भुत रहस्य हैं वैसा और किसी पात्र का नहीं है। यही कारण था कि उनको इस बात की बहुत बड़ी खुशी हुई कि भूतनाथ असली बलभद्रसिंह को छुड़ाकर ले आया और कल राजा वीरेन्द्रसिंह के यहाँ आ पहुंचने पर इसका विचित्र हाल भी मालूम हो जायगा।