चन्द्रकांता सन्तति 3/9.7
ऐयारी भाषा की चिट्ठी को पढ़ने और कमलिनी के ढाढ़स दिलाने पर कुँवर इन्द्रजीतसिंह की दिलजमई तो हो गई परन्तु 'टेप' का परिचय पाने के लिए वे बेचैन हो हो रहे थे अस्तु उससे मिलने की आशा में दरवाजे की तरफ ध्यान लगाकर थोड़ी देर तक खड़े हो गए। यकायक उस मकान का दरवाजा खुला और धनपत की कलाई पकड़े 'टेप' महाशय अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए आते दिखाई दिये। दरवाजे के बाहर निकलते ही 'टेप' ने अपने चेहरे पर से नकाब हटा दी, सूरत देखते ही कुँअर इन्द्रजीतसिंह हँस पड़े और लपक के उनकी कलाई पकड़ कर बोले, "अहा, यह किसे आशा थी कि यहाँ पर राजा गोपालसिंह से मुलाकात होगी? (कमलिनी की तरफ देख कर) तो क्या इन्हीं ने अपना नाम 'टेप' रक्खा है?"
कमलिनी-जी हाँ।। इन्द्रजीतसिंह-(गोपालसिंह से) क्या आनन्दसिंह इसी मकान के अन्दर है?
गोपालसिंह-जी हाँ, आप मकान के अन्दर चलिये और उनसे मिलिये।
इन्द्रजीतसिंह-एक औरत के रोने की आवाज हम लोगों ने सुनी थी, शायद वह भी इसी मकान के अन्दर हो।
गोपालसिंह--जी नहीं, वह कम्बख्त औरत (धनपत की तरफ इशारा कर) यही है! न मालूम ईश्वर ने इस हरामजादे को कैसा मर्द बनाया है कि आवाज से भी कोई इसे मर्द नहीं समझ सकता!
कमलिनी-इसे आपने कब पकड़ा?
गोपालसिंह-यह कल से मेरे कब्जे में है और मैं कल ही इसे इस मकान में कैद कर गया था, बल्कि आज छुड़ाने के लिए आया था।
इन्द्रजीतसिंह-तो आप कल भी इस मकान में आ चुके हैं! मगर मुझसे मिलने के लिए शायद कसम खा चुके थे!
गोपालसिंह-(हँसकर) नहीं-नहीं, मेरा वह समय बड़ा ही अनमोल था, एकएक पल की देर बुरी मालूम होती थी; इसी से आपसे मिलने के लिए मैं रुक न सका। इसका खुलासा हाल आप सुनेंगे तो बहुत ही हँसेंगे और खुश होंगे। मगर पहले मकान के अन्दर चलकर आनन्दसिंह से मिल लीजिए, तब यह अनूठा किस्सा आपसे कहूँगा।
इन्द्रजीतसिंह-क्या आनन्द यहाँ तक नहीं आ सकता?
गोपालसिंह-नहीं, वे यहाँ नहीं आ सकते। वे तिलिस्मी कारखाने में फंस चके हैं, इसलिए छूटने का उद्योग नहीं कर सकते, बल्कि वे तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं और उसे तोड़कर निकल आ सकते हैं। मगर अब उनसे मिलने में देर न कीजिए।
इन्द्रजीतसिंह--आप जिस काम के लिए गये थे वह हुआ?
गोपालसिंह-वह काम भी बखूबी हो गया, उसका खुलासा हाल थोड़ी देर में आपसे कहूँगा।
कमलिनी-भूतनाथ को आपने कहाँ छोड़ा?
गोपालसिंह-वह भी आता ही होगा। वास्तव में वह बड़ा ही चालान धूर्त ऐयार है। उसने जो काम किए हैं तुम सुनोगी तो हँसते-हँसते लोटन काबूतर बन जाओगी। (इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर) आप आनन्दसिंह के फंसने से दु:खी क्योंकि आप दोनों भाइयों के लिए इस तिलिस्म का तोड़ना जरूरी हो चुका है।
इन्द्रजीतसिंह-ठीक है, मगर रिक्तगन्थ का पूरा-पूरा मतलब उसकी सारी नहीं आया है और इसके तिलिस्म के काम में उसे तकलीफ होना सम्भव है। उसमें दस बारह शब्द ऐसे हैं, जिनका अर्थ नहीं लगता और उन शब्दों का अर्थ जाने बिना बहुत-सी बातों का मतलब समझ में नहीं आता।
गोपालसिंह-(हँसकर) आपका यह कहना ठीक है, मगर मैं एक बात आपको ऐसी बताता हूँ कि जिससे आप हर एक तिलिस्मी ग्रन्थ को अच्छी तरह पढ़ और समझ लेंगे और उनमें चाहे कैसे भी टेढ़े शब्द क्यों न हों, मगर मतलब समझने में कठिनता न होगी।
इन्द्रजीतसिंह--वह क्या?
गोपालसिंह केवल एक छोटी-सी बात है।
इन्द्रजीतसिंह-मगर उसके बताने में आप हुज्जत बड़ी कर रहे हैं।
गोपालसिंह ने झुककर इन्द्रजीतसिंह के कान में कुछ कहा, जिसे सुनते ही कुमार हँस पड़े और बोले, "बेशक, बड़ी चतुराई की गई है! जरा-से फेर में मतलब कैसा बिगड़ जाता है! आपका कहना बहुत ठीक है। अब कोई शब्द ऐसा नहीं निकलता जिसका अर्थ मैं न लगा सकूँ! क्यों न हो, आखिर आप तिलिस्म के राजा जो ठहरे।"
कमलिनी से इस समय चुप न रहा गया, वह ताने के तौर पर सिर नीचा करके बोली, "बेशक, राजा ही ठहरे, इसी से तो बेमुरौवती कूट-कूटकर भरी है!" इसके जवाब में गोपालसिंह ने कहा, "नहीं-नहीं, ऐसा मत खयाल करो! तुम्हारा उदास चेहरा कहे देता है कि तुम्हें इस बात का रंज है कि हमने जो कुछ कुमार के कान में कहा, उससे तुमको जानबूझ के वंचित रखा, मगर नहीं (धनपत की तरफ इशारा करके) इस कम्बख्त के खयाल से मैंने ऐसा किया। आखिर वह भेद तुमसे छिपा न रहेगा।"
इस पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने एक विचित्र निगाह कमलिनी पर डाली, जिसे देखते ही वह हँस पड़ी और मकान के अन्दर जाने के लिए दरवाजे की तरफ बढ़ी। कुँवर इन्द्रजीतसिंह, कमलिनी, लाडिली और उनके साथ ही धनपत का हाथ पकड़ हुए राजा गोपालसिंह उस मकान के अन्दर चले।
इस मकान की हालत हम ऊपर लिख आये हैं। इसलिए पुनः नहीं लिखते। गोपालसिंह सभी को साथ लिए हुए उस कोठरी में पहँचे, जिसमें कुँवर आनन्दसिंह फंसे हुए थे, मगर इस समय वहाँ की अवस्था वैसी न थी जैसी कि हम ऊपर लिख आये हैं, अर्थात् वह तिलिस्मी सन्दूक, जिसमें आनन्दसिंह का हाथ फंस गया था, वहाँ न था और न आनन्दसिंह वहाँ थे। हाँ, उस कोठरी की जमीन का वह हिस्सा जिस पर सन्दूक था, जमीन के अन्दर धंस गया था और वहाँ एक कुएँ की शक्ल दिखाई दे रही थी। यह देख राजा गोपालसिंह ताज्जुब में आ गये और उस कुएँ की तरफ देखकर कुछ सोचने लगे, आखिर कुँवर इन्द्रजीतसिंह ने उन्हें टोका और चुप रहने का सबब पूछा।
इन्द्रजीतसिंह-आप अब क्या सोच रहे हैं। शायद आनन्दसिंह को आपने इसी कोठरी में छोड़ा था?
गोपालसिंह-जी हाँ, इस जगह जहाँ आप कुएँ की तरह का गड्ढा देखते हैं, एक सन्दूक था और उसमें एक छेद था, उसी छेद के अन्दर हाथ डालकर कुमार ने अपने को फंसा लिया था। मालूम होता है कि अब वे तिलिस्म के अन्दर चले गये। इसी खयाल से मैंने आपसे कहा था कि कुँवर आनन्दसिंह अपने को छुड़ा नहीं सकते, बल्कि तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं।
इन्द्रजीतसिंह-अफसोस! खैर, मर्जी परमेश्वर की! इस समय मेरा दिमाग परेशान हो रहा है। धनपत को मैं इस अवस्था में क्यों देख रहा हूँ? यकायक आपका इस बाग में आना कैसे हुआ? आप मुझसे मिले बिना सीधे इस मकान में क्यों आये? आनन्द को इस मकान में आपने ठहरने क्यों दिया अथवा उसे बचाने का उद्योग क्यों न किया? इत्यादि बहुत-सी बातें जानने के लिए मैं इस समय परेशान हो रहा है, मगर इसके पहले मैं इस कुएँ की अवस्था जानने का उद्योग करूँगा। (कमलिनी की तरफ देखकर) जरा तिलिस्मी खंजर मुझे दो, उसके जरिये से इस कुएँ में उजाला करके मैं देखूँगा कि इसके अन्दर क्या है?
कमलिनी-(तिलिस्मी खंजर और अंगूठी कुमार के सामने रखकर) लीजिए, शायद इससे कुछ काम चले!
कुँवर इन्द्रजीतसिंह ने अँगूठी पहनकर खंजर हाथ में लिया और धीरे-धीरे उस गड्ढे के किनारे गये जो ठीक कुएँ की तरह का हो रहा था। खंजर वाला हाथ कुमार ने कुएं के अन्दर डाला और उसका कब्जा दबाकर उजाला करने के बाद झाँककर देखा कि उसके अन्दर क्या है। न मालूम कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने कुएँ के अन्दर क्या देखा कि वे यकायक बिना किसी से कुछ कहे तिलिस्मी खंजर हाथ में लिए उस कुएँ के अन्दर कूद पड़े। यह देखते ही कमलिनी और लाड़िली परेशान हो गयीं और राजा गोपालसिंह को भी बहुत ताज्जुब हुआ। इन्द्रजीतसिंह की तरह राजा गोपालसिंह ने भी अपना तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर कुएँ अन्दर किया और उसका कब्जा दबा रोशनी करने के बाद झाँककर देखा कि क्या बात है मगर कुछ दिखाई न पड़ा।
कमलिनी-कुछ मालूम हुआ कि इस गड्ढे में क्या है?
गोपालसिंह--कुछ भी मालूम नहीं होता, न जाने क्या देखकर कुमार इसमें कूद गये।
कमलिनी-खैर, आप यहाँ से हटिये और सोचिये कि अब क्या करना होगा?
गोपालसिंह-यद्यिप मैं जानता हूँ कि यह तिलिस्म कुमार के ही हाथ से टूटेगा, परन्तु इस रीति से दोनों कुमारों का तिलिस्म के अन्दर जाना ठीक न हुआ। देखना चाहिए, ईश्वर क्या करता है? चलो, अब यहाँ रहना उचित नहीं है और न कुमार से मुलाकात होने की ही कोई आशा है।
कमलिनी-(अफसोस के साथ) चलिये।
गोपालसिंह-(बाहर की तरफ चलते हुए) अफसोस! कुमार से कई बातें कहने की आवश्यकता थी, मगर लाचार!
कमलिनी-(धनपत की तरफ इशारा करके) इसे आप कहाँ-कहाँ लिए फिरेंगे और यहाँ क्यों लाए थे?
गोपालसिंह-इसे मैं कल गिरफ्तार करके इसी मकान के अन्दर छोड़ गया था। मुझे आशा थी कि यह स्वयं इस मकान से बाहर न निकल सकेगा, मगर आज इस मकान में आकर देखा तो बड़ा ही आश्चर्य हुआ। इस मकान के तीन दरवाजे यह खोल चुका था और चौथा दरवाजा खोलना ही चाहता था। न मालूम इस मकान का भेद इसे क्योंकर मालूम हुआ।
कमलिनी-इसे आपने किस रीति से गिरफ्तार किया?
गोपालसिंह-पहले इस कम्बख्त का इन्तजाम कर लूं तो इसका अनूठा किस्सा कहूँ।
कमलिनी और लाडिली के साथ धनपत को पकड़े हुए राजा गोपालसिंह उस मकान के बाहर आये और देवमन्दिर की तरफ रवाना होकर उसके पश्चिम की तरफ वाले मकान के पास पहुँचे। हम ऊपर लिख आये हैं कि देवमन्दिर के पश्चिम की तरफ वाले मकान के पास दरवाजे पर हड्डियों का एक ढेर था और उसके बीचोंबीच में लोहे की एक जंजीर गड़ी हुई थी, जिसका दूसरा सिरा उसके पास वाले कुएँ के अन्दर गया हुआ था।
धनपत को घसीटते हुए राजा गोपालसिंह उसी कुएँ पर गये और उस हरामजादे स्त्री-रूपधारी मर्द को जबर्दस्ती उसी कुएँ के अन्दर धकेल दिया। इसके साथ ही उस कुएँ के अन्दर से धनपत के चिल्लाने की आवाज आने लगी। परन्तु राजा गोपालसिंह, कमलिनी और लाड़िली ने उस पर कुछ ध्यान न दिया। तीनों आदमी देवमन्दिर में आकर बैठ गये और बातचीत करने लगे।
कमलिनी-हां, अब आप पहले यह कहिये कि भूतनाथ ने क्या किया? मैंने उसे आपके पास भेजा था। इसलिए पूछती हूँ कि उसने अपना काम ईमानदारी से किया या नहीं?
गोपालसिंह-बेशक, भूतनाथ ने अपना काम हद से ज्यादा ईमानदारी के साथ किया। वह जाहिर में मायारानी के साथ ऐसा मिला कि उसे भूतनाथ पर विश्वास हो गया और वह यह समझने लगी कि भूतनाथ इनाम की लालच से मेरा काम उद्योग के साथ करेगा।
कमलिनी–हाँ, उसने मायारानी के साथ मेल पैदा करने का हाल मुझसे कहा था। (मुस्कराकर) अजीब ढंग से उसने मायारानी को धोखा दिया। हमारी तरफ की मामूली सच्ची बातें कहकर उसने अपना काम पूरा-पूरा निकाला, मगर मैं उसके बाद का हाल पूझती हूँ, जब मैंने उसे आपके पास काशी में भेजा था, क्योंकि उसके बाद अभी तक वह मुझसे नहीं मिला।
गोपालसिंह-उसके बाद तो भतनाथ ने दो-तीन काम बडे अनठे किये, जिनका खुलासा हाल मैं तुमसे कहूँगा। लेकिन उन कामों में एक काम सबसे बढ़-चढ़ के हुआ।
कमलिनी-वह क्या?
गोपालसिंह-उसने मायारानी से कहा कि मैं गोपालसिंह को गिरफ्तार करके दारोगा वाले मकान में कैद कर देता हूँ, तुम उसे अपने हाथ से मारकर निश्चिन्त हो जाओ। यह सुनकर मायारानी बहुत ही खुश हुई और भूतनाथ ने भी वह काम बड़ी खुशी के साथ किया। बल्कि इसके इनाम में अजायबघर की ताली मायारानी से ले ली!
कममिनी—क्या अजायबघर की ताली भूतनाथ ने ले ली?
गोपालसिंह―हाँ।
कमलिनी—यह बड़ा काम हुआ और इस काम के लिए मैंने उसे सख्त ताकीद की थी। अब वह ताली किसके पास है?
गोपाससिंह―ताली मेरे पास है, मुझे आशा न थी कि भूतनाथ मुझे देगा, मगर उसने कोई उज्र न किया।
कमलिनी―वह आपसे किसी तरह उज्र नहीं कर सकता, क्योंकि मैंने उसे कसम देकर कह दिया था कि जितना मुझे मानते हो, उतना ही राजा गोपालसिंह को मानना। असल बात तो यह है कि भूतनाथ बड़े काम का आदमी है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह राजा वीरेन्द्रसिंह का गुनहगार है और उसने सजा पाने लायक काम किया है, मगर वह कसूर उससे धोखे में हुआ। इश्क का भूत उसके ऊपर सवार था और उसी ने उससे वह काम कराया, पर वास्तव में उसकी नीयत साफ है और उस कसूर का उसे सख्त रंज है, ऐसी अवस्था में जिस तरह हो, उसका कसूर माफ होना ही चाहिए।
गोपालसिंह―बेशक-बेशक, और उसके बाद तुम्हारी बदौलत उसके हाथ से कई ऐसे काम निकले हैं, जिनके आगे वह कसूर कुछ भी नहीं है।
कमलिनी―अच्छा अब खुलासा कहिए कि भूतनाथ ने आपके मारने के विषय में किस तरह महारानी को धोखा दिया और अजायबघर की ताली क्योंकर ली?
राजा गोपालसिंह के विषय में भूतनाथ ने जिस तरह मायारानी को धोखा दिया था, उसका हाल हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं। इस समय वही हाल राजा गोपालसिंह ने अपने तौर पर कमलिनी से बयान किया। ताज्जुब नहीं कि भूतनाथ के विषय में हमारे पाठकों को धोखा हुआ हो और वे समझ बैठे हों कि भूतनाथ वास्तव में मायारानी से मिल गया, मगर नहीं। उन्हें अब मालूम हुआ होगा कि भूतनाथ ने मायारानी से मिलकर केवल अपना काम साधा और मायारानी को हर तरह से नीचा दिखाया।