चंद्रकांता संतति भाग 3  (1896) 
द्वारा देवकीनंदन खत्री

[ २२३ ] [ २२४ ] देखा और अब क्या करेगा यह जानने के लिए सभी की निगाह उसी तरफ अटक गई।

थोड़ी देर बाद उस छत पर नीचे की तरफ से आती हुई रोशनी दिखाई दी जिससे मालूम हुआ कि उसकी छत इस समय पुनः तोड़ी गयी है और नीचे की कोठरी में और भी कई आदमी हैं। रोशनी दिखाई देने के बाद दो आदमी और निकल आये और तीन आदमी उस छत पर दिखाई देने लगे। अब पूरी तरह निश्चय हो गया कि उस मकान की छस तोड़ी गई है। उन तीनों आदमियों ने बड़े गौर से उस तरफ देखा जहाँ किशोरी, कामिनी इत्यादि खड़ी थीं, मगर कुछ दिखाई न दिया, इसके बाद उन तीनों ने झुककर छत के नीचे से एक भारी गठरी निकाली। उसके बाद नीचे से दो आदमी और निकलकर छत पर आ गये तथा अब वहाँ पांच आदमी दिखाई देने लगे।

कमलिनी ने कमला का हाथ पकड़ के कहा, "बहिन, इन शैतानों की कार्रवाई बेशक देखने और जाँचने योग्य है, ताज्जुब नहीं कि कोई अनूठी बात मालूम हो, अस्तु तू जाकर जल्दी से तेजसिंहजी को इस मामले की खबर कर दे, फिर जो कुछ उनके जी में आयेगा, वह करेंगे।" इतना सुनते ही कमला तेजसिंह की तरफ चली गई और सब फिर उसी तरफ देखने लगीं।

थोड़ी देर तक वे पांचों आदमी बैठकर उस गठरी के साथ न मालम क्या करते रहे, इसके बाद कमन्द के जरिये वह गठरी बाहर की तरफ बाग में उतार दी गई। उसके पीछे वे पांचों आदमी भी बाग में उतर आये और गठरी लिए हुए बाग के बीचोंबीच वाले उस कमरे की तरफ चले गये जिसमें पहले किशोरी रहा करती थी। उसी समय कमला भी लौटकर आ पहुँची और बोली, "तेजसिंहजी को खबर कर दी गयी और वे देवीसिंहजी वगैरह ऐयारों को साथ लेकर किसी गुप्त बाग में गये हैं।"

कमलिनी-मुझे भी वहां जाना उचित है!

किशोरी–क्यों?

कमलिनी-उस मकान के गुप्त भेद की खबर तेजसिंह को नहीं है, कदाचित् कोई आवश्यकता पड़े।

किशोरी-कोई आवश्यकता न पड़ेगी, बस, चुपचाप खड़ी तमाशा देखो।

लक्ष्मीदेवी-इनमें से अगर एक आदमी को भी तेजसिंह पकड़ लेंगे तो सब भेद खुल जायगा।

कमलिनी-हाँ, सो तो है।

कमला—मैं समझती हूँ कि उस मकान के अन्दर और भी कई आदमी होंगे। अगर वे सब गिरफ्तार हो जाते तो बहुत ही अच्छा होता।

कमलिनी-इसी से तो मैं कहती हूँ कि मुझे वहाँ जाने दो। मेरे पास तिलिस्मी खंजर मौजूद है, मैं बहुत कुछ कर गुजरूंगी।

किशोरी- नहीं बहिन, मैं तुम्हें कदापि न जाने दूंगी, मुझे डर लगता है, तुम्हारे बिना मैं यहाँ नहीं रह सकती।

कमलिनी ... खैर, मैं न जाऊँगी। तुम्हारे ही पास रहूँगी।

अब हम बाग के उस हिस्से का हाल लिखते हैं जिसमें वे पांचों आदमी गठरी [ २२५ ] लिए दिखाई दे चुके हैं।

वे पाँचों आदमी गठरी लिए हुए बाग के बीचोंबीच वाले उस मकान में पहुंचे जिसमें पहले किशोरी थी। जब उस मकान के अन्दर पहुंच गये तो उन लोगों ने चकमक से आग झाड़ मशाल जलाई और गठरी को बँधी-बंधाई जमीन पर छोड़कर आपस में यों बातचीत करने लगे

एक-अच्छा, अब क्या करना चाहिए?

बूसरा-गठरी को इसी जगह छोड़कर राजमहल में पहुँचना और अपना काम करना चाहिए।

तीसरा-नहीं-नहीं, पहले इस गठरी को ऐसी जगह रखना या पहुँचाना चाहिए जिससे सवेरा होते ही किसी-न-किसी की निगाह इस पर अवश्य पड़े।

चौथा-बाग के इस हिस्से में जब कोई रहता ही नहीं, फिर किसी की निगाह इस पर क्यों पड़ने लगी?

पांचवां-अगर ऐसा है तो इसे भी अपने साथ ही राजमहल में ले चलना।

पहला- अजब आदमी हो, राजमहल में अपना जाना तो कठिन हो रहा है तुम कहते हो, गठरी भी लेते चलो।

दूसरा-फिर इस बाग में इस गठरी का रखना बेकार ही है जहां कोई आदमी रहता ही नहीं!

चौथा-बस, अब इसी हुज्जत में रात बिता दो! अभी पहले अपना असल काम तो कर लो जिसके लिए आये हो, चलो, पहले तहखाना खोलो।

दूसरासरा-ठीक है, मैं भी यही उचित समझता हूँ।

इतना कहकर वह खड़ा हो गया और अपने साथियों को भी उठने का इशारा किया।