चंद्रकांता संतति भाग 3
देवकीनंदन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ १९४ से – २०३ तक

 

2

सुबह का सुहावना समय है। पहले घण्टे की धूप ने ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की टहनियों, मकानों के कंगूरों और पहाड़ों की चोटियों पर सुनहली चादर बिछा दी है। मुसाफिर लोग दो-तीन कोस की मंजिल मार चुके हैं। तारासिंह और श्यामसुन्दरसिंह अपने साथ भगवनिया और भूतनाथ को लिए हुए तालाब वाले तिलिस्मी मकान की तरफ जा रहे हैं। उनके दोनों साथी अर्थात् भगवनिया और भूतनाथ अपने-अपने गम में सिर नीचा किए चुपचाप पीछे-पीछे जा रहे हैं। भूतनाथ के चेहरे पर उदासी और भगवनिया के चेहरे पर मुर्दनी छाई हुई है। कदाचित भूतनाथ के चेहरे पर भी मुर्दनी छाई हुई होती या वह इन लोगों में न दिखाई देता यदि उसे इस बात की खबर होती कि तारा की किस्मत वाली गठरी तेजसिंह के हाथ लग गई है और तारा तथा बलभद्रसिंह का भेद खुल गया है। वह तो यही सोचे हुए था कि तारा अपने बाप को नहीं पहचानेगी, बलभद्रसिंह अपने को छिपावेगा और देवीसिंह मेरे भेदों को गुप्त रखने का उद्योग करेगा। बस इतनी ही बात थी जिससे वह एकदम हताश नहीं हुआ था और इन लोगों के साथ कमलिनी से मिलने के लिए चुपचाप सिर झुकाये हुए कुछ सोचता-विचारता जा रहा था। वह अपनी धुन में ऐसा डूबा हुआ था कि उसे अपने चारों तरफ की कुछ भी खबर न थी और उसकी वह धुन उस समय टूटी जब तारासिंह ने कहा, "वह देखो, तालाब वाला तिलिस्मी मकान दिखाई देने लगा। कई आदमी भी नजर पड़ते हैं। मालम पड़ता है कि उसमें कमलिनी का डेरा आ गया। अगर मेरी निगाह धोखा नहीं देती तो मैं कह सकता हूँ कि यह चबूतरे के दक्षिणी कोने पर खड़े होकर जो इसी तरफ देख रहे हैं, हमारे चाचा तेजसिंह हैं!"

तेजसिंह के नाम ने भूतनाथ को चौंका दिया और उसके दिल में एक नया शक पैदा हुआ। इसके साथ ही उसके चेहरे की रंगत ने पुनः पल्टा खाया अर्थात् जर्दी के बाद सफेदी ने अपना कुदरती रंग दिखाया और भूतनाथ का कांपता हुआ पैर धीरे-धीरे आगे की तरफ बढ़ने लगा। जब ये लोग मकान के पास पहुंच गये तो भूतनाथ ने देखा कि भैरोंसिंह और देवीसिंह भी अन्दर से निकल आये हैं और नफरत की निगाह से उसे देख रहे हैं। जब ये लोग तालाब के किनारे पहुंचे तो भगवनिया ने देखा कि तालाब की मिट्टी न मालूम कहाँ गायब हो गयी है, तालाब पूरा स्वच्छ है, और उसमें मोती की तरह साफ जल भरा हुआ दिखाई देता है। वह बड़े आश्चर्य से तालाब के जल और उसके बीच वाले मकान को देखने लगी।

भैरोंसिंह उन लोगों को ठहरने का इशारा करके मकान के अन्दर गया और थोड़ी देर बाद बाहर निकला, इसके बाद डोंगी खोलकर किनारे पर ले गया और चारों आदमियों को सवार करके मकान के अन्दर ले आया।

श्यामसुन्दरसिंह और भगवानी को विश्वास था कि यह मकान हर तरह के सामान से खाली होगा, यहां तक कि चारपाई, बिछावन और पानी पीने के लिए लोटागिलास तक न होगा, मगर नहीं, इस समय यहाँ जो कुछ सामान उन्होंने देखा, वह बनिस्बत पहले के बेशकीमत और ज्यादा था। इसका कारण यह था कि दुश्मन लोग इस मकान में से वही चीजें ले गये थे जिन्हें वे लोग देख और पा सकते थे, मगर इस मकान के तरखानों और गुप्त कोठरियों का हाल उन्हें मालूम न था जिनमें एक से एक बढ़ के उम्दा चीजें तथा बेशकीमत असबाब मकान सजाने के लिए भरा हुआ था और जिन्हें इस समय कमलिनी ने निकालकर मकान को पहले से ज्यादा खूबसूरती के साथ सजा डाला था और भागे हुए आदमियों में से दो सिपाही और दो नौकर भी आ गये थे जो भाग जाने के बाद भी छिपे-छिपे इस मकान की खोज-खबर लिया करते थे।

तारासिंह, श्यामसुन्दरसिंह, भगवनिया और भूतनाथ उस कमरे में पहंचाए गए जिसमें किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाड़िली और बलभद्रसिंह वगैरह बैठे हुए थे और किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी सुन्दर मसहरियों पर लेटी हुई थीं।

बलभद्रसिंह को असली सूरत में देखते ही भूतनाथ चौंका और घबड़ाकर दो कदम पीछे हटा, मगर भैरोंसिंह ने जो उसके पीछे था, उसे रोक लिया। बलभद्रसिंह की असली सूरत देखकर भूतनाथ को विश्वास हो गया कि उसका सारा भेद खुल गया और इस बारे में उस समय तो कुछ भी शक न रहा जब उस कागज के मुठे और पीतल की सन्दूकची को भी कमलिनी के सामने देखा जो भूतनाथ की विचित्र जीवनी का पता दे रहे थे, जिस समय भूतनाथ की निगाह उनके चेहरे पर गौर के साथ पड़ी जिनसे रंज और नफरत साफ जाहिर होती थी उस समय उसके दिल में एक हौल-सा पैदा हो गया और उसकी सूरत देखने वालों को ऐसा मालूम हुआ कि वह थोड़ी ही देर में पागल हो जायगा क्योंकि उसके हवास में फर्क पड़ गया था और वह बड़ी ही बेचैनी के साथ चारों तरफ देखने लगा था। बलभद्रसिंह-भूतनाथ, मैं अफसोस करता हूँ कि तुम्हारे भेदों को कुछ दिन तक और छिपा रखने का मौका मुझे न मिला!

देवीसिंह-जिस गठरी में तारा की किस्मत बन्द थी और जिसे तुम अपने सामने देख रहे हो, वह वास्तव में तेजसिंह के कब्जे में आ गई थी।

बलभद्रसिंह-जिस नकाबपोश ने तुम्हारे सामने मुझे पराजित किया था, वह तेजसिंह थे और इस समय तुम्हारी बगल में खड़े हैं। हैं-हैं! देखो, सम्हालो! पागल मत बनो।

भूतनाथ-(लड़खड़ाई हुई आवाज से) ओह! उस औरत को धोखा हुआ! उसने नकाबपोश को वास्तव में नहीं पहचाना!

भूतनाथ पागलों की तरह हाथ-मुँह फैला और आँखें फाड़-फाड़कर चारों तरफ देखने लगा और फिर चक्कर खाकर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।

तेजसिंह-बुरे कामों का यही नतीजा निकलता है।

देवीसिंह--इससे कोई पूछे कि ऐसे-ऐसे खोटे कर्म करके दुनिया में तूने क्या मजा पाया? मैं समझता हूँ, अब या तो यह अपनी जान दे देगा या यहाँ से भाग जाना पसन्द करेगा।

बलभद्रसिंह-हाँ, यदि इसकी एक बहुत ही प्यारी चीज मेरे कब्जे में न होती तो बेशक यह अपनी जान दे देता या भाग ही जाता। मगर अब यह ऐसा नहीं कर सकता है।

कमलिनी-वह कौन-सी चीज है?

बलभद्रसिंह-जल्दी न करो, उसका हाल भी मालूम हो जायगा।

तेजसिंह-खैर, आप यह तो बताइए कि इसके साथ क्या सलूक करना चाहिए?

बलभद्रसिंह-कुछ नहीं, इसे इसी तरह उठाकर तालाब के बाहर रख आओ और छोड़ दो, जहाँ जी चाहे चला जाय।

कमलिनी-(तेजसिंह से) क्या आपको मालूम है कि इसका लड़का नानक आज कल कहाँ है?

तेजसिंह-मुझे नहीं मालूम।

किशोरी-इसका केवल एक ही लड़ का है?

तेजसिंह-क्या तुम्हें अभी तक किसी ने नहीं कहा कि भूतनाथ की पहली स्त्री से एक लड़की भी है जिसका नाम कमला है और जो तुम्हारी प्यारी सखी है? हाय, मैं। अफसोस करता हूं कि इस दुष्ट का हाल सुनकर उस बेचारी को बड़ा ही दुःख होगा। मैं सच कहता हूँ कि कमला ऐसी लायक लड़की बहुत कम देखने-सुनने में आवेगी।

इतना सुनते ही भैरोंसिंह के चेहरे पर खुशी की निशानी दिखाई देने लगी जिसे। उसने बड़ी होशियारी से तुरन्त दबा दिया और किशोरी सिर नीचा करके न मालूम क्या सोचने लगी।

तेजसिंह-(बलभद्रसिंह से) अच्छा, तो यह निश्चय हो गया कि इसे तालाब के बाहर छोड़ आया जाय?

च० स०-3-12

Sh बलभद्रसिंह-हां, मेरी राय में तो ऐसा ही होना चाहिए।

कमलिनी-क्या इसे कुछ भी सजा न दी जायगी? इसका तो इसी समय सिर उतार लेना चाहिए।

बलभद्रसिंह—(ताज्जुब से कमलिनी की तरफ देख के) तुम ऐसा कहती हो? मुझे आश्चर्य होता है। शायद गम ने तुम्हारी अक्ल में फर्क डाल दिया है। इसे मार डालने से क्या हमारा बदला पूरा हो जायगा?

कमलिनी ने शरमा कर सिर नीचा कर लिया और तेजसिंह का इशारा पाकर भैरोंसिंह और देवीसिंह ने भूतनाथ को तालाब के बाहर पहुंचा दिया। तारासिंह और श्यामसुन्दरसिंह आश्चर्य से सभी का मुँह देख रहे थे कि यह क्या मामला है, क्योंकि इधर जो कुछ गुजरा था उसका हाल उन्हें भी मालूम न था।

ऊपर लिखे कामों से छुट्टी पाकर तेजसिंह ने तारासिंह को एक किनारे ले जाकर वह हाल सुनाया जो इधर गुजर चुका था और फिर अपने ठिकाने आ बैठे। इसके बाद कमलिनी ने बलभद्रसिंह से कहा-'मेरा जी इस बात को जानने के लिए बेचैन हो रहा है कि इतने दिनों तक आप कहाँ रहे, किस स्थान में रहे और क्या करते रहे? आप पर क्या-क्या मुसीबतें आयीं और हम लोगों का हाल जानकर भी आपने इतने दिनों तक हम लोगों से मुलाकात क्यों नहीं की? क्या आप नहीं जानते थे कि हमारी लड़कियाँ कहाँ और किस मुसीबत में पड़ी हुई हैं?"

बलभद्रसिंह- इन सब बातों का जवाब मिल जायगा, जरा सब्र करो और घबराओ मत। पहले उन चिट्ठियों को सुन जाओ, फिर इसके बाद जो कुछ तुम्हें पूछना हो पूछना और मुझे भी जो कुछ तुम्हारे विषय में मालूम नहीं है, पूछूँगा। (तेजसिंह से) यदि इस समय कोई आवश्यक काम न हो तो आप उन चिट्ठियों को पढ़िए या पढ़ने के लिए किसी को दीजिए!

तेजसिंह-नहीं-नहीं, (कागज के मुठ्ठे की तरफ देख के) इन चिट्ठियों को मैं स्वयं पढूंगा और इस समय हम लोग सब कामों से निश्चिन्त भी हैं। हाँ, तारासिंह को यदि कुछ

तारा-नहीं, मुझे कोई काम नहीं है। केवल भगवनिया के विषय में पूछना है कि इसके साथ क्या सलूक किया जाय?

तेजसिंह-इसका जवाब कमलिनी के सिवाय और कोई नहीं दे सकता। यह कह उन्होंने कमलिनी की तरफ देखा।

कमलिनी-(भैरोंसिंह से) आपको यहाँ का सब हाल मालूम हो चुका है। इसलिए आप ही तहखाने तक जाने की तकलीफ उठाइये।

"बहुत अच्छा" कहकर भैरोंसिंह उठ खड़ा हुआ और भगवानी की कलाई पकड़े हुए बाहर चला गया। कमलिनी ने श्यामसुन्दरसिंह से कहा, "अब तुम्हें भी यहाँ न ठहरना चाहिए, बस तुरन्त चले जाओ और हमारे आदमियों को जो दुश्मन के सताने से इधर-उधर भाग गये हैं, जहाँ तक हो सके ढूंढो तथा हमारे यहाँ आ जाने की खुशखबरी सुनाओ। बस, चले ही जाओ, यहां अटकने की कोई जरूरत नहीं।" श्यामसुन्दरसिंह चाहता था कि वह यहाँ रहे और उस घटनाओं का हाल पूरापूरा जाने जो बलभद्रसिंह और भूतनाथ से सम्बन्ध रखती हैं, क्योंकि बलभद्र सिंह को देख के भूतनाथ की जो हालत हुई थी उसे वह अपनी आँखों से देख चुका था और उस का सबब जानने के लिए बहुत ही बेचैन भी था-मगर कमलिनी की आज्ञा सुनकर उसका अथाह उत्साह टूट गया और वहाँ से चले जाने के लिए मजबूर हुआ। वह अपने दिल में समझे हुए था कि उसने भगवानी को पकड़ के बड़ा काम किया है, इसके बदले में कमलिनी उससे खुश होगी और उसकी तारीफ करके उसका दर्जा बढ़ावेगी, मगर वे बातें तो दूर ही रहीं कमलिनी ने उसे वहाँ से चले जाने के लिए कहा। इस बात का श्यामसुन्दरसिंह को बहुत रंज हुआ, मगर क्या कर सकता था। लाचार मुँह बना कर पीछे की तरफ मुड़ा, इसके साथ ही देवीसिंह भी कमलिनी का इशारा पाकर उठे और श्यामसुन्दरसिंह को तालाब के बाहर पहुँचाने को चले।

जब श्यामसुन्दरसिंह को पहुंचाने के लिए देवीसिंह तालाब के बाहर गए तो उन्होंने देखा कि भूतनाथ जिसे बेहोशी की अवस्था में तालाब के बाहर पहुँचाया गया था, अब होश में आकर तालाब के ऊपर वाली सीढ़ी पर चुपचाप बैठा हुआ है। देवीसिंह को इस पार आते हुए देख कर वह उठा और पास आकर देवीसिंह की कलाई पकड़ कर बोला, "मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ उसे सुन लो तब यहाँ से जाना।"

देवीसिंह ने कहा, "बहुत अच्छा कहो मैं सुनने के लिए तैयार हूँ। (श्यामसुन्दर सिंह से) तुम क्यों खड़े हो गये? जाओ, जो काम तुम्हारे सुपुर्द हुआ है उसे करो।" देवीसिंह की बात सुन कर श्यामसुन्दरसिंह को और भी रंज हुआ और वह मुंह बना कर चला गया।

देवीसिंह-(भूतनाथ से) अब जो कुछ तुम्हें कहना हो कहो।

भूतनाथ-पहले आप यह बताइये कि मुझे इस बेइज्जती के साथ बंगले के बाहर क्यों निकाल दिया?

देवीसिंह- क्या तुम स्वयम् इस बात को नहीं सोच सके?

भूतनाथ-मैं क्योंकर समझ सकता था? हाँ इतना मैंने अवश्य देखा कि सभी की जो निगाह मुझ पर पड़ रही थी वह रंज और घृणा से खाली न थी, मगर कुछ सबब मालूम न हुआ।

देवीसिंह-क्या तुमने बलभद्रसिंह को नहीं देखा? क्या उस गठरी पर तुम्हारी निगाह नहीं गई जो तेजसिंह के सामने रक्खी हुई थी? और क्या तुम नहीं जानते कि उस कागज के मुट्ठ में क्या लिखा हुआ है?

भूतनाथ-तब नहीं तो अब मैं इतना समझ गया कि उस आदमी ने, जो अपने को बलभद्रसिंह बताता है, मेरी चुगली की होगी और मेरे झूठे दोष दिखला कर मुझ पर बदनामी का धब्बा लगाया होगा मगर मैं आपको होशियार कर देता हूँ कि वह वास्तव में बलभद्रसिंह नहीं है बल्कि पूरा जालिया और धूर्त है, निःसन्देह वह आप लोगों को धोखा देगा। यदि मेरी बातों का विश्वास न हो तो मैं इस बात के लिए तैयार हूँ कि आप लोगों में से कोई एक आदमी मेरे साथ चले, मैं असली बलभद्रसिह को जो वास्तव में लक्ष्मीदेवी का बाप है और अभी तक कैदखाने में पड़ा हुआ है दिखला दूंगा। मैं सच कहता हूँ कि उस कागज के मुठ्ठे में जो कुछ लिखा हुआ है यदि उसमें किसी तरह की मेरी बुराई है तो बिल्कुल झूठ है।

देवीसिंह-मैं केवल तुम्हारे इतना कहने पर क्योंकर विश्वास कर सकता हूँ? मैं तुम्हारे अक्षर अच्छी तरह पहचानता हूँ जो उस कागज के मुट्ठ की लिखावट से बखूबी मिलते हैं। खैर इसे भी जाने दो, मैं यह पूछता हूँ कि बलभद्रसिंह को वहाँ देखकर तुम इतना डरे क्यों? यहाँ तक कि डर ने तुम्हें बेहोश कर दिया!

भूतनाथ-यह तो तुम जानते ही हो कि मैं उससे डरता हूँ, मगर इस सबब से नहीं डरता कि वह कमलिनी का बाप बलभद्रसिंह है, बल्कि उससे डरने का कोई दूसरा ही सबब है जिसके विषय में मैं कह चका हूँ कि आप मुझसे न पूछेगे और यदि किसा तरह मालूम हो जाय तो बिना मुझसे पूछे किसी पर प्रकट न करेंगे।

देवीसिंह-अच्छा इस बात का जवाब तो दो कि अगर तुम्हें यह मालूम था कि कमलिनी का बाप किसी जगह कैद है और तारा वास्तव में लक्ष्मीदेवी है जैसा कि तुम इस समय कह रहे हो तो आज तक तमने कमलिनी को इस बात की खबर क्यो न दा। या यह बात क्यों न कही कि 'मायारानी वास्तव में तुम्हारी बहिन नहीं है।

भूतनाथ-इसका सबब यही था कि असली बलभद्रसिंह ने जो अभी तक कैद है और जिसके छडाने की मैं फिक्र कर रहा है मझसे कसम ले ली है कि जब तक ११५ से न छटें, मैं उनके और लक्ष्मीदेवी के विषय में किसी से कुछ न कहूँ और वास्तव में अगर मुझ पर इतनी विपत्ति न आ पड़ती तो मैं किसी से कहता भी नहीं। मुझ इस बात का बड़ा ही दुःख है कि मैं तो अपनी जान हथेली पर रखकर आप लोगों का काम करूँ और आप लोग बिना समझे-बूझे और असल बात को बिना जांचे दूध की मक्खा की तरह मुझे निकाल फेंकें। क्या मुरौवत नेकी और धर्म इसी को कहते हैं? क्या यही जवाँमर्दो का काम है? आखिर मुझ पर इलजाम तो लग ही चका था, मगर मेरी और उस दुष्ट की, जो कमलिनी का बाप बन के मकान के अन्दर बैठा हुआ है, दो-दो बात तो हो लेने देते।

भूतनाथ की बात सुनकर देवीसिंह को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वह कुछ देर तक सिर नीचा किए हुए सोचते रहे, इसके बाद कुछ याद करके बोले, "अच्छा मेरी एक बात का जवाब दो।"

भूतनाथ-पूछिए।

देवीसिंह-यदि तुम्हें उस कागज के मुटे से कुछ डर न था और वास्तव में जो कुछ उस मुटे में तुम्हारे खिलाफ लिखा हुआ है वह झूठ है जैसा कि तुम अभी कह चुके हो तो तुम उस गठरी को देख के उस समय क्यों डरे थे जब बलभद्रसिंह ने रात के समय उस जंगल में तुम्हें वह गठरी दिखाई थी और पूछा था कि यदि कहाँ तो भगवानी के सामने इसे खोलूँ? मैं सुन चुका है कि उस समय इस गठरी को देखकर तुम कॉप गये थे और नहीं चाहते थे कि भगवानी के सामने वह खोली जाय! भूतनाथ–ठीक है, मगर मैं उस कागज के मठ्ठे को याद करके नहीं डरा था बल्कि मुझे इस बात का गुमान भी न था कि गठरी में कोई कागज का मुट्ठा भी है, सच तो यह है कि मैं उस पीतल की सन्दूकड़ी को याद करके डरा था जो उस समय तेजसिंह से सामने पड़ी हुई थी। मैं यही समझे हुए था कि उस गठरी के अन्दर केवल एक पीतल की सन्दूकड़ी है और वास्तव में उसकी याद से ही मैं कांप जाता हूँ। उसकी सुरत देखने से जो हालत मेरी होती है सो मैं ही जानता हूँ, मगर साथ ही इसके मैं यह भी कहे देता हूँ कि उस पीतल की सन्दूकड़ी के अन्दर जो चीज है उससे कमलिनी, तारा और लाड़िली या असली बलभद्रसिंह का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसका विश्वास आपको उसी समय हो जायगा जब वह सन्दूकड़ी खोली जायगी।

भूतनाथ की बातों ने देवीसिंह को चक्कर में डाल दिया। वह कुछ भी नहीं समझ सकते थे कि वास्तव में क्या बात है। देवीसिंह ने जो बातें भूतनाथ से पूछी उनका जवाब भूतनाथ ने बड़ी खूबी के साथ दिया, न तो कहीं अटका और न किसी तरह का शक रहने दिया और ये ही बातें थीं जिन्होंने देवीसिंह को तददुद, परेशानी और आश्चर्य में डाल दिया था। बहुत देर गौर करने के बाद देवीसिंह ने पुनः भूतनाथ से पूछा।

देवीसिंह-अच्छा अब तुम क्या चाहते हो सो कहो!

भूतनाथ-मैं केवल इतना ही चाहता हूं कि आप मुझे इस मकान में ले चलिए और तेजसिंह तथा तीनों बहिनों से कहिए कि मेरे मुकदमे की पूरी-पूरी जाँच करें, आप लोगों के आगे निर्दोष होने के विषय में जो कुछ मैं सबूत दूँ उसे अच्छी तरह सुनें समझें और देखें तथा इसके बाद जो दगाबाज ठहरे उसे सजा दें, बस।

देवीसिंह-अच्छा, मैं जाकर तेजसिंह और कमलिमी से ये बातें कहता हूँ, फिर जैसा वे कहेंगे किया जायगा।

भूतनाथ-तो आप एक काम और कीजिए।

देवीसिंह-वह क्या?

इसके जवाब में भूतनाथ ने अपने ऐयारी के बटुए में से एक तस्वीर निकाल कर देवीसिंह के हाथ में दी और कहा, "आप यह तस्वीर लक्ष्मीदेवी (तारा) को दिखाएँ और पूछे कि तुम्हारा बाप यह है या वह दगाबाज जो सामने बैठा हुआ अपने को बलभद्रसिंह बताता है?"

देवीसिंह ने बड़े गौर से उस तस्वीर को देखा। यह तस्वीर पूरी तो नहीं मगर फिर भी बलभद्रसिंह की मूरत से बहुत-कुछ मिलती थी। भूतनाथ की बातों ने और उसके सवाल-जवाब के ढंग ने देवीसिंह के दिल पर मामूली असर पैदा नहीं किया था, बल्कि सच तो यह है कि उसने थोड़ी देर के लिए देवीसिंह की राय बदल दी थी। देवीसिंह ने सोचा कि ताज्जब नहीं भूतनाथ बहुत-कुछ सच ही कहता हो और बलभद्रसिंह वास्तव में असली बलभद्रसिंह न हो क्योंकि जहाँ तक मैंने देखा है बलभद्रसिंह के मिलने में जितना जोश कमलिनी, लाडिली और तारा के दिल में पैदा हुआ था उतना बलभद्रसिंह के दिल में अपनी तीनों लड़कियों को देग्यकर पैदा नहीं हुआ, यह एक ऐसी बात है
जो मेरे दिल में शक पैदा कर सकती है, मगर उस कागज के मुट्ठे में जितनी चिट्ठियाँ भूतनाथ के हाथ की लिखी कही जाती हैं वे अवश्य भूतनाथ के हाथ की लिखी हुई हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं क्योंकि जब मैंने भूतनाथ से कहा था कि तुम्हारे अक्षर इन चिट्ठियों के अक्षरों से मिलते हैं तो इस बात का कोई जवाब उसने नहीं दिया अस्तु उन दुष्ट कर्मों का करने वाला तो अवश्य भूतनाथ है मगर क्या यह बलभद्रसिंह भी वास्तव में असली बलभद्रसिंह नहीं है? अजब तमाशा है, कुछ समझ में नहीं आता कि क्या निश्चय किया जाय।

इन सब बातों को सोचते हुए देवीसिंह वहाँ से रवाना हुए और डोंगी पर सवार हो मकान के अन्दर गए जहाँ तेजसिंह उस कागज के मुट्ठे को हाथ में लिए हुए देवीसिंह के वापस आने की राह देख रहे थे।

तेजसिंह―देवीसिंह, तुमने इतनी देर क्यों लगाई? मैं कब से राह देख रहा हूँ कि तुम आ जाओ तो इस मुट्ठे को खोलूँ।

देवीसिंह―हाँ-हाँ, आप पढ़िये, नैं भी आ गया।

तेजसिंह―मगर यह तो कहो कि तुम्हें इतनी देर क्यों लगी?

देवीसिंह―भूतनाथ ने मुझे रोक लिया और कहा कि पहले मेरी बातें सुन लो तब यहाँँ से जाओ।

बलभद्रसिंह―क्या भूतनाथ तालाब के बाहर अभी तक बैठा है?

देवीसिंह―हाँ, अभी तक बैठा है और बैठा रहेगा।

बलभद्रसिंह–सो क्यों, क्या कहता है?

देवीसिंह―वह कहता है कि मुझे कमलिनी ने बिना समझे व्यर्थ निकाल दिया, उन्हें चाहिए था कि नकली बलभद्रसिंह के सामने मेरा इन्साफ करतीं।

बलभद्रसिंह―नकली बलभद्रसिंह कैसा?

देवीसिंह―वह आपको नकली बलभद्रसिंह बताता है और कहता है कि असली बलभद्रसिंह अभी तक एक जगह कैद हैं, अगर किसी को शक हो तो मुझ से सवाल-जवाब कर ले।

बलभद्रसिंह―नकली और असली होने के सबूत की जरूरत है या सवाल-जवाब करने की?

देवीसिंह―ठीक है मगर उसने आपको बुलाया है और कहा है कि बलभद्रसिंह मेरी एक बात आकर सुन जाय फिर जो कुछ भी उनके जी में आवे करे।

बलभद्रसिंह―मारो कम्बख्त को, मैं अब उसकी बातें सुनने के लिए क्यों जाने लगा?

देवीसिंह―क्या हर्ज है अगर आप उसकी दो बातें सुन लें, कदाचित् कोई नया रहस्य ही मालूम हो जाय!

बलभद्रसिंह―नहीं, मैं उसके पास न जाऊँगा।

तेजसिंह―तो भूतनाथ को इसी जगह क्यों न बुला लिया जाय?

कमलिनी―हाँ, मैं भी यही उचित समझती हूँ। देवीसिंह―नहीं-नहीं, इससे यह उत्तम होगा कि बलभद्रसिंह खुद उससे मिलने के लिए तालाब पर जायें।

इतना कह कर देवीसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा और कोई गुप्त इशारा किया।

बलभद्रसिंह―उसका इस मकान में आना मुझे भी पसन्द नहीं! अच्छा मैं स्वयं जाता हूँ, देखूँ वह नालायक क्या कहता है।

तेजसिंह―अच्छी बात है, आप भैरोंसिंह को अपने साथ लेते जाइये।

बलभद्रसिंह―सो क्यों?

देवीसिंह―कौन ठीक कम्बख्त चोट कर बैठे, आखिर गम और डर ने उसे पागल तो बना ही दिया है।

इतना कहकर देवीसिंह ने फिर तेजसिंह की तरफ देखा और इशारा किया जिसे सिवाय तेजसिंह के और कोई नहीं समझ सकता था।

बलभद्रसिंह―अजी, उस कम्बख्त गीदड़ में इतनी हिम्मत कहाँ जो मेरा मुकाबला करे!

तेजसिंह―ठीक है, मगर भैरोंसिंह को साथ लेकर जाने में हर्ज भी क्या है! (भैरोंसिंह से) जाओ जी भैरों, तुम इनके साथ जाओ!

लाचार भैरोंसिंह को साथ लेकर बलभद्रसिंह बाहर चला गया। इसके बाद कमलिनी ने देवीसिंह से कहा, “मुझे मालूम होता है कि आपने मेरे पिता को जबर्दस्ती भूतनाथ के पास भेजा है।”

देवीसिंह―हाँ, इसलिए कि थोड़ी देर लिए अलग हो जायँ तो मैं एक अनूठी बात आप लोगों से कहूँ।

कमलिनी―(चौंक कर) क्या भूतनाथ ने कोई नई बात बताई है?

देवीसिंह―हाँ, भूतनाथ ने यह बात बहुत जोर देकर कही कि असली बलभद्रसिंह अभी तक कैद में है और यदि किसी को शक हो तो मेरे साथ चले मैं दिखला सकता हूँ। उसने बलभद्रसिंह की तस्वीर भी मुझे दी है और कहा है कि यह तस्वीर तीनों बहिनों को दिखाओ, वे पहिचानें कि असली बलभद्रसिंह यह है या वह।

लक्ष्मीदेवी ने हाथ बढ़ाया और देवीसिंह ने वह तस्वीर उसके हाथ पर रख दी।

तारा―(तस्वीर देख कर) आह! यह तो मेरे बाप की असली तस्वीर है! इस चेहरे में तो कोई ऐसा फर्क ही नहीं है जिससे पहचानने में कठिनाई हो। (कमलिनी की तरफ तस्वीर बढ़ा कर) लो बहिन, तुम भी देख लो, मैं समझती हूँ यह सूरत तुम्हें भी न भूली होगी।

कमलिनी―(तस्वीर देखकर) वाह! क्या इस सूरत को अपनी जिन्दगी में कभी भूल सकती हूँ! (देवीसिंह से) क्या भूतनाथ ने इसी सूरत को दिखाने का वादा किया है?

देवीसिंह―हाँ, इसी को।

कमलिनी―तो क्या आपने पूछा नहीं कि तुम यह हाल पहले ही जानते थे, तो अब तक हम लोगों से क्यों न कहा? देवीसिंह―केवल यही नहीं बल्कि मैंने कई और बातें भी उससे पूछीं।

तेजसिंह―तुममें और भूतनाथ में जो-जो बातें हुईं सब कह जाओ।

वह तस्वीर एक-एक करके सभी ने देखी और तब देवीसिंह उन बातों को दोहरा गये जो उनके और भूतनाथ के बीच में हुई थीं। उनके सुनने से सभी को ताज्जुब हुआ और सभी कोई सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

कमलिनी―(तारा से)बहिन, वेशक तुम इस विषय में हम लोगों से बहुत ज्यादा गौर कर सकती हो, फिर भी इतना मैं कह सकती हूँ कि मेरे पिता में, जो भूतनाथ से मिलने गए हैं, और इस तस्वीर में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है।

तारा―क्या कहूँ अक्ल कुछ काम नहीं करती! मैं उन्हें अच्छी तरह पहचानती हूँ और इस तस्वीर को भी अच्छी तरह पहिचानती हूँ। इस तस्वीर को तो हम तीन में से जो देखेगा वही कहेगा कि हमारे पिता की है, मगर इनको केवल मैं ही पहचानती हूँ। जिस जमाने में मैं और ये एक ही कैदखाने में थे, उसी जमाने में इनकी सूरत-शक्ल में बहुत फर्क पड़ गया था। (चौंककर) आह, मुझे एक पुरानी बात याद आई है जो इस भेद को तुरन्त साफ कर देगी!

कमलिनी―वह क्या?

तारा―तुम्हें याद होगा कि जब हम छोटे-छोटे बच्चे थे और लाड़िली बहुत ही छोटी थी तो इसे उसे एक दफे बुखार आया था और वह बुखार बहुत ही कड़ा था यहाँ तक कि सरसाम हो गया था और उसी पागलपन में इसने पिताजी के मोढ़े पर दाँत से काट लिया था।

कमलिनी―ठीक है, अब मुझे भी यह बात याद पड़ी। इतने जोर से दाँत काटा था कि सेरों खून निकल गया था। जब तक वे हम लोगों के साथ रहे तब तक मैं बराबर उस निशान को देखती थी। मुझे विश्वास है कि सौ वर्ष बीत जाने पर भी वह दाग मिट नहीं सकता।

तारा―बेशक ऐसा ही था और हमने-तुमने मिलकर यह सलाह गाँठी थी कि दाँत काटने के बदले में लाड़िली को खूब मारेंगे। आखिर वह लड़कपन का जमाना ही तो था!

कमलिनी―हाँ और यह बात हमारी माँ को मालूम हो गई थी और उसने हम दोनों को समझाया था।

तारा की यह बात ऐसी थी कि इसने लड़कपन के जमाने की याद दिला दी और कमलिनी तथा लाड़िली को तो इस बात में कुछ भी शक न रहा कि तारा बेशक लक्ष्मीदेवी है मगर बलभद्रसिंह के विषय में जरूर कुछ शक हो गया और उनके विषय में दोनों ने यह निश्चय कर लिया कि बलभद्रसिंह भूतनाथ से मिलकर लौटें तो किसी बहाने से उनका मोढ़ा देखा जाय, साथ ही यह भी निश्चय कर लिया कि इसके बाद ही कोई आदमी भूतनाथ के साथ जाय और उस कैदी को भी देखे, बल्कि जिस तरह बने, उसे छुड़ाकर ले आवे।

इतने ही में तालाब के बाहर से कुछ शोरगुल की आवाज आई। तेजसिंह ने पता