चन्द्रकांता सन्तति 3/11.6
[ १४५ ]
दुश्मन जब तालाब वाले तिलिस्मी मकान पर कब्जा कर चुके और लूटपाट से निश्चिन्त हुए तो शिवदत्त, माधवी और मनोरमा को छुड़ाने की फिक्र करने लगे। तमाम मकान छान डाला मगर उनका पता न लगा, तब थोड़े सिपाही जो अपने को होशियार और बुद्धिमान लगाते थे एक जगह जमा होकर सोच-विचार करने लगे। वे लोग इस बात का तो गुमान भी नहीं कर सकते थे कि हमारे मालिक लोग यहां कैद नहीं हैं या भगवनिया ने हमलोगों को धोखा दिया क्योंकि भगवनिया द्वारा वे लोग शिवदत्त, माधवी और मनोरमा के हाथ की लिखी चिट्ठी देख चुके थे। अब अगर तरद्दुद था तो यही कि कैदी लोग कहाँ हैं और भगवनिया हम लोगों से बिना कुछ कहे चुपचाप भाग क्यों गई। केवल इतना ही नहीं किशोरी, कामिनी और तारा यकायक कहाँ गायब हो गई जिनके इस मकान में होने का हम लोगों को पूरा विश्वास था बल्कि दौड़-धूप करते जिन्हें अपनी आँखों से देख चुके हैं।
जब तमाम मकान ढूंढ़ डाला और अपने मालिकों को तथा किशोरी, कामिनी या तारा को न पाया तो उन लोगों को निश्चय हो गया कि इस मकान में कोई तहखाना अवश्य है जहां हमारे मालिक लोग कैद हैं और जहाँ अपनी जान बचाने के लिए किशोरी, कामिनी और तारा भी छिपकर बैठ गई हैं।
इस लिखावट से हमारे पाठक अवश्य इस सोच में पड़ जायेंगे कि यदि इन दुश्मनों को इस मकान में तहखाना और सुरंग होने का हाल मालूम न था, तो क्या वे लोग [ १४६ ] किसी दूसरे गिरोह के आदमी थे जिन्होंने तहखाने के अन्दर से किशोरी और कामिनी को गिरफ्तार कर लिया था या जिन्होंने सुरंग का दूसरा मुहाना बन्द कर दिया था जिस के सबब से बेचारी किशोरी, कामिनी और तारा को सुरंग के अन्दर बेबसी के साथ पड़ी रहकर अपनी ग्रहदशा का फल भोगना पड़ा?
बेशक ऐसा ही है। जिस समय भगवानी की कृपा से माधवी, मनोरमा और शिव दत्त ने कैदखाने से छुट्टी पाई और सुरंग की राह से बाहर निकले, तो माधवी के कई आदमी वहाँ मौजूद मिले और वे लोग आज्ञानुसार माधवी के साथ वहाँ से चले गये, उनमें से किसी से भी उन लोगों की मुलाकात नहीं हुई जिन्होंने तालाब वाले मकान पर हमला किया था। ये ही लोग थे जिन्होंने तहखाने में से किशोरी और कामिनी को भी निकाल ले जाने का इरादा किया था परन्तु कृतकार्य न हुए थे और इन्हीं लोगों ने भागते भागते सुरंघ का दूसरा मुहाना ईंट-पत्थरों से बन्द कर दिया था। उन दुश्मनों में जिन्होंने इस मकान को फतह किया था तीन सिपाही ऐसे थे जो उनमें सरदार गिने जाते थे और सब काम उन्हीं की राय पर होता था, वही तीनों खोज ढूंढ़कर तहखाने का पता लगाने लगे।
बचा हुआ दिन और रात का बहुत बड़ा हिस्सा खोज ढूंढा में बीत गया और सुबह हुआ ही चाहती थी जब हाथ में लालटेन लिए हए तीनों सिपाही उस कोठरी के दरवाजे पर जा पहुँचे जिसमें से कैदखाने वाले तहखाने के अन्दर जाने का रास्ता था। ताला तोड़ा गया और वे तीनों उस कोठरी के अन्दर पहुँचे। तहखाने के अन्दर जान वाला रास्ता दिखाई पड़ा जिसका दरवाजा जमीन के साथ सटा हआ और ताला भी लगा हुआ था। उस जगह खड़े होकर तीनों सिपाही आपस में बातचीत करने लगे।
एक–बेशक इसी तहखाने में महाराज शिवदत्त कैद होंगे, बड़ी मुश्किल से इस का पता लगा।
दूसरा-मगर हम लोग जो यह सोचे हुए थे कि किशोरी, कामिनी और तारा भी इसी तहखाने में छिपकर बैठी होंगी यह बात अब दिल से जाती रही क्योंकि वे भी अगर इसी तहखाने में होती तो हम लोगों को ताला न तोड़ना पड़ता।
तीसरा-ठीक है मैं भी यहीं सोचता हूँ कि वे लोग किसी दूसरे गुप्त स्थान में छिपकर बैठी होंगी, खैर पहले अपने मालिक को तो छडाओ फिर उन तीनों को भी ढूंढ़ निकालेंगे, आखिर इस मकान के अन्दर ही तो होंगी।
दूसरा-हाँ जी, देखा जायगा, बस अब इस ताले को भी झटपट तोड़ डालो।
वह ताला भी तोड़ा गया और हाथ में लालटेन लेकर एक आदमी उसके अन्दर उतरा तथा दो उसके पीछे चले। चार-पांच सीढ़ियों से ज्यादा न उतरे होंगे कि कई आदमियों के टहलने और बातचीत करने की आहट मिली जिससे ये तीनों बड़े गौर से नीचे की तरफ देखने लगे मगर जो सिपाही सबसे आगे था उसके सिवाय और किसी को कुछ भी दिखाई न दिया। उसने तहखाने में तीन आदमियों को देखा जो इन सिपाहियों के आने की आहट पाकर और लालटेन की रोशनी देखकर ठिठके हुए ऊपर की तरफ देख रहे थे। इनमें एक मर्द और दो औरतें थीं। तीनों सिपाहियों को निश्चय हो गया [ १४७ ] कि बेशक यही तीनों माधवी, मनोरमा और शिवदत्त हैं। इन सिपाहियों ने छठी सीढ़ी पर पैर नहीं रखा था कि नीचे से आवाज आई, "ठहरो, हम लोग खुद ऊपर आते हैं!"
उन सिपाहियों में से एक आदमी जिसका नाम रामचन्दर था शिवदत्त का पुराना खैरख्वाह मुलाजिम था और बाकी के दोनों सिपाही मनोरमा के नौकर थे। आवाज सुनकर तीनों सिपाही ऊपर चले आये और तहखाने के अन्दर वाले तीनों व्यक्ति भी, जिन्हें सिपाहियों ने अपना मालिक समझ रक्खा था, बाहर होकर क्रमशः उस कमरे में पहँचे जिसमें कमलिनी रहा करती थी और जिसे एक तौर पर दीवानखाना भी कह सकते हैं। यद्यपि लूट-खसोट का दिन था मगर फिर भी वहाँ इस समय रोशनी बखूबी हो रही थी और उस रोशनी में सभी ने बखूबी पहचान लिया कि वे वास्तव में माधवी, मनोरमा और शिवदत्त हैं।
इस समय दुश्मनों की खुशी का अन्दाजा करना बड़ा ही कठिन है क्योंकि जिसे छुड़ाने के लिए उन लोगों ने उद्योग किया था, उसे अपने सामने मौजूद देखते हैं, लाखों रुपये का माल जो लूट में मिला था, अब पूरा-पूरा हलाल समझते हैं, इसके अतिरिक्त इनाम पाने की प्रबल अभिलाषा और भी प्रसन्न किये देती है। चारों तरफ से भीड़ उमड़ी पड़ती है और शिवदत्त के पैरों पर गिरने के लिए सभी उतावले हो रहे हैं। शिवदत्त ने सभी की तरफ देखा और नर्म आवाज में कहा, "शाबाश मेरे बहादुर सिहाहियो, आज जो काम तुमने किया, वह मुझे जन्म भर याद रहेगा। निःसन्देह तुमने मेरी जान बचाई। देखो इस कैद की सख्ती ने मेरी क्या अवस्था कर दी है, मेरी आवाज कैसी कमजोर हो रही है, मेरा शरीर कैसा दुर्बल और बलहीन हो गया है, मगर खैर, कोई चिन्ता नहीं जान बची है तो ताकत भी हो रहेगी! यह मत समझो कि मैं इस समय हर तरह से लाचार हो रहा हूँ, अतएव तुम्हारी आज की कार्रवाई के बदले में कुछ इनाम नहीं दे सकूँगा। नहीं-नही, ऐसा कदापि न सोचना। तुम लोग स्वयं देखोगे कि कल जितनी दौलत मैं इनाम में तुम लोगों को दूँगा, वह उस लूट के माल से सौगुना ज्यादा होगी, जो तुमने इस मकान में से पाई होगी। मैं मर्द हूँ और तुम लोग खूब जानते हो कि मर्दो की हिम्मत कभी कम नहीं होती, जिसने हिम्मत तोड़ दी, वह मर्द नहीं औरत है। इसमें तुम इस बात पर भी विश्वास रखना कि मैं अपने पुराने दुश्मन वीरेन्द्रसिंह का पीछा कदापि न छोड़ेंगा, सो भी ऐसी अवस्था में कि जब तुम लोगों ऐसे मर्द दिलावर और नमकहलाल सिपाही मेरे साथी हैं। अच्छा यह सब बातें तो फिर होती रहेंगी, इस समय मैं मकान से बाहर निकल कर अपने वीरों को देखा और उनसे मिला चाहता हूँ क्योंकि यह मकान इतना बड़ा नहीं है कि सब सिपाही इसमें समा जायें और मैं इसी जगह बैठा-बैठा सबसे मिल लूँ। चलो, तुम लोग तालाब के पार चलो, मैं भी आता हूँ!"
शिवदत्त की बातें सुनकर ये सिपाही लोग बहुत ही प्रसन्न हुए और जल्दी के साथ उस मकान से निकल कर तालाब के बाहर हो गये, जहां और सब सिपाही खड़े बेचैनी के साथ इन लोगों की राह देख रहे थे और यह जानने के लिए उत्सुक थे कि मकान के अन्दर क्या हो रहा है।
सिपाहियों के बाहर हो जाने के बाद शिवदत्त भी मकान से निकला और तालाब [ १४८ ] से बाहर हो गया। माधवी और मनोरमा उस मकान के अन्दर ही रह गई।
अब सवेरा हो चुका था। पूरब तरफ आसमान पर भगवान सूर्यदेव का लाल पेशखेमा दिखाई देने लगा। शिवदत्त मैदान में खड़ा हो गया और खुशी के मारे उसकी जयजयकार करते उसके सिपाहियों ने चारों तरफ से उसे घेर लिया तथा यह सुनने के लिए उत्सुक होने लगे कि देखें अब हमारी तारीफ में हमारे राजा साहब क्या कहते हैं।
पर इसी समय पूरब की तरफ से बाजे की आवाज इन लोगों के कानों में पहुँची। सिपाहियों के साथ-साथ शिवदत्त भी चौकन्ना हो गया और गौर के साथ पूरब की तरफ देखता हुआ बोला, "यह तो फौजी बाजे की आवाज है। वह देखो इसकी गत साफ कहे देती है कि राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज आ रही है, क्योंकि वीरेन्द्रसिंह जब चुनार की गद्दी पर बैठे थे तो तेजसिंह ने अपने फौजी बाजे वालों के लिए यह खास गत तैयार की थी। तब से उनकी फौज में प्रायः यह गत बजाई जाती है। मैं इसे अच्छी तरह जानता हूँ। देखो वह गर्द भी दिखाई देने लगी, अब क्या करना चाहिए? जहाँ तक मैं समझता हूँ, तुम्हारे हमले की खबर रोहतासगढ़ पहुँची है और यह फौज रोहतासगढ़ से आ रही है, मगर दो-तीन सौ से ज्यादा आदमी न होंगे।"
इसके बाद पश्चिम की तरह से बाजे की आवाज आई और गौर करने पर मालूम हआ कि पश्चिम तरफ से भी फौज आ रही है।
शिवदत्त के सिपाही बहुत मेहनत कर चुके थे, न भी मेहनत किये हों, तो क्या था, राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज की खबर पाकर अपने कलेजे को मजबूत रखना ऐसे सिपाहियों का काम न था जो वर्षों बिना तनखाह के सिर्फ मालिक के नाम पर अपने सिपाहीपन को टेरे जाते हों। उन लोगों ने घबड़ा कर शिवदत्त की तरफ देखा। यद्यपि कैद की सख्ती ने शिवदत्त की सूरत-शक्ल और आवाज में भी फर्क डाल दिया था, मगर इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज के आने से उसके चेहरे पर किसी तरह की घबड़ाहट या उदासी नहीं पाई गई। शिवदत्त ने अपने सिपाहियों की तरफ देखा और हिम्मत दिलाने वाले शब्दों में कहा, "घबराओ मत हिम्मत न हारो, हौसले के साथ भिड़ जाओ और इन सभी का असबाब भी लूट लो, मगर इस बात का खूब ध्यान रखो कि भाग कर इस मकान के अन्दर न घुस जाना, नहीं तो चारों तरफ से घेर कर सहज ही में मार डाले जाओगे। यदि मैदान में डटे रहोगे तो कठिन समय पड़ जाने पर भागने को भी जगह मिलेगी-" इत्यादि।
क्या करें? लड़ें या न लड़ें? रुकें या भाग जायें? इत्यादि सोच-विचार और सलाह में ही बहुत-सा अमूल्य समय निकल गया और धावा करते हुए राजा वीरेन्द्रसिंह के फौजी सिपाहियों ने पूरब और पश्चिम तरफ से आकर दुश्मनों को घेर लिया। यद्यपि शिवदत्त के सिपाही भागने के लिए तैयार थे, मगर शिवदत्त के हिम्मत दिलाने वाले शब्दों की बदौलत जिन्हें वह बार-बार अपने मुँह से निकाल रहा था, थोड़ी देर के लिए अड़ गये और राजा वीरेन्द्रसिंह की फौज से जो गिनती में दो सौ से ज्यादा न होगी, जी तोड़ के लड़ने लगे। उनके अटल रहने और जी तोड़ कर लड़ने का एक यह भी सबब था कि उन लोगों ने राजा वीरेन्द्रसिंह के फौजी सिपाहियों को जो वास्तव में रोहतासगढ़ से
च० स०-3-9
आये थे, गिनती में अपने से बहुत कम पाया था।
यह थोड़ी-सी फौज जो रोहतासगढ़ से आई थी, चुन्नीलाल ऐयार के आधीन थी। चुन्नीलाल ने जासूसों को भेज कर इस बात का पता पहले ही लगा लिया था कि तालाब वाले तिलिस्मी मकान पर हमला करने वाले दुश्मन कितने और किस ढंग के हैं, इसके बाद उसने अपनी फौज को फैला कर दुश्मनों को चारों तरफ से घेर लेने का उद्योग किया था और जो कुछ सोच रखा था वही हुआ।
चुन्नीलाल की मातहत फौज ने दुश्मनों को घेर कर बेतरह मारा। चुन्नीलाल स्वयं तलवार लेकर मैदान में अपनी बहादुरी दिखाता हुआ अपने सिपाहियों की हिम्मत बढ़ा रहा था और जिधर धंस जाता था उधर ही दस-पाँच को खीरे-ककड़ी की तरह काट गिराता था। यह हाल देख दुश्मन बगलें झांकने लगे, मगर लड़ाई इस ढंग से हो रही थी कि यहाँ से बचकर निकल भागना भी मुश्किल था। दो घंटे की लड़ाई में आधे से भी ज्यादा दुश्मन मारे गये और बाकी भाग कर अपनी जान बचा ले गये। वीरेन्द्रसिंह के केवल बीस बहादुर काम आये। इस घमासान लड़ाई के अन्त में इस बात का कुछ भी पता न लगा कि शिवदत्त बहादुरी के साथ लड़कर मारा गया या मौका मिलने पर निकल भागा।
जब दश्मनों में से सिवाय उन सभी के जो मौत की गोद में सो चुके थे या जमीन पर पड़े सिसक रहे थे और कोई भी न रहा, सब भाग गये, तब केवल दस-बारह आदमियों को साथ लेकर चुन्नीलाल तिलिस्मी मकान की तरफ बढ़ा मगर मकान में पहुँचने के पहले ही सिपाही सूरत का एक आदमी जो उसी मकान में से निकल कर इनकी तरफ आ रहा था उसे मिला। उसके हाथ में लिफाफे के अन्दर बन्द एक चिट्ठी थी जो उसने चन्नीलाल के हाथ में दे दी और चुपचाप खड़ा हो गया। चुन्नीलाल ने भी उसी जगह अटक कर लिफाफा खोला और बड़े ध्यान से चिट्ठी पढ़ने लगा। समाप्त होने तक कई दफे चुन्नीलाल के चेहरे पर हँसी दिखाई दी और अन्त में वह बड़े गौर से उस आदमी की सूरत देखने लगा, जिसने चिट्ठी दी थी तथा इसके बाद इशारे से सिर हिलाया मानो उस आदमी को यहाँ से बेफिक्री के साथ चले जाने के लिए कहा और वह आदमी भी बिना सलाम किये झूमता हुआ वहाँ से चला गया।
चन्नीलाल कई आदमियों को साथ लेकर तिलिस्मी मकान के अन्दर गया, उसने वहां अच्छी तरह घूमकर देखा, मगर किसी को न पाया, तब बाहर निकला और अपने मातहत सिपाहियों को लेकर रोहतासगढ़ की तरफ लौट गया।