चन्द्रकांता सन्तति 3/10.9
दारोगा साहब को मकान में बैठ कर झक मारते हुए चार दिन बड़ी मुश्किल से बीते और आज पाँचवाँ दिन है। जैसे ही बाबाजी अपनी चारपाई पर से उठ कर बाहर निकले वैसे ही एक आदमी ने आकर संदेश दिया कि "इन्द्रदेवजी आपको बुलाते हैं, मायारानी को साथ लेकर नजरबाग में जाइये।" यह सुनते ही बाबाजी लौट कर मायारानी के कमरे में गए और मायारानी को साथ लिये हुए उसी नजरबाग में पहुंचे, जहाँ पहले दिन उनकी नसीहत की गई थी। बाबाजी और मायारानी ने देखा कि इन्द्रदेव एक कुर्सी पर बैठा हुआ है और उसके बगल में दो कुर्सियां खाली पड़ी हैं, उसके सामने दो आदमी नागर के दोनों बाजू पकड़े खड़े हैं। नागर का हाथ पीठ के पीछे मजबूती के साथ बँधा हुआ है। इन्द्रदेव ने दारोगा और मायारानी को बैठने का इशारा किया और वे उन कुर्सियों पर बैठ गए जो इन्द्रदेव के बगल में खाली पड़ी हुई थीं।
बाबाजी की अवस्था देख कर मायारानी को निश्चय हो गया था कि इन्द्रदेव ने मदद से साफ-साफ इनकार कर दिया है और इसी से बाबाजी उदास और बेचैन हैं, मगर इस समय नागर को अपने सामने बेबस खड़ी देख कर मायारानी को कुछ ढाढस हुई और उसने सोचा कि बाबाजी की उदासी का कोई दूसरा ही कारण होगा, इन्द्रदेव हम लोगों की मदद अवश्य करेगा।
पाठक महाशय समझ ही गए होंगे कि नागर को गिरफ्तार कराने वाला इन्द्रदेव ही है जिसका हाल ऊपर एक बयान में लिख चुके हैं, और जिस श्यामलाल ने नागर को गिरफ्तार किया था वह इन्द्रदेव का कोई ऐयार होगा या स्वयं इन्द्रदेव ही होगा।
इन्द्रदेव के बगल में जब मायारानी और दारोगा बैठ गए तो इन्द्रदेव ने नागर से पूछा, "क्या बाबाजी की नाक तूने ही काटी?"
नागर-जी हाँ, मैंने मायारानी की आज्ञा पाकर इनकी नाक काटी है।
इन्द्रदेव—(अपने आदमी से) अच्छा, अब तुम इस कम्बख्त नागर की नाक और उसके साथ कान भी काट लो और यदि कुछ बोले तो जुबान भी काट लो!
हक्म की देर थी, नौकर मानो पहले ही से नाक काटने के लिए तैयार था, अस्तु इस समय जो कुछ होना था हो गया और इसके बाद नागर कैदखाने में भेज दी गई।
च० स०-3-7
मायारानी भी इन्द्रदेव की आज्ञानुसार अपने कमरे में चली गई और इन्द्रदेव तथा दारोगा अकेले ही रह गए।
इन्द्रदेव-आप देखते हैं कि जिसने आप के साथ बिना कारण के बुराई की थी उसे उस बुराई का बदला ईश्वर ने कुछ विशेषता के साथ दे दिया। आपको भी इसी तरह विचारना चाहिए कि क्या राजा वीरेन्द्रसिंह और राजा गोपालसिंह के साथ, जो बड़े नेक और बिल्कुल बेकसूर हैं, बुराई करने वाला अपनी सजा को न पहुँचेगा?
दारोगा-निःसन्देह आपका कहना ठीक है, परन्तु ...
दारोगा 'परन्तु' से आगे कहने भी न पाया था कि इन्द्रदेव फिर जोश में आ गया और कड़ी निगाह से बाबाजी की तरफ देख के बोला
इन्द्रदेव-- मैं इतना बक गया मगर अभी तक 'परन्तु' का डेरा आपके दिल से न निकला। वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों से उलझने की इच्छा आपकी अभी तक बनी ही है। खैर जो आपके जी में आवे की कीजिए मगर मुझसे इस बारे में किसी तरह की आशा न रखिए। आप चाहे मुझे कोई भारी वस्तु समझे बैठे हों परन्तु मैं अपने को उन लोगों के मुकाबले में एक भुनगे के बराबर भी नहीं समझता। मुझे अच्छी तरह विश्वास है कि जहाँ हवा भी नहीं घुस सकती वहाँ वीरेन्द्रसिंह के ऐयार पहुँचते हैं। (बगल से एक चिट्ठी निकाल कर और दारोगा की तरफ बढ़ाकर) लीजिये पढ़िए और सुनकर चौंक जाइए कि प्रातःकाल जब मैं सोकर उठा तो इस पत्र को अपने गले के साथ ताबीज की तरह बँधा हुआ देखा। ओफ, जिसके ऐसे-ऐसे ऐयार ताबेदार हैं उसके साथ उलझने की नीयत रखने वाला पागल या यमराज का मेहमान नहीं तो और क्या समझा जायगा!
बाबाजी ने डरते-डरते वह पत्र इन्द्रदेव के हाथ से ले लिया और पढ़ा, यह लिखा हुआ था
"इन्द्रदेव--
"तुम यह मत समझो कि ऐसे गुप्त स्थान में रहकर हम लोगों की नजरों से भी छिपे हए हो। नहीं-नहीं, ऐसा नहीं। हम लोग तुम्हें अच्छी तरह जानते हैं और हमें यह भी मालूम है कि तुम अच्छे ऐयार, बुद्धिमान और वीर पुरुष हो, परन्तु बुराई करना तो दूर रहा, हम लोग बिना कारण या बिना बुलाए किसी के सामने भी कभी नहीं जाते। इसी से हमारा और तुम्हारा सामना अभी तक नहीं हुआ। तुम यह मत समझो कि तुम बिल्कुल बेकसूर हो, कम्बख्त दारोगा को रोहतासगढ़ के कैदखाने से निकाल लाने का कसूर तुम्हारी गर्दन पर है, मगर तुमने यह बड़ी बुद्धिमानी की कि हमारे किसी आदमी को दुःख नहीं दिया और इसी से तुम अभी तक बचे हुए हो। हम तुम्हें मुबारकबाद देते हैं कि श्री तेजसिंहजी ने तुम्हारा कसूर जो हरामखोर और विश्वासघाती दारोगा को कैद से छुड़ाने के विषय में था माफ किया। इसका कारण यही था कि वह तुम्हारा गुरुभाई है, अतएव उसकी कुछ न कुछ मदद करना तुम्हें उचित ही था, चाहे वह नमकहराम तुम्हारा गुरुभाई कहलाने योग्य नहीं है। खैर, तुमने जो कुछ किया अच्छा किया, मगर इस समय तुम्हें चेताया जाता है कि आज से मायारानी, दारोगा या और किसी भी हमारे दुश्मन का यदि तुम साथ दोगे, पक्ष करोगे, हमारी कैद से निकाल ले जाने का उद्योग करोगे या केवल राय देकर भी सहायता करोगे, तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा। तुम चुनारगढ़ के तहखाने में अपने को हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े हुए पाओगे, बल्कि आश्चर्य नहीं कि इससे भी बढ़कर तुम्हारी दुर्दशा की जाय। हाँ, यदि तुम दुनिया में नेकी, ईमानदारी और योग्यता के साथ रहोगे तो ईश्वर भी तुम्हारा भला करेगा। हम लोग ईमानदार नेक और योग्य पुरुष का साथ देने के लिए हरदम कमर कसे तैयार रहते हैं। इसके सिवाय एक बात और कहनी है सो भी सुन लो। दो अदद तिलिस्मी खंजर, जो हम लोगों की मिलकियत हैं, मायारानी और नागर के कब्जे में चले गये हैं। इस समय दारोगा को साथ लेकर मायारानी तुम्हारे यहाँ मदद माँगने लिए आई है। सो खैर, उससे तो कुछ मत कहो, उसके पास जो हमारे खंजर हैं, हम ले लेंगे, कोई चिन्ता नहीं, मगर नागर के पास जो तिलिस्मी खंजर था, वह तुम्हारे एक ऐयार के पास है। जो श्यामलाल बनकर नागर को गिरफ्तार करने गया था और उसे गिरफ्तार कर लाया है। बेशक वह खंजर तुम्हारे पास दाखिल किया जायगा, मगर तुम्हें मुनासिब है कि उसे तुरंत हमारे हवाले करो। कल ठीक दोपहर के समय हम खोह के मुहाने पर मिलने के लिए तैयार रहेंगे जो तुम्हारे इस मकान में आने के पहले दरवाजे के समान है। यदि उस समय तिलिस्मी खंजर लिए तुम हमसे न मिलोगे तो हम समझेंगे कि तुम मायारानी और दारोगा का साथ देने के लिए तैयार हो गये, फिर जो-कुछ होगा देखा जायगा।
पत्र पढ़कर दारोगा ने फिर इन्द्रदेव के हाथ में दे दिया। उस समय दारोगा का चेहरा डर, चिन्ता और निराशा के कारण पीला पड़ गया था और भविष्य पर ध्यान देने ही से वह अधमरा हो गया था। भैरोंसिंह के पत्र में तिलिस्मी खंजर का जिक्र था इसलिए दारोगा ने इन्द्रदेव की उँगलियों पर निगाह दौड़ा कर उसी समय देख लिया था कि तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अंगूठी उसकी उंगली में मौजूद है, अतएव उसे निश्चय हो गया कि भैरोंसिंह से कोई बात छिपी नहीं है, इन्द्रदेव सहायता करते दिखाई नहीं देते और अपना भविष्य बुरा नजर आता है, दारोगा इसी विचार में सिर झुकाये हुए कुछ देर तक खड़ा रहा और इन्द्रदेव उसके चेहरे के उतार-चढ़ाव को गौर से देखता रहा। आखिर इन्द्रदेव ने कहा―"मैं समझता हूँ कि इस चिट्ठी के प्रत्येक शब्द पर आपने गौर किया होगा और मतलब पूरा-पूरा समझ गये होंगे?"
दारोगा―जी हाँ।
इन्द्रदेव―खैर, तो अब मुझे इतना ही कहना है कि यदि इस समय आपके बदले में कोई दूसरा आदमी मेरे सामने होता तो उसे तुरन्त ही निकलवा देता, परन्तु आप मेरे गुरुभाई हैं। इसलिए तीन दिन की मोहलत देता हूँ, इस बीच में आप यहाँ रहकर अपने भले-बुरे को अच्छी तरह सोच लें और फिर जो कुछ करने का इरादा हो
मुझसे कहें, साथ ही इसके इस बात पर भी ध्यान रहे कि यदि आपकी नीयत अच्छी रही तो आपका कसूर क्षमा कराने के लिए मैं उद्योग करूँगा, नहीं तो राजा वीरेन्द्रसिंह के विषय में मुझसे मदद पाने की आशा आप कदापि न रखें!
दारोगा―क्या आप भैरोंसिंह से मिलकर तिलिस्मी खंजर उसके हवाले करेंगे?
इन्द्रदेव―क्या आपको इसमें शक है? अफसोस!
दारोगा ने फिर कुछ न पूछा और चुपचाप वहाँ से उठकर अपने कमरे में चला गया। मायारानी यह जानने के लिए कि इन्द्रदेव में और दारोगा में क्या बातें हुई, पहले ही से दारोगा के कमरे में बैठी हुई थी। जब दारोगा लम्बी साँस लेकर बैठ गया तो उसने पूछा―
मायारानी―कहिए, क्या हुआ? कम्बख्त नागर से तो खूब बदला लिया गया।
दारोगा―ठीक है, मगर इससे यह न समझना चाहिए कि इन्द्रदेव हमारी मदद करेगा।
मायारानी―(चौंककर) तो क्या उसने इशारे में कुछ इनकार किया?
दारोगा―इशारे में नहीं बल्कि साफ-साफ जवाब दे दिया।
मायारानी―तब तो वह बड़ा ही डरपोक निकला! अच्छा, कहिये तो क्या-क्या बातें हुई?
इन्द्रदेव और दारोगा में जो कुछ बातें हुई थीं, इस समय उसने मायारानी से साफ-साफ कह दीं और भैरोंसिंह की चिट्ठी का हाल भी सुना दिया।
मायारानी―(ऊँची साँस लेकर और यह सोचकर कि इन्द्रदेव की बातों में पड़ कर दारोगा कहीं मेरा भी साथ न छोड़ दे) अफसोस, इन्द्रदेव कुछ भी न निकला! वह निरा डरपोक और कम-हिम्मत है, घर बैठे-बैठे खाना-पीना और सो रहना जानता है, उद्योग की कदर कुछ भी नहीं जानता। ऐसा मनुष्या दुनिया में क्या खाक नाम और इज्जत पैदा कर सकता है? मगर हम लोग ऐसे सुस्त और भौंडी किस्मत पर भरोसा करके चुप बैठे रहने वाले नहीं हैं। हम लोग उनमें से हैं जो गरीब और लाचार होकर भी और चक्रवर्ती होने के लिए कृतकार्य न होने पर भी उद्योग किये ही जाते हैं और अन्त में सफल-मनोरथ होकर ही पीछा छोड़ते हैं। जरा गौर तो कीजिये और सोचिये तो सही कि मैं कौन थी और उद्योग ने मुझे कहाँ पहुँचा दिया? तो क्या ऐसे समय में जब किसी कारण से दुश्मन हम पर बलवान हो गया, उद्योग को तिलांजलि दे बैठना उचित होगा? नहीं, कदापि नहीं! क्या हुआ यदि इन्द्रदेव डरपोक और कम-हिम्मत निकला, मैं तो हिम्मत हारने वाली नहीं हूँ और न आप ऐसे हैं। देखिए तो सही, मैं क्या हिम्मत करती हूँ और दुश्मनों को कैसा नाच नचाती हूँ। आप मेरी और अपनी हिम्मत पर भरोसा करें और इन्द्रदेव की आशा छोड़ मौका देखकर चुपचाप यहाँ से निकल चलें।
अफसोस! दुनिया में अच्छी नसीहत का असर बहुत कम होता है और बुरी सोहबत की बुरी शिक्षा शीघ्र अपना असर करके मनुष्य को बुराई के शिकंजे में फँसाकर उनका सत्यानाश कर डालती है। मगर यह बात उन लोगों के लिए नहीं है जिनके दिमाग में सोचने-समझने और गौर करने की ताकत है। सन्तति के इस बयान में दोनों रंग के पात्र मौजूद हैं, अतएव पाठकों को आश्चर्य न करना चाहिए।
दूसरे दिन इन्द्रदेव ने अपने दोनों मेहमानों दारोगा और मायारानी को अपने घर में न पाया और पता लगाने से मालूम हुआ कि वे दोनों रात ही को किसी समय मौका पाकर वहाँ से निकल भागे।