चंद्रकांता संतति भाग 3
देवकीनंदन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ ७८ से – ८७ तक

 
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अब जरा उन कैदियों की सुध लेनी चाहिए, जिन्हें नकली दारोगा ने दारोगा वाले बँगले में मैगजीन की बगल वाली कोठरी में बन्द किया था। वास्तव में वह तेजसिंह ही थे, जो दारोगा की सुरत बनाकर मायारानी से मिलने और उसके दिल का भेद लेने जा रहे थे, मगर जब दारोगा वाले बंगले पर पहुँचे तो मायारानी की लौंडियों तथा लाली की जुबानी मालूम हुआ कि दो आदमियों के पीछे-पीछे मायारानी और नागर टीले पर गई हैं। तेजसिंह उस टीले का हाल बखूबी जानते थे और सुरंग की राह बाग के चौथे दरजे में आने-जाने का भेद भी उन्हें बता दिया गया था, इसलिए उन्हें शक हुआ और वे सोचने लगे कि मायारानी जिन दो आदमियों के पीछे-पीछे टीले पर गई है, कहीं वे दोनों हमारी तरफ के ऐयार ही न हों जो बाग के चौथे दर्जे में जाने का इरादा रखते हों, यदि वास्तव में ऐसा हो तो निःसन्देह मायारानी के हाथ से उन्हें कष्ट पहुँचेगा। यह सोचते ही तेजसिंह भी उसी टीले की तरफ रवाना हुए और यही सबब था कि सुरंग में दारोगा की शक्ल बने हुए तेजसिंह की मायारानी से मुलाकात हुई थी और उसके बाद जो कुछ हुआ ऊपर लिखा ही जा चुका है।

मैगजीन की बगल वाली कोठरी में कैदियों को कैद करने के बाद जब खाने-पीने का सामान लेकर तेजसिंह उस तहखाने में गये तो कैदियों को होश में लाकर संक्षेप में सब हाल कह दिया था और अजायबघर की ताली जो मायारानी से वापस ली थी, राजा गोपालसिंह को देकर कहा कि इस ताली की मदद से जहाँ तक हो सके आप लोग यहाँ से जल्द निकल जाइये। गोपालसिंह ने जवाब दिया था कि "यदि यह ताली न मिलती तो भी हम लोग यहाँ से निकल जाते क्योंकि मुझे यहाँ का पूरा-पूरा हाल मालूम है और अब आप हम लोगों की तरफ से निश्चिन्त रहिये, मगर चौबीस घण्टे के अन्दर मायारानी का साथ न छोड़िये और न उसे कोई काम इस बीच में करने दीजिये, इसके बाद हम लोग स्वयं आपको ढूंढ़ लेंगे।"

इस दारोगा वाले बँगले का हाल केवल तेजसिंह को ही नहीं, बल्कि हमारे और भी कई ऐयारों को मालूम था। क्योंकि कमलिनी ने, जो कुछ भी वह जानती थी, सभी को बता दिया था। अब जब तेजसिंह दारोगा वाले बँगले से चले तो राजा गोपालसिंह और कमलिनी इत्यादि को ढूंढ़ने के लिए उत्तर की तरफ रवाना हुए। वे जानते थे कि मैगजीन की बगल वाली कोठरी से निकलकर वे लोग उत्तर की तरफ ही किसो ठिकाने बाहर होंगे।

तेजसिंह कोस भर से ज्यादा नहीं गये होंगे कि रात की पहली अँधेरी ने चारों तरफ अपना दखल जमा लिया। जिसके सबब से वे उन लोगों को बखूबी ढूंढ़ न सकते थे और न उन लोगों का ठीक पता ही था, तथापि उन्हें विशेष कष्ट न उठाना पड़ा क्योंकि थोड़ी ही दूर जाने के बाद देवीसिंह से मुलाकात हो गई, जो इन्हीं को ढूंढने के लिए जा रहे। देवी सिंह के साथ चलकर तेजसिंह थोड़ी ही देर में वहां जा पहुँचे, जहाँ गोपालसिंह इत्यादि घने जंगल में एक पेड़ के नीचे बैठे इनके आने की राह देख रहे थे। तेजसिंह को देखते ही सब लोग उठ खड़े हुए और खातिर की तौर पर दो-चार कदम आगे बढ़ आये।

देवीसिंह-देखिए, इन्हें कितना जल्द ढूंढ़ लाया हूँ। गोपालसिंह-(तेजसिंह से) आइये-आइये। तेजसिंह-इतनी दूर आये तो क्या दो-चार कदम के लिए रुके रहेंगे?

गोपालसिंह-(हँस के और तेजसिंह का हाथ पकड़ के) आज आप ही की बदौलत हम लोग जीते-जागते यहाँ दिखाई दे रहे हैं।

तेजसिंह-यह सब तो भगवती की कृपा से हुआ और उन्हीं की कृपा से इस समय मैं इसके लिए अच्छी तरह तैयार भी हो रहा हूँ कि मेरी जितनी तारीफ आपके किये हो सके कीजिये और मैं फूला नहीं समाता हुआ चुपचाप बैठा सुनता रहूँ और घण्टों बीत जायें, मगर तिस पर भी आपकी की हुई तारीफ को उस काम के बदले में न समझूँ, जिसकी वजह से आप लोग छूट गये, बल्कि एक दूसरे ही काम के बदले में समझूँ, जिसका पता खुद आप ही की जुबान से लगेगा और यह भी जाना जायगा कि मैं कौन-सा अनूठा काम करके आया हूँ, जिसे खुद नहीं जानता, मगर जिसके बदले में तारीफों की बौछार सहने को चुप्पी का छाता लगाये पहले ही से तैयार था। साथ ही इसके यह भी कह देना अनुचित न होगा कि मैं केवल आप ही को तारीफ करने के लिए मजबूर न या बल्कि आपसे ज्यादा कमलिनी और लाडिली को मेरी तारीफ करनी पड़ेगी।

गोपालसिंह—(कुछ सोचकर और हँसी के ढंग से) अगर गुस्ताखी और बेअदबा में न गिनिये तो मैं पूछ लूँ कि आज आपने भंग के बदले में ताड़ी तो नहीं छानी है?

यद्यपि यह जंगल बहुत ही घना और अंधकारमय हो रहा था, मगर तेजसिह को साथ लिए देवीसिंह के आने की आहट पाते ही भूतनाथ ने बटुए में से एक छोटी-सी अबरख की लालटेन जो मोड़माड़ के बहुत छोटी और चिपटी कर ली जाती थी, निकाल ली थी और रोशनी के लिए तैयार बैठा था। देवीसिंह की आवाज पाते ही उसने बत्ती बाल कर उजाला कर दिया था, जिससे सभी की सूरत साफ-साफ दिखाई दे रही थी। तेजसिंह की इज्जत के लिए सब कोई उठकर दो-चार कदम आगे बढ़ गये थे, और इसके बाद मायारानी का समाचार जानने की नीयत से सभी ने उन्हें घेर लिया था। तेजसिंह के चेहरे पर खुशी की निशानियाँ मामूली से ज्यादा दिखाई दे रही थीं, इसलिए गोपालसिंह इत्यादि किसी भारी खुशखबरी के सुनने की लालसा मिटाने का उद्योग करना चाहते थे। मगर तेजसिंह की रेशम की गुत्थी की तरह उलझी हुई बातों को सुनकर गोपालसिंह भौचक से हो गये और सोचने लगे कि वह कैसी खुशखबरी है कि जिसे तेजसिंह स्वयं नहीं जानते, बल्कि मुझसे ही सुनकर मुझी को सुनाने और खुश करके तारीफों की बौछार सहने के लिए तैयार हैं, और यही सबब था कि राजा गोपालसिंह ने दिल्लगी के साथ तेजसिंह पर भंग के बदले में ताड़ी पीने की आवाज कसी।

तेजसिंह-(हँसकर) ताड़ी और शराब पीना तो आप लोगों का काम है जिन्ह
अपने-बेगाने की कुछ खबर ही नहीं रहती! मैं यह बात दिल्लगी से नहीं कहता, बल्कि साबित कर दूँ कि आप भी उन्हीं में अपनी गिनती करा चुके हैं। सच तो यों है कि इस समय आपके पेट में चूहे कूदते होंगे, और यह जानने के लिए आप बहुत ही बेताब होंगे कि मैं आपसे क्या पूछँगा और क्या कहूँगा। अच्छा आप यह बताइये कि 'लक्ष्मीदेवी' किसका नाम है?

गोपालसिंह—क्या आप नहीं जानते? यह तो उसी कम्बख्त मायारानी का नाम है।

तेजसिंह―बस-बस-बस! अब आपकी जुबानी मुझे उस बात का पता लग गया जिसे मैं एक भारी खुशखबरी समझता हूँ। अब आप सुनिये, (कुछ रुककर) मगर नहीं, पहले आपसे इनाम पाने का इकरार तो करा ही लेना चाहिए, क्योंकि खाली तारीफों की बौछार से काम न चलेगा।

गोपालसिंह―मैं आपको कुछ इनाम देने योग्य तो हूँ नहीं, पर यदि आप मुझे इस योग्य समझते ही हैं तो इनाम का निश्चय भी आप ही कर लीजिए, मुझे जी-जान से उसे पूरा करने के लिए तैयार पाइएगा।

तेजसिंह―(हाथ फैलाकर) अच्छा, तो आप हाथ पर हाथ मारिये, मैं अपना इनाम जब चाहूँगा, माँग लूँगा और आप उस समय उसे देने योग्य होंगे।

गोपालसिंह―(तेजसिंह के हाथ पर हाथ मार के) लीजिए अब तो कहिए, आप तो हम लोगों की बेचैनी बढ़ाते ही जा रहे हैं।

तेजसिंह―हाँ-हाँ, सुनिये। (कमलिनी और लाड़िली से) तुम दोनों भी जरा पास आ जाओ और ध्यान देकर सुनो कि मैं क्या कहता हूँ। (हँसकर) आप लोग बड़े खुश होंगे। हाँ, अब आप सब बैठ जाइये।

गोपालसिंह―(बैठकर) तो आप कहते क्यों नहीं, इतना नखरा-तिल्ला क्यों कर रहें हैं।

तेजसिंह―इसलिए कि खुशी के बाद आप लोगों को रंज भी होगा और आप लोग एक तरद्दुद में फँस जायेंगे

गोपालसिंह―आप तो उलझन पर उलझन डाले जाते हैं और कुछ कहते भी नहीं।

तेजसिंह―कहता तो हूँ, सुनिए—यह जो मायारानी है वह असल में आपकी स्त्री लक्ष्मीदेवी नहीं है।

इतना सुनते ही राजा गोपालसिंह, कमलिनी और लाड़िली को हद से ज्यादा खुशी हुई, यहाँ तक कि दम रुकने लगा और थोड़ी देर तक कुछ कहने की सामर्थ्य न रह गयी। इसके बाद अपनी अवस्था ठीक करके कमलिनी ने कहा।

कमलिनी―ओफ, आज मेरे सिर से बड़े भारी कलंक का टीका मिटा। मैं इस ताने के सोच में मरी जाती थी कि तुम्हारी बहिन जब इतनी दुष्ट है तो तुम न जाने कैसी होगी!

गोपालसिंह―मैं जिस खयाल से लोगों को अपना मुँह दिखाने से हिचकिचाता था आज वह जाता रहा। अब मैं खुशी से जमानिया के राजकर्मचारियों के सामने मायारानी का इजहार लूँगा, मगर यह तो कहिए कि इस बात का निश्चय आपको क्योंकर हुआ?

तेजसिंह-मैं संक्षेप में आपसे यह कह चुका हूँ कि जब मैं दारोगा की सूरत में सुरंग के अन्दर पहुँचा और मायारानी से मुलाकात हुई, तो आपको होश में लाने के लिए मायारानी से खूब हुज्जत हुई।

गोपालसिंह-हाँ, यह आप कह चुके हैं।

तेजसिंह--उस समय जो-जो बातें माया रानी से हुई वह तो पीछे कहूँगा, मगर मायारानी की थोड़ी-सी बात, जिसे मैंने इस तरह अक्षर-अक्षर खूब याद कर रखा है जैसे पाठशाला के लड़के अपना पाठ याद कर रखते हैं, आप लोगों से कहता हूँ, उसी से आप लोग उस भेद का मतलब निकाल लेंगे। मायारानी ने मुझे समझाने की रीति से कहा था कि--

"यद्यपि आपको इस बात का रंज है कि मैंने गोपालसिंह के साथ दगा की और यह भेद आपसे छिपा रखा, मगर आप भी तो जरा पुरानी बातों को याद कीजिए! खास करके उस अंधेरी रात की बात, जिसमें मेरी शादी और पुतले की बदलौअल हुई थी! आप ही ने तो मुझे यहां तक पहुंचाया! अब अगर मेरी दुर्दशा होगी तो क्या आप बच जायेंगे? मान लिया जाय कि अगर गोपालसिंह को बचा लें तो लक्ष्मीदेवी का बच के निकल जाना आपके लिए दुःखदायी न होगा? और जब इस बात की खबर गोपालसिंह को लगेगी; तो क्या वह आपको छोड़ देगा? बेशक जो कुछ आज तक मैंने किया है, सब आप ही का कसूर समझा जायेगा। मैंने इसे इस लिए कैद किया था कि लक्ष्मीदेवी वाला भेद इसे मालम न होने पावे या इसे इस बात का पता न लग जाय कि दारोगा की करतूत ने लक्ष्मीदेवी की जगह.."

बस इतना कहकर वह चुप हो गई ओर मैंने भी इस भेद को सोचते हुए यह समझकर, कि कहीं बात-ही-बात में मेरा अनजानपन न झलक जावे और मायारानी को यह न मालूम हो जाय कि मैं वास्तव में दारोगा नहीं हूँ, इन बातों का कुछ जवाब देना उचित न जाना और चुप हो रहा।

गोपालसिंह-बस-बस! मायारानी के मुँह से निकली हुई इतनी ही बातें सबूत के लिए काफी हैं और बेशक वह कम्बख्त मेरी स्त्री नहीं है। अब मुझे ब्याह के दिन की कुछ बातें धीरे-धीरे याद आ रही हैं जो इस बात को और भी मजबूत कर रही हैं और इसमें भी कोई शक नहीं कि हरामखोर दारोगा ही सारे सब फसादों की जड़ है।

कमलिनी--मगर उस हरामजादी की बातों से, जैसा कि आपने अभी कहा, यह भी साबित होता है कि दारोगा की मदद से अपना काम पूरा करने के बाद वह मेरी बहिन लक्ष्मीदेवी की जान लेना चाहती थी, मगर वह किसी तरह बच के निकल गई।

तेजसिंह-बेशक ऐसा ही है और मेरा दिल गवाही देता है कि लक्ष्मीदेवी अभी तक जीती है। यदि उसकी खोज की जाय तो वह अवश्य मिलेगी। गोपालसिंह—मेरा भी दिल यही गवाही देता है, मगर अफसोस की बात है कि उसने मुझ तक पहुँचने या इस भेद को खोलने के लिए कुछ उद्योग न किया।

कमलिनी-यह आप कैसे कह सकते हैं कि उसने कोई उद्योग न किया होगा? कदाचित् उसका उद्योग सफल न हुआ हो? इसके अतिरिक्त मायारानी की और दारोगा की चालाकी कुछ इतनी कच्ची न थी कि किसी की कलई चल सकती, फिर उस बेचारी का क्या कसूर? जब मैं उसकी सगी बहिन होकर धोखे में फंस गई और इतने दिनों तक उसके साथ रही तो दूसरे की क्या बात है? उसके ब्याह के चार वर्ष बाद जब मैं मातापिता के मर जाने के कारण लाड़िली को साथ ले कर आपके घर आई तो मायारानी की सूरत देखते ही मुझे कुछ शक पड़ा, परन्तु इस खयाल ने उस शक को जमने न दिया कि कदाचित् चार वर्ष के अन्तर ने उसकी सूरत-शक्ल में इतना फर्क डाल दिया हो और यह आश्चर्य की बात है भी नहीं, बहुतेरी कुँआरी लड़कियों की सूरत-शक्ल ब्याह होने के तीन या चार वर्ष बाद ही ऐसी बदल जाती है कि पहचानना कठिन होता है।

तेजसिंह-प्रायः ऐसा होता है, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है!

कमलिनी--और कम्बख्त ने हम दोनों बहिनों की उतनी ही खातिर की जितनी कोई बहिन किसी बहिन की कर सकती है। मगर यह बात भी तभी तक रही जब तक उसने (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) इनको कैद नहीं कर लिया।

गोपालसिंह-मेरे साथ तो रस्म और रिवाज ने दगा की! व्याह के पहले मैंने उसे देखा ही न था, फिर पहचानता क्योंकर?

कमलिनी-बेशक बड़ी चालाकी खेली गई। हाय, अब मैं बहिन लक्ष्मीदेवी को कहाँ ढूंढें और कैसे पाऊं?

तेजसिंह-जिस ढंग से मायारानी ने मुझे समझाया था, उससे तो मालूम होता है कि यह चालाकी करने के साथ ही दारोगा ने लक्ष्मीदेवी को कैद करके किसी गुप्त स्थान में रख दिया था, मगर कुछ दिनों के बाद वह किसी ढंग से छूट के निकल गई। शायद इसी सबब से वह कमलिनी या लाड़िली से न मिल सकी हो।

गोपालसिंह-बिना दारोगा को सताये इसका पूरा हाल मालूम नहीं होगा।

तेजसिंह-दारोगा तो रोहतासगढ़ में ही कैद है।

इतने ही में एक तरफ से आवाज आई, "दारोगा अब रोहतासगढ़ में कैद नहीं है, निकल भागा।" तेजसिंह ने घूमकर देखा तो भैरोंसिंह पर निगाह पड़ी। भैरोंसिंह ने पिता के चरण छूए और राजा गोपालसिंह को भी प्रणाम किया, इसके बाद आज्ञा पाकर बैठ गया।

तेजसिंह–(भैरोंसिंह से) क्या तुम बड़ी देर से खड़े-खड़े हम लोगों की बातें सुन रहे थे? हम लोग बातों में इतना डूबे हुए थे कि तुम्हारा आना जरा भी मालूम न हुआ।

भैरोंसिंह-जी नहीं, मैं अभी-अभी चला आ रहा हूँ और सिवाय इस आखिरी बात के, जिसका जवाब दिया है, आप लोगों की और कोई बात मैंने नहीं सुनी।

तेजसिंह-तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि हम लोग यहाँ हैं? भैरोंसिंह-मैं तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जा रहा था, मगर जब दारोगा वाले बँगले के पास पहुँचा तो उसकी बिगड़ी हुई अवस्था देखकर जी व्याकुल हो गया, क्योंकि इस बात का विश्वास करने में किसी तरह का शक नहीं हो सकता था कि उस बँगले की बरबादी का सबब बारूद और सुरंग है और यह कार्रवाई बेशक हमारे दुश्मनों की है। अस्तु, तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाने के पहले इस मामले का असल हाल जानने की इच्छा हुई और किसी से मिलने की आशा में मैं इस जंगल में घूमने लगा। मगर इस लालटेन की रोशनी ने, जो यहाँ बल रही है, मुझे ज्यादा देर तक नहीं भटकने दिया। अब सबसे पहले मैं उस बँगले की बरबादी का सबब जानना चाहता हूँ। यदि आपको मालूम हो तो कहिये।

तेजसिंह-मैं भी यही चाहता हूँ कि राजा वीरेन्द्रसिंह का कुशल-क्षेम पूछने के बाद जो कुछ कहना है, सो तुमसे कहूँ और उस बँगले की कायापलट का सबब तुमसे बयान करूँ, क्योंकि इस समय एक बड़ा ही कठिन काम तुम्हारे सुपुर्द किया जायेगा जो कितना जरूरी है सो उस बँगले का हाल सुनते ही तुम्हें मालूम हो जायगा।

भैरोंसिंह-राजा वीरेन्द्रसिंह बहुत अच्छी तरह हैं। इधर का हाल सुनकर उन्हें बहत क्रोध आता है और चुपचाप बैठे रहने की इच्छा नहीं होती, परन्तु आपकी वह बात उन्हें बराबर याद आती रहती है जो उनसे बिदा होने के समय अपनी कसम का बोझ देकर आप कह आये थे। निःसन्देह वे आपको सच्चे दिल से चाहते हैं और यही सबब है कि बहुत कुछ कर सकने की शक्ति रखकर भी कुछ नहीं कर रहे हैं।

तेजसिंह-हाँ, मैं उनसे यह ताकीद कर आया था कि चुपचाप चुनार जाकर बैठिए और देखिए कि हम लोग क्या करते हैं। तो क्या राजा वीरेन्द्रसिंह चुनार गये?

भैरोंसिंह-जी हाँ, वे चुनार गये और मैं अबकी दफे चुनार ही से चला आ रहा हूँ। रोहतासगढ़ में केवल ज्योतिषीजी हैं और उन्हें राज्य-सम्बन्धी कार्यों से बहुत कम फरसत मिलती है। इसी सबब से दारोगा धोखा देकर न मालूम किस तरह कैद से निकल भागा। जब यह खबर चुनार पहुँची तो यह सोचकर, कि भविष्य में कोई गड़बड न होने पाये, चन्नीलाल ऐयार रोहतासगढ़ भेजे गये और जब तक कोई दूसरा हक्म न पहँचे, उन्हें बराबर रोहतासगढ़ ही में रहने की आज्ञा हई और मैं इधर का हालचाल लेने के लिए भेजा गया।

तेजसिंह-अच्छा, तो मैं दारोगा वाले बँगले की बरबादी का सबब बयान करता हूँ।

इसके बाद तेजसिंह ने सब हाल अर्थात् अपना सुरंग मे जाना, मायारानी से मलाकात और बातचीत, राजा गोपालसिंह और कमलिनी इत्यादि का गिरफ्तार होना और फिर उन्हें छुड़ाना, तथा दारोगा वाले बंगले के उड़ने का सबब और इसके बाद का पूरा-पूरा हाल कह सुनाया जिसे भैरोंसिंह बड़े गौर से सुनता रहा और जब बातें पूरी हो गयी तो बोला

भैरोंसिंह-यह एक विचित्र बात मालूम हुई कि मायारानी वास्तव में कमलिनी की बहिन नहीं है। (कुछ सोचकर) मगर मैं समझता हूँ कि असल बातों का पूरा-पूरा पता लगाने के लिए उसे बहुत जल्द गिरफ्तार करना चाहिए, केवल उसी को नहीं बल्कि कम्बख्त दारोगा को भी ढूंढ़ निकालना चाहिए।

गोपालसिंह-बेशक ऐसा ही होना चाहिए, और अब मैं भी अपने को गुप्त रखना नहीं चाहता जैसा कि आज के पहले सोचे हुए था।

तेजसिंह-सबसे पहले यह तय कर लेना चाहिए कि अब हम लोगों को करना क्या है! (गोपालसिंह से) आप अपनी राय दीजिए।

गोपालसिंह-राय और बहस में तो घण्टों बीत जायँगे, इसलिए यह काम भी आप ही की मर्जी पर छोड़ा, जो कहिए वही किया जाय।

तेजसिंह-(कुछ सोचकर) अच्छा तो फिर आप कमलिनी और लाड़िली को लेकर जमानिया जाइए और तिलिस्मी बाग में पहुँचकर अपने को प्रकट कर दीजिए, मैं समझता हूँ कि वहाँ आपका विपक्षी (खिलाफ) कोई भी न होगा।

गोपालसिंह-आप खिलाफ कह रहे हैं! मेरे नौकरों को मुझसे मिलने की खुशी है, अपने नौकरों में मैं अपने को प्रकट भी कर चुका हूँ!

तेजसिंह-(ताज्जुब से) यह कब? मैं तो इसका हाल कुछ भी नहीं जानता!

गोपालसिंह-इधर आपसे मुलाकात ही कब हुई जो आप जानते? कमलिनी, लाड़िली, भूतनाथ और देवीसिंह को यह मालूम है।

तेजसिंह-खैर, कह तो जाइए कि क्या हुआ?

गोपालसिंह-बड़ा ही मजा हुआ। मैं आपसे खुलासा कह दूँ सुनिये। एक दिन रात के समय मैं भूतनाथ को साथ लिए गुप्त राह से तिलिस्मी बाग के उस दर्जे में पहुँचा जिसमें मायारानी सो रही थी। हम दोनों नकाब डाले हुए थे। उस समय इसके सिवाय और कोई काम न कर सके कि कुछ रुपये देकर एक मालिन को इस बात पर राजी करें कि कल रात के समय तू चुपके से चोर दरवाजा खोल दीजो क्योंकि कमलिनी इस बाग में आना चाहती हैं। यह काम इस मतलब से नहीं किया गया कि वास्तव में कमलिनी वहाँ जाने वाली थी बल्कि इस मतलब से था कि किसी तरह से कमलिनी के जाने की झूठी खबर मायारानी को मालूम हो जाय और वह कमलिनी को गिरफ्तार करने के लिए पहले से तैयार रहे जिसके बदले में हम और भूतनाथ जाने वाले थे, क्योंकि आगे जो कुछ मैं कहूँगा उससे मालूम होगा कि वह मालिन तो इस भेद को छिपाया चाहती थी और हम लोग हर तरह से प्रकट करके अपने को गिरफ्तार कराया चाहते थे। इसी सबब से दूसरे दिन आधी रात के समय हम दोनों फिर उस बाग में उसी राह से पहुँचे जिसका हाल मेरे सिवाय और कोई भी नहीं जानता-बाग ही में नहीं, बल्कि उस कमरे में पहुँचे जिसमें मायारानी अकेली सो रही थी। उस समय वहाँ केवल एक हांडी जल रही थी जिसे जाते ही मैंने बुझा दिया और इसके बाद दरवाजे में ताला लगा दिया जो अपने माथ ले गया था। यद्यपि दरवाजे पर पहरा पड़ रहा था मगर मैं दरवाजे की राह में नहीं गया था बल्कि एक सुरंग की राह से गया था जिसका सिरा उसी कोठरी में निकलता था। उस कोठरी की दीवार आबनूसी लकड़ी की थी और इस बात का गुमान भी नहीं हो सकता था कि दीवार में कोई दरवाजा है। यह दरवाजा केवल एक तख्ते

च० स०-3-5

के हट जाने से खुलता है और तख्ता एक कमानी के सहारे पर है। खैर ताला बन्द कर देने के बाद मैंने जानबूझ कर एक शीशा जमीन पर गिरा दिया जिसकी आवाज से मायारानी चौंक उठी। अँधेरे के कारण सुरत तो दिखाई नहीं देती थी इसलिए मैं नहीं कह सकता कि उसने क्या-क्या किया मगर इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह बहुत ही घबराई होगी और वह घबराहट उसकी उस समय और भी बढ़ गई होगी, जब दरवाजे के पास पहुँच कर उसने देखा होगा कि वहाँ ताला बन्द है। मैं पैर पटक-पटककर कमरे में घूमने लगा। थोड़ी देर में टटोलता हुआ मायारानी के पास पहुँचकर मैंने उसकी कलाई पकड़ ली और जब वह चिल्लाई तो एक तमाचा जड़ के अलग हो गया। तब मैंने एक एक चोर लालटेन जलाई जो मेरे पास थी। उस समय तक मायारानी डर और मार खाने के कारण बेहोश हो चुकी थी। मैंने दरवाजे का ताला खोल दिया और उसे उठा कर चारपाई पर लिटा देने के बाद वहाँ से चलता बना। यह कार्रवाई इसलिए की गई थी कि मायारानी घबराकर बाहर निकले और उसकी लौंडियाँ इस घटना का पता लगाने के लिए चारों तरफ घूमें जिससे आगे हम लोग जो कुछ करेंगे उसकी खबर मायारानी को लग जाय। इसके बाद मैं और भूतनाथ एक नियत स्थान पर उस मालिन से जाकर मिले और उससे बोले कि आज तो कमलिनी नहीं आ सकी मगर कल आधी रात को जरूर आवेगी, चोर दरवाजा खुला रखियो! बेशक इस बात की खबर मायारानी को लग गई जैसा कि हम लोग चाहते थे, क्योंकि दूसरे दिन जब हम लोग चोर दरवाजे की राह बाग में पहुँचे तो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए कई आदमी मुस्तैद थे।

ऊपर लिखे हुए बयान से पाठक इतना तो जरूर समझ गये होंगे कि मायारानी के बाग में पहुँचने वाले दोनों नकाबपोश जिनका हाल सन्तति के नौवें भाग के चौथे और सातवें बयान में लिख गया है ये ही राजा गोपालसिंह और भूतनाथ थे, इसलिए उन दोनों ने और जो कुछ काम किया उसे इस जगह दोहरा कर लिखना हम इसलिए उचित नहीं समझते कि वह हाल पाठकगण पढ़ ही चुके हैं और उन्हें याद होगा। अस्तु यहाँ केवल इतना ही कह देना काफी है कि ये दोनों गोपालसिंह और भूतनाथ थे और राजा गोपालसिंह ने ही कोठरी के अन्दर बारी-बारी से पाँच-पांच आदमियों को बुलाकर अपनी सूरत दिखाई और कुछ थोड़ा-सा हाल भी कहा था।

राजा गोपालसिंह ने यह सब पूरा-पूरा हाल तेजसिंह और भैरोसिंह से कहा और देर तक वे सुन-सुनकर हँसते रहे। इसके बाद देवीसिंह और भूतनाथ ने भी अपनी कार्रवाई का हाल कहा और फिर इस विषय में बातचीत होने लगी कि अब क्या करना चाहिए।

तेजसिंह-(गोपालसिंह से) अब आप खुले दिल से अपने महल में जाकर राज्य का काम कर सकते हैं इसलिए अब जो कुछ आपको करना है, हुकूमत के साथ कीजिए। ईश्वर की कृपा से अब आपको किसी तरह की चिन्ता न रही इसलिए इधर-उधर ..

गोपालसिंह --यह आप नहीं कह सकते कि अब मुझे किसी तरह की चिन्ता नहीं, मगर हाँ बहुत-सी बातें जिनके सबब से मैं अपने महल में जाने से हिचकता था जाती रहीं इसलिए मेरी भी राय है कि कमलिनी और लाड़िली को साथ लेकर मैं अपने घर जाऊँ और वहाँ से दोनों कुमारों को मदद पहुंचाने का उद्योग करूँ जो इस समय तिलिस्म के अन्दर जा पहुंचे हैं, क्योंकि यद्यपि तिलिस्म का फैसला उन दोनों के हाथों होना ब्रह्मा की लकीर-सा अटल हो रहा है तथापि मेरी मदद पहुँचने से उन्हें विशेष कष्ट न उठाना पड़ेगा। इसके साथ मैं यह भी चाहता हूँ कि किशोरी और कामिनी को भी अपने तिलिस्मी बाग ही में बुलाकर रक्खूं...

कमलिनी-जी नहीं, मैं तिलिस्मी बाग में तब तक नहीं जाऊँगी जब तक कम्बख्त मायारानी से अपना बदला न ले लूँगी और अपनी बहिन को, यदि वह अभी तक इस दुनिया में है, न ढूंढा निकालूँगी। किशोरी और कामिनी का भी आपके यहाँ रहना उचित नहीं है इसे आप अच्छी तरह गौर करके सोच लें। उनकी तरफ से आप निश्चिन्त रहें, तालाब वाले मकान में जो आज कल मेरे दखल में है, उन्हें किसी तरह की तकलीफ न होगी। मैं हाथ जोड़ के प्रार्थना करती हूँ कि आप मेरी प्रार्थना स्वीकार करें और मुझे अपनी राय पर छोड़ दें।

गोपालसिंह—(कुछ सोचकर) तुम्हारी बातों का बहुत-सा हिस्सा सही और बाजिब है मगर बेइज्जती के साथ तुम्हारा इधर-उधर मारे-मारे फिरना मुझे पसन्द नहीं। यद्यपि तुम्हें ऐयारी का शौक है और तुम इस फन को अच्छी जानती हो मगर मेरी और इसी के साथ किसी और की इज्जत पर भी ध्यान देना उचित है। यह बात मैं तुम्हारी गुप्त इच्छा को अच्छी तरह समझकर कहता हूँ। मैं तुम्हारी अभिलाषा में बाधक नहीं होता बल्कि उसे उत्तम और योग्य समझता हूँ

कमलिनी—(कुछ शर्मा कर) उस दिन आप जो चाहें मुझे सजा दें जिस दिन किसी की जुबानी, जो ऐयार या उन लोगों में से न हो जिनके सामने मैं हो सकती हूँ, आप यह सुन पावें कि कमलिनी या लाड़िली की सूरत किसी ने देख ली या दोनों ने कोई ऐसा काम किया जो बेइज्जती या बदनामी से सम्बन्ध रखता है।

गोपालसिंह-(तेजसिंह से) आपकी क्या राय है?

तेजसिंह-मैं इस विषय में कुछ भी न बोलूँगा, हाँ, इतना अवश्य कहूँगा कि यदि आप कमलिनी की प्रार्थना स्वीकार कर लेंगे तो मैं अपने दो ऐयारों को इनकी हिफाजत के लिए छोड़ दूँगा।

गोपालसिंह -जब आप ऐसा कहते हैं तो मुझे कमलिनी की बात माननी पड़ी। खैर, थोड़े से सिपाही इनकी मदद के लिए मैं भी मुकर्रर कर दूँगा।

कमलिनी-मुझे उससे ज्यादा आदमियों की जरूरत नहीं है जितने मेरे पास थे, हाँ आप उन लोगों को एक चिट्ठी मेरे जाने के बाद अवश्य लिख दें कि 'हम इस बात से खुश हैं कि तुम इतने दिनों से कमलिनी के साथ रहे और रहोगे।' हाँ इसके साथ एक काम और भी चाहती हूँ।

गोपालसिंह-वह क्या?

कमलिनी-जब मैंने अपना किस्सा आपसे बयान किया था तो यह भी कहा था कि मायारानी ने तिलिस्मी मकान के जरिए से कुमार और उनके ऐयारों के साथ-ही
साथ कई बहादुर सिपाहियों को गिरफ्तार कर लिया था।

गोपालसिंह―हाँ, मुझे याद है, जिस मकान में बारी-बारी हँसकर वे लोग कूद गये थे।

कमलिनी―जी हाँ, कुमार और उनके ऐयार तो छूट गये, मगर मेरे सिपाहियों का अभी तक पता नहीं है, बेशक वे भी तिलिस्मी बाग में किसी ठिकाने कैद होंगे, जिसका पता आप लगा सकते हैं। मुझे आज तक यह न मालूम हुआ कि उनके हँसने और कूद पड़ने का क्या कारण था। इस विषय में कुमार से भी कुछ पूछने का मौका न मिला।

गोपालसिंह―मैं वादा करता हूँ कि उन आदमियों को यदि वे मारे नहीं गए हैं तो अवश्य ढूँढ़ निकालूँगा, और इसका कारण कि वे लोग हँसते-हँसते उस मकान के अन्दर क्यों कूद पड़े सो तुम इसी समय देवीसिंह से भी पूछ सकती ही जो यहाँ मौजूद हैं और उन हँसते-हँसते कूद पड़ने वालों में शरीक थे।

देवीसिंह―माफ कीजिए, मैं उस विषय में तब तक कुछ भी न कहूँगा जब तक इन्द्रजीतसिंह मेरे सामने मौजूद न होंगे, क्योंकि उन्होंने उस बात को छिपाने के लिए मुझे सख्त ताकीद की है बल्कि कसम दे रखी है।

कमलिनी―यह और भी आश्चर्य की बात है, खैर, जाने दीजिए, फिर देखा जायेगा। हाँ, आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार की? लाड़िली मेरे साथ रहेगी?

गोपालसिंह―हाँ, स्वीकार की। मगर देखना, जो कुछ करना होशियारी ही से करना और मुझे बराबर खबर देती रहना।

तेजसिंह―मैं प्रतिज्ञानुसार अपने दो ऐयार तुम्हारे सुपुर्द करता हूँ। जिन्हें तुम चाहो अपनी मदद के लिए ले लो।

कमलिनी―अच्छा, तो आप कृपाकर भूतनाथ और देवीसिंह को दे दीजिए।

तेजसिंह―भूतनाथ तो तुम्हारा ही ऐयार है उस पर अभी मेरा कोई अख्तियार नहीं है, वह अवश्य तुम्हारे साथ रहेगा, उसके अतिरिक्त दो ऐयार तुम और ले लो।

कमलिनी―निःसन्देह आपका मुझ पर बड़ा अनुग्रह है, मगर मुझे ज्यादा ऐयारों की आवश्यकता नहीं है।

तेजसिंह―खैर, यही सही फिर देखा जायेगा। (देवीसिंह से) अच्छा, तो तुम कमलिनी का काम करो और इनके साथ रहो।

देवीसिंह―बहुत अच्छा।

तेजसिंह―खैर, तो अब सभा विसर्जित होनी चाहिए, देखिये आसमान का रंग बदल गया। कमलिनी और लाड़िली के लिए सवारी का क्या इन्तजाम होगा?

कमलिनी―थोड़ी दूर जाकर मैं रास्ते में इसका इन्तजाम कर लूँगी आप बेफिक्र रहिये।

थोड़ी-सी और बातचीत के बाद सब कोई उठ खड़े हुए। कमलिनी, लाड़िली भूतनाथ तथा देवीसिंह ने दक्खिन का रास्ता पकड़ा और कुछ दूर जाने के बाद सूर्य भगवान की लालिमा दिखाई देने के पहले ही एक जंगल में गायब हो गये।