चन्द्रकांता सन्तति २/८.१
कर रक्खा है।
माया––अच्छा तो तू मुझसे जुदा होकर कहाँ जाएगी?
धनपत––जहाँ कहो।
माया––(कुछ सोचकर) अभी जल्दी न करो, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह कब्जे में आ ही चुके हैं, सूर्योदय के पहले ही मैं उनका काम तमाम कर दूँगी।
धनपत––मगर उसका क्या बन्दोबस्त किया जायगा जिसके विषय में चण्डूल में तेरे कान में...
माया––आह, उसकी तरफ से भी अब मुझे निराशा हो गई, वह बड़ा जिद्दी है।
धनपत––तो क्यों नहीं उसकी तरफ से भी निश्चिन्त हो जाती हो?
माया––हाँ, अब यही होगा।
धनपत––फिर देर करने की क्या जरूरत है?
माया––मैं अभी जाती हूँ, क्या तू भी मेरे साथ चलेगी?
धनपत––मैं चलने को तैयार हूँ, मगर न मालूम उसे (चण्डूल को) यह बात क्योंकर मालूम हो गई।
माया––खैर, अब चलना चाहिए।
अब मायारानी का ध्यान कैदखाने की ताली पर गया। अपनी कमर में ताली न देख कर बहुत हैरान हुई। थोड़ी देर के लिए वह अपने को बिल्कुल ही भूल गई पर आखिर एक लम्बी साँस लेकर धनपत से बोली––
माया––आफत आने की यह दूसरी निशानी है।
धनपत––सो क्या? मेरी समझ में कुछ भी न आया कि यकायक तेरी अवस्था क्यों बदल गई और किस नई घटना ने आकर तुझे घेर लिया।
माया––कैदखाने की ताली जिसे मैं सदा अपनी कमर में रखती थी, गायब हो गई।
धनपत––(घबराकर) कहीं दूसरी जगह न रख दी हो।
माया––नहीं-नहीं, जरूर मेरे पास ही थी। चल लाड़िली से पूछूँ, शायद वह इस विषय में कुछ कह सके।
मायारानी धनपत को साथ लिए लाड़िली के कमरे में गई मगर वहाँ लाड़िली थी कहाँ जो मिलती। अब उसकी घबराहट की कोई हद न रही। एकदम बोल उठी, "बेशक लाडिली ने धोखा दिया।"
धनपत––उसे ढूँढ़ना चाहिए।
मायारानी––(आसमान की तरफ देख कर और लम्बी साँस लेकर) आह, यह पहर भर के लगभग रात जो बाकी है मेरे लिए बड़ी ही अनमोल है। इसे मैं लाड़िली की खोज में व्यर्थ नहीं खोना चाहती। इतने ही समय में मुझे उस जिद्दी के पास पहुँचना और उसका सिर काट कर लौट आना है। कैदियों से भी ज्यादे तरद्दुद मुझे उसका है। हाय, अभी तक वह आवाज मेरे कानों में गूँज रही है जो चण्डूल ने कही थी। खैर, वहाँ जाते-जाते कैदखाने को भी देखती चलूँगी, (जोश में आकर) कैदी चाहे कैदखाने के बाहर हो जायँ मगर इस बाग की चहारदीवारी को नहीं लाँघ सकते। जा, बिहारीसिंह और हरनामसिंह को बहुत जल्द बुला ला।
धनपत दौड़ी हुई गई और थोड़ी ही देर में दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए लौट आई। वे दोनों ऐयारी के सामान से दुरुस्त और हर एक काम के लिए मुस्तैद थे। यद्यपि बिहारी सिंह के चेहरे का रंग अच्छी तरह साफ नहीं हुआ था, तथापि उसकी कोशिश ने उसके चेहरे की सफाई आधी से ज्यादा कर दी थी, आशा थी कि दो ही एक दिन में वह आईने में अपनी असली सूरत देख लेगा।
कैदखाने का रास्ता पाठकों को मालूम है, क्योंकि तेजसिंह जब बिहारीसिंह की सूरत में यहाँ आए थे तो मायारानी के साथ कैदियों को देखने गये थे।
लाड़िली के कमरे में से दस-बारह तीर और कमान ले के धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए मायारानी सुरंग में घुसी। जब कैदखाने के दरवाजे पर पहुँची तो दरवाजा ज्यों-का-त्यों बन्द पाया। कैदखाने की ताली और लाड़िली के गायब होने का हाल कह के बिहारसिंह और हरनामसिंह को ताकीद कर दी कि जब तक मैं लौट कर न आऊँ तब तक तुम दोनों बड़ी होशियारी से इस दरवाजे पर पहरा दो। इसके बाद धनपत को साथ लिये हुए मायरानी बाग के तीसरे दर्जे में उसी रास्ते से गई जिस राह से तेजसिंह भेजे गये थे।
हम पहले लिख आए हैं कि बाग के तीसरे दर्जे में एक बुर्ज है और उसके चारों तरफ बहुत से मकान, कमरे और कोठरियाँ हैं। बाग में एक छोटा-सा चश्मा बह रहा था जिसमें हाथ भर से ज्यादा पानी कहीं नहीं था। मायारानी उसी चश्मे के किनारे-किनारे थोड़ी दूर तक गई यहाँ तक कि वह एक मौलसिरी के पेड़ के नीचे पहुँची जहाँ संगमरमर का एक छोटा-सा चबूतरा बना हुआ था और उस चबूतरे पर पत्थर की मूरत आदमी के बराबर की बैठी हुई थी। रात पहर भर से कम बाकी थी। चन्द्रमा धीरे-धीरे निकल कर अपनी सफेद रोशनी पूरे आसमान पर फैला रहा था। मायारानी ने उस मुरत की कलाई पकड़ कर उमेठी, साथ ही मूरत ने मुँह खोल दिया। मायारानी ने उसके मुँह में हाथ डालकर कोई पेंच घुमाना शुरू किया। थोड़ी देर में चबूतरे के सामने की तरफ का एक बड़ा-सा पत्थर हल्की आवाज के साथ हट कर अलग होगया और नीचे उतरने के लिए सीढियाँ दिखाई दीं। अपने पीछे-पीछे धनपत को आने का इशारा करके मायारानी उस तहखाने में उतर गई। यद्यपि तहखाने में अँधेरा था मगर मायारानी ने टटोल कर एक आले पर से लालटेन और उसके बालने का सामान उतारा और बत्ती वाल कर चारों तरफ देखने लगी। पूरब तरफ की सुरंग का एक छोटा-सा दरवाजा खुला हआ था, दोनों उसके अन्दर घुसी और सुरंग में चलने लगीं। लगभग सौ कदम जाने के बाद वह सुरंग खत्म हई और ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ दिखाई दीं। दोनों औरतें ऊपर चढ गई और उस बुर्ज के निचले हिस्से में पहुँची जो बहुत से मकानों से घिरा हुआ था। यहाँ भी उसी तरह का चबूतरा और उस पर पत्थर का आदमी बैठा हुआ था। वह भी किसी सुरंग का दरवाजा था जिसे मायारानी ने पहली रीति से खोला। यह सुरंग चौथे दर्जे में जाने के लिए थी। दोनों औरतें उस सुरंग में घुसी। दो सौ कदम के लगभग जाने के बाद वह सुरंग खत्म हुई और ऊपर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ नजर आई। दोनों औरतें ऊपर चढ़कर एक कोठरी में पहुँची जिसका दरवाजा खुला हुआ था। कोठरी के बाहर निकल कर धनपत और मायारानी ने अपने को बाग के चौथे हिस्से में पाया। इस बाग का पूरा-पूरा नक्शा हम आगे चल कर खींचेंगे यहाँ केवल मायारानी की कार्रवाई का हाल लिखते है।
कोठरी से आठ-दस कदम की दूरी पर पक्का मगर सूखा कुआँ था जिसके अन्दर लोहे की एक मोटी जंजीर लटक रही थी। कुएँ के ऊपर डोल और रस्सा पड़ा था। डोल में लालटेन रख कर कुएँ के अन्दर ढीला और जब वह तह में पहुँच गया तो दोनों औरतें जंजीर थाम कर कुएँ के अन्दर उतर गईं। नीचे कुएँ की दीवार के साथ छोटा-सा दरवाजा था जिसे खोल कर धनपत को पीछे आने का इशारा करके मायारानी हाथ में लालटेन लिये हुए अन्दर घुसी। वहां पर छोटी-छोटी कई कोठरियाँ थीं। निचली कोठरी में, जिसके आगे लोहे का जंगला लगा हुआ था, एक आदमी हाथ में फौलादी ढाल लिए टहलता हुआ दिखाई पड़ा। यहां बिल्कुल अँधेरा था मगर मायारानी के हाथ वाली लालटेन ने उस कोठरी की हर एक चीज और उस आदमी की सूरत बखूबी दिखा दी। इस समय उस आदमी की उम्र का अन्दाज करना मुश्किल है क्योंकि रंज और गम ने उसे सुखा कर काँटा कर दिया है, बड़ी-बड़ी आँखों के चारों तरफ स्याही दौड़ गई है और उसके चेहरे पर झुर्रियां पड़ी हुई हैं, तो भी हर एक हालत पर ध्यान देकर कह सकते हैं कि वह किसी जमाने में पहुत ही हसीन और नाजुक रहा होगा मगर इस समय कैद ने उसे मुर्दा बना रक्खा है। उसके बदन के कपड़े बिल्कुल फटे और मैले थे और वह बहुत ही मजहूल हो रहा था। कोठरी के एक तरफ ताँबे का घड़ा, लोटा और कुछ खाने का सामान रक्खा हुआ था, ओढ़ने और विछाने के लिए दो कम्बल थे। कोठरी की पिछली दीवार में खिड़की थी जिसके अन्दर से वदवू आ रही थी।
मायारानी और धनपत को देख कर वह आदमी ठहर गया और इस अवस्था में भी लाल-लाल जाँखें करके उन दोनों की तरफ देखने लगा।
मायाननी––यह आखिरी दफे मैं तेरे पास आई हूँ।
कैदी––ईश्वर करे ऐसा ही हो और फिर तेरी सूरत दिखाई न दे।
मालारानी––अब भी अगर वह भेद मुझे बता दे तो तुझे छोड़ दूँगी।
दो––हरामजादी कमीनी औरत, दूर हो मेरे सामने से!
मायारानी––मालूम होता है वह भेद तू अपने साथ ले जायगा?
कैदी––बेशक ऐसा ही है।
मायारानी––यह ढाल तेरे हाथ में में कहाँ से आई?
कैदी––तुझ चाण्डालिन की इस बात का जवाब मैं क्यों दूँ?
मायारानी––मालूम होता है कि तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है और अब तू मौत के पंजे में पड़ना चाहता है!
कैदी––बेशक पहले मुझे अपनी जान प्यारी न थी, पाँच दिन पीछे भोजन करना मुझे पसन्द न था, कभी-कभी तेरी सूरत देखने की बनिम्बत मौत को हजार दर्जे अच्छा समझता था, मगर अब मैं मरने के लिए तैयार नहीं हूँ।
मायारानी––(हँस कर) तुझे मेरे हाथ से बचाने वाला कौन है?
कैदी––(ढाल दिखा कर) यह!
धनपत––(मायारानी के कान में) न मालूम यह ढाल इसे क्योंकर मिल गई! क्या चण्डूल यहाँ तो नहीं पहुँच गया?
मायारानी––(धनपत से) कुछ समझ में नहीं आता। यह ढाल भविष्य बुरा बता रही है।
धनपत––मेरा कलेजा डर के मारे काँप रहा है।
मायारानी––(कैदी से) यह तुझे किसी तरह बचा नहीं सकती और मैं तेरी जान लिए बिना जा नहीं सकती।
कैदी––खैर, जो कुछ तू कर सके, कर ले।
मायारानी––तू जिद्दी और बेहया है।
कैदी––हरामजादी की बच्ची, बेहया तो तू है जो घड़ी-घड़ी के बाद मेरे सामने आती है।
इस बात के जवाब में मायारानी ने एक तीर कैदी को मारा, जिसे उसने बडी चालाकी से ढाल पर रोक लिया, दूसरा तीर चलाया, वह भी बेकार हुआ, तीसरा तीर चलाया, उससे भी कोई काम न चला। लाचार मायारानी कैदी का मुंह देखने लगी।
कैदी––तेरे किए अब कुछ भी न होगा।
मायारानी––खैर, देखूगी, तू कब तक अपनी जान बचाता है।
कैदी––मेरी जान कोई भी नहीं ले सकता, बल्कि मुझे निश्चय हो गया कि अब तेरी मौत आ गई।
इसका जवाब मायारानी कुछ देना ही चाहती थी कि एक आवाज ने उसे चौंका दिया। कैदी की बात पूरी होने के साथ ही किसी ने कहा, "बेशक मायारानी की मौत आ गई!"