चंद्रकांता संतति भाग 2
देवकीनन्दन खत्री

दिल्ली: भारती भाषा प्रकाशन, पृष्ठ २२ से – ३२ तक

 

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हम ऊपर लिख आये हैं कि देवीसिंह को साथ लेकर शेरसिंह कुँअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए रोहतासगढ़ से रवाना हुए। शेरसिंह इस बात को तो जानते थे कि भी खबर कुँअर इन्द्रजीतसिंह फलाँ जगह हैं परन्तु उन्हें तालाब के गुप्त भेदों की न थी। राह में आपस में बातचीत होने लगी।

देवीसिंह––लाली का भेद कुछ मालूम हुआ?

शेरसिंह––अफसोस, उसके और कुन्दन के बारे में मुझसे बड़ी भारी भूल हुई। ऐसा धोखा खाया कि शर्म के मारे कुछ कह नहीं सकता।

देवीसिंह––इसमें शर्म की क्या बात है। ऐसा कोई ऐयार दुनिया में न होगा जिसने कभी धोखा न खाया हो। हम लोग कभी धोखा देते हैं, कभी स्वयं धोखे में आ जाते हैं, फिर इसका अफसोस कहाँ तक किया जाय!

शेरसिंह––आपका कहना बहुत ठीक है, खैर, इस बारे में मैंने जो-कुछ मालूम किया है उसे कहता हूँ! यद्यपि थोड़े दिनों तक मैंने रोहतासगढ़ से अपना सम्बन्ध छोड़ दिया था, तथापि मैं कभी-कभी वहाँ जाया करता और गुप्त राहों से महल के अन्दर जाकर वहाँ की खबर भी लिया करता था। जब किशोरी वहाँ फँस गयी तो अपनी भतीजी कमला के कहने से मैं वहाँ दूसरे-तीसरे बराबर जाने लगा। लाली और कुन्दन को मैंने महल में देखा। यह न मालूम हुआ कि ये दोनों कौन हैं। बहुत-कुछ पता लगाया मगर कुछ काम न चला। परन्तु कुन्दन के चेहरे पर जब मैं गौर करता तो मुझे शक होता कि वह सरला है।

देवीसिंह––सरला कौन?

शेरसिंह––वही, सरला जिसे तुम्हारी चम्पा ने चेली बनाकर रखा था और जो उस समय चम्पा के साथ थी जब उसने एक खोह के अन्दर माधवी के ऐयार की लाश काटी थी।

देवीसिंह––हाँ वह छोकरी, मुझे अब याद आया। मालूम नहीं कि आजकल वह कहाँ है। खैर, तब क्या हुआ? तुमने समझा कि वह सरला है मगर उस खोह का और लाश काटने का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

शेरसिंह––वह हाल स्वयं सरला ने कहा था। वह मेरे आपस वालों में से है। इत्तिफाक से एक दिन मुझसे मिलने के लिए रोहतासगढ़ आयी थी, तब सब हाल मैंने सुना था। मगर मुझे यह नहीं मालूम कि आजकल वह कहाँ है।

शेरसिंह––एक यही भेद खोलने की नीयत से मैं रात के समय रोहतासगढ़ महल के अन्दर गया और छिपकर सरला के सामने जाकर बोला, "मैं पहचान गया कि तू सरला है, फिर अपना भेद मुझसे क्यों छिपाती है?" इसके जवाब में कुन्दन से पूछा, "तुम कौन हो?"

मैं––शेरसिंह। सरला––मुझे जब तक निश्चय न हो कि तुम शेरसिंह ही हो, मैं अपना भेद कैसे कहूँ?

मैं––क्या तू मुझे नहीं पहचानती?

सरला––क्या जाने, कोई ऐयार सूरत बदल के आया हो। अगर तुम पहचान गए कि मैं सरला हूँ तो कोई ऐसी छिपी हुई बात कहो जो मैंने तुमसे कही हो।

इसके जवाब में मैं वही खोह वाला अर्थात् लाश काटने वाला किस्सा कह गया और अन्त में मैं बोला कि यह हाल स्वयं तूने मुझसे बयान किया था।

उस किस्से को सुनकर कुन्दन हँसी और बोली, "हाँ, अब मैं समझ गयी। मैं चम्पा के हुक्म से यहाँ का हाल-चाल लेने आयी थी और अब किशोरी को छुड़ाने की फिक्र में हूँ। मगर लाली मेरे काम में बाधा डालती है। कोई ऐसी तरकीब बताइये जिसमें लाली मुझसे दबे और डरे।"

मैं उस समय यह कहकर वहाँ से चला आया कि अच्छा, मैं सोच कर इसका जवाब दूँगा।

देवीसिंह––तब क्या हुआ?

शेरसिंह––मैं वहाँ से रवाना हुआ और पहाड़ी के नीचे उतरते समय एक विचित्र बात मेरे देखने और सुनने में आई।

देवीसिंह––वह क्या?

शेरसिंह––जब मैं अँधेरी रात में पहाड़ी के नीचे उतर रहा था तो जंगल में मालूम हुआ कि दो-तीन आदमी जो पगडण्डी के पास ही थे, आपस बातें कर रहे हैं। मैं पैर दवाता हुआ उनके पास गया और छिपकर बातें सुनने लगा, मगर उस समय उनकी बातें समाप्त हो चुकी थीं, केवल एक आखिरी बात सुनने में आई।

देवीसिंह––वह क्या थी?

शेरसिंह––एक ने कहा––'भरसक तो लाली और कुन्दन दोनों उन्हीं में से हैं, नहीं तो लाली तो जरूर इन्द्रजीतसिंह की दुश्मन है! मगर इसकी पहचान तो सहज ही में हो सकती है। केवल 'किसी के खून से लिखी हुई किताब' और 'आँचल पर गुलामी की दस्तावेज' इन दोनों जुमलों से अगर वह डर जाय, तो हम समझ जायँगे कि वीरेन्द्रसिंह की दुश्मन है। खैर, बूझा जायगा, पहले महल में जाने का मौका भी तो मिले। इसके बाद और कुछ सुनने में न आया और वे लोग वहाँ से न मालूम कहाँ चले गए। दूसरे दिन मैं फिर कुन्दन के पास गया और उससे बोला कि "तू लाली के सामने 'किसी के खून से लिखी हुई किताब' और 'आँचल पर गुलामी की दस्तावेज' का जिक्र करके देख, क्या होता है!"

देवीसिंह––फिर क्या हुआ?

शेरसिंह––तीन-चार दिन बाद मैं कुन्दन के पास गया तो उसकी जुबानी मालूम हुआ कि कुन्दन के मुँह से वे बातें सुनकर लाली बहुत डरी और उसने कुन्दन का मुकाबला करना छोड़ दिया। मगर मुझे थोड़े ही दिनों में मालूम हो गया कि कुन्दन सरला न थी, उसने मुझे धोखा दिया और चालाकी से मेरी जुबानी भेद मालूम करके अपना काम निकाल लिया। मुझे इस बात की बड़ी शर्म है कि मैंने अपने दुश्मन को दोस्त समझा और धोखा खाया।

देवीसिंह––अक्सर ऐसा धोखा हो जाता है। खैर, लाली तो अभी हम लोगों के कैद ही में है, कहीं जाती नहीं, रही कुन्दन, सो इन्द्रजीतसिंह को लेकर लौटने पर कोई तरकीब ऐसी जरूर निकाली जायगी, जिसमें बाकी लोगों का असल हाल मालूम हो।

इसी तरह की बातें करते हुए दोनों ऐयार चलते गये। रात को एक जगह दो-तीन घण्टे आराम किया और फिर चल पड़े। सवेरा होते-होते एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ एक छोटा-सा टीला ऐसा था जिस पर चढ़ने से दूर-दूर तक की जमीन दिखाई देती थी तथा वहाँ से कमलिनी का तालाब वाला मकान भी बहुत दूर न था। दोनों ऐयार उस टीले पर चढ़ गये और मैदान की तरफ देखने लगे। यकायक शेरसिंह ने चौंक कर कहा, "अहा, हम लोग क्या अच्छे मौके पर आये हैं! देखो, वह कुँअर इन्द्रजीतसिंह और वह औरत, जिसने उन्हें फँसा रक्खा है, घोड़े पर सवार इसी तरफ चले आ रहे हैं!"

देवीसिंह––हाँ, ठीक तो है, उनके साथ और भी कई सवार हैं।

शेरसिंह––मालूम होता है, उस औरत ने उन्हें अच्छी तरह अपने वश में कर लिया है। बेचारे इन्द्रजीतसिंह क्या जानें कि यह उनकी दुश्मन है। चाहे जो हो, इस समय इन लोगों को आगे न बढ़ने देना चाहिए।

देवीसिंह––सबके आगे एक औरत घोड़े पर सवार आ रही है। मालूम होता है कि उन लोगों को रास्ता दिखाने वाली यही है।

शेरसिंह––बेशक ऐसा ही है, तभी तो सब कोई उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं। पहले उसी को रोकना चाहिए, मगर घोड़ों की चाल बहुत तेज है।

देवीसिंह––कोई हर्ज नहीं, हम दोनों आदमी घोड़े की राह पर अड़कर खड़े हो जायँ और अपने को घोड़े से बचाने के लिए मुस्तैद रहें। अच्छी नसल का घोड़ा यकायक आदमी के ऊपर टाप न रक्खेगा, वह लोगों को राह में देख जरूर अड़ेगा या झिककेगा, बस, उसी समय घोड़े की बाग थाम लेंगे।

दोनों ऐयारों ने बहुत जल्द अपनी राय ठीक कर ली और दोनों आदमी एक साथ घोड़ों की राह में अड़ के खड़े हो गये। बात-की-बात में वे लोग भी आ पहुँचे। तारा का घोड़ा रास्ते में आदमियों को खड़ा देख कर झिझका और आड़ देकर बगल की तरफ घूमना चाहा, उसी समय देवीसिंह ने फुर्ती से लंगाम पकड़ ली। इस समय तारा का घोड़ा लाचार रुक गया और उसके पीछे आने वालों को भी रुकना पड़ा। कुँअर इन्द्रजीत सिंह शेरसिंह को तो नहीं जानते थे, मगर देवीसिंह को उन्होंने पहचान लिया और समझ गये कि ये लोग मेरी ही खोज में घूम रहे हैं। आखिर वे देवीसिंह के पास आये और बोले––

कुमार––यद्यपि आप सब काम मेरी भलाई ही के लिए करते होंगे, परन्तु इस समय हम लोगों को रोका सो अच्छा न किया।

देवीसिंह––क्या मामला है, कुछ कहिए तो!

कुमार––(जल्दी में घबराए हुए ढंग से) बेचारी किशोरी एक आफत में फँसी हुई है उसी को बचाने जा रहे हैं।

देवीसिंह––किस आफत में फँसी है?

कुमार––इतना कहने का मौका नहीं है।

देवीसिंह––यह औरत आपको अवश्य धोखा देगी जिसके साथ आप जा रहे हैं।

कुमार––ऐसा नहीं हो सकता, यह बड़ी ही नेक और मेरी हमदर्द है।

इतना सुनते ही कमलिनी आगे बढ़ आई और देवीसिंह से बोली––

कमलिनी––मैं खूब जानती हूँ कि आप लोगों को मेरी तरफ से शक है, तथापि मुझे कहना ही पड़ता है कि इस समय आप हम लोगों को न रोकें, नहीं तो पछताना पड़ेगा। यदि आप लोगों को मेरी और कुमार की बात का विश्वास न हो तो मेरे सवारों में से दो आदमी घोड़ों पर से उतर पड़ते हैं, उनके बदले में आप दोनों आदमी घोड़ों पर सवार होकर साथ चलें और देख लें कि हम आपके खैरख्वाह हैं या बदख्वाह।

देवीसिंह––बेशक यह अच्छी बात है और मैं इसे मंजूर करता हूँ।

कमलिनी के इशारा करते ही दो सवारों ने घोड़ों की पीठ खाली कर दी। उनके बदले में देवीसिंह और शेरसिंह सवार हो गए और फिर उसी तरह सफर शुरू हुआ। इस समय कुछ-कुछ सूरज निकाल चुका था और सुनहरी धूप ऊँचे पेड़ों के ऊपर वाले हिस्सों पर फैल चुकी थी।

आधे घण्टे और सफर करने के बाद वे लोग उस जगह पहुँचे जहाँ धनपति ने किशोरी को जलाकर खाक कर डालने के लिए चिता तैयार की थी और जहाँ से दीवान अग्निदत्त लड़-भिड़कर किशोरी को ले गया था। इस समय भी वह चिता कुछ बिगड़ी हुई सूरत में तैयार थी और इधर-उधर बहुत-सी लाशें पड़ी हुई थीं। उस जगह पहुँचकर तारा ने घोड़ा रोका और इसके साथ ही सब लोग रुक गये। तारा ने कमलिनी की तरफ देखकर कहा––

तारा––बस, इसी जगह मैं आप लोगों को लाने वाली थी, क्योंकि इसी जगह धनपति के बहुत से आदमी मौजूद थे और यहीं वह किशोरी को लेकर आने वाली थी। (लाशों की तरफ देखकर) मालूम होता है, यहाँ बहुत खून-खराबा हुआ है!

कमलिनी––तूने कैसे जाना कि किशोरी को लेकर धनपति इसी जगह आने वाली थी और धनपति को तूने कहाँ छोड़ा था?

तारा––रात के समय खूब छिपकर धनपति के आदमियों की बात मैंने सुनी थी जिससे बहुत-कुछ हाल मालूम हुआ था और धनपति को मैंने उसी खोह के मुहाने पर छोड़ा था जो रोहतासगढ़ तहखाने से बाहर निकलने का रास्ता है और जहाँ सलई के दो पेड़ लगे हैं। उस समय बेहोश किशोरी धनपति के कब्जे में थी और धनपति के कई आदमी वहाँ मौजूद थे। उन लोगों की बातें सुनने से मुझे विश्वास हो गया था कि वे लोग किशोरी को लिए हुए इसी जगह आवेंगे। (एक लाश की तरफ देख के और चौंक के) देखिए, पहिचानिए।

कमलिनी––बेशक यह धनपति का नौकर है। (और लाशों को भी अच्छी तरह देखकर) बेशक धनपति यहाँ तक आई थी, पर किसी से लड़ाई हो गई जो इन लाशों को देखने से जाना जाता है। मगर इनमें बहुत-सी लाशें ऐसी हैं जिन्हें मैं नहीं पहचानती। न मालूम इस लड़ाई का क्या नतीजा हुआ, धनपति गिरफ्तार हो गई या भाग गई, और किशोरी किसके कब्जे में पड़ गई! (कुमार की तरफ देखकर) शायद आपके सिपाही या ऐयार लोग यहाँ आए हों?

कुमार––नहीं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) आप क्या खयाल करते हैं?

देवीसिंह––खयाल तो मैं बहुत-कुछ करता हूँ, इसका हाल कहाँ तक पूछिएगा, मगर इन लाशों में हमारी तरफ वालों की कोई लाश नहीं है जिससे यह मालूम हो कि वे लोग यहाँ आये होंगे।

सब लोग इधर-उधर घूमकर उन लाशों को देखने लगे। यकायक देवीसिंह एक ऐसी लाश के पास पहुँचे जिसमें जान बाकी थी और वह धीरे-धीरे कराह रहा था। उसके बदन में कई जगह जख्म लगे हुए थे और कपड़े खून से तर थे। देवीसिंह ने कुमार की तरफ देख के कहा, "इसमें जान बाकी है, अगर बच जाय और कुछ बातचीत कर सके, तो बहुत-कुछ हाल मालूम होगा।"

कई आदमी उस लाश के पास जा मौजूद हुए और उसे होश में लाने की फिक्र करने लगे। उसके जख्मों पर पट्टी बाँधी गई और ताकत देने वाली दवा भी पिलाई गई। घोड़े नंगी पीठ करके दम लेने, हरारत मिटाने और चरने के लिए लम्बी बागडोरों से बाँध कर छोड़ दिए गए।

आधे घण्टे बाद उस आदमी को होश आया और उसने कुछ बोलने का इरादा किया, मगर जैसे ही उसकी निगाह कमलिनी पर पड़ी, वह काँप उठा और उसके चेहरे पर मुर्दनी छा गई। उसके दिल का हाल कमलिनी समझ गई और उसके पास जाकर मुलायम आवाज में बोली, "बाँकेसिंह, डरो मत, मैं वादा करती हूँ कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूँगी। हाँ, होश में आओ और मेरी बात का जवाब दो।"

कमलिनी की बात सुनकर उसके चेहरे की रंगत बदल गई, डर की निशानी जाती रही, और यह भी जाना गया कि वह कमलिनी की बातों का जवाब देने के लिए तैयार है।

कमलिनी––किशोरी को लेकर धनपति यहाँ आई थी?

बाँकेसिंह––(सिर हिलाकर धीरे से) हाँ, मगर...

कमलिनी––मगर क्या?

बाँकेसिंह––उसने किशोरी को जला देना चाहा था, मगर एकाएक अग्निदत्त और उसके साथी लोग आ पहुँचे और लड़-भिड़ कर किशोरी को ले गये। हम लोग उन्हीं के हाथ से जख्मी...

बाँकेसिंह ने इतनी बातें धीरे-धीरे और रुक-रुककर कहीं क्योंकि जख्मों से ज्यादे खून निकल जाने के कारण वह बहुत ही कमजोर हो रहा था, यहाँ तक कि बात पूरी न कर सका और गश में आ गया। इन लोगों ने उसे होश में लाने के लिए बहुत-कुछ उद्योग किया मगर दो घण्टे तक होश न आया। इस बीच में देवीसिंह ने उसे कई दफे दवा पिलाई। देवीसिंह––इसमें कोई शक नहीं कि यह बच जायगा।

शेरसिंह––(देवीसिंह की तरफ देखकर) हमने (कमलिनी की तरफ इशारा करके) इनके बारे में भी धोखा खाया, वास्तव में यह कुमार के साथ नेकी कर रही हैं।

देवीसिंह––बेशक यह कुमार की दोस्त हैं, मगर तुमने इनके बारे में कई बातें ऐसी कही थीं कि अब भी

कुमार––नहीं-नहीं देवीसिंह जी, मैं इन्हें अच्छी तरह आजमा चुका हूँ; सच तो यह है कि इन्हीं की बदौलत आज आप लोगों ने मेरी सूरत देखी।

इसके बाद कुमार ने शुरू से अपना पूरा किस्सा देवीसिंह से कह सुनाया और कमलिनी की बड़ी तारीफ की।

कमलिनी––आप लोगों ने मेरे बारे में बहुत-सी बातें सुनी होंगी और वास्तव में मैंने जैसे काम किये हैं वे ऐसे नहीं कि कोई मुझ पर विश्वास कर सके। हाँ, जब आप लोग मेरा असल भेद जान जायेंगे तो अवश्य कहेंगे कि तुम्हारे हाथ से कभी कोई बुरा काम नहीं हुआ। अभी कुमार को भी मेरा कुछ हाल मालूम नहीं। समय मिलने पर मैं अपना विचित्र हाल आप लोगों से कहूँगी और उस समय आप लोग भी कहेंगे कि बेशक शेरसिंह और उनकी भतीजी कमला ने मेरे बारे में धोखा खाया।

शेरसिंह––(ताज्जुब में आकर) आप मुझे और मेरी भतीजी कमला को कैसे जानती हैं?

कमलिनी––मैं आप लोगों को बहुत अच्छी तरह से जानती हूँ। हाँ, आप लोग मुझे नहीं जानते और जब तक मैं स्वयं अपना हाल न कहूँ, जान भी नहीं सकते।

इसके बाद कुमार ने देवीसिंह से शेरसिंह का हाल पूछा और उन्होंने सब हाल कहा। इसी समय उस जख्मी ने फिर आँखें खोलीं और पीने के लिए पानी माँगा जिसका इलाज ये लोग कर रहे थे।

अबकी दफे बाँकेसिंह अच्छी तरह होश में आ गया और कमलिनी के पूछने पर उसने इस तरह बयान किया––


"इसमें कोई सन्देह नहीं कि अग्निदत्त किशोरी को ले गया क्योंकि मैं उसे बखूबी पहचानता हूँ। मगर यह नहीं मालूम कि किशोरी की तरह धनपति भी उसके पंजे में फँस गई या निकल भागी, क्योंकि लड़ाई खतम होने के पहले ही मैं जख्मी होकर गिर पड़ा था। मैं जानता था कि अग्निदत्त बहुत-से बदमाशों और लुटेरों के साथ यहाँ से थोड़ी दूर एक पहाड़ी पर रहता है और इसी सबब से धनपति को मैंने कहा भी था कि इस जगह आपका अटकना मुनासिब नहीं, मगर होनहार को क्या किया जाय! (हाथ जोड़कर) महारानी, न मालूम क्यों आपने हम लोगों को त्याग दिया? आज तक इसका ठीक पता हम लोगों को न लगा।"

बाँकेसिंह की आखिरी बात का जवाब कमलिनी ने कुछ न दिया और उससे उस पहाड़ी का पूरा पता पूछा जहाँ अग्निदत्त रहता था। बाँकेसिंह ने अच्छी तरह वहाँ का पता दिया। कमलिनी ने अपने सवारों में से एक को बाँकेसिंह के पास छोड़ा और बाकी सब को साथ ले वहाँ से रवाना हुई। इस समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह की क्या अवस्था थी इसे अच्छी तरह समझना जरा कठिन था। कमलिनी की नेकी, किशोरी की दशा, इश्क की खिंचाखिंची और अग्निदत्त की कार्रवाई के सोच-विचार में ऐसे मग्न हुए कि थोड़ी देर के लिए तन-बदन की सुध भुला दी। केवल इतना जानते रहे कि कमलिनी के पीछे-पीछे किसी काम के लिए कहीं जा रहे हैं। सूर्य अस्त होने के बाद ये लोग उस पहाड़ी के नीचे पहुँचे जिस पर अग्निदत्त रहता था और जहाँ खोह वे अन्दर किशोरी की अन्तिम अवस्था ऊपर के बयान में लिख आये हैं।

इन लोगों का दिल इस समय ऐसा न था कि इस पहाड़ी के नीचे पहुँच कर किसी जरूरी काम के लिए भी कुछ देर तक अटकते। घोड़ों को पेड़ों से बाँध तुरंत चढ़ने लगे और बात-की-बात में पहाड़ी के ऊपर जा पहुँचे। सबसे पहले जिस चीज पर इन लोगों की निगाह पड़ी वह एक लाश थी जिसे इन लोगों में से कोई भी नहीं पहचानता था और इसके बाद भी बहुस-सी लाशें देखने में आई, जिससे इन लोगों का दिल छोटा हो गया और सोचने लगे कि देखें, किशोरी से मुलाकात होती है या नहीं।

इस पहाड़ी के ऊपर एक छोटी-सी मढ़ी बनी हुई थी जिसमें बीस-पच्चीस आदमी रह सकते थे और इसी की बगल में एक गुफा थी जो बहुत लम्बी और अँधेरी थी। पाठक, यह वही गुफा थी जिसमें बेचारी किशोरी दुष्ट अग्निदत्त के हाथ से बेबस होकर जमीन पर गिर पड़ी थी।

इस पहाड़ी के ऊपर बहुत-सी लाशें पड़ी हुई थीं, किसी का सिर कटा हुआ था, किसी को तलवार ने जनेवा काट गिराया था, कोई कमर से दो टुकड़े था, किसी का हाथ कटकर अलग हो गया था, किसी के पेट को खंजर ने फाड़ डाला था और आँत बाहर निकल पड़ी थी, मगर किसी जीते आदमी का नाम-निशान वहाँ न था। ऐसी अवस्था देखकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह बहुत घबराये और उन्हें किसी के मिलने से नाउम्मीदी हो गई। ऐयारों ने बटुए से सामान निकालकर बत्ती जलाई और खोह के अन्दर घुसकर देखा तो वहाँ भी एक लाश के सिवाय और कुछ न दिखाई पड़ा। निगाह पड़ते ही देवीसिंह ने पहचान लिया कि यह अग्निदत्त की लाश है। एक खंजर उसके कलेजे में अभी तक चुभा हुआ मौजूद था, केवल उसका कब्जा बाहर दिखाई दे रहा था, उसके पास ही एक लपेटा हुआ कागज पड़ा था। देवीसिंह ने वह कागज उठा लिया और दोनों ऐयार उस लाश को बाहर लाये।

सभी ने अग्निदत्त की लाश को देखा और ताज्जुब किया।

शेरसिंह––इस हरामजादे को इसके कुकर्मों की सजा न मालूम किसने दी!

कमलिनी––हाय, इस कम्बख्त की बदौलत बेचारी किशोरी पर न मालूम क्या-क्या आफतें आईं और अब वह कहाँ या किस अवस्था में है!

देवीसिंह––(चिट्ठी दिखाकर) इसकी लाश के पास से यह चिट्ठी भी मिली है, शायद इससे कुछ पता चले।

कमलिनी––हाँ-हाँ, इसे पढ़ो तो सही, देखें, क्या लिखा है।

सभी का ध्यान उस चिट्ठी पर गया। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने वह चिट्ठी देवीसिंह के हाथ से ले ली और पढ़कर सभी को सुनायी। यह लिखा था–– "आखिर हरामजादी किशोरी मेरे हाथ लगो! इसमें कोई शक नहीं कि अब यह अपने किये का फल भोगेगी। इसकी शैतानी ने मुझे जीते-जी मार ही डाला था मगर मैंने भी पीछा न छोड़ा। कम्बख्त अग्निदत्त की क्या हकीकत थी जो मेरे हाथ से अपनी जान बचा ले जाता। मैं उन लोगों को ललकारता हूँ जो अपने को बहादुर, दिलेर और राजा मानते हैं! कहाँ हैं वीरेन्द्रसिंह, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह, जो अपनी बहादुरी का दावा रखते हैं? आवें और मेरा चरण छू कर माफी माँगें। कहाँ हैं उनके ऐयार, जो अपने को विधाता ही समझ बैठे हैं? आवें और मेरे ऐयारों के सामने सिर झुकावें। मुझे विश्वास है कि उन लोगों में से कोई-न-कोई किशोरी को खोजता यहाँ जरूर आवेगा और इसलिए मैं यह चिट्ठी लिखकर यहाँ रक्खे जाता हूँ कि ऊपर लिखे व्यक्ति या उनके साथी और मददगार लोग, चाहे जो कोई भी हों, अपनी-अपनी जान बचावें, क्योंकि उनकी मौत आ चुकी है और अब वे लोग मेरे हाथ से किसी तरह बच नहीं सकते। कोई यह न कहे कि मैं छिपकर अपना काम करता हूँ और किसी को अपनी सूरत नहीं दिखाता। जिसको मेरी सूरत देखनी हो मेरे घर चला आवे, मगर होशियार रहे क्योंकि मेरे सामने आनेवाले की भी वही दशा होगी जो यहाँ वालों की हुई। लो, मैं अपना पता भी बताये देता हूँ, जिसको आना हो, मेरे पास चला आवे। यहाँ से पाँच कोस पूरब एक नाला है उसी के किनारे दक्खिन रुख दो कोस तक चले जाने के बाद मेरा मकान दिखाई पड़ेगा।

—बहादुरों का दादागुरु।"

इस चिट्ठी ने सब को अपने आपे से बाहर कर दिया। मारे क्रोध के कुँअर इन्द्रजीतसिंह की आँखें कबूतर के खून की तरह सुर्ख हो गईं। देवीसिंह और शेरसिंह दाँत पीसने लगें।

कुमार––चाहे जो हो, मगर इस हरामजादे से मुकाबला किये बिना मैं किसी तरह आराम नहीं कर सकता।

देवीसिंह––बेशक इसको इस ढिठाई की सजा दी जायगी।

कुमार––अब यहाँ ठहरना व्यर्थ है, चलकर उसे ढूँढ़ना चाहिए।

कमलिनी––बेशक उसने बड़ी वेअदबी की है, उसे जरूर सजा देनी चाहिए। मगर आप लोग बुद्धिमान हैं, मुझे विश्वास है कि बिना समझे-बूझे किसी काम में जल्दी न करेंगे।

कुमार––ऐसे समय में विलम्ब करना अपनी बहादुरी में बट्टा लगाना है।

कमलिनी––आप इस समय क्रोध में हैं इसलिए ऐसा कहते हैं, नहीं तो आप स्वयं पहले किसी ऐयार को भेजना मुनासिब समझते। इतनी बड़ी शेखी के साथ पत्र लिखने वाले को मैं सच्चा नहीं समझ सकती। खुल्लमखुल्ला आप लोगों का का मुकाबला करना हँसी-खेल है? क्या यह केवल उन्हीं आदमियों का काम है जो दगाबाज नहीं, बल्कि सच्चे बहादुर हैं? कभी नहीं, कभी नहीं, बेशक यह कोई पूरा बेईमान और हरामजादा आदमी है। इसके अतिरिक्त आप जरा इस रात के समय और अपने घोड़ों की हालत पर तो ध्यान दीजिये कि अब वे एक कदम भी चलने लायक नहीं रहे। यद्यपि कुमार और उनके ऐयार इस समय बड़े क्रोध में थे परन्तु कमलिनी की सच्ची हमदर्दी के साथ मीठी-मीठी बातों ने उन्हें ठंडा किया और इस लायक बनाया कि वे नेक और बद को सोच सकें। कमलिनी के आदमियों के साथ और ऐयारों के बटुए में बहुत-कुछ खाने का सामान था। पहाड़ी के नीचे एक छोटा-सा चश्मा बह रहा था, वहाँ से जल मँगवाया गया और सभी ने कुछ खाकर जल पीया, इसके बाद फिर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

देवीसिंह––जिस मकान का इस चिट्ठी में पता दिया गया है यदि वहाँ न जाना चाहिए तो यहाँ रहना भी मुनासिब नहीं, क्योंकि वे दगाबाज लोग इस जगह से भी बेफिक्र न होंगे। मेरी राय तो यही है कि शेरसिंह के साथ कुमार विजयगढ़ जायँ और मैं उस मकान की खोज में जाकर देखूँ कि वहाँ क्या है।

कमलिनी––आपका कहना बहुत ठीक है, मैं भी यही मुनासिब समझती हूँ, इस बीच में मुझे भी दो-एक दुश्मनों का पता लगा लेने का मौका मिलेगा, क्योंकि जहाँ तक मैं समझती हूँ, यह एक ऐसे आदमी का काम है जिसे सिवाय मेरे आप लोग नहीं जानते और न इस समय उसका नाम आप लोगों के सामने लेना ही मैं मुनासिब समझती हूँ।

कुमार––क्या नाम बताने में कोई हर्ज है?

कमलिनी––बेशक हर्ज है। हाँ, यदि मेरा अन्दाज ठीक निकला तो अवश्य उन लोगों का नाम बताऊँगी और पता भी दूँगी।

कुमार––खैर, मगर जो कुछ राय आप लोगों ने दी है उसके अनुसार चलने में तो कई दिन व्यर्थ लग जायँगे, इसलिए मेरी राय कुछ दूसरी ही है।

देवीसिंह––वह क्या?

कुमार––मैं खुद आपके साथ उस मकान की तरफ चलता हूँ जिसका पता इस चिट्ठी में दिया गया है। यदि केवल उस मकान के अन्दर रहने वाले हमारे दुश्मन हैं तो हिम्मत हारने की कोई जरूरत नहीं। इसी समय उन्हें जीत कर किशोरी को छुड़ा लाऊँगा। और यदि उन लोगों के पास फौज होगी तो जरूर मकान के बाहर टिकी हुई होगी जिसका पता लगाना कुछ कठिन न होगा। उस समय जो कुछ आप लोग राय देंगे, किया जायगा।

इसी तरह की बातचीत करने में पहर रात बीत गई। आखिर वही निश्चय ठहरा जो कुमार ने सोचा था, अर्थात् इसी समय सब कोई उस मकान की तरफ जाने के लिए मुस्तैद हुए और पहाड़ी के नीचे उतर आये। पेड़ों के साथ बागडोर से बँधे हुए घोड़े वहीं पर चर रहे थे जो अपने सवारों को देखकर हिनहिनाने लगे, जिससे जाना गया कि वे इस समय फिर सफर को तैयार हैं और पहर भर चरने और आराम करने से उनकी थकावट कम हो चुकी है। सब लोग घोड़ों पर सवार होकर वहाँ से रवाना हुए।

जो कुछ उस चिट्ठी में लिखा था, वह ठीक मालूम होने लगा, अर्थात् पूरब पाँच कोस चले जाने के बाद एक नाला मिला और उसी के किनारे-किनारे दो कोस दक्खिन जाने के बाद एक मकान की सफेदी दिखाई पड़ी। साफ मालूम होता था कि यह मकान अभी नया बना है या आज ही कल में इसके ऊपर चूना फेरा गया है। रात दो ज्यादा जा चुकी थी, चन्द्रमा अपनी पूर्ण कला से आकाश के बीच में दिखाई दे रहे थे, शीतल किरणें चारों तरफ फैली हुई थीं और मालूम होता था कि जमीन पर चाँदी का पत्र जड़ा हुआ है। ये लोग घना जंगल पीछे छोड़ आये थे और इस जगह पेड़ बहुत कम और छोटे-छोटे थे, उस मकान के चारो तरफ दो सौ बीघे के लगभग साफ मैदान था।

अच्छी तरह जाँच करने और खयाल दौड़ाने से मालूम हो गया कि इस जगह पर फौज नहीं है और न लड़ाई का कुछ सामान ही है, अगर कुछ है तो उसी मकान के अन्दर होगा। आखिर थोड़ी देर तक सोच-विचार कर ये लोग मकान के पास पहुँचे।

यह मकान बहुत बड़ा न था, लगभग पचास गज के लम्बा और इसी कदर चौड़ा होगा। इसकी ऊँचाई भी पैंतीस गज से ज्यादा न होगी। चारों तरफ की दीवारें साफ थीं, न तो किसी तरफ कोई दरवाजा था और न कोई खिड़की। ये लोग चारों तरफ घूमे, मगर अन्दर जाने का रास्ता न मिला, आखिर सब लोग घोड़ों पर से उतरकर एक तरफ खड़े हो गये। देवीसिंह ने कमन्द फेंका और उसके सहारे से दीवार पर चढ़ कर देखना चाहा कि अन्दर क्या है।

ऊपर की दीवार बहुत चौड़ी थी। सभी ने देखा कि देवीसिंह दीवार पर खड़े होकर अन्दर की तरफ बड़े गौर से देख रहे हैं। यकायक देवीसिंह खिलखिला कर हँसे और बिना कुछ कहे उस मकान के अन्दर कूद पड़े।

यह देख सभी को ताज्जुब हुआ। कमलिनी ने तारा के कान में कुछ कहा जिसके जवाब में उसने सिर हिला दिया। थोड़ी देर तक देवीसिंह की राह देखी गई, आखिर उसी कमन्द के सहारे शेरसिंह चढ़ गये और उनकी भी वही अवस्था देखने में आई अर्थात् कुछ देर तक गौर से देखने के बाद देवीसिंह की तरह हँस कर शेरसिंह भी उस मकान के अन्दर कूद गए।

अब तो कुमार के आश्चर्य की कोई हद न रही। वे ताज्जुब में आकर सोचने लगे कि यह क्या मामला है और इस मकान के अन्दर क्या है जिसे देख दोनों ऐयारों ने ऐसा किया? "जो हो, अब मैं भी ऊपर चढूँगा और देखूँगा कि क्या है!" कहकर कुमार भी उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ने को तैयार हुए, मगर कमलिनी ने हाथ पकड़ लिया और कहा, "ऐसा नहीं हो सकता, अभी हमारे कई आदमी मौजूद हैं, पहले इन्हें जा लेने दीजिए।" लाचार कुमार को रुकना पड़ा। कमलिनी ने अपने उन सवारों की तरफ देखा जो उसके साथ आये थे और कहा, "तुम लोगों में से एक आदमी ऊपर जाकर देखो कि क्या है?"

हुक्म पाकर उसी कमन्द के सहारे एक आदमी ऊपर गया और उसकी भी वही दशा हुई, दूसरा गया वह भी कूद पड़ा, फिर तीसरा गया वह भी न लौटा, यहाँ तक कि कमलिनी के कुल आदमी इसी तरह उस मकान के अन्दर जा दाखिल हुए। कमलिनी ने बहुत रोका और मना किया मगर कुमार ने उसकी बात पर ध्यान न दिया। वे भी उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये और अपने साथियों की तरह गौर से थोड़ी देर तक देखने के बाद हँसते हुए मकान के अन्दर कूद पड़े। अब सवेरा हो गया, आसमान पर पूरब तरफ सूर्य की लालिमा दिखाई लेने लगी, कमलिनी ने हँसकर अपनी ऐयारा तारा की तरफ देखा, वह गर्दन हिलाकर हँसी और बोली, "चलिए, अब देर करने की कोई जरूरत नहीं।"

बाकी घोड़े उसी तरह उसी जगह छोड़ दिये गये। दो घोड़ों पर कमलिनी और तारा सवार हुईं और हँसती हुई एक तरफ को चली गईं।