चतुरी चमार
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

इलाहाबाद: किताब महल, पृष्ठ २६ से – ३३ तक

 
 
न्याय

अभी ऊषा की रेशमी लाल साड़ी प्रत्यक्ष हो रही है—भास्कर-मुख अपर प्रान्त की ओर है, केवल केशों की सघन व्योम-नीलिमा इधर से स्पष्ट। मुख का मृदु-स्पर्श प्रकाश, लघुतम तूलि जैसे, पर दिगन्त-शोभा से उतरकर तंद्रा से अलस जीवों को जगा रहा है। खिली अमल-तास की हेमांगी शाखाएँ तरुणी-बालिकाओं-सी स्वागत के लिये सजकर खड़ी हैं। पवन पुनः-पुनः ऊषा का दर्शन शुभ-मधुर सन्देश दे रहा है। निबिड़ नीड़ाश्रय से विहंग प्रभाती गा रहे हैं।

इस सुख के समय गोमती-तट से क्षिप्र-गति दो-एक भ्रमणशील शिक्षित युवक शंकाकुल लौटते हुए देख पड़ते हैं, जैसे शीघ्र घर लौटकर भ्रमण के लिये जाने का सत्य भी छिपाना चाहते हों। भय और उद्वेग का अशुभ कारण कोई किसी से नहीं कह रहा।

उसी रास्ते के दूसरी ओर वकील लाला महेश्वरीप्रसाद रहते हैं। रोज़ सुबह उसी रास्ते घड़ी और छड़ी लेकर टहलने जाते हैं। उधर चले, तो लौटनेवाले एक अजाने आदमी को देखकर मन में चौंके। उससे घबराकर चलने का कारण डरते डरते पूछा। उत्तर में, सँभलकर उसने कहा—"आपको भ्रम हो रहा है, मैं घबराने क्यों लगा?"—फिर अपना रास्ता नापा। वकील महेश्वरीप्रसाद आगे बढ़े। गोमती के किनारे कुछ दूर जाने पर एक बड़ी करुण आवाज़ आई—"भैया! मुझे निकाल लो, तीन आदमी सुन-सुनकर चले गए, दया करो, मैं आप नहीं निकल सकता, ज़ख्मी हूँ, रात को मारकर डाल दिया है बदमाशों ने।

वकील साहब के कलेजे में हूक-सी लगी। उल्टे पैर भगे। उनका बँगला पास ही था। रास्ता छोड़कर खेतों से दौड़े। एक दूसरे बँगले से एक युवक उनकी चाल देखकर हँस रहा था। हाथ के इशारे से वकील साहब ने उसे पास बलाया। युवक चला गया। घबराये हुए गोमती की तरफ़ उँगली उठाकर वकील साहब ने कहा—"वहाँ जाओ, देखो।" कहकर बँगले की तरफ़ बढ़े। युवक गोमती की तरफ़ गया।

घायल की दशा देखकर युवक को दया आ गई। उसके सीने में दोनों तरफ़ से छुरा भोंका गया था। गोमती के प्रवाह से देह का तमाम खून बह गया था। पर वह साधारण मनुष्य से ज़्यादा सचेत था, आवाज़ ज़्यादा साफ़। वीर कर्त्तव्य की ओर देखता है, काल्पनिक भविष्य-विपत्ति की ओर नहीं। उस घायल की रक्षा के लिये उसके विशाल हृदय में सहानुभूति पैदा हुई, व्यायाम से कसी बाहें अपनी ही शक्ति से वासस्थल तक ले जाने को फड़कने लगीं। आँखों ने अपने भाई को देखा।

एक हाथ जाँघों से, एक गर्दन से निकालकर अनायास युवक उसे अपने डेरे को ले चला। जल से निकलकर ही घावों की पीड़ा से घायल चीत्कार करने लगा। नज़दीक ही युवक का डेरा था। अपने बिस्तरे पर ले जाकर लेटा दिया। कपड़े की रगड़ से पीड़ा बढ़ रही थी; घायल ने उतार देने के लिये कहा, सँभालकर युवक ने एक-एक कपड़े उतार दिये।

फिर काग़ज़ लेकर उसके बयान लिखने लगा। घायल को बेहोशी आ रही थी, कहते-कहते भूल जाता था। कुछ असम्बद्ध उक्तियाँ युवक ने लिख लीं। घायल मूर्च्छित हो गया।

युवक व्यग्रता से निश्चय न कर सका कि क्या करें, पहले थाने में रिपोर्ट लिखवायें या अस्पताल ले जायें। घायल की प्रति-मुहूर्त बढ़ती हुई बुरी हालत एक बार उसे थाने की ओर ढकेलती, फिर अस्पताल की ओर। अन्त में अस्पताल ले जाने का ही निश्चय किया। पास एक रईस रहते थे। उनके यहाँ जाकर उसने कुल क़िस्सा बयान किया, और उनकी मोटर माँगी। उन्होंने घड़ी देखकर कहा—"सिर्फ़ छ मिनट समय रह गया है, हमें डिप्टी कमिश्नर साहब से मिलने के लिये जाना है।" कहकर निगाह फेर ली। एक बार उनकी तरफ़ देखकर युवक अपने कमरे में चला आया। उस बँगले में ३-४ भले आदमी किराये पर रहते थे। जब घायल को लेकर युवक आया था, तब थे; घायल के मौन होते ही सब लोग उसकी साँसों से जागृत् बँगले के शरीर से स्वप्न की तरह अदृश्य हो गए। घबराया हुआ युवक रास्ते पर आकर खड़ा हुआ। एक खाली ताँगा सवारी छोड़कर कार्लटन होटल से निकला। कुछ हाल न कहकर युवक ने ताँगा बुला लिया। बँगले जाकर ताँगेवाला ज़ख्मी को देखते ही बिगड़कर बोला—"आप हमें फँसाना चाहते हैं? यह रास्ते भर को भी तो न होगा!" कहकर उसने अपना ताँगा बढ़ाया। युवक को काठ मार गया। कुछ देर खड़ा कवियों के स्वर्गतुल्य, अप्सराओं के नूपुरों से मुखर, इस मनोहर संसार को भावना की अचपल दृष्टि से देखता रहा, फिर घायल के पास गया। देखा, सब खेल खत्म हो चुका है। साँस देखी, नाड़ी देखी, कहीं से भी उसके अस्तित्व का प्रमाण नहीं मिल रहा है। सूख गया। सिर्फ़ उसका नौकर मालिक की आज्ञा-पूर्ति के लिये मुस्तैद उसकी तरफ़ देख रहा था। हताश होकर युवक कुर्सी पर बैठ गया। एक चिट्ठी लिखकर नौकर से 'वसंतावास' दे आने के लिये कहा। नौकर चिट्ठी लेकर गया, युवक थाने की ओर चला।

रिपोर्ट अधूरी और ऐसी थी कि साथ-साथ दारोग़ाजी की तहक़ीक़ात की ज़रूरत हुई। वह युवक के साथ हो लिये। बँगले पहुँचकर देखा, एक लाश पलंग पर पड़ी है; सीने में दोनों तरफ़ से छुरे की तरह कोई अस्त्र भोंका गया है।

पूरी मुस्तैदी से गोमती-तट, मृतक के लेटने की विधि आदि की परीक्षा कर, निर्भय, निश्चिन्त होकर दारोग़ाजी कुर्सी पर बैठ गये, और गंभीर प्रभावोत्पादक स्वर से पुनः पूछने और बयान लिखने लगे।

"आपने इसे कहाँ देखा है?"

"एक बार कह चुका हूँ।"

"आप वहाँ कैसे गए?

"मुझसे वकील बाबू महेश्वरीप्रसाद ने कहा वह उस तरफ़वाले बँगले में रहते हैं।"

थानेदार साहब ने बाबू महेश्वरीप्रसाद को कारण बताकर ले आने के लिये एक कान्स्टेबिल को भेज दिया।

"फिर आपने क्या किया?"

"मैं इसे उठा लाया, यह निकाल लेने के लिये मुझे देखते ही पुकारकर कहने लगा था।"

"आप कैसे ले आए?"

"बाहों पर उठाकर।"

दारोग़ाजी ने एक बार युवक के पुष्ट शरीर की ओर देखा।

"फिर आपने क्या किया?"

"इसके कहने पर कपड़े उतारे, फिर पूछ-पूछकर बयान लिखने लगा।"

"दिखलाइए वह काग़ज़।"

युवक ने काग़ज़ दे दिया। पढ़कर थानेदार साहब जामे से बाहर हो गये। डाँटकर कहा—यह कोई बयान है? नाम है किरिश्नाचरन (कृष्णचरण), बस, बाप का नाम?"

"क़ौम?"

"क़ौम के लिये मैं पूछ रहा था, पर वह बोल नहीं सका।"

पूरे सन्देह की दृष्टि से थानेदार साहब ने युवक को देखा। व्यंग्य करते हुए बोले—"आप जब गये थे, तब पानी में डूबा हुआ यह साफ़ आवाज़ निकाल रहा था, पर आपके यहाँ आते ही इसकी ज़बान में ताला पड़ गया।"

युवक ने भी व्यंग्य किया—"जी हाँ, जब यहाँ मरा रक्खा है, तो वहाँ भी क्यों न मरा रक्खा होगा?"

क्रूर दृष्टि से थानेदार साहब ने युवक को घूरा। कहा—और 'चौक से आ'—इसके क्या मानी?"

"यह मैं क्या बताऊँ? मैंने पूछा था, वह सवाल ऊपर लिखा हुआ तुम कैसे मारे गए, तो 'चौक से आ' कहकर चुप हो गया।"

"फिर 'किसने मारा?'—'मह'। 'मह' ने मारा? 'मह' क्या बला है?"

युवक थानेदार साहब की स्वगतोक्ति सुनकर मन-ही-मन भारतवर्ष की पुलिस के साथ वलायत की पुलिस को मिला रहा था, इसी समय सिपाही बाबू महेश्वरीप्रसाद के यहाँ से संवाद लेकर लौटा, दारोग़ाजी से कहा—"बाबू महेश्वरीप्रसाद बँगले में नहीं, उनके नौकर ने कहा है, कल अदालत से लौटकर शामवाली गाड़ी से वकील साहब घर गये हैं।"

थानेदार साहब की शंका बढ़ गई। पर रह-रहकर सोच रहे थे—"इसने वकील साहब का नाम क्यों लिया?" समाधान करते थे—"मुमकिन, किसी दुश्मन पर होनेवाली वारदात के लिये वकील ने पहले से कह रक्खा हो कि हम ऐसा कह देंगे, तो तुम छुट जाओगे।" निश्चय किया—"यह जैसा तगड़ा है, यह अकेला भी इसे मार सकता है।"

मन में विश्वास भर गया, इसलिये स्वर भी शंका के बाद निश्चय में बदल गया। मृतक के कपड़ों की जाँच करते हुए दारोग़ाजी को जेब में जनेऊ मिला। निश्चय पर ज़ोर पड़ा—यह जनेऊ छिपाया गया है। पूछा—"यह जनेऊ किसने निकाला?"

"मुझे नहीं मालूम।"

दारोग़ाजी ने गम्भीर होकर पूछा—"तो फिर आपको क्या मालूम है?"

युवक क्रोध से चुप हो गया। दारोग़ाजी ने पूछा—"आपने फिर क्या किया?"

युवक ने सोचा—"अब मोटरवाली बात कहता हूँ, तो सम्भव है, मोटर-मालिक वकील साहब की तरह उस समय मौजूद न रहें।" फिर कहा—"फिर अस्पताल ले जाने के लिये रास्ते से एक ताँगा ले आया, पर ताँगेवाले ने ले जाना मंज़ूर न किया।"

"वह कितने नंबर का ताँगा था? "जमकर दारोग़ाजी ने पूछा।

"मुझे मालूम तो था नहीं कि आप नंबर पूछेंगे।"

दारोग़ाजी ग़ौर करने लगे। युवक दोषी है, ऐसा प्रमाण तो न था, पर निर्दोष है, ऐसा भी प्रमाण न था,बल्कि एक झूठ साबित हो चुकी है। ऐसी हालत में सन्देह को ही श्रेय देना उचित है। हत्या का एक विश्वसनीय कारण पुलिस को दिखाना पड़ता है, यदि प्रमाण अप्राप्त रह गया।

थाने में रिपोर्ट लिखाने के समय युवक नाम-धाम आदि लिखा चुका था, पर इस समय दारोग़ाजी ने फिर उससे कुछ ऐसे प्रश्न किए। वह कौन है, इस प्रश्न का बहुत ही संक्षिप्त उत्तर सभ्यता के विचार से ह्रस्व स्वरों में उसने दिया। अतः उसकी स्थिति का भी कोई प्रभाव थानेदार साहब पर न पड़ा। फिर पढ़े-लिखे युवकों द्वारा हुई हत्या के कारण है भी—कुछ ऐसा इसमें भी रहस्य सम्भव है।

सोच-विचारकर दारोग़ाजी पंचनामे की कार्रवाई पूरी करने लगे! इस सम्बन्ध से अपने को बिल्कुल अनभिज्ञ बतलानेवाले कुछ पंच भी मिले। इसी समय सिपाहियों की ओर थानेदार साहब ने एक इशारा किया। सिपाही युवक को चारों ओर से घेरे हुए खड़े थे। इशारा पाकर बाँध लिया। पंच डरे हुए, काम के बहाने, चलने को हुए। लाश की हालत और की युवक के कमरे की चीज़ें लिखकर पंचों के दस्तख़त करा ताला लगा दिया गया।

युवक ने शून्य दृष्टि से एक बार थानेदार साहब को, फिर आकाश की ओर देखा।

हत्या का करण और कारण साथ लेकर थानेदार साहब थाने के लिये रवाना हुए।

थाने पहुँचे ही थे कि ताँगे से उतरकर इक्कीस-बाईस साल की एक सुन्दरी दारोग़ाजी की कुर्सी की ओर बढ़ती नज़र आई। केश-वेश अत्यन्त आधुनिक। चाल-ढाल संकोच से सोलहो आने रहित। दारोग़ा—जी को रास्ते छोड़कर थाने में ऐसा चमत्कार नहीं देख पड़ा। युवती सीधे दारोग़ाजी के सामने जा, उन्हीं से पूछने लगी—"मुझे थाने के इन्चार्ज दारोग़ाजी से सख़्त ज़रूरत है, क्या आप बतला सकेंगे-वह कहाँ मिल सकते हैं?"

"हाँ, फ़र्माइए।"

"अच्छा, आप हैं, पोशीदा बातचीत है।" युवती मुस्कराई।

थानेदार साहब ने एकांत कर लिया।

साग्रह देखते हुए दारोग़ाजी से युवती ने कहा—"आपने राजीव को गिरफ़्तार किया है, पर वह बेक़सूर है।"

"कोई सुबूत तो नहीं।"

"मैं गोमती-किनारे से टहलती हुई आ रही थी, वकील महेश्वरीप्रसाद राजीव को उधर जाकर देखने के लिये कह रहे थे, और खुद डरे हुए कमरे की तरफ़ जा रहे थे।"

कुछ सोचकर दारोग़ाजी ने कहा—"वह कल शाम को घर चले गये हैं, उनके नौकर से मालूम हुआ।"

"अच्छा, सुनिए, मैं बहुत ज़्यादा कुछ नहीं कहना चाहती। मेरे पास तीस गवाह है, लेडीज़ और जेंटल्मेन, अदालत में आपको मालूम हो जायगा, साढ़े नौ बजे रात को कल मैं अपनी तीन सखियों और दो मित्रों के साथ छतरमंज़िल की तरफ़ से आ रही थी, एक आदमी हम लोगों को देखकर भगा, हमें शक हुआ, हमारे साथ के मित्रों ने दौड़कर उसे पकड़ा उसकी कमर में सात सौ रुपये थे, कुर्ता नहीं पहने था, अब मालूम होता है—ख़ून के धब्बों की वजह से कुर्ता कहीं फेंक दिया था। वही ख़ूनी रहा होगा, मेरे मित्र बदमाश समझकर यहाँ ले आए, आपका नाम लेकर कहते थे कि दारोग़ाजी ने देखकर उसे पहचान लिया—वह चौक का भागा हुआ बदमाश महताबअली था। जान पड़ता है, आपने उसे छोड़ दिया; अच्छा, देखा जायगा।" कह कर लापरवाही से युवती उठी।

दारोग़ाजी सूख गए। घबराकर बोले—"यह सरासर झूठ है।"

चलती हुई युवती बोली—"आपके इस मुक़द्दमे की तरह अदालत में यह भी सच साबित हो सकता है। मगर हाँ, तब आपके सुबूत से यह ज़्यादा सही साबित होगा।" एड़ी के बल ज़रा लौटकर युवती बोली—"और बहुत-सी बातें हैं, आपने जिसे गिरफ़्तार किया है, आप जानते नहीं, यह कितनी बड़ी इज़्ज़त का आदमी है।"

युवती फिर बढ़ी, तो दारोग़ाजी ने बड़े विनय-पूर्ण शब्दों से बुलाया। युवती लौट पड़ी। पास आने पर पूछा—"ये आपके कोई होते हैं?"

"मेरे कोई होते, तो मेरे यहाँ आने की ज़रूरत क्या थी?"

इस अद्भुत स्त्री की ओर देखकर दारोग़ाजी ने क़ैदी को छोड़ देने के लिये कहा।

ताँगे पर बैठकर प्रतिमा ने राजीव से कहा—"पूरा प्लाट तुम्हारी चिट्ठी पर तैयार किया। तुमने लिखा भी ख़ूब था। सिर्फ़ महताब के लिये रिसर्च करते कुछ देर लगी थी, यानी जितनी देर इस ताँगेवाले से बातचीत करने में लगेगी। यह रिसर्च सच हो सकता है।"

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।