गोदान
प्रेमचंद

पृष्ठ १५० से – १६५ तक

 


हूं, ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र नहीं बन सकती।

खन्ना के चेहरे पर दिल की खुशी चमक उठी।

रायसाहब ने चुटकी ली-आप बहुत खुश हैं खन्नाजी।

खन्ना बोले-मालती मिलें, तो पूछूं। अब कहिए।

मेहता आगे बढ़े-मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुष के पद से श्रेष्ठ समझता हूं, उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूं। अगर हमारी देवियां सृष्टि और पालन के देव-मंदिर से हिंसा और कलह के दानव-क्षेत्र में आना चाहती हैं, तो उससे समाज का कल्याण न होगा। मैं इस विषय में दृढ़ हूं। पुरुष ने अपने अभिमान में अपनी दानवी कीर्ति को अधिक महत्त्व दिया है। वह अपने भाई का स्वत्व छीनकर और उसका रक्त बहाकर समझने लगा, उसने बहुत बड़ी विजय पाई। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सिरजा और पाला, उन्हें बम और मशीनगन और सहस्रों टैंकों का शिकार बनाकर वह अपने को विजेता समझता है। और जब हमारी ही माताएं उसके माथे पर केसर का तिलक लगाकर और उसे अपनी असीसों का कवच पहनाकर हिंसा क्षेत्र में भेजती हैं, तो आश्चर्य है कि पुरुष ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा-प्रवृत्ति दिन-दिन बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि यह दानवता प्रचंड होकर समस्त संसार को रौंदती, प्राणियों को कुचलती, हरी-भरी खेतियों को जलाती और गुलजार बस्तियों को वीरान करती चली जाती है। देवियो, मैं आपसे पूछता हूं, क्या आप इस दानवलीला में सहयोग देकर, इस संग्राम-क्षेत्र में उतरकर संसार का कल्याण करेंगी? मैं आपसे विनती करता हूं, नाश करने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपने धर्म का पालन किए जाइए।

खन्ना बोले-मालती की तो गर्दन ही नहीं उठती।

रायसाहब ने इन विचारों का समर्थन किया-मेहता कहते तो यथार्थ ही हैं।

'बिजली' संपादक बिगड़े-मगर कोई बात तो नहीं कही। नारी-आंदोलन के विरोधी इन्हीं ऊटपटांग बातों की शरण लिया करते हैं। मैं इसे मानता ही नहीं कि त्याग और प्रेम से संसार ने उन्नति की। संसार ने उन्नति की है पौरुष से, पराक्रम से, बुद्धि-बल से, तेज से।

खुर्शेद ने कहा-अच्छा, सुनने दीजिएगा या अपनी ही गाए जाइएगा।

मेहता का भाषण जारी था-देवियो, मैं उन लोगों में नहीं हूं, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियां हैं, समान प्रवृत्तियां हैं, और उनमें कोई विभिन्नता नहीं है। इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य है, जो युग-युगांतरों से संचित अनुभव को उसी तरह ढंक लेना चाहता है, जैसे बादल का एक टुकड़ा सूर्य को ढंक लेता है। मैं आपको सचेत किए देता हूं कि आप इस जाल में न फंसें। स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अंधेरे से। मुनष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ऋषियों का आश्रय लेकर उस लक्ष्य पर पहुंचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूं, उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ।

तालियां बजीं। हाल हिल उठा। रायसाहब ने गद्गद होकर कहा मेहता वही कहते हैं, जो इनके दिल में है।

ओंकारनाथ ने टीका की लेकिन बातें सभी पुरानी हैं, सड़ी हुई।

'पुरानी बात भी आत्मबल के साथ कही जाती है, तो नई हो जाती है।'

'जो एक हजार रुपये हर महीने फटकारकर विलास में उड़ाता हो, उसमें आत्मबल जैसी वस्तु नहीं रह सकती। यह केवल पुराने विचार की नारियों और पुरुषों को प्रसन्न करने के ढंग हैं।'

खन्ना ने मालती की ओर देखा-यह क्यों फूली जा रही है? इन्हें तो शरमाना चाहिए।

खुर्शेद ने खन्ना को उकसाया-अब तुम भी एक तकरीर कर डालो खन्ना, नहीं मेहता तुम्हें उखाड़ फेंकेगा। आधा मैदान तो उसने अभी मार लिया है।

खन्ना खिसियाकर बोले-मेरी न कहिए। मैंने ऐसी कितनी चिड़िया फंसाकर छोड़ दी हैं।

रायसाहब ने खुर्शेद की तरफ आंख मारकर कहा-आजकल आप महिला-समाज की तरफ आते-जाते हैं। सच कहना, कितना चंदा दिया?

खन्ना पर झेंप छा गई–ऐसे समाजों को चंदे नहीं दिया करता, जो कला का ढोंग रचकर दुराचार फैलाते हैं।

मेहता का भाषण जारी था-

'पुरुष कहता है, जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कारक हुए हैं, वह सब पुरुष थे। जितने बड़ेबड़े महात्मा हुए हैं, वह सब पुरुष थे। सभी योद्धा, सभी राजनीति के आचार्य, बड़े-बड़े सब कुछ पुरुष थे, लेकिन इन बड़ों-बड़ों के समूहों ने मिलकर किया क्या? महात्माओं और धर्मप्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियां बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या किया, योद्धाओं ने भाइयों की गर्दनें काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खंडहर रह गए हैं, और आविष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का गुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दी? पुरुषों को इस रची हुई संस्कृति में शांति कहां है? सहयोग कहां है ?'

ओंकारनाथ उठकर जाने को हुए-विलासियों के मुंह से बड़ी-बड़ी बातें सुनकर मेरी देह भस्म हो जाती है।

खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़कर बैठाया-आप भी संपादकजी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया है, जिसके जी में जो आता है, बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियां बजाते है। चलिए, किस्सा खत्म। ऐसे-ऐसे बेशुमार मेहते आयंगे और चले जायंगे और दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रहेगी। बिगड़ने की कौन-सी बात है?

'असत्य सुनकर मुझसे सहा नहीं जाता।'

रायसाहब ने उन्हें और चढ़ाया-कुलटा के मुंह से सतियों की-सी बात सुनकर किसका जी न जलेगा।

ओंकारनाथ फिर बैठ गएमेहता का भाषण जारी था-

'मैं आपसे पूछता हूं, क्या बाज को चिड़ियों का शिकार करते देखकर हंस को यह शोभा देगा कि वह मानसरोवर की आनंदमयी शांति को छोड़कर चिड़ियों का शिकार करने लगे? और
अगर वह शिकारी बन जाय, तो आप उसे बधाई देंगी? इंस के पास उतनी तेज चोंच नहीं है, उतने तेज चंगुल नहीं हैं, उतनी तेज आंखें नहीं हैं, उतने तेज पंख नहीं हैं और उतनी तेज रक्त की प्यास नहीं है। उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सदियां लग जायंगी, फिर भी वह बाज बन सकेगा या नहीं, इसमें संदेह है, मगर बाज बने या न बने, वह हंस न रहेगा-वह हंस जो मोती चुगता है।'

खुर्शेद ने टीका की-यह तो शायरों की-सी दलीलें हैं। मादा बाज भी उसी तरह शिकार करती है, जैसे, नर बाज।

ओंकारनाथ प्रसन्न हो गए-उस पर आप फिलॉसफर बनते हैं, इसी तर्क के बल पर।

खन्ना ने दिल का गुबार निकाला-फिलॉसफर नहीं फिलॉसफर की दुम हैं। फिलॉसफर वह है जा....

ओंकारनाथ ने बात पूरी की-जो सत्य से जौं-भर भी न टले।

खन्ना को यह समस्या-पूर्ति नहीं रुची-मैं सत्य-वत्य नहीं जानता: मैं तो फिलॉसफर उसे कहता हूं, जो फिलॉसफर हो सच्चा।

खुर्शेद ने दाद दी-फिलॉसफर की आपने कितनी सच्ची तारीफ की है। वाह, सुभानल्ला। फिलॉसफर वह है, जो फिलॉसफर हो। क्यों न हो।

मेहता आगे चले-मैं नहीं कहता, देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक। मैं नहीं कहता, देवियों को शक्ति की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक, लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं, जिससे पुरुष ने संसार को हिंसा क्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्या और वही शक्ति आप भी ले लेंगी, तो संसार मरुस्थल हो जायगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैं, वोटों से मानव-जाति का उद्धार होगा, या दफ्तरों में और अदालतों में जबान और कलम चलाने से? इन नकली, अप्राकृतिक, विनाशकारी अधिकारों के लिए आप वह अधिकार छोड़ देना चाहती हैं, जो आपको प्रकृति ने दिए हैं?

सरोज अब तक बड़ी बहन के अदब से जब्त किए बैठी थी। अब न रहा गया। फुफकार उठी-हमें वोट चाहिए, पुरुषों के बराबर।

और कई युवतियों ने हांक लगाई-वोट। वोट ।

ओंकारनाथ ने खड़े होकर ऊंचे स्वर से कहा-नारी-जाति के विरोधियों की पगड़ी नीची हो।

मालती ने मेज पर हाथ पटककर कहा-शांत रहो, जो लोग पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना चाहेंगे, उन्हें पूरा अवसर दिया जायगा।

मेहता बोले-वोट नए युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है, उसके चक्कर में पड़कर आप न इधर की होंगी, न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यक्ति का अवकाश नहीं मिलता। हम सभी पहले मनुष्य हैं, पीछे और कुछ। हमारा जीवन हमारा घर है। वहीं हमारी सृष्टि होती है, वहीं हमारा पालन होता है, वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं। अगर वह क्षेत्र परिमित है, तो अपरिमित कौन-सा क्षेत्र है? क्या वह संघर्ष, जहां संगठित अपहरण हैं? जिस कारखाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता है, उसे छोड़कर आप उन कारखानों में जाना चाहती हैं, जहां मनुष्य पीसा जाता है, जहां उसका
रक्त निकाला जाता है?

मिर्जा ने टोका-पुरुषों के जुल्म ने ही उनमें बगावत की यह स्पिरिट पैदा की है।

मेहता बोले-बेशक, पुरुषों ने अन्याय किया है, लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइए, लेकिन अपने को मिटाकर नहीं।

मालती बोली-नारियां इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें।

मेहता ने उत्तर दिया-संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज नहीं। मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहां नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिरकर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद होना चाहती हैं, इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सकें। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है, लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है। पश्चिम की स्त्री आज गृह-स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृंखल बना दिया है। वह अपनी लज्जा और गरिमा को, जो उसकी सबसे बड़े विभूति थी, चंचलता और आमोद-प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहां की शिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का, या भरी हुई गोल बांहों या अपनी नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूं, तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपनी लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकतीं। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है?

रायसाहब ने तालियां बजाईं। हाल तालियों से गूंज उठा, जैसे पटाखों की लड़ियां छूट रही हों।

मिर्जा साहब ने संपादक जी से कहा-इसका जवाब तो आपके पास भी न होगा?

संपादकजी ने विरक्त मन से कहा—सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है।

'तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए।'

'जी नहीं, अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढूंढ निकालूंगा 'बिजली' में देखिएगा।

'इसके माने यह हैं कि आप हक की तलाश नहीं करते, सिर्फ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं।'

रायसाहब ने आड़े हाथों लिया-इसी पर आपको अपने सत्यप्रेम का अभिमान है?

संपादकजो अविचल रहे-वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना है, सत्य या असत् का निराकरण नहीं।

'तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैं?'

'मैं उन, सभी लोगों का वकील हूं, जो निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, पीड़ित हैं।'

'बड़े बेहया हो यार!'

मेहताजी कह रहे थे-और यह पुरुषों का षड्यंत्र है। देवियों को ऊंचे शिखर से खींचकर
अपने बराबर बनाने के लिए, उन पुरुषों का, जो कायर हैं, जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व संभालने की क्षमता नहीं है, जो स्वच्छंद काम-क्रीड़ा की तरंगों में सांड़ों की भांति दूसरों की हरी-भरी खेती में मुंह डालकर अपनी कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं। पश्चिम में इनका षड्यंत्र सफल हो गया और देवियां तितलियां बन गईं। मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इस त्याग और तपस्या की भूमि भारत में भी कुछ वही हवा चलने लगी है? विशेषकर हमारी शिक्षित बहनों पर वह जादू बड़ी तेजी से चढ़ रहा है। वह गृहिणी का आदर्श त्यागकर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं।

सरोज उत्तेजित होकर बोली-हम पुरुषों से सलाह नहीं मांगतीं। अगर वह अपने बारे में स्वतंत्र हैं, तो स्त्रियां भी अपने विषय में स्वतंत्र हैं। युवतियां अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी।

जोर से तालियां बजीं, विशेषकर अगली पंक्तियों में, जहां महिलाएं थीं।

मेहता ने जवाब दिया-जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का कविकृत रूप, उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख मांगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम है, तो मुक्त विलास में बिल्कुल नहीं है। सच्चा आनंद, सच्ची शांति केवल सेवा-व्रत में है। वही अधिकार का स्त्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दंपति को जीवनपर्यंत स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहां सेवा का अभाव है, वहीं विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है। और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौक़ा का कर्णधार होने के कारण जिम्मेदारी ज्यादा है। आप चाहें तो नौका को आंधी और तूफानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी की, तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जायंगी।

भाषण समाप्त हो गया। विषय विवाद-ग्रस्त था और कई महिलाओं ने जवाब देने की अनुमति मांगी, मगर देर बहुत हो गई थी। इसलिए मालती ने मेहता को धन्यवाद देकर सभा भंग कर दी। हां, यह सूचना दे दी गई कि अगले रविवार को इसी विषय पर कई देवियां अपने विचार प्रकट करेंगी।

रायसाहब ने मेहता को बधाई दी-आपने मेरे मन की बातें कहीं। मिस्टर मेहता। मैं आपके एक-एक शब्द से सहमत हूं।

मालती हंसी-आप क्यों न बधाई देंगे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो होते हैं, मगर यहां सारा उपदेश गरीब नारियों ही के सिर क्यों थोपा जाता है? उन्हीं के सिर क्यों आदर्श और मर्यादा और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता है?

मेहता बोले-इसलिए कि वह बात समझती हैं।

खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से देखकर मानो उसके मन की बात समझने की चेष्टा करते हुए कहा-डाक्टर साहब के यह विचार मुझे तो कोई सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं।

मालती ने कटु होकर पूछा-कौन से विचार?

'यही सेवा और कर्तव्य आदि।'

'तो आपको ये विचार सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं। तो कृपा करके अपने ताजे
विचार बतलाइए। दंपति कैसे सुखी रह सकते हैं, इसका कोई ताज नुस्खा आपके पास है?'

खन्ना खिसिया गए। बात कही मालती को खुश करने के लिए, और वह तिनक उठी। बोले-यह नुस्खा तो मेहता साहब को मालूम होगा।

'डाक्टर साहब ने तो बतला दिया और आपके खयाल में वह सौ साल पुराना है, तो नया नुस्ख़ा आपको बतलाना चाहिए। आपको ज्ञात नहीं कि दुनिया में ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो कभी पुरानी हो ही नहीं सकतीं। समाज में इस तरह की समस्याएं हमेशा उठती रहती हैं और हमेशा उठती रहेंगी।

मिसेज खन्ना बरामदे में चली गई थीं। मेहता ने उनके पास जाकर प्रणाम करते हुए पूछा-मेरे भाषण के विषय में आपकी क्या राय है?

मिसेज खन्ना ने आंखें झुकाकर कहा-अच्छा था, बहुत अच्छा, मगर अभी आप अविवाहित हैं, तभी नारियां देवियां हैं, श्रेष्ठ हैं, कर्णधार हैं। विवाह कर लीजिए तो पूछूंगी,अब नारियां क्या हैं? और विवाह आपको करना पड़ेगा, क्योंकि आप विवाह से मुंह चुराने वाले मर्दों को कायर कह चुके हैं।

मेहता हंसे-उसी के लिए तो जमीन तैयार कर रहा हूं।

'मिस मालती से जोड़ा भी अच्छा है।'

'शर्त यही है कि वह कुछ दिन आपके चरणों में बैठकर आपसे नारी-धर्म सीखें।'

'वही स्वार्थी पुरुषों की बात। आपने पुरुष- कर्त्तव्य सीख लिया है?'

'यही सोच रहा हूं किससे सीखूं।'

'मिस्टर खन्ना आपको बहुत अच्छी तरह सिखा सकते हैं।'

मेहता ने कहकहा मारा-नहीं, मैं पुरुष-कर्त्तव्य भी आप ही से सीखूंगा।

'अच्छी बात है, मुझ से सीखिए। पहली बात यही है कि भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है। और सारी जिम्मेदारी उसी पर है, श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का सारा भार है। नारी में सेवा और संयम और कर्त्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता है, अगर उसमें इन बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा। नारियों में आज जो यह विद्रोह है, इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है।'

मिर्जा साहब ने आकर मेहता को गोद में उठा लिया और बोले-मुबारक।

मेहता ने प्रश्न की आंखों से देखा-आपको मेरी तकरीर पसंद आई?

'तकरीर तो खैर जैसी थी वैसी थी, मगर कामयाब खूब रही। आपने परी को शीशे में उतार लिया। अपनी तकदीर सराहिए कि जिसने आज तक किसी को मुंह नहीं लगाया, वह आपका कलमा पढ़ रही है।'

मिसेज खन्ना दबी जबान से बोलीं-जब नशा ठहर जाय, तो कहिए।

मेहता ने विरक्त भाव से कहा मेरे जैसे किताब के कीड़ों को कौन औरत पसंद करेगी देवीजी। मैं तो पक्का आदर्शवादी हूं।

मिसेज खन्ना ने अपने पति को कार की तरफ जाते देखा, तो उधर चली गईं। मिर्जा भी बाहर निकल गए। मेहता ने मंच पर से अपनी छड़ी उठाई और बाहर जाना चाहते थे कि मालती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आग्रह-भरी आंखों से बोली-आप अभी नहीं जा सकते। चलिए, पापा से आपकी मुलाकात कराऊँ और आाज वहीं खाना खाइए।

मेहता ने कान पर हाथ रखकर कहा-नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। वहां सरोज मेरी जान खा जायगी में इन लड़कियों से बहुत घबराता हूं।

'नहीं-नहीं, मैं जिम्मा लेती हूं, जो वह मुंह भी खोले।'

'अच्छा, आप चलिए, मैं थोड़ी देर में आऊंगा।'

'जी नहीं, यह न होगा। मेरी कार सरोज लेकर चल दी। आप मुझे पहुंचाने तो चलेंगे ही।'

दोनों मेहता की कार में बैठे। कार चली।

एक क्षण बाद मेहता ने पूछा-मैंने सुना है, खन्ना साहब अपनी बीबी को मारा करते हैं। तब से मुझे इनकी सूरत से नफरत हो गई। जो आदमी इतना निर्दयी हो, उसे मैं आदमी नहीं समझता। उस पर आप नारी जाति के बड़े हितैषी बनते हैं। तुमने उन्हें कभी समझाया नहीं?

मालती उद्विग्न होकर बोली-ताली हमेशा दो हथेलियों से बजती है, यह आप भूले जाते हैं।

'मैं तो ऐसे किसी कारण की कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई पुरुष अपनी स्त्री को मारे।'

'चाहे स्त्री कितनी ही बदजबान हो?'

'हां, कितनी ही।'

'तो आप एक नए किस्म के आदमी हैं।'

'अगर मर्द बदमिजाज है, तो तुम्हारी राय में उस मर्द पर हंटरों की बौछार करनी चाहिए क्यों?'

'स्त्री जितनी क्षमाशील हो सकती है, पुरुष नहीं हो सकता। आपने खुद आज यह बात स्वीकार की है।'

‘तो औरत की क्षमाशीलता का यही पुरस्कार है। मैं समझता हूं, तुम खन्ना को मुंह लगाकर उसे और भी शह देती हो। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, तुमसे उसे जितनी भक्ति है, उसके बल पर तुम बड़ी आसानी से उसे सीधा कर सकती हो, मगर तुम उसकी सफाई देकर स्वयं उस अपराध में शरीक हो जाती हो।'

मालती उत्तेजित होकर बोली-तुमने इस समय यह प्रसंग व्यर्थ ही छेड़ दिया। किसी की बुराई नहीं करना चाहती, मगर अभी आपने गोविन्दी देवी को पहचाना नहीं? आपने उनकी भोली-भाली शांत मुद्रा देखकर समझ लिया, वह देवी हैं। मैं उन्हें इतना ऊंचा स्थान नहीं देना चाहती। उन्होंने मुझे बदनाम करने का जितना प्रयत्न किया है, मुझ पर जैसे-जैसे आघात किए हैं वह बयान करूं, तो आप दंग रह जायेंगे और तब आपको मानना पड़ेगा कि ऐसी औरत के साथ यही व्यवहार होना चाहिए।

'आखिर उन्हें आपसे जो इतना द्वेष है, इसका कोई कारण तो होगा?'

‘कारण उनसे पूछिए। मुझे किसी के दिल का हाल क्या मालूम?'

‘उनसे बिना पूछे भी अनुमान किया जा सकता है और वह यह है-अगर कोई पुरुष मेरे और मेरी स्त्री के बीच में आने का साहस करे, तो मैं उसे गोली मार दूंगा, और उसे न मार सकूंगा, तो अपनी छाती में मार लूंगा। इसी तरह अगर किसी स्त्री को अपने और अपनी स्त्री के बीच में लाना चाहूं, तो मेरी पली को भी अधिकार है कि वह जो चाहे, करे। इस विषय में मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। यह अवैज्ञानिक मनोवृत्ति है, जो हमने अपने बनैले पूर्वजों
से पाई है और आजकल कुछ लोग इसे असभ्य और असामाजिक व्यवहार कहेंगे, लेकिन मैं अभी तक उस मनोवृत्ति पर विजय नहीं पा सका और न पाना चाहता हूं। इस विषय में मैं कानून की परवाह नहीं करता। मेरे घर में मेरा कानून है।'

मालती ने तीव्र स्वर में पूछा- लेकिन आपने यह अनुमान कैसे कर लिया कि मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोविन्दी के बीच आना चाहती हूं? आप ऐसा अनुमान करके मेरा अपमान कर रहे हैं। मैं खन्ना को अपनी जूतियों की नोक के बराबर भी नहीं समझती।

मेहता ने अविश्वास-भरे स्वर में कहा-यह आप दिल से नहीं कह रही हैं मिस मालती। क्या आप सारी दुनिया को बेवकूफ समझती हैं? जो बात सभी समझ रहे हैं, अगर वही बात मिसेज खन्ना भी समझें, तो मैं उन्हें दोष नहीं दे सकता।

मालती ने तिनककर कहा-दुनिया को दूसरों को बदनाम करने में मजा आता है। यह उसका स्वभाव है। मैं उसका स्वभाव कैसे बदल दूं, लेकिन यह व्यर्थ का कलंक हैं। हां, मैं इतनी बेमुरौवत नहीं हूं कि खन्ना को अपने पास आते देखकर दुतकार देती। मेरा काम ही ऐसा है कि मुझे सभी का स्वागत और सत्कार करना पड़ता है। अगर कोई इसका कुछ और अर्थ निकालता है, तो वह...वह...

मालती का गला भरा गया और उसने मुंह फेरकर रूमाल से आंसू पोंछे। फिर एक मिनट बाद बोली-औरों के साथ तुम भी मुझे.. ...इसका दुख है.. तुमसे ऐसी आशा न थी।

फिर कदाचित् उसे अपनी दुर्बलता पर खेद हुआ। वह प्रचंड होकर बोली-आपको मुझ पर आक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, अगर आप भी उन्हीं मर्दों में हैं, जो किसी स्त्री-पुरुष को साथ देखकर उंगली उठाए बिना नहीं रह सकते, तो शौक से उठाइए? मुझे रत्ती-भर परवा नहीं। अगर कोई स्त्री आपके पास बार-बार किसी-न-किसी बहाने से आए, आपको अपना देवता समझे, हर एक बात में आपसे सलाह ले, आपके चरणों के नीचे आंखें बिछाए, आपको इशारा पाते ही आग में कूदने को तैयार हो, तो मैं दावे से कह सकती हूं, आप उसकी उपेक्षा न करेंगे। अगर आप उसे ठुकरा सकते हैं, तो आप मनुष्य नहीं हैं। उसके विरुद्ध आप कितने ही तर्क और प्रमाण लाकर रख दें, लेकिन मैं मानूंगी नहीं। मैं तो कहती हूं, उपेक्षा तो दूर रही, ठुकराने की बात ही क्या, आप उस नारी के चरण धो-धोकर पिएंगे, और बहुत दिन गुजरने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी। मैं आपसे हाथ जोड़कर कहती हूं, मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीजिएगा।

मेहता ने इस ज्वाला में मानो हाथ सेंकते हुए कहा-शर्त यही है कि मैं खन्ना को आपके साथ न देखूं।

'मैं मानवता की हत्या नहीं कर सकती। वह आएंगे तो मैं उन्हें दुरदुराऊंगी नहीं।'

'उनसे कहिए, अपनी स्त्री के साथ सज्जनता से पेश आएं।'

'मैं किसी के निजी मुआमले में दखल देना उचित नहीं समझती। न मुझे इसका अधिकार है।'

'तो आप किसी की जबान नहीं बंद कर सकतीं।'

मालती का बंगला आ गया। कार रुक गई। मालती उतर पड़ी और बिना हाथ मिलाए चली गई। वह यह भी भूल गई कि उसने मेहता को भोजन को दावत दी है। वह एकांत में जाकर
खूब रोना चाहती है। गोविन्दी ने पहले भी आघात किए हैं, पर आज उसने जो आघात किया है, वह बहुत गहरा, बड़ा चौड़ा और बड़ा मर्मभेदी है।

सोलह

रायसाहब को खबर मिली कि इलाके में एक वारदात हो गई है और होरी से गांव के पंचों ने जुरमाना वसूल कर लिया है, तो फौरन नोखेराम को बुलाकर जवाब-तलब किया क्यों उन्हें इसकी इत्तला नहीं दी गई। ऐसे नमकहराम और दगाबाज आदमी के लिए उनके दरबार में जगह नहीं है।

नोखेराम ने इतनी गालियां खाईं, तो जरा गर्म होकर बोले-मैं अकेला थोड़ा ही था। गांव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेता?

रायसाहब ने उनकी तोंद की तरफ भाले-जैसी नुकीली दृष्टि से देखा-मत बको जी। तुम्हें उसी वक्त कहना चाहिए था, जब तक सरकार को इत्तला न हो जाय, मैं पंचों को जुरमाना न वसूल करने दूंगा। पंचों को मेरे और मेरी रिआया के बीच में दखल देने का हक क्या है? इस डांड़-बांध के सिवा इलाके में और कौन-सी आमदनी है? वसूली सरकार के घर गई। बकाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहां जाऊं? क्या खाऊँ, तुम्हारा सिर। यह लाखों रुपये का खर्च कहां से आए? खेद है कि दो पुश्तों से कारिंदगीरी करने पर भी मुझे आज तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है। कितने रुपये वसूल हुए थे होरी से?

नोखेरम ने सिटपिटाकर कहा-अस्सी रुपये।

'नकद?'

'नकद उसके पास कहां थे हुजूर कुछ अनाज दिया, बाकी में अपना घर लिख दिया।'

रायसाहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़कर होरी का पक्ष लिया—अच्छा, तो आपने और बगुलागत पंचों ने मिलकर मेरे एक मातबर असमी को तबाह कर दिया। मैं पूछता हूं, तुम लोगों को क्या हक था कि मेरे इलाके में मुझे इत्तिला दिए बगैर मेरे असामी से जुरमाना वसूल करते? इसी बात पर अगर मैं चाहूं, तो आपको उस जालिए पटवारी और उस धूर्त्त पंडित को सात-सात साल के लिए जेल भिजवा सकता हूं? आपने समझ लिया कि आप ही इलाके के बादशाह हैं। मैं कहे देता हूं, आज शाम तक जुरमाने की पूरी रकम मेरे पास पहुंच जाय, वरना बुरा होगा। मैं एक-एक से चक्की पिसवाकर छोड़ूंगा। जाइए, हां, होरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीजिएगा।

नोखेराम ने दबी जबान से कहा-उसका लड़का तो गांव छोड़कर भाग गया। जिस रात को यह वारदात हुई, उसी रात को भागा।

रायसाहब ने रोष से कहा-झूठ मत बोलो। तुम्हें मालूम है, झूठ से मेरे बदन में आग लग जाती है। मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि कोई युवक अपनी प्रेमिका को उसके घर से लाकर फिर खुद भाग जाय। अगर उसे भागना ही होता, तो वह उस लड़की को लाता क्यों? तुम लोगों की इसमें भी जरूर कोई शरारत है। तुम गंगा में डूबकर भी अपनी सफाई दो, तो मैं मानने का
नहीं। तुम लोगों ने अपने समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया होगा। बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता।

नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके। मालिक जो कुछ कहें, वह ठीक है। वह यह भी न कह सके कि आप खुद चलकर झूठ-सच की जांच कर लें। बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है। अपने खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता।

पंचों ने रायसाहब का फैसला सुना, तो नशा हिरन हो गया। अनाज तो अभी तक ज्यों-का-त्यों पड़ा था, पर रुपये तो कब के गायब हो गए। होरी को मकान रेहन लिखा गया था, पर उस मकान को देहात में कौन पूछता था? जैसे हिंदू स्त्री पति के साथ घर की स्वामिनी है, और पति त्याग दे, तो कहीं की नहीं रहती, उसी तरह यह घर होरी के लिए लाख रुपये का है, पर उसकी असली कीमत कुछ भी नहीं। और इधर रायसाहब बिना रुपये लिए मानने के नहीं। यही होरी जाकर रो आया होगा। पटेश्वरी लाल सबसे ज्यादा भयभीत थे। उनकी तो नौकरी ही चली जायगी। चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर रहे थे, पर किसी की अक्ल काम न करती थी। एक-दूसरे पर दोष रखता था। फिर खूब झगड़ा हुआ।

पटेश्वरी ने अपनी लंबी शंकाशील गर्दन हिलाकर कहा-मैं मना करता था कि होरी के विषय में हमें चुप्पी साधकर रह जाना चाहिए। गाय के मामले में सबको तावान देना पड़ा। इस मामले में तावान ही से गला न छूटेगा, नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा, मगर तुम लोगों को रुपये की पड़ी थी। निकालो बीस-बीस रुपये। अब भी कुशल है। कहीं रायसाहब ने रपट कर दी, तो सब जने बंध जाओगे।

दातादीन ने ब्रह्म तेज दिखाकर कहा-मेरे पास बीस रुपये की जगह बीस पैसे भी नहीं हैं। ब्राह्मणों को भोज दिया गया, होम हुआ। क्या इसमें कुछ खरच ही नहीं हुआ? रायसाहब की हिम्मत है कि मुझे जेहल ले जायं? ब्रह्म बनकर घर का घर मिटा दूंगा। अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा।

झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी आशय के शब्द कहे। वह रायसाहब के नौकर नहीं हैं। उन्होंने होरी को मारा नहीं, पीटा नहीं, कोई दबाव नहीं डाला। होरी अगर प्रायश्चित करना चाहता था, तो उन्होंने इसका अवसर दिया। इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा सकता, मगर नोखेराम की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी। यहां मजे से बैठे राज करते थे। वेतन तो दस रुपये से ज्यादा न था, पर एक हजार साल की ऊपर को आमदनी थी, सैकड़ों आदमियों पर हुकूमत, चार-चार प्यादे हाजिर, बेगार में सारा हो जाता था, थानेदार तक कुरसी देते थे, यह चैन उन्हें और कहां था। और तो नौकरी के बदौलत महाजन बने हुए थे। कहां जा सकते थे। दो-तीन दिन इसी चिंता में पड़े रहे कि कैसे इस विपत्ति से निकलें। आखिर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया। कभी-कभी कचहरी में उन्हें दैनिक 'बिजली' देखने को मिल जाती थी। यदि एक गुमनाम पत्र उसके संपादक की सेवा में भेज दिया जाय कि रायसाहब जिस तरह असामियों से जुरमाना वसूल करते हैं, तो बचा को लेने के देने पड़ जायं। नोखेराम भी सहमत हो गए। दोनों ने मिलकर किसी तरह एक पत्र लिखा और रजिस्ट्री से भेज दिया।

संपादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में रहते थे। पत्र पाते ही तुरंत रायसाहब को सूचना दी। उन्हें एक ऐसा समाचार मिला है, जिस पर विश्वास करने की उनकी इच्छा
नहीं होती, पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण दिए हैं कि सहसा अविश्वास भी नहीं किया जा सकता। क्या यह सच है कि रायसाहब ने अपने इलाके के एक आसामी से अस्सी रुपये तावान इसलिए वसूल किए कि उसके पुत्र ने एक विधवा को घर में डाल लिया था? संपादक का कर्तव्य उन्हें मजबूर करता है कि वह मुआमले की जांच करें और जनता के हितार्थ उसे प्रकाशित कर दें। रायसाहब इस विषय में जो कुछ कहना चाहें, संपादकजी उसे भी प्रकाशित कर देंगे। संपादकजी दिल से चाहते हैं कि यह खबर गलत हो, लेकिन उसमें कुछ भी सत्य हुआ, तो वह उसे प्रकाश में लाने के लिए विवश हो जायंगे। मैत्री उन्हें कर्त्तव्य-पथ से नहीं हटा सकती।

रायसाहब ने यह सूचना पाई, तो सिर पीट लिया। पहले तो उनको ऐसी उत्तेजना हुई कि जाकर ओंकारनाथ को गिनकर पचास हंटर जमाएं और कह दें, जहां वह पत्र छापना, वहां यह समाचार भी छाप देना, लेकिन इसका परिणाम सोचकर मन को शांत किया और तुरंत उनसे मिलने चले। अगर देर की, और ओंकारनाथ ने वह संवाद छाप दिया, तो उनके सारे यश में कालिमा पुत जायगी।

ओंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के लिए संपादकीय लेख लिखने की चिंता में बैठे हुए थे, पर मन पक्षी की भांति उड़ा-उड़ा फिरता था। उनकी धर्मपत्नी ने रात उन्हें कुछ ऐसी बातें कह डाली थीं, जो अभी तक कांटों की तरह चुभ रही थीं। उन्हें कोई दरिद्र कह ले, अभागा कह ले, कह ले, वह जरा भी बुरा न मानते थे, लेकिन यह कहना कि उनमें पुरुषत्व नहीं है, यह उनके लिए असहय था। और फिर अपनी पत्नी को यह कहने का क्या हक है? उससे तो यह आशा की जाती है कि कोई इस तरह का आक्षेप करे, तो उसका मुंह बंद कर दे। बेशक वह ऐसी खबरें नहीं छापते, ऐसी टिप्पणियां नहीं करते कि सिर पर कोई आफत आ जाय। फूक-फूककर कदम रखते हैं। इन काले कानूनों के युग में वह और कर ही क्या सकते हैं, मगर वह क्यों सांप के बिल में हाथ नहीं डालते? इसीलिए तो कि उनके घर वालों को कष्ट न उठाने पड़ें। और उनकी सहिष्णुता का उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा है? क्या अंधेर है। उनके पास रुपये नहीं हैं, तो बनारसी साड़ी कैसे मंगा दें? डाक्टर, सेठ और प्रोफेसर भाटिया और न जाने किस-किसकी स्त्रियां बनारसी साड़ी पहनती हैं, तो वह क्या करें? क्यों उनकी पत्नी इन साड़ीवालियों को अपनो खद्दर की साड़ी से लज्जित नहीं करती? उनकी खुद तो यह आदत है कि किसी बड़े आदमी से मिलने जाते हैं, तो मोटे से मोटे कपड़े पहन लेते हैं और कोई कुछ आलोचना करे, तो उसका मुंहतोड़ जवाब देने को तैयार रहते हैं। उनकी पत्नी में क्यों वही आत्माभिमान नहीं है? वह क्यों दूसरों का ठाट-बाट देखकर विचलित हो जाती है? उसे समझना चाहिए कि वह एक देश-भक्त पुरुष की पत्नी है। देश-भक्त के पास अपनी भक्ति के सिवा और क्या संपत्ति है? इसी विषय को आज के अग्रलेख का विषय बनाने की कल्पना करते-करते उनका ध्यान रायसाहब के मुआमले की ओर जा पहुंचा। रायसाहब सूचना का क्या उत्तर देते हैं, यह देखना है। अगर वह अपनी सफाई देने में सफल हो जाते हैं, तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वह यह समझें कि ओंकारनाथ दबाव, भय या मुलाहजे में आकर अपने कर्तव्य से मुंह फेर लेंगे तो यह उनका भ्रम है। इस सारे तप और साधना का पुरस्कार उन्हें इसके सिवा और क्या मिलता है कि अवसर पड़ने पर वह इन कानूनी डकैतों का भंडाफोड़ करें। उन्हें खूब मालूम है कि रायसाहब बड़े प्रभावशाली जीव
हैं। कौंसिल के मेंबर तो हैं ही। अधिकारियों में भी उनका काफी रुसूख है। वह चाहें, तो उन पर झूठे मुकदमे चलवा सकते हैं, अपने गुंडों से राह चलते पिटवा सकते हैं , लेकिन ओंकार इन बातों से नहीं डरता। जब तक उसकी देह में प्राण है, वह आततायियों की खबर लेता रहेगा।

सहसा मोटरकार की आवाज सुनकर वह चौंके। तुरंत कागज लेकर अपना लेख आरंभ कर दिया। और एक ही क्षण में रायसाहब ने उनके कमरे में कदम रखा।

ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत किया, न कुशल-क्षेम पूछा, न कुरसी दी। उन्हें इस तरह देखा, मानो कोई मुलजिम उनकी अदालत में आया हो और रोब से मिले हुए स्वर में पूछा-आपको मेरा पुरजा मिल गया था? मैं वह पत्र लिखने के लिए बाध्य नहीं था, मेरा कर्त्तव्य यह था कि स्वयं उसकी तहकीकात करता, लेकिन मुरौवत सिद्धांतों की कुछ न कुछ हत्या करनी ही पड़ती है। क्या उस संवाद में कुछ सत्य है?

रायसाहब उसका सत्य होना अस्वीकार न कर सके। हालांकि अभी तक उन्हें जुरमाने के रुपये नहीं मिले थे और वह उनके पाने से साफ इंकार कर सकते थे, लेकिन चह देखना चाहते थे कि यह महाशय किस पहलू पर चलते हैं।

ओंकारनाथ ने खेद प्रकट करते हुए कहा-तब तो मेरे लिए उस संवाद को प्रकाशित करने के सिवा और काई मार्ग नहीं है। मुझे इसका दु:ख है कि मुझे अपने एक परम हितैषी मित्र की आलोचना करनी पड़ रही हैं, लेकिन कर्त्तव्य के आगे व्यक्ति कोई चीज नहीं। संपादक अगर अपना कर्तव्य न पूरा कर सके तो उसे इस आसन पर बैठने का कोई हक नहीं है।

रायसाहब कुरसी पर डट गए और पान की गलौरियां मुंह में भरकर बोले-लेकिन यह आपके हक में अच्छा न होगा। मुझे जो कुछ होना हैं, पीछे होगा, आपको तत्काल दंड मिल जायगा। अगर आप मित्रों की परवाह नहीं करते, तो मैं भी उसी कैंड़े का आदमी हूं।

ओंकारनाथ ने शहीद का गौरव धारण करके कहा-इसका तो मुझे कभी भय नहीं हुआ। जिस दिन मैंने पत्र-संपादन का भार लिया, उसी दिन प्राणों का मोह छोड़ दिया और मेरे समीप एक संपादक की सबसे शानदार मौत यही है कि वह न्याय और सत्य की रक्षा करता हुआ अपना बलिदान कर दे।

'अच्छी बात है। मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता हूं। मैं अब तक आपको मित्र समझता आया था, मगर अब आप लड़ने ही पर तैयार हैं, तो लड़ाई ही सही। आखिर मैं आपके पत्र का पंचगुना चंदा क्यों देता हूं? केवल इसलिए कि वह मेरा गुलाम बना रहे। मुझे परमात्मा ने रईस बनाया है। आपके बनाने से नहीं बना हूं। साधारण चंदा पंद्रह रुपया है। मैं पचहत्तर रुपया देता हूं, इसलिए कि आपका मुंह बंद रहे। जब आप घाटे का रोना रोते हैं और सहायता की अपील करते हैं, और ऐसी शायद ही कोई तिमाही जाती हो, जब आपकी अपोल न निकलती हो, तो मैं ऐसे मौके पर आपकी कुछ-न-कुछ मदद कर देता हूं। किसलिए? दीपावली, दशहरा, होली में आपके यहां बैना भेजता हूं, और साल पच्चीस बार आपकी दावत करता हूं, किसलिए? आप रिश्वत और कर्तव्य दोनों साथ-साथ नहीं निभा सकते।

ओंकारनाथ उत्तेजित होकर बोले- मैंने कभी रिश्वत नहीं ली।

रायसाहब ने फटकारा-अगर यह व्यवहार रिश्वत नहीं है तो रिश्वत क्या है, जरा मुझे समझा दीजिए। क्या आप समझते हैं, आपको छोड़कर और सभी गधे हैं, जो निस्वार्थ भाव से आपका घाटा पूरा करते रहते हैं? निकालिए अपनी बही और बतलाइए, अब तक आपको मेरी रियासत से कितना मिल चुका है? मुझे विश्वास है, हजारों की रकम निकलेगी। अगर आपको स्वदेशी-स्वदेशी चिल्लाकर विदेशी दवाओं और वस्तुओं का विज्ञापन छापने में शरम नहीं आती, तो मैं अपने असामियों से डांड़, तावान और जुर्माना लेते क्यों शरमाऊं? यह न समझिए कि आप ही किसानों के हित का बीड़ा उठाए हुए हैं। मुझे किसानों के साथ जलना-मरना है, मुझसे बढ़कर दूसरा उनका हितेेच्छु नहीं हो सकता, लेकिन मेरी गुजर कैसे हो? अफसरों को दावतें कहां से दूं, सरकारी चंदे कहां से दूं। खानदान के सैकड़ों आदमियों की जरूरतें कैसे पूरी करूं? मेरे घर का क्या खर्च है, यह शायद आप जानते हैं, तो क्या मेरे घर में रुपये फलते हैं? आएगा तो असामियों ही के घर से। आप समझते होंगे, जमींदार और ताल्लुकेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं, अगर वह धर्मात्मा बनकर रहें, तो उनका जिंदा रहना मुश्किल हो जाय। अफसरों को डालियां न दें, तो जेलखाना घर हो जाय। हम बिच्छु नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें। न गरीबों का गला दबाना कोई बड़े आनंद का काम है, लेकिन मर्यादाओं का पालन तो करना ही पड़ता है। जिस तरह आप मेरी रईसी का फायदा उठाना चाहते हैं, उसी तरह और सभी हमें सोने की मुर्गी समझते हैं। आइए मेरे बंगले पर तो दिखाऊं कि सुबह से शाम तक कितने निशाने मुझ पर पड़ते हैं। कोई काश्मीर से शाल-दुशाला लिए चला आ रहा है, कोई इत्र और तंबाकू का एजेंट है, कोई पुस्तकों और पत्रिकाओं का, कोई जीवन बीमे का, कोई ग्रामोफोन लिए सिर पर सवार है, कोई कुछ। चंदे वाले तो अनगिनती। क्या सबके सामने अपना दुखड़ा लेकर बैठ जाऊं? ये लोग मेरे द्वार पर दुखड़ा सुनाने आते हैं? आते हैं मुझे उल्लू बनाकर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए। आज मर्यादा का विचार छोड़ दूं, तो तालियां पिटने लगें। हुक्काम को डालियां न दूं, तो बागी समझा जाऊं। तब आप अपने लेखों से मेरी रक्षा न करेंगे। कांग्रेस में शरीक हुआ, उसका तावान अभी तक देता जाता हूं। काली किताब में नाम दर्ज हो गया। मेरे सिर पर कितना कर्ज है, यह भी कभी आपने पूछा है? अगर सभी महाजन डिग्रियां करा लें, तो मेरे हाथ की यह अंगूठी तक बिक जायगी। आप कहेंगे, क्यों यह आडंबर पालते हो? कहिए, सात पुश्तों से जिस वातावरण में पला हूं, उससे अब निकल नहीं सकता। घास छीलना मेरे लिए असंभव है। आपके पास जमीन नहीं, जायदाद नहीं, मर्यादा का झमेला नहीं, आप निर्भीक हो सकते हैं, लेकिन आप भी दुम दबाए बैठे रहते हैं। आपको कुछ खबर है, अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही हैं, कितने गरीबों का खून हो रहा है, कितनी देवियां भ्रष्ट हो रही हैं। है बूता लिखने का? सामग्री मैं देता हूं, प्रमाण सहित।

ओंकारनाथ कुछ नर्म होकर बोले-जब कभी अवसर आया है, मैंने कदम पीछे नहीं हटाया।

रायसाहब भी कुछ नर्म हुए-हां, मैं स्वीकार करता हूं कि दो-एक मौकों पर आपने जवांमर्दी दिखाई, लेकिन आपकी निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर रही है, प्रजा हित की ओर नहीं। आंखें न निकालिए और न मुंह लाल कीजिए। जब कभी आप मैदान में आए हैं,

उसका शुभ परिणाम यही हुआ कि आपके सम्मान और प्रभाव और आमदनी में इजाफा हुआ है, अगर मेरे साथ भी आप वही चाल चल रहे हों, तो आपकी खातिर करने को तैयार हूं। रुपये न दूंगा, क्योंकि वह रिश्वत है। आपकी पत्नीजी के लिए कोई आभूषण बनवा दूंगा। है मंजूर?

अब मैं आपसे सत्य कहता हूं कि आपको जो संवाद मिला, वह गलत है, मगर यह भी कह देना चाहता हूं कि अपने और सभी भाइयों की तरह मैं भी असामियों से जुरमाना लेता हूं और साल में दस-पांच हजार रुपये मेरे हाथ लग जाते हैं, और अगर आप मेरे मुंह से यह कौर छीनना चाहेंगे, तो आप घाटे में रहेंगे। आप भी संसार में सुख से रहना चाहते हैं, मैं भी चाहता हूं। इससे क्या फायदा कि आप न्याय और कर्त्तव्य का ढोंग रचकर मुझे भी जेरबार करें, खुद भी जेरबार हों। दिल की बात कहिए। मैं आपका बैरी नहीं हूं। आपके साथ कितनी ही बार एक चौके में एक मेज पर खा चुका हूं। मैं यह भी जानता हूं कि आप तकलीफ में हैं। आपकी हालत शायद मेरी हालत से भी खराब है। हां, अगर आपने हरिश्चन्द्र बनने की कसम खा ली है, तो आपकी खुशी। मैं चलता हूं।

रायसाहब कुरसी से उठ खड़े हुए। ओंकारनाथ ने उनका हाथ पकड़कर संधि-भाव से कहा-नहीं-नहीं, अभी आपको बैठना पड़ेगा। मैं अपनी पोजीशन साफ कर देना चाहता हूं। आपने मेरे साथ जो सलूक किए हैं, उनके लिए मैं आपका आभारी हूं, लेकिन यहां सिद्धांत की बात आ गई है और आप तो जानते हैं, सिद्धांत प्राणों से भी प्यारे होते हैं।

रायसाहब कुरसी पर बैठकर जरा मीठे स्वर में बोले-अच्छा भाई, जो चाहे लिखो। मैं तुम्हारे सिद्धांत को तोड़ना नहीं चाहता। और तो क्या होगा, बदनामी होगी। हां, कहां तक नाम के पीछे मरूं। कौन ऐसा ताल्लुकेदार है, जो असामियों को थोड़े बहुत नहीं सताता? कुत्ता हड्डी की रखवाली करे तो खाए क्या? मैं इतना ही कर सकता हूं कि आगे आपको इस तरह की कोई शिकायत न मिलेगी, अगर आपको मुझ पर कुछ विश्वास है, तो इस बार क्षमा कीजिए। किसी दूसरे संपादक से मैं इस तरह खुशामद नहीं करता। उसे सरे बाजार पिटवाता, लेकिन मुझसे आपकी दोस्ती है, इसलिए दबना ही पड़ेगा। यह समाचार-पत्रों का युग है। सरकार तक उनसे डरती है, मेरी हस्ती क्या। आप जिसे चाहें बता दें। खैर, यह झगड़ा खत्म हो। कहिए आजकल पत्र की क्या दशा है? कुछ ग्राहक बढ़े?

ओंकारनाथ ने अनिच्छा के भाव से कहा-किसी न किसी तरह काम चल जाता है और वर्तमान परिस्थिति में मैं इससे अधिक आशा नहीं रखता। मैं इस तरफ धन और भोग की लालसा लेकर नहीं आया था, इसलिए मुझे शिकायत नहीं है। मैं जनता की सेवा करने आया था और वह यथाशक्ति किए जाता हूं। राष्ट्र का कल्याण हो, यही मेरी कामना है। एक व्यक्ति के सुख-दुःख का कोई मूल्य नहीं है।

रायसाहब ने जरा और सहृदय होकर कहा-यह सब ठीक है भाई साहब, लेकिन सेवा करने के लिए भी जीना जरूरी है। आर्थिक चिंताओं में आप एकाग्रचित्त होकर सेवा भी तो नहीं कर सकते। क्या ग्राहक-संख्या बिल्कुल नहीं बढ़ रही है?

'बात यह है कि मैं अपने पत्र का आदर्श गिराना नहीं चाहता, अगर मैं भी आज सिनेमा स्टारों के चित्र और चरित्र छापने लगूं तो मेरे ग्राहक बढ़ सकते हैं, लेकिन अपनी तो यह नीति नहीं। और भी कितने ही ऐसे हथकंडे हैं, जिनसे पत्रों द्वारा धन कमाया जा सकता है, लेकिन मैं उन्हें गर्हित समझता हूं।'


‘इसी का यह फल है कि आज आपका इतना सम्मान है। मैं एक प्रस्ताव करना चाहता हूं। मालूम नहीं, आप उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। आप मेरी ओर से सौ आदमियों के नाम फ्री पत्र जारी कर दीजिए। चंदा मैं दे दूंगा।

ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से सिर झुकाकर कहा-मैं धन्यवाद के साथ आपका दान स्वीकार करता हूं। खेद यही है कि पत्रों की ओर से जनता कितनी उदासीन है। स्कूल और कालिजों और मंदिरों के लिए धन की कमी नहीं है, पर आज तक एक भी ऐसा दानी न निकला, जो पत्रों के प्रचार के लिए दान देता, हालांकि जन-शिक्षा का उद्देश्य जितने कम खर्च में पत्रों से पूरा हो सकता है, और किसी तरह नहीं हो सकता है जैसे शिक्षालयों को संस्थाओं द्वारा सहायता मिला करती है, एसे ही अगर पत्रकारों को मिलने लगे, तो इन बेचारों को अपना जितना समय और स्थान विज्ञापनों की भेंट करना पड़ता है, वह क्यों करना पड़े? मैं आपका बड़ा अनुगृहीत हूं।

रायसाहब बिदा हो गए। ओंकारनाथ के मुख पर प्रसन्नता की झलक न थी। रायसाहब ने किसी तरह की शर्त न की थी, कोई बंधन न लगाया था, पर ओंकारनाथ आज इतनी करारी फटकार पाकर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके। परिस्थिति ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें उबरने का कोई उपाय ही न सूझ रहा था। प्रेस के कर्मचारियों का तीन महीने का वेतन बाकी पड़ा हुआ था। कागज वाले के एक हजार से ऊपर आ रहे थे, यही क्या कम था कि उन्हें हाथ नहीं फैलाना पड़ा।

उनकी स्त्री गोमती ने आकर विद्रोह के स्वर में कहा-क्या अभी भोजन का समय नहीं आया, या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक बज जाय, जगह से न उठो? कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहे ?

ओंकारनाथ ने दु:खी आंखों से पत्नी की ओर देखा। गोमती का विद्रोह उड़ गया। वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी। दूसरी महिलाओं के वस्त्राभूषण देखकर कभी-कभी उसके मन में विद्रोह के भाव जाग उठते थे और वह पति को दो-चार जली कटी सुना जाती थी, पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति नहीं, अपने दुर्भाग्य के प्रति था, और इसकी थोड़ी-सी आंच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुंच जाती थी। वह उनका तपस्वी जीवन देखकर मन में कुढ़ती थी और उनसे सहानुभूति भी रखती थी। बस, उन्हें थोड़ा-सा सनकी समझती थी। उनका उदास मुंह देखकर पूछा-क्यों उदास हो, पेट में कुछ गड़बड़ है क्या?

ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़-कौन उदास है, मैं? मुझे तो आज जितनी खुशी है, उतनी अपने विवाह के दिन भी न हुई थी। आज सबेरे पंद्रह सौ की बोहनी हुई। किसी भाग्यवान् का मुंह देखा था।

गोमती को विश्वास न आया, बोली-झूठे हो, तुम्हें पंद्रह सौ कहां मिल जाते हैं? पंद्रह रुपये कहो, मान लेती हूं।

'नहीं-नहीं, तुम्हारे सिर की कसम, पंद्रह सौ मारे। अभी रायसाहब आए थे। सौ ग्राहकों का चंदा अपनी तरफ से देने का वचन दे गए हैं।'

गोमती का चेहरा उतर गया-तो मिल चुके!

'नहीं, रायसाहब वादे के पक्के हैं।'

‘मैंने किसी ताल्लुकेदार को वादे का पक्का देखा ही नहीं। दादा एक ताल्लुकेदार के नौकर

थे। साल-साल भर तलब नहीं मिलती थी। उसे छोड़कर दूसरे की नौकरी की। उसने दो साल तक एक पाई न दी। एक बार दादा गरम पड़े, तो मारकर भगा दिया। इनके वादों का कोई करार नहीं।'

'मैं आज ही बिल भेजता हूं।'

'भेजा करो। कह देंगे, कल आना कल अपने इलाके पर चले जायंगे। तीन महीने में लौटेंगे।'

ओंकारनाथ संशय में पड़ गए। ठीक तो है, कहीं रायसाहब पीछे से मुकर गए तो वह क्या कर लेंगे? फिर भी दिल मजबूत करके कहा-ऐसा नहीं हो सकता। कम-से-कम रायसाहब को मैं इतना धोखेबाज नहीं समझता। मेरा उनके यहां कुछ बाकी नहीं है।

गोमती ने उसी संदेह के भाव से कहा-इसी से तो मैं तुम्हें बुद्धु कहती हूं। जरा किसी ने सहानुभूति दिखाई और तुम फूल उठे। मोटे रईस हैं। इनके पेट में ऐसे कितने वादे हजम हो सकते हैं। जितने वादे करते हैं, अगर सब पूरा करने लगें, तो भीख मांगने की नौबत आ जाय। मेरे गांव के ठाकुर साहब तो दो-दो, तीन-तीन साल तक बनियों का हिसाब न करते थे। नौकरों का वेतन तो नाम के लिए देते थे। साल-भर काम लिया, जब नौकर ने वेतन मांगा, मारकर निकाल दिया। कई बार इसी नादेिहंदी में स्कूल से उनके लड़कों के नाम कट गए। आखिर उन्होंने लड़कों को घर बुला लिया। एक बार रेल का टिकट भी उधार मांगा था। यह रायसाहब भी तो उन्हीं के भाईबंद हैं। चलो, भोजन करो और चक्की पीसो, जो तुम्हारे भाग्य में लिखा है। यह समझ लो कि ये बड़े आदमी तुम्हें फटकारते रहें, वही अच्छा है। यह तुम्हें एक पैसा देंगे, तो उसका चौगुना अपने असामियों से वसूल कर लेंगे। अभी उनके विषय में जो कुछ चाहते हो, लिखते हो। तब तो ठकुरसोहाती ही करनी पड़ेगी।

पंडितजी भोजन कर रहे थे, पर कौर मुंह में फंसा हुआ जान पड़ता था। आखिर बिना दिल का बोझ हल्का किए, भोजन करना कठिन हो गया। बोले-अगर रुपये न दिए, तो ऐसी खबर लूंगा कि याद करेंगे। उनकी चोटी मेरे हाथ में है। गांव के लोग झूठी खबर नहीं दे सकते। सच्ची खबर देते तो उनकी जान निकलती है, झूठी खबर क्या देंगे। रायसाहब के खिलाफ एक रिपोर्ट मेरे पास आई है। छाप दूं, तो बचा को घर से निकलना मुश्किल हो जाय। मुझे वह खैरात नहीं दे रहे हैं, बड़े दबसट में पड़कर इस राह पर आए हैं। पहले धमकियां दिखा रहे थे। जब देखा, इससे काम न चलेगा, तो यह चारा फेंका। मैंने भी सोचा, एक इनके ठीक हो जाने से तो देश से अन्याय मिटा जाता नहीं, फिर क्यों न इस दान को स्वीकार कर लूं? मैं अपने आदर्श से गिर गया हूं जरूर, लेकिन इतने पर भी रायसाहब ने दगा की, तो मैं भी शठता पर उतर आऊंगा। जो गरीबों को लूटता है, उसको लूटने के लिए अपनी आत्मा को बहुत समझाना न पड़ेगा।

सत्रह

गाँव में खबर फैल गई कि रायसाहब ने पंचों को बुलाकर खूब डांटा और इन लोगों ने जितने रुपये वसूल किए थे, वह सब इनके पेट से निकाल लिए। वह तो इन लोगों को जेहल भेजवा