गो-दान
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ११२ से – १२० तक

 

प्रातःकाल होरी के घर में एक पूरा हंगामा हो गया। होरी धनिया को मार रहा था। धनिया उसे गालियाँ दे रही थी। दोनों लड़कियाँ बाप के पाँवों में लिपटी चिल्ला रही थीं और गोबर माँ को बचा रहा था। बार-बार होरी का हाथ पकड़कर पीछे ढकेल देता;पर ज्योंही धनिया के मुँह से कोई गाली निकल जाती,होरी अपने हाथ छुड़ाकर उसे दो-चार घूसे और लात जमा देता। उसका बूढ़ा क्रोध जैसे किसी गुप्त संचित शक्ति को निकाल लाया हो। सारे गाँव में हलचल पड़ गयी। लोग समझाने के बहाने तमाशा देखने आ पहुँचे। शोभा लाठी टेकता आ खड़ा हुआ। दातादीन ने डाँटा--यह क्या है होरी,तुम बावले हो गये हो क्या? कोई इस तरह घर की लक्ष्मी पर हाथ छोड़ता है!
तुम्हें तो यह रोग न था। क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग गयी।

होरी ने पालागन करके कहा--महाराज,तुम इस बखत न बोलो। मैं आज इसकी बान छुड़ाकर तब दम लूंँगा। मैं जितना ही तरह देता हूँ,उतना ही यह सिर चढ़ती जाती है।

धनिया मजल क्रोध में बोली--महाराज तुम गवाह रहना। मैं आज इसे और इसके हत्यारे भाई को जेहल भेजवाकर तब पानी पिऊँगी। इसके भाई ने गाय को माहुर खिलाकर मार डाला। अब जो मैं थाने में रपट लिखाने जा रही हूँ तो यह हत्यारा मुझे मारता है। इसके पीछे अपनी ज़िन्दगी चौपट कर दी, उसका यह इनाम दे रहा है।

होरी ने दाँत पीसकर और आँखें निकालकर कहा--फिर वही बात मुँहसे निकाली। तूने देखा था हीरा को माहुर ग्विलाते?

'तू कसम खा जा कि तूने हीग को गाय की नाँद के पास खड़े नहीं देखा?'

'हाँ,मैंने नहीं देखा,कसम खाता हूँ।'

'बेटे के माथे पर हाथ रख के कसम खा!'

होरी ने गोबर के माथे पर कांँपता हुआ हाथ रखकर काँगते हए स्वर में कहामैं बेटे की कसम खाता हूं कि मैंने हीरा को नाँद के पास नहीं देखा।

धनिया ने जमीन पर थूक कर कहा--धुड़ी है तेरी झुठाई पर। तूने खुद मुझसे कहा कि हीरा चोरों की तरह नाँद के पास खड़ा था। और अब भाई के पक्ष में झूठ बोलता है। थुड़ी है !अगर मेरे बेटे का बाल भी बाँका हुआ,तो घर में आग लगा दूंँगी। मारी गृहस्ती में आग लगा दूंँगी। भगवान,आदमी मुंँह से बात कहकर इतनी बेसरमी मे मुकुर जाता है।

होरी पाँव पटककर बोला--धनिया,गुस्सा मत दिखा, नही बुरा होगा।

'मार तो रहा है,और मार ले। जा,तू अपने बाप का बेटा होगा तो आज मुझे मारकर तव पानी पियेगा। पापी ने मारते-मारते मेरा भुरकस निकाल लिया,फिर भी इसका जी नहीं भरा। मुझे मारकर समझता है मैं बड़ा बीर हूँ। भाइयों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है,पापी कहीं का,हत्यारा।'

फिर वह बैन कहकर रोने लगी--इस घर में आकर उसने क्या नहीं झेला,किस किस तरह पेट-तन नहीं काटा, किस तरह एक-एक लत्ते को तरसी,किस तरह एक-एक पैसा प्राणों की तरह संचा,किस तरह घर-भर को खिलाकर आप पानी पीकर सो रही।और आज उन सारे बलिदानों का यह पुरस्कार! भगवान वैठे यह अन्याय देख रहे हैं और उसकी रक्षा को नहीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की रक्षा करने बैकुण्ठ मे दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोये हुए हैं।

जनमत धीरे-धीरे धनिया की ओर आने लगा। इसमें अब किसी को मन्देह नही रहा कि हीरा ने ही गाय को जहर दिया। होरी ने बिलकुल झूठी कसम खाई है,इसका भी लोगों को विश्वास हो गया। गोबर को भी बाप की इस झूठी क़सम और उसके फलस्वरूप आनेवाली विपत्ति की शंका ने होरी के विरुद्ध कर दिया। उस पर जो दातादीन ने डाँट बतायी,तो होरी परास्त हो गया। चुपके से बाहर चला गया,सत्य ने विजय पायी। दातादीन ने शोभा से पूछा--तुम कुछ जानते हो शोभा, क्या बात हुई?

शोभा ज़मीन पर लेटा हुआ बोला--मैं तो महाराज, आठ दिन से बाहर नहीं निकला। होरी दादा कभी-कभी जाकर कुछ दे आते हैं,उसी से काम चलता है। रात भी वह मेरे पास गये थे। किसने क्या किया,मैं कुछ नहीं जानता। हाँ,कल साँझ को हीरा मेरे घर खुरपी माँगने गया था। कहता था,एक जड़ी खोदना है। फिर तब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई।

धनिया इतनी शह पाकर बोली--पण्डित दादा,वह उसी का काम है। सोभा के घर से खुरपी माँगकर लाया और कोई जड़ी खोदकर गाय को खिला दी। उस रात को जो झगड़ा हुआ था,उसी दिन से वह ग्वार खाये बैठा था।

दातादीन बोले--यह बात साबित हो गयी,तो उसे हत्या लगेगी। पुलिस कुछ करे या न करे,धरम तो बिना दण्ड दिये न रहेगा। चली तो जा रुपिया,हीरा को बुला ला। कहना, पण्डित दादा बुला रहे हैं। अगर उसने हत्या नहीं की है,तो गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़कर क़सम खाय।

धनिया बोली--महाराज,उसके क़सम का भरोसा नहीं। चटपट खा लेगा। जब इसने झूठी क़सम खा ली,जो बड़ा धर्मात्मा बनता है,तो हीरा का क्या विश्वास।

अब गोबर बोला--खा ले झूठी कसम। बन्स का अन्त हो जाय। बूढ़े जीते रहें। जवान जीकर क्या करेंगे!

रूपा एक क्षण में आकर बोली--काका घर में नहीं है, पण्डित दादा! काकी कहती हैं,कहीं चले गये हैं।

दातादीन ने लम्बी दाढ़ी फटकारकर कहा--तूने पूछा नहीं,कहाँ चले गये हैं? घर में छिपा बैठा न हो। देख तो सोना,भीतर तो नहीं बैठा है।

धनिया ने टोका--उसे मत भेजो दादा! हीरा के सिर हत्या सवार है,न जाने क्या कर बैठे।

दातादीन ने खुद लकड़ी सँभाली और खबर लाये कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है। पुनिया कहती है,लुटिया-डोर और डण्डा सब लेकर गये हैं। पुनिया ने पूछा भी,कहाँ जाते हो;पर बताया नहीं। उसने पाँच रुपए आले में रखे थे। रुपए वहाँ नहीं हैं। साइत रुपए भी लेता गया।

धनिया शीतल हृदय से बोली--मुंँह में कालिख लगाकर कहीं भागा होगा।

शोभा बोला--भाग के कहाँ जायगा। गंगा नहाने न चला गया हो।

धनिया ने शंका की--गंगा जाता तो रुपए क्यों ले जाता,और आजकल कोई परब भी तो नहीं है?

इस शंका का कोई समाधान न मिला। धारणा दृढ़ हो गयी।

आज होरी के घर भोजन नहीं पका। न किसी ने बैलों को सानी-पानी दिया। सारे गाँव में सनसनी फैली हुई थी। दो-दो चार-चार आदमी जगह-जगह जमा होकर इसी विषय की आलोचना कर रहे थे। हीरा अवश्य कहीं भाग गया। देखा होगा कि
भेद खुल गया,अब जेहल जाना पड़गा,हत्या अलग लगेगी। बस,कहीं भाग गया। पुनिया अलग रो रही थी,कुछ कहा न सुना,न जाने कहाँ चल दिये।

जो कुछ कसर रह गयी थी वह संध्या-समय हलके के थानेदार ने आकर पूरी कर दी। गाँव के चौकीदार ने इस घटना की रपट की,जैसा उसका कर्त्तव्य था। और थानेदार साहब भला अपने कर्तव्य से कब चूकनेवाले थे। अब गाँववालों को भी उनकी सेवा-सत्कार करके अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। दातादीन,झिंगुरीसिंह,नोखेराम,उनके चारों प्यादे,मॅगरू साह और लाला पटेश्वरी,सभी आ पहुँचे और दारोग़ाजी के सामने हाथ बांधकर खड़े हो गये। होरी की तलबी हुई। जीवन में यह पहला अवसर था कि वह दारोगा के सामने आया। ऐसा डर रहा था, जैसे फाँसी हो जायेगी। धनिया को पीटते समय उसका एक-एक अंग फड़क रहा था। दारोगा के सामने कछुए की भाँति भीतर सिमटा जाता था। दारोगा ने उसे आलोचक नेत्रों से देखा और उसके हृदय तक पहुंँच गये। आदमियों की नस पहचानने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। कितावी मनोविज्ञान में कोरे,पर व्यावहारिक मनोविज्ञान के मर्मज थे। यक़ीन हो गया,आज अच्छे का मुँह देखकर उठे हैं। और होरी का चेहरा कहे देता था,इसे केवल एक घुड़की काफ़ी है।

दारोगा़ ने पूछा--तुझे किस पर सुबहा है?

होरी ने ज़मीन छुई और हाथ बाँधकर बोला--मेरा सुबहा किसी पर नहीं है सरकार,गाय अपनी मौत से मरी है। बुड्ढी हो गयी थी।

धनिया भी आकर पीछे खड़ी थी। तुरन्त बोली--गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने। सरकार ऐसे बौड़म नहीं हैं कि जो कुछ तुम कह दोगे,वह मान लेंगे। यहाँ जाँच-तहकिकात करने आये हैं।

दारोग़ाजी ने पूछा-- यह कौन औरत है?

{{Gap{}कई आदमियों ने दारोग़ाजी से कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए चढ़ा-ऊपरी की। एक साथ बोले और अपने मन को इस कल्पना से सन्तोष दिया कि पहले मैं बोला--होरी की घरवाली है सरकार!

'तो इसे बुलाओ,मैं पहले इसी का बयान लिखूँगा। वह कहाँ है हीरा?'

विशिष्ट जनों ने एक स्वर से कहा--वह तो आज सबेरे से कहीं चला गया है सरकार!

'मैं उसके घर की तलाशी लूंँगा।'

तलाशी! होरी की साँस तले-ऊपर होने लगी। उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी और हीरा घर में नहीं है। और फिर होरी के जीते-जी,उसके देखते यह तलाशी न होने पायेगी; और धनिया से अब उसका कोई सम्बन्ध नहीं। जहाँ चाहे जाय। जब वह उसकी इज्जत बिगाड़ने पर आ गयी है,तो उसके घर में कैसे रह सकती है। जब गली-गली ठोकर खायेगी,तब पता चलेगा।

गाँव के विशिष्ट जनों ने इस महान् संकट को टालने के लिए काना-फुसी शुरू की।

दातादीन ने गंजा सिर हिलाकर कहा--यह सब कमाने के ढंग हैं। पूछो,हीरा के घर में क्या रखा है। पटेश्वरीलाल बहुत लम्बे थे;पर लम्बे होकर भी बेवकूफ़ न थे। अपना लम्बा काला मुंँह और लम्बा करके बोले--और यहाँ आया है किस लिए,और जब आया है बिना कुछ लिये-दिये गया कब है?

झिंगुरीसिंह ने होरी को बुलाकर कान में कहा--निकालो जो कुछ देना हो। यों गला न छूटेगा।

दारोग़ाजी ने अब ज़रा गरजकर कहा--मैं हीरा के घर की तलाशी लूंँगा।

होरी के मुख का रंग ऐसा उड़ गया था,जैसे देह का सारा रक्त मूख गया हो। तलाशी उसके घर हुई तो,उसके भाई के घर हुई तो,एक ही बात है। हीरा अलग सही;पर दुनिया तो जानती है,वह उसका भाई है;मगर इस वक्त उसका कुछ बस नहीं। उसके पाम रुपए होते,तो इसी वक्त पचास रुपए लाकर दारोग़ाजी के चरणों पर रख देता और कहता--सरकार, मेरी इज्जत अब आपके हाथ है। मगर उसके पास तो ज़हर खाने को भी एक पैसा नहीं है। धनिया के पास चाहे दो-चार रुपए पड़े हों;पर वह चुडै़ल भला क्यों देने लगी। मृत्यु-दण्ड पाये हुए आदमी की भाँति सिर झुकाये,अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता हुआ चुपचाप खड़ा रहा।

दातादीन ने होरी को सचेत किया---अब इस तरह खड़े रहने से काम न चलेगा होरी,रुपए की कोई जुगत करो।

होरी दीन स्वर में बोला--अब मैं क्या अरज करूँ महाराज! अभी तो पहले ही की गठरी सिर पर लदी है,और किस मुंँह से मागूँ;लेकिन इस संकट से उबार लो। जीता रहा, तो कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगा। मैं मर भी जाऊँ तो गोबर तो है ही।

नेताओं में सलाह होने लगी। दारोगाजी को क्या भेट किया जाय। दातादीन ने पचास का प्रस्ताव किया। झिंगुरीसिंह के अनुमान में सौ से कम पर सौदा न होगा। नोखेगम भी सौ के पक्ष में थे। और होरी के लिए सौ और पचास में कोई अन्तर न था। इस तलाशी का संकट उसके सिर से टल जाय। पूजा चाहे कितनी ही चढ़ानी पड़े। मरे को मन-भर लकड़ी से जलाओ,या दस मन से;उसे क्या चिन्ता!

मगर पटेश्वरी से यह अन्याय न देखा गया। कोई डाका या क़तल तो हुआ नहीं। केवल तलाशी हो रही है। इसके लिए बीस रुपए बहुत हैं।

नेताओं ने धिक्कारा--तो फिर दारोग़ाजी से बातचीत करना। हम लोग नगीच न जायेंगे। कौन घुड़कियां खाय।

होरी ने पटेश्वरी के पाँव पर अपना सिर रख दिया--भैया,मेरा उद्धार करो। जब तक जिऊँगा,तुम्हारी तावेदारी करूंँगा।

दारोग़ाजी ने फिर अपने विशाल वक्ष और विशालतर उदर की पूरी शक्ति से कहा-- कहाँ है हीरा का घर? मैं उसके घर की तलाशी लूंँगा।

पटेश्वरी ने आगे बढ़कर दारोग़ाजी के कान में कहा--तलासी लेकर क्या करोगे हुजूर,उसका भाई आपकी ताबेदारी के लिए हाज़िर है।

दोनों आदमी ज़रा अलग जाकर बातें करने लगे। 'कैसा आदमी है?'

‘बहुत ही ग़रीब हुजूर! भोजन का ठिकाना भी नहीं!'

'सच?'

'हाँ हुजूर,ईमान से कहता हूँ।'

'अरे तो क्या एक पचासे का डौल भी नहीं है?'

'कहाँ की बात हुजूर!दस मिल जायें,तो हज़ार समझिए। पचास तो पचास जनम में भी मुमकिन नहीं और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जायगा।'

दारोगा़जी ने एक मिनट तक विचार करके कहा--तो फिर उसे सताने में क्या फ़ायदा। मैं ऐसों को नहीं सताता,जो आप ही मर रहे हों।

पटेश्वरी ने देखा,निशाना और आगे जा पड़ा। बोले---नही हुजूर,ऐसा न कीजिए,नही फिर हम कहाँ जायँगे। हमारे पास दूसरी और कौन-सी खेती है?

'तुम इलाके के पटवारी हो जी,कैसी बातें करते हो?'

'जब ऐसा ही कोई अवसर आ जाता है,तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैं। नहीं पटवारी को कौन पूछता है।

'अच्छा जाओ,तीस रुपए दिलवा दो;बीस रुपए हमारे, दम रुपा तुम्हारे।'

'चार मुग्विया है,इसका ख्याल कीजिए।'

'अच्छा आधे-आध पर रखो,जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।'

पटेश्वरी ने झिगुरी से कहा,झिंगुरी ने होरी को इशारे से बुलाया,अपने घर ले गये,तीस रुपए गिनकर उसके हवाले किये और एहसान से दबाते हुए बोले--आज ही कागद लिखा लेना। तुम्हारा मुंँह देखकर रुपए दे रहा हूंँ,तुम्हारी भलमंसी पर।

होरी ने रुपए लिये और अंँगोछे के कोर में बाँधे प्रसन्न मुख आकर दारोगा़जी की ओर चला।

सहसा धनिया झपटकर आगे आयी और अंँगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से छीन ली। गाँठ पक्की न थी। झटका पाते ही खुल गयी और सारे स्पए जमीन पर बिख़र गये। नागिन की तरह फुँकारकर बोली--ये रुपए कहाँ लिये जा रहा है, बता। भला चाहता है,तो सब रुपए लौटा दे,नहीं कहे देती हूँ। घर के परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें,लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंँजुली-भर रुपए लेकर चला है इज्जत बचाने! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत! जिसके घर में चूहे लोटें,वह भी इज्जतवाला है! दारोगा तलासी ही तो लेगा। ले-ले जहाँ चाहे तलासी। एक तो सौ रुपए की गाय गयी,उस पर यह पलेथन! वाह री तेरी इज्जत!

होरी खून का घूँट पीकर रह गया। सारा समूह जैसे थर्रा उठा। नेताओं के सिर झुक गये। दारोगा का मुंँह ज़रा-सा निकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी लताड़ न मिली थी।

होरी स्तम्भित-सा खड़ा रहा। जीवन में आज पहली बार धनिया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी,आकाश तका दिया। अब वह कैसे सिर उठाये! मगर दारोगा़जी इतनी जल्द हार माननेवाले न थे। खिसियाकर बोले--मुझे ऐसा मालूम होता है,कि इस शैतान की खाला ने हीरा को फंँसाने के लिए खुद गाय को जहर दे दिया।

धनिया हाथ मटकाकर बोली--हाँ,दे दिया। अपनी गाय थी,मार डाली,फिर किसी दूसरे का जानवर तो नहीं मारा? तुम्हारे तहकियात में यही निकलता है,तो यही लिखो। पहना दो मेरे हाथ में हथकड़ियाँ। देख लिया तुम्हारा न्याय और तुम्हारे अक्कल की दौड़। गरीबों का गला काटना दूसरी बात है। दूध का दूध और पानी का पानी करना दूसरी बात।

होरी आँखों से ॲगारे बरसाता धनिया की ओर लपका; पर गोबर सामने आकर खड़ा हो गया और उग्र भाव से बोला--अच्छा दादा,अब बहुत हुआ। पीछे हट जाओ,नहीं मैं कहे देता हूंँ,मेरा मुँह न देखोगे। तुम्हारे ऊपर हाथ न उठाऊँगा। ऐसा कपून नहीं हूँ। यहीं गले में फाँसी लगा लूंँगा।

होरी पीछे हट गया और धनिया शेर होकर बोली--तू हट जा गोबर,देखूँ तो क्या करता है मेरा। दारोगा़जी बैठे हैं। इसकी हिम्मत देखूँ। घर में तलाशी होने से इसकी इज्जत जाती है। अपनी मेहरिया को सारे गांँव के सामने लतियाने से इसकी इज्जत नहीं जाती! यही तो बीरों का धरम है। बड़ा वीर है,तो किसी मर्द से लड़। जिसकी बाँह पकड़कर लाया,उसे मारकर बहादुर न कहलायेगा। तू समझता होगा,मैं इसे रोटी-कपड़ा देता हूँ। आज से अपना घर सँभाल। देख तो इसी गाँव में तेरी छाती पर मूंग दलकर रहती हूँ कि नहीं,और उससे अच्छा खाऊँ-पहनूंँगी। इच्छा हो,देख ले।

होरी परास्त हो गया। उसे ज्ञात हुआ,स्त्री के सामने पुरुष कितना निर्बल,कितना निरुपाय है।

नेताओं ने रुपए चुनकर उठा लिये थे और दारोगा़जी को वहाँ से चलने का इशारा कर रहे थे। धनिया ने एक ठोकर और जमायी--जिसके रुपए हों,ले जाकर उन्मे दे दो। हमें किसी से उधार नही लेना है। और जो देना है,तो उसी से लेना। मैं दमड़ी भी न दूंँगी,चाहे मुझे हाकिम के इजलाम तक ही चढ़ना पड़े। हम बाकी चुकाने को पचीस रुपए माँगते थे,किसी ने न दिया। आज अँजुली-भर रुपये ठनाठन निकाल के दिये। मैं सब जानती हूँ। यहाँ तो बाँट-बखरा होनेवाला था,सभी के मुंह मीठे होते। ये हत्यारे गाँव के मुग्विया हैं,गरीबों का खून चूसनेवाले! सूद-याज डेढ़ी-सवाई,नजर-नजगना,घूस-पास जैसे भी हो,गरीबों को लटो। उस पर सुराज चाहिए। जेल जाने से सुराज न मिलेगा। सुराज मिलेगा धरम से,न्याय से।

नेताओं के मुंँह में कालिख-सी लगी हुई थी। दारोगाजी के मुंँह पर झाड़-सी फिरी हुई थी। इज्जत बचाने के लिए हीरा के घर की ओर चले।

रास्ते में दारोगा ने स्वीकार किया--औरत है बड़ी दिलेर !

पटेश्वरी बोले--दिलेर है हुजूर,कर्कशा है। ऐसी औरत को तो गोली मार दे।

'तुम लोगों का क़ाफ़िया तंग कर दिया उसने।चार-चार तो मिलते ही।' 'हुजूर के भी तो पन्द्रह रुपए गये।'

'मेरे कहाँ जा सकते हैं। वह न देगा,गाँव के मुखिया देंगे और पन्द्रह रुपये की जगह पूरे पचास रुपए। आप लोग चटपट इन्तजाम कीजिए।'

पटेश्वरीलाल ने हँसकर कहा-- हुजूर बड़े दिल्लगीबाज़ हैं।

दातादीन बोले-बड़े आदमियों के यही लक्षण हैं। ऐसे भाग्यवानों के दर्शन कहाँ होते हैं।

दारोग़ाजी ने कठोर स्वर में कहा--यह खुशामद फिर कीजिएगा। इस वक्त तो मुझे पचास रुपए दिलवाइए,नक़द;और यह समझ लो कि आनाकानी की,तो मैं तुम चारों के घर की तलाशी लूंँगा। बहुत मुमकिन है कि तुमने हीरा और होरी को फंँसाकर उनसे सौ-पचास ऐंठने के लिए यह पाखण्ड रचा हो।

नेतागण अभी तक यही समझ रहे हैं,दारोग़ाजी विनोद कर रहे हैं।

झिंगुरीसिंह ने आँखें मारकर कहा--निकालो पचास रुपए पटबारी साहब!

नोखेराम ने उनका समर्थन किया--पटबारी साहब का इलाका है। उन्हें ज़रूर आपकी खातिर करनी चाहिए।

पण्डित नोखेरामजी की चौपाल आ गयी। दारोगा़जी एक चारपाई पर बैठ गये और बोले---तुम लोगों ने क्या निश्चय किया ? रुपए निकालते हो या तलाशी करवाते हो?

दातादीन ने आपत्ति की---मगर हुजूर. . . .

'मैं अगर-मगर कुछ नहीं सुनना चाहता।' 

झिंगुरीसिंह ने साहस किया--सरकार यह तो सरासर . . . .

'मैं पन्द्रह मिनट का समय देता हूँ। अगर इतनी देर में पूरे पचास रूपय न आये, तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गण्डासिंह को जानने हो। उसका मारा पानी भी नहीं माँगता।'

पटेश्वरीलाल ने तेज़ स्वर से कहा--आपको अख्तियार है, तलाशी ले लें। यह अच्छी दिल्लगी है, काम कौन करे, पकड़ा कौन जाय।

'मैंने पचीस साल थानेदारी की है, जानते हो?'

'लेकिन ऐसा अन्धेर तो कभी नहीं हुआ।'

'तुमने अभी अन्धेर नहीं देखा। कहो तो वह भी दिखा दूंँ। एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए भेजवा दूंँ। यह मेरे बायें हाथ का खेल है। डाके में सारे गाँव को काले पानी भेजबा सकता हूँ। इस धोखे में न रहना!'।

चारों सज्जन चौपाल के अन्दर जाकर विचार करने लगे।

फिर क्या हुआ किसी को मालूम नहीं, हाँ, दारोग़ाजी प्रसन्न दिखायी दे रहे थे। और चारों सज्जनों के मुंँह पर फटकार बररा रही थी।

दारोग़ाजी घोड़े पर सवार होकर चले, तो चारों नेता दौड़ रहे थे। घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटे; इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों। सहसा दातादीन बोले--मेरा सराप न पड़े तो मुंँह न दिखाऊँ।

नोग्वेराम ने समर्थन किया--ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा।

पटेश्वरी ने भविष्यवाणी की--हराम की कमाई हराम में जायगी।

झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता में सन्देह हो गया था। भगवान न जाने कहाँ हैं कि यह अन्धेर देखकर भी पापियों को दण्ड नहीं देते।

इस वक्त इन सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक थी।