गो-दान
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २७० से – २७५ तक

 

२६

लाला पटेश्वरी पटवारी-समुदाय के सद्गुणों के साक्षात् अवतार थे। वह यह न देख सकते थे कि कोई असामी अपने दूसरे भाई की इंच भर भी ज़मीन दबा ले। न वह यही देख सकते थे कि असामी किसी महाजन के रुपए दबा ले। गाँव के समस्त प्राणियों के हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म था। समझौते या मेल-जोल में उनका विश्वास न था,यह तो निर्जीविता के लक्षण हैं! वह तो संघर्ष के पुजारी थे,जो सजीवता का लक्षण है। आये दिन इस जीवन को उत्तेजना देने का प्रयास करते रहते थे। एक-न-एक फुलझड़ी छोड़ते रहते थे। मँगरू साह पर इन दिनों उनकी विशेष कृपा-दृष्टि थी। मँगरू साह गाँव का सबसे धनी आदमी था;पर स्थानीय राजनीति में बिलकुल भाग न लेता था। रोब या अधिकार की लालसा उसे न थी। मकान भी उसका गाँव के बाहर था,जहाँ उसने एक बाग और एक कुआँ और एक छोटा-सा शिव-मन्दिर बनवा लिया
था। बाल-बच्चा कोई न था;इसलिए लेन-देन भी कम कर दिया था और अधिकतर पूजा-पाठ में ही लगा रहता था। कितने ही असामियों ने उसके रुपए हज़म कर लिए थे;पर उसने किसी पर नालिश-फरियाद न की। होरी पर भी उसके सूद-ब्याज मिलाकर कोई डेढ़ सौ हो गये थे; मगर न होरी को ऋण चुकाने की कोई चिन्ता थी और न उसे वसूल करने की। दो-चार बार उसने तकाज़ा किया,घुड़का-डाँटा भी;मगर होरी की दशा देखकर चुप हो बैठा। अबकी संयोग से होरी की ऊख गाँव भर के ऊपर थी। कुछ नहीं तो उसके दो-ढाई सौ सीधे हो जायेंगे, ऐसा लोगों का अनुमान था। पटेश्वरीप्रसाद ने मॅगरू को सुझाया कि अगर इस वक्त होरी पर दावा कर दिया जाय तो सब रुपए वसूल हो जायँ। मँगरू इतना दयालु नहीं जितना आलसी। था। झंझट में पड़ना न चाहता था;मगर जब पटेश्वरी ने जिम्मा लिया कि उसे एक दिन भी कचहरी न जाना पड़ेगा,न कोई दूसरा कष्ट होगा,बैठे-बैठाये उसकी डिग्री हो जायगी,तो उसने नालिश करने की अनुमति दे दी,और अदालत-खर्च के लिए रुपए भी दे दिये। होरी को खबर भी न थी कि क्या खिचड़ी पक रही है। कब दावा दायर हुआ,कब डिग्री हुई,उसे बिलकुल पता न चला। कुर्कअमीन उसकी ऊख नीलाम करने आया,तब उसे मालूम हुआ। सारा गाँव खेत के किनारे जमा हो गया। होरी मँगरू साह के पास दौड़ा और धनिया पटेश्वरी को गालियाँ देने लगी। उसकी सहज-बुद्धि ने बता दिया कि पटेश्वरी ही की कारस्तानी है,मगर मँगरू साह पूजा पर थे,मिल न सके और धनिया गालियों की वर्षा करके भी पटेश्वरी का कुछ बिगाड़ न सकी। उधर ऊख डेढ़ सौ रुपए में नीलाम हो गयी और बोली भी हो गयी मॅगरू साह ही के नाम। कोई दूसरा आदमी न बोल सका। दातादीन में भी धनिया की गालियाँ सुनने का साहस न था।

धनिया ने होरी को उत्तेजित करके कहा--बैठे क्या हो, जाकर पटवारी से पूछते क्यों नहीं,यही धरम है तुम्हारा गाँव-घर के आदमियों के साथ?

होरी ने दीनता से कहा--पूछने के लिए तूने मुँह भी रखा हो। तेरी गालियाँ क्या उन्होंने न सुनी होंगी?

'जो गाली खाने का काम करेगा,उसे गालियाँ मिलेंगी ही।'

'तू गालियाँ भी देगी और भाई-चारा भी निभायेगी?'

'देखूँगी,मेरे खेत के नगीच कौन जाता है।'

'मिलवाले आकर काट ले जायेंगे,तू क्या करेगी और मैं क्या करूँगा। गालियाँ देकर अपनी जीभ की खुजली चाहे मिटा ले।'

'मेरे जीते-जी कोई मेरा खेत काट ले जायगा?'

'हाँ-हाँ, तेरे और मेरे जीते-जी। सारा गाँव मिलकर भी उसे नहीं रोक सकता। अब वह चीज़ मेरी नहीं,मँगरू साह की है।'

'मँगरू साह ने मर-मरकर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थी?'

'वह सब तूने किया;मगर अब वह चीज़ मैंगरू साह की है। हम उनके करजदार नहीं हैं?' ऊख तो गयी;लेकिन उसके साथ ही एक नयी समस्या आ पड़ी। दुलारी इसी ऊख पर रुपए देने पर तैयार हुई थी। अब वह किस जमानत पर रुपए दे? अभी उसके पहले ही के दो सौ पड़े हुए थे। सोचा था,ऊख के पुराने रुपए मिल जायँगे,तो नया हिसाव चलने लगेगा। उसकी नज़र में होरी की साख दो सौ तक थी। इससे ज्यादा देना जोखिम था। सहालग सिर पर था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। गौरी महतो ने सारी तैयारियां कर ली होंगी। अब विवाह का टलना असम्भव था। होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जाकर दुलारी का गला दबा दे। जितनी चिरौरी-विनती हो सकती थी,वह कर चुका;मगर वह पत्थर की देवी ज़रा भी न पसीजी। उसने चलतेचलते हाथ बाँधकर कहा-दुलारी, मैं तुम्हारे रुपए लेकर भाग न जाऊँगा। न इतनी जल्द मरा ही जाता हूँ। खेत हैं,पेड़-पालो हैं,घर है,जवान बेटा है। तुम्हारे रुपए मारे न जायेंगे, मेरी इज्जत जा रही है,इसे संभालो; मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया;अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकती,तो उसे कोई आपत्ति न होती। पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था।

होरी ने घर आकर धनिया से कहा--अब?

धनिया ने उसी पर दिल का गुबार निकाला--यही तो तुम चाहते थे।

होरी ने ज़ख्मी आँखों से देखा-मेग ही दोप है?

'किसी का दोप हो,हुई तुम्हारे मन की।'

'तेरी इच्छा है कि ज़मीन रेहन रख दूँ ?'

'ज़मीन रेहन रख दोगे,तो करोगे क्या ?'

'मजूरी।'

मगर ज़मीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज्जत और आवरू अवलम्बित थी। जिसके पास ज़मीन नहीं,वह गृहस्थ नहीं,मजूर है।

होरी ने कुछ जवाब न पाकर पूछा-तो क्या कहती है?

धनिया ने आहत कण्ठ से कहा-कहना क्या है। गौरी बरात लेकर आयेंगे। एक जून खिला देना। सवेरे बेटी बिदा कर देना। दुनिया हंसेगी,हँस ले। भगवान की यही इच्छा है,कि हमारी नाक कटे,मुँह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे।

सहसा नोहरी चुंदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने ज़रा-सा चूंघट निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी।

धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा-आज किधर चलीं समधिन? आओ,बैठो।

नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आकर खड़ी हो गयी।

धनिया ने उसे सिर से पाँव तक आलोचना की आँखों से देखकर कहा-आज इधर कैसे भूल पड़ीं?

नोहरी ने कातर स्वर में कहा--ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आयी। बिटिया का ब्याह कब तक है ?

धनिया सन्दिग्ध भाव से बोली--भगवान के अधीन है, जब हो जाय।

'मैंने तो सुना, इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गयी है ?'

'हाँ तिथि तो ठीक हो गयी है।'

'मुझे भी नेवता देना।'

'तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा ?'

'दहेज का सामान तो मँगवा लिया होगा। जरा मैं भी देखूँ।'

धनिया असमंजस में पड़ी, क्या कहे। होरी ने उसे सँभाला--अभी तो कोई सामान नहीं मॅगवाया है, और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है।

नोहरी ने अविश्वास-भरी आँखों से देखा--कुस-कन्या क्यों दोग महतो, पहली बेटी है, दिल खोलकर करो।

(होरी हँसा; मानो कह रहा हो, तुम्हें चारों ओर हग दिखायी देता होगा; यहाँ तो सूखा ही पड़ा हुआ है।)

'रुपए-पैसे की तंगी है, क्या दिल खोलकर करूँ। तुमसे कौन परदा है।'

'बेटा कमाता है, तुम कमाते हो; फि. भी रुपाए-पैसे की तंगी ? किसे विश्वास आयेगा।'

'बेटा ही लायक होता, तो फिर काहे को रोना था। चिट्ठी-पत्नर तक भेजता नहीं, रुपए क्या भेजेगा। यह दूसरा साल है, एक चिट्ठी नहीं।'

इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठा सिर पर लिये, यौवन को अपने अंचल से चुराती, बालिका-सी सरल, आयी और गट्ठा वहीं पटककर अन्दर चली गयी।

नोहरी ने कहा--लड़की तो खूब सयानी हो गयी है।

धनिया बोली--लड़की की बाढ़ रेंड की बाढ़ है। नहीं है अभी के दिन की ! 'वर तो ठीक हो गया है न ?'

'हाँ, वर तो ठीक है। रुपए का बन्दोबस्त हो गया, तो इसी महीने में याज कर देंगे।

नोहरी दिल की ओछी थी। इधर उसने जो थोड़े-से रुपए जोड़े थे, वे उसके पेट में उछल रहे थे; अगर वह सोना के याज के लिए कुछ रुपए दे दे, तो कितना यश मिलेगा। सारे गाँव में उसकी चर्चा हो जायगी। लोग चकित होकर कहेंगे, नोहरी ने इतने रुपए दे दिए। बड़ी देवी है। होरी और धनिया दोनों घर-घर उसका बखान करते फिरेंगे। गाँव में उसका मान-सम्मान कितना बढ़ जायगा। वह उँगली दिखानेवालों का मुंँह सी देगी। फिर किसकी हिम्मत है, जो उस पर हँसे, या उस पर आवाजें कसे। अभी सारा गाँव उसका दुश्मन है। तब सारा गाँव उसका हितैपी हो जायगा। इम कल्पना से उसकी मुद्रा खिल गयी।

'थोड़े-बहुत से काम चलता हो, तो मुझसे लो; जब हाथ में रुपए आ जायँ तो दे देना।'

होरी और धनिया दोनों ही ने उसकी ओर देखा। नहीं, नोहरी दिल्लगी नहीं कर रही है। दोनों की आँखों में विस्मय था, कृतज्ञता थी, सन्देह था और लज्जा थी। नोहरी उतनी बुरी नहीं है, जितना लोग समझते हैं।

नोहरी ने फिर कहा--तुम्हारी और हमारी इज्जत एक है। तुम्हारी हँसी हो तो क्या मेरी हँसी न होगी ? कैसे भी हुआ हो, पर अब तो तुम हमारे समधी हो।

होरी ने सकुचाते हुए कहा--तुम्हारे रुपए तो घर में ही हैं, जब काम पड़ेगा ले लेंगे। आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता है; मगर ऊपर से इन्तजाम हो जाय, तो घर के रुपए क्यों छुए।

धनिया ने अनुमोदन किया--हाँ, और क्या।

नोहरी ने अपनापन जताया--जब घर में रुपए हैं, तो बाहरवालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ। सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो. खुसामद करो। हाँ, मेरे रुपए में छूत लगी हो, तो दूसरी बात है।

होरी ने संँभाला--नहीं, नहीं नोहरी, जब घर में काम चल जायगा, तो बाहर क्यों हाथ फैलायेंगे; लेकिन आपसवाली बात है। खेती-बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सके, तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे कहता था। नहीं, लड़की तो तुम्हारी है।

'मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी नहीं है।'

'तो तुम्हीं से लेंगे। कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाय।'

'कितने रुपाए चाहिए ?'

'तुम कितने दे सकोगी ?'

'सौ में काम चल जायगा ?'

होरी को लालच आया। भगवान ने छप्पर फाड़कर रुपए दिये हैं, तो जितना ले सके, उतना क्यों न ले !

'सौ में भी चल जायगा। पाँच सौ में भी चल जायगा। जैसा हौसला हो।'

'मेरे पास कुल दो सौ रुपए हैं, वह मैं दे दूंँगी।'

'तो इतने में बड़ी खुसफेली से काम चल जायगा। अनाज घर में है; मगर ठकुराइन, आज तुमसे कहता हूँ, मैं तुम्हें ऐसी लच्छमी न समझता था। इस ज़माने में कौन किसकी मदद करता है, और किसके पास है। तुमने मुझे डूबते से बचा लिया।'

दिया-बत्ती का समय आ गया था। ठंडक पड़ने लगी थी। जमीन ने नीली चादर ओढ़ ली थी। धनिया अन्दर जाकर अँगीठी लायी। सब तापने लगे। पुआल के प्रकाश में छबीली, रंगीली, कुलटा नोहरी उनके सामने वरदान-सी बैठी थी। इस समय उसकी उन आँखों में कितनी सहृदयता थी; कपोलों पर कितनी लज्जा, ओठों पर कितनी सत्प्रेरणा !

कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करके नोहरी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई घर चली--अब देर हो रही है। कल तुम आकर रुपए ले लेना महतो !

'चलो, मैं तुम्हें पहुँचा दूंँ।'

'नहीं-नहीं, तुम बैठो, मैं चली जाऊँगी।'

'जी तो चाहता है, तुम्हें कन्धे पर बैठाकर पहुँचाऊँ।'

नोखेराम की चौपाल गाँव के दूसरे सिरे पर थी, और बाहर-बाहर जाने का रास्ता साफ़ था। दोनों उसी रास्ते से चले। अब चारों ओर सन्नाटा था।

नोहरी ने कहा--तनिक समझा देते रावत को। क्यों सबसे लड़ाई किया करते हैं। जब इन्हीं लोगों के बीच में रहना है, तो ऐसे रहना चाहिए न कि चार आदमी अपने हो जाये। और इनका हाल यह है कि सबसे लड़ाई, सबसे झगड़ा। जब तुम मुझे परदे में नहीं रख सकते, मुझे दूसरों की मजूरी करनी पड़ती है, तो यह कैसे निभ सकता है कि मैं न किसी से हँसू, न बोलूंँ, न कोई मेरी ओर ताके, न हँसे। यह सब तो परदे में ही हो सकता है। पूछो, कोई मेरी ओर ताकता या घूरता है, तो मैं क्या करूँ। उसकी आंँखें तो नहीं फोड़ सकती। फिर मेल-मुहब्बत से आदमी के सौ काम निकलते हैं। जैसा समय देखो, वैसा व्यवहार करो। तुम्हारे घर हाथी झूमता था, तो अब वह तुम्हारे किस काम का। अब तो तुम तीन रुपए के मजूर हो। मेरे घर तो भैंस लगती थी, लेकिन अब तो मजूरिन हूँ; मगर उनकी समझ में कोई बात आती ही नहीं। कभी लड़कों के साथ रहने की सोचते हैं, कभी लखनऊ जाकर रहने की सोचते हैं। नाक में दम कर रखा है मेरे।

होरी ने ठकुरसुहाती की--यह भोला की सरासर नादानी है। बूढ़े हुए, अब तो उन्हें समझ आनी चाहिए। मैं समझा दूंँगा।

'तो सबेरे आ जाना, रुपए दे दूंँगी।'

'कुछ लिखा पढ़ी ...।'

'तुम मेरे रुपए हजम न करोगे, मैं जानती हूँ।'

उसका घर आ गया। वह अन्दर चली गयी। होरी घर लौटा।