गुप्त-धन २
प्रेमचंद
गुप्त
धन
२
प्रस्तुतकर्ता-अमृत राय
हंस प्रकाशन
इ ला हा बा द
© अमृत राय
मूल्य-आठ रुपया |
प्रकाशक––हंस प्रकाशन, इलाहाबाद मुद्रक––सम्मेलन मुद्रणालय, इलाहाबाद आवरण-सज्जा––कृष्ण चद्र श्रीवास्तव प्रथम संस्करण––प्रेमचंद स्मृति दिवस १९६२
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'गुप्तधन' के दो खण्डों में प्रेमचंद की छप्पन नयी कहानियाँ दी जा रही हैं। ये कहानियाँ इस अर्थ में नयी नहीं हैं कि इतनी नयी पाण्डुलिपियाँ मिली हैं। वह कैसे होता? कहानियों की जिस क़दर माँग रहती है, साधारण जाने-माने लेखक के पास भी कहानी नहीं बचती, प्रेमचंद को तो बात ही और है।
ये कहानियाँ नयी इस अर्थ में हैं कि हिन्दी पाठकों के सामने पहली बार संकलित होकर आ रही हैं। हर कहानी के अंत में सूत्र का संकेत दिया हुआ है और जैसा कि आप देखेंगे, इनमें से अधिकांश कहानियाँ हमको मुंशीजी के उर्दू कहानी-संग्रहों और पुरानो पत्रिकाओं से मिली हैं और कुछ हैं जो हिन्दी की पुरानी पत्रिकाओं में दबी पड़ी थीं। क्यों ये कहानियाँ उर्दू से हिन्दी में नहीं आयीं या जो हिन्दी में हैं भी, क्यों उन्हें संकलित नहीं किया गया––यह मैं नहीं कह सकता। यही अनुमान होता है कि मुंशीजी चीजों के रख-रखाव के मामले में जिस क़दर लापरवाह थे, समय पर उनको ये कहानियाँ न मिली होंगी, कटिंग न रखी होगी, फ़ाइल इधर-उधर हो गयी होगी, शायद कुछ कहानियाँ ध्यान से भी उतर गयीं हों, जो भी बात रही हो, ये कहानियाँ छूट गयीं। गुमशुदा कहानियों का यह नया ख़जाना, यह गुप्त धन, आपके सामने रखते हुए मुझे वास्तव में बड़ा हर्ष हो रहा है––यही कि मेहनत ठिकाने लगी, एक ढंग का काम हुआ। 'सोज़े वतन' की चार कहानियाँ भी, जो पहले और कहीं नहीं छपीं, इस किताब में शामिल कर ली गयी हैं। इस तरह इन कहानियों को लेकर प्रेमचंद की कुल कहानियों की संख्या २१० से २६६ हो जाती है। मेरा अनुमान है कि अभी तीस-चालीस कहानियाँ और मिलनी चाहिए। उर्दू-हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं की पुरानी फ़ाइलें––और हिन्दी से भी ज्यादा उर्दू पत्र-पत्रिकाओं को फ़ाइलें––आसानी से नहीं मिलतीं। अकसर खण्डित मिलती हैं। कम जाने-माने और साप्ताहिक-पाक्षिक पत्रों को तो प्रायः नहीं मिलतीं। उदाहरण के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी के 'प्रताप' की फ़ाइल का न मिलना बड़े ही कष्ट की बात है। मेरा विश्वास है कि उसमें मुंशीजी की कुछ कहानियाँ मिलनी चाहिए। इतना तो निश्चित है कि उसमें मुंशीजी की पहली हिन्दी कहानी है। एक चिट्ठी में इसका संकेत मिलता है। लेकिन वह कहानी कौन-सी है, कैसी है, किसी संग्रह में संकलित होकर प्रकाशित होती रही है या नहीं––यह सब कुछ भी पता नहीं चल सकता जब तक वह फ़ाइल देखने को न मिले। और कहीं न मिले, 'प्रताप' कार्यालय में जरूर मिलेगी, इस विश्वास से मैं वहाँ गया, पर निराश होना पड़ा। पर मैं पूरी तरह निराश नहीं हूँ और सच तो यह है कि पुराने पत्रों की छानबीन अभी उस आत्यंतिक लगन से की भी नहीं जा सकी है जो कि अपेक्षित है। मुझे यक़ीन है कि अगले कुछ बरसों में मुझे या मेरे किसी और उत्साही भाई को और भी कुछ कहानियाँ मिलेंगी।
उर्दू से प्राप्त कहानियों को ज्यों का त्यों छाप देना हिन्दी पाठकों के प्रति अन्याय समझकर मैंने उनको हिन्दी का जामा पहनाया है––मुंशीजी की अपनी हिन्दी का, यानी जहाँ तक मुझसे हो सका। कहानी की आत्मा ही नहीं, भाषा और शैली की भी रक्षा करने के इस प्रयत्न में मुझे कहाँ तक सफलता मिली है या नहीं मिली, इसका निर्णय तो आप करेंगे, पर मुझे संतोष है कि मैंने अपनी ओर से इसमें कुछ उठा नहीं रखा।
उर्दू संग्रहों में मुंशीजी की दो कहानियाँ 'बरात' और 'क़ातिल की माँ' ऐसी मिलीं जो हिन्दी में नहीं मिलती। मुझे उनको भी शामिल कर लेना चाहिए था। लेकिन मैंने उनको छोड़ देना ही ठीक समझा क्योंकि वही या लगभग वही कहानियाँ, बहुत थोड़े हेर-फेर के साथ, श्रीमती शिवरानी प्रेमचंद के कहानी संग्रह 'नारी हृदय' में मिलती है। उनके शीर्षक क्रमशः 'वरयात्रा' और 'हत्यारा' हैं। संग्रह में आने के पहले ये दोनों ही कहानियाँ 'हंस' में छपी थीं, खुद मुंशीजी ने उन्हें छापा था। मुंशीजी के नाम से ये कहानियाँ कब और कैसे उर्दू में छपने लगीं, इस रहस्य का उद्घाटन हुए बिना उन कहानियों को इस संग्रह में शामिल करना ठीक नहीं जान पड़ा। हो सकता है कि वे संग्रह मुंशीजी के देहान्त के बाद प्रकाशकों ने अपने मन से तैयार कर लिये हों। जो भी बात हो, ये कहानियाँ विवादास्पद हैं और उनको यहाँ शामिल नहीं किया गया।
'ताँगेवाले की बड़' और 'शादी की वजह' सही मानों में कहानी को प्रेमचंदी परिभाषा के अन्तर्गत नहीं आतीं, लेकिन अत्यंत रोचक हैं, कहानी के समान ही रोचक, उन्हें किसी तरह छोड़ा नहीं जा सकता था और लेखों के साथ उनको देना उनकी मिट्टी खराब करना होता क्योंकि वे लेख से ज्यादा कहानी के क़रीब हैं और उनकी चाशनी बिल्कुल कहानी की है, इसलिए उन्हें यहीं शामिल कर लिया गया है। ये दोनों ही चीजें 'ज़माना' में छपी थीं और 'बंबूक़' के नाम से छपी थीं। पता लगाने पर मालूम हुआ कि अपनी हलकी-फुलकी चीज़ों के लिए मुंशीजी कभी-कभी इस नाम का इस्तेमाल करते थे जो १९०५ के आसपास कानपुर में ही उन्हें अपने करीबी दोस्तों की महफ़िल में मिल चुका था।
अमृत राय
१ | पुत्र-प्रेम | ११ |
२ | इज्जत का खून | १८ |
३ | होली की छुट्टी | २८ |
४ | नादान दोस्त | ४३ |
५ | प्रतिशोध | ४९ |
६ | देवी | ६१ |
7 | खुदी | ६३ |
८ | बड़े बाबू | ६९ |
९ | राष्ट्र का सेवक | ८० |
१० | आखिरी तोहफा | ८१ |
११ | क़ातिल | ९४ |
१२ | बोहनी | १०६ |
१३ | बंद दरवाज़ा | ११२ |
१४ | तिरसूल | ११४ |
१५ | स्वाँग | १२७ |
१६ | सैलानी बंदर | १३८ |
१७ | नबी का नीति-निर्वाह | १४८ |
१८ | मंदिर और मसजिद | १५९ |
१९ | प्रेम सूत्र | १७० |
२० | ताँगेवाले की बड़ | १८४ |
२१ | शादी की वजह | १९० |
२२ | मोटेराम जी शास्त्री | १९३ |
२३ | पर्वत-यात्रा | १९९ |
२४ | कवच | २१४ |
२५ | दूसरी शादी | २२५ |
२६ | सौत | २२८ |
२७ | देवी | २३७ |
२८ | पैपुजी | २५२ |
२९ | क्रिकेट मैच | २५७ |
३० | कोई दुख न हो तो बकरी ख़रीद लो | २७२ |
गुप्त धन–२
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