ग़बन  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ १६१ ]तक देवीदीन के घर पड़ा हुआ है। उसे हमेशा यही धुन सवार रहती है कि.रुपये कहाँ से आये; तरह-तरह के मन्सूवे बांधता है, भांति-भांति को कल्पनाएँ करता है पर घर के बाहर नहीं निकलता। हाँ, जब खूब अंधेरा हो जाता है तो वह एक बार मुहल्ले के वाचनालय में जरूर जाता है। अपने नगर और प्रान्त के समाचारों के लिए उसका मन सदैव उत्सुक रहता है। उसने वह नोटिस देखी, जो दयानाथ ने पत्रों में छपायी थी; पर उस पर विश्वास न आया। कौन जाने, पुलिस ने उसे गिरफ्तार करने के लिये माया रची हो। रुपये भला किसने चुकाये होंगे ? असम्भव !

एक दिन उसी पत्र में रमानाथ को जालपा का एक खत छपा मिला। जालपा ने आग्रह और याचना से भरे शब्दों में उसे घर लौट आने को प्रेरणा की थी। उसने लिखा था-तुम्हारे जिम्मे किसी का कुछ बाकी नहीं है, कोई तुमसे कुछ न कहेगा। रमानाथ का मन चंचल हो उठा: लेकिन तुरन्त ही ख्याल आया—यह भी पुलिस की शरारत होगी। जालपा ने यह पत्र लिखा, इसका क्या प्रमाण है ? अगर यह भी मान लिया जाय, कि रुपये घरवालों ने अदा कर दिये होंगे, तो क्या इस दशा में भी वह घर जा सकता है? शहर भर में उसकी बदनामी हो ही गयी होगी, पुलिस में इत्तला की ही जा चुकी होगी। उसने निश्चय किया कि मैं नहीं जाऊँगा। जब तक कम-से-कम पांच हजार रुपये हाथ में न हो जायेंगे, घर जाने का नाम न लूंगा। और अगर रुपये नहीं दिये गये, पुलिस मेरी खोज में है, तो कभी घर न आऊँगा, कभी नहीं।

देवीदीन के घर में दो कोठरियां थीं और सामने एक बरामदा था। बरामदे में दूकान थे, एक कोठरी में खाना बनता था, दूसरी कोठरी में बरतन-भाँड़े रखे हुए थे। ऊपर एक कोठरी थी और छोटी-सी खुली हुई छत। रमा इसी ऊपर के हिस्से में रहता था। देवीदीन के रहने, सोने, बैठने का कोई विशेष स्थान न था। रात को दुकान बढ़ाने के बाद वही बरामदा शयन गृह बन जाता था। दोनों वहीं पड़े रहते थे | देवीदीन का काम चिलम पीना और दिन भर गप्पें लड़ाना था, दूकान का सारा काम तो बुढ़िया करती थी। मण्डी जाकर माल लाना, स्टेशन से माल भेजना या लेना, यह सब भी वही कर लेती थी। देवीदीन ग्राहकों को पहचानता तक न था। थोड़ी-सी हिन्दी जानता था। बैठा-बैठा रामायण, तोता-मैना, रासलीला या माता मरियम की कहानी
[ १६२ ]पढ़ा करता था। जब से रमा आ गया है, बुड्ढे को अंग्रेज़ी पढ़ने का शौक हो गया है। सवेरे ही प्राइमर लेकर बैठ जाता है और नौ-दस बजे तक अक्षर पढ़ता रहता है। बीच-बीच में लतीफे भी होते जाते हैं, जिनका देवीदीन के पास अक्षय भंडार है। मगर जग्गी को रमा का शासन जमाना अच्छा नहीं लगता। वह उसे अपना मुनीम तो बनाये हुए है— हिसाब-किताब उसी से लिखवाती है, पर इतने से काम के लिए वह एक आदमी रखना व्यर्थ समझती है। यह काम तो वह ग्राहकों से यों ही करा लेती थी। उसे रमा का रहना खलता था; पर वह इतना नम्र, इतना सेवा-तत्पर, इतना धर्मनिष्ठ है कि वह स्पष्ट रूप से कोई आपत्ति नहीं कर सकती। हाँ, दूसरों पर रखकर, श्लेष रूप से उसे सुना सुनाकर दिल का गुबार निकालती रहती है। रमा ने अपने को ब्राह्मण कह रखा है और उसी धर्म का पालन करता है। ब्राह्मरण और धर्मनिष्ठ बनकर वह दोनों प्राणियों का श्रद्धा-पात्र बन सकता है। बुड़िया के भाव और व्यवहार को वह खूब समझता है; पर करे क्या ? बेहयाई करने पर मजबूर है ! परिस्थिति ने उसके आत्म-सम्मान का अपहरण कर डाला है।

एक दिन रमानाथ वाचनालय में बैठा हुआ पत्र पढ़ रहा था, कि एका-एक उसे रतन दिखायी पड़ गयी। उसके अन्दाज़ से मालूम होता था कि वह किसी को खोज रही है। बीसों आदमी बैठे पुस्तकें और पत्र पढ़ रहे थे। रमा की छाती धक-धक करने लगी। वह रतन की आँखें बचाकर सिरझुकाये हुए कमरे से निकल गया और पीछे के अंधेरे बरामदे में, जहाँ पुराने टूटे-फूटे सन्दूक और कुर्सियाँ पड़ी हुई थी, छिपा खड़ा रहा। रतन से मिलने और घर के समाचार पूछने के लिये उसकी आत्मा तड़प रही थी; पर मारे संकोच के सामने न आ सकता था। आह ! कितनी बातें पूछने की थी ! पर उनमें मुख्य यही थी कि जालपा के विचार उसके विषय में क्या हैं। उसको निष्ठुरता पर रोती तो नहीं है ? उसकी उद्दंडता पर क्षुब्ध तो नहीं है ? उसे धूर्त और बेईमान तो नहीं समझ रही है ? दुबली तो नहीं हो गयी है? और लोगों के क्या भाव है ? क्या घर की तलाशी हुई ? मुकदमा चला ? ऐसी हजारों बातें जानने के लिए वह विकल हो रहा था; पर मुँह कैसे दिखाये ? वह झाँक-झाँक कर देखता रहा। जब रतन चली गयी—
[ १६३ ]मोटर चल दी, तब उसकी जान-में-जान आयी।उस दिन से एक सप्ताह तक वह वाचनालय न गया। घर से निकला तक नहीं।

कभी-कभी पड़े-पड़े रमा का जी ऐसा घबराता कि पुलिस में जाकर सारी कथा कह सुनाये। जो कुछ होना है, हो जाय। साल-दो-साल की कैद इस आजीवन कारावास से तो अच्छी ही है। फिर वह नये सिरे से जीवन- संग्राम में प्रवेश करेगा, हाथ-पाँच बचाकर काम करेगा, अपनी चादर के बाहर जी भर भी पाँव न फैलायगा, लेकिन एक क्षण में हिम्मत टूट जाती।

इस प्रकार दो महीने और बीत गये। पुस का महीना आया। रमा के पास जाड़ों का कोई कपड़ा न था। घर से तो वह कोई चीज़ लाया ही न था, यहाँ भी कोई चीज बनवा न सका था। अब तक तो उसने धोती ओढ़कर किसी तरह राते काटीं; पर पूस के कड़कड़ाते जाड़े लिहाफ या कम्बल के बगैर कैसे कटते। बेचारा रात-भर गठरी बना पड़ा रहता। जब बहुत सर्दी लगती तो बिछावन ओढ़ लेता। देवीदीन ने उसे एक पुरानी दरी बिछाने को दे दी थी। उसके घर में शायद यही सबसे अच्छा बिछावन था। इस श्रेणी के लोग चाहे दस हजार के गहने पहन लें, शादी-ब्याह में दस हजार खर्च कर दें; पर बिछावन गूदड़ा ही रखेंगे। इस सड़ी हुई दरी से जाड़ा भला क्या जाता; पर कुछ न होने से अच्छा ही था। रमा संकोचवश देवीदीन से कुछ कह न सकता था और देवीदीन भी शायद इतना बड़ा खर्च न उठाना चाहता था; या सम्भव है, इधर उसकी निगाह ही न जाती हो। जब दिन ढलने लगता, तो रमा रात के कष्ट की कल्पना से भयभीत हो उठता था, मानो काली बला दौड़ती चली आती हो। रात को बार-बार खिड़की खोलकर देखता कि सबेरा होने में कितनी कसर है।

एक दिन शाम को वह वाचनालय में जा रहा था कि उसने देखा, एक बड़ी कोठी के सामने हजारों कँगले जमा हैं। उसने सोचा—यह क्या बात है; क्यों इतने आदमी जमा हैं ? भीड़ के अन्दर घुसकर देखा तो मालूम हुआ, सेठजी कम्बलों का दान कर रहे हैं। कम्बल बहुत घटिया थे, पतले और हलके, पर जनता एक-पर-एक टूटी पड़ती थी। रमा के मन में आया, एक कम्बल ले लें। यहाँ मुझे कौन जानता है? अगर कोई जान भी जाय तो क्या हरज? गरीब ब्राह्मण मगर दान का अधिकारी नहीं तो और कौन है; लेकिन एक ही
[ १६४ ]क्षण में उसका आत्म-सम्मान जाग उठा। वह कुछ देर वहाँ खड़ा ताकता रहा, फिर आगे बढ़ा। उसके माथे पर तिलक देखकर मुनीमजी ने समझ लिया, यह ब्राह्माण है। इतने सारे कंगलों में ब्राह्मणों की संख्या बहुत कम थी। ब्राह्मणों को दान देने का पुण्य कुछ और ही है। मुनीम मन में प्रसन्न था कि एक बाह्मण देवता दिखायी तो दिये। इसलिए जब उसने रमा को जाते देखा तो बोला—पंडितजी, कहाँ चले, कम्वल तो लेते जाइए! रमा मारे संकोच के गड़ गया। उसके मुंह से केवल इतना ही निकला मुझे इच्छा नहीं है। यह कहकर वह फिर बढ़ा। मुनीमजी ने समझा,शायद कम्बल घटिया देखकर देवताजी चले जा रहे हैं। ऐसे आत्म-सम्मान-वाले देवता उसे अपने जीवन में शायद कभी मिले ही न थे। कोई दूसरा ब्राह्मण होता, तो दो-चार चिकनी-चुपड़ी बातें करता और अच्छे कम्बल माँगता। यह देवता बिना कुछ कहे, निर्व्याज भाव से चले जा रहे हैं तो अवश्य कोई त्यागी जीव हैं। उसने लपककर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला—आओ तो महाराज, आपके लिए चोखा कम्बल रखा है। यह तो कंगलों के लिये है। रमा ने देखा कि बिना मांगे एक चीज मिल रही है, जबरदस्ती गले लगायी जा रही है, तो वह दो बार और नहीं नहीं करके मुनीम जी के साथ अन्दर चला गया। मुनीम ने उसे कोठी में ले जाकर तख्त पर बैठाया और एक अच्छा-सा दबीज कम्बल भेंट किया। रमा को संतोष-वृत्ति का उस पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने पांच रुपये दक्षिणा भी देना चाहा; किन्तु रमा ने उसे लेने से साफ इनकार कर दिया। जन्म- जन्मान्तर की संचित मर्यादा कम्बल लेकर ही अहात हो उठी थी, दक्षिणा के लिए हाथ फैलाना उसके लिए असम्भव हो गया।

मुनीम ने चकित होकर कहा—आप यह भेंट न स्वीकार करेंगे, तो सेठजी को बड़ा दुःख होगा।

रमा ने विरक्त होकर कहा—आपके आग्रह से मैंने कम्बल ले लिया; पर दक्षिणा नहीं ले सकता। मुझे धन की आवश्यकता नहीं। जिस सज्जन के घर टिका हुआ हूँ, वह मुझे भोजन देते हैं। और मुझे लेकर क्या करना है?

'सेठजी नहीं मानेंगे!'

'आप मेरी ओर से क्षमा मांग लीजिएगा।' [ १६५ ]'आपके त्याग को धन्य है। ऐसे ब्राह्मणों से धर्म की मर्यादा बनी हुई है। कुछ देर बैठिए तो, सेठजी आते होंगे। ब्राह्मणों के परम भक्त हैं। त्रिकाल संध्यावन्दम करते हैं, महाराज। तीन बजे रात को गंगातट पर पहुँच जाते हैं और वहाँ से आकर पूजन पर बैठ जाते है। दस बजे भागवत का पारायण करते हैं। मध्याह्न भोजन पाते हैं तब कोठी में आते हैं। तीन-चार बजे फिर संध्या करने चले जाते हैं। आठ बजे थोड़ी देर के लिए फिर आते हैं। नौ बजे फिर ठाकुरद्वारे में कीर्तन सुनते हैं और फिर संध्या करके भोजन पाते हैं। थोड़ी देर में आते ही होंगे। आप कुछ देर बैठे तो बड़ा अच्छा हो। आपका स्थान कहाँ है?'

रमा ने प्रयाग न बतलाकर काशी बतलाया। इस पर मुनीमजी का आग्रह और बड़ा; पर रमा को यह शंका हो रही थी कि वहीं सेठ जी ने कोई धार्मिक प्रसंग छेड़ दिया तो सारी कलई खुल जायगी। किसी दूसरे दिन आने का बचन देकर उसने पिंड छुड़ाया।

नौ बजे वह वाचनालय से लौटा तो डर रहा था कि कहीं देवीदीन ने कम्बल देखकर पूछा—कहाँ से लाये, तो क्या जवाब दूँगा! कोई बहाना कर दूँगा, एक पहचान की दुकान से उधार लाया हूँ।

देवीदीन ने कम्बल देखते ही पूछा—सेठ करोड़ीमल के यहाँ पहुँच गये क्या महाराज?

रमा ने पूछा— कौन सेठ करोड़ीमल?

अरे वही, जिसकी वह लाल कोठी है।'

रमा कोई बहाना न कर सका। बोला—हाँ, मुनीमजी ने पिंड ही न छोड़ा। बड़ा धर्मात्मा जीव है।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा-बड़ा धर्मात्मा ! उसी के थामे तो यह घरती थमी है, नहीं तो अब तक मिट गयी होती !

रमा०-काम तो धर्मात्माओं ही के करता है, मन का हाल ईश्वर जाने जो सारे। दिन पूजा-पाठ और दान-व्रत में लगा रहे, उसे धर्मात्मा नहीं तो और क्या कहा जाय।

देवी०-उसे पापी कहना चाहिए, महापापी। दया तो उसके पास से होकर भी नहीं निकली। उसकी जूट को मिल है। मजदूरो के साथ जितनी
[ १६६ ]निर्दयता इसकी मिल में होती है, और कहीं नहीं होती। आदमियों को हंटरों से पिटवाया है, हंटरों से! चरबी मिला धी बेचकर इसने लाखों कमा लिये। कोई नौकर एक मिनट को भी देर करे तो तुरन्त तलब काट लेता है। अगर साल में दो-चार हजार दान न करे तो पाप का धन पचे कैसे ! धर्म-कर्म वाले ब्राह्मण तो उसके द्वार पर झांकते भी नहीं। तुम्हारे सिवा वहाँ और कोई पंडित था ?

रमा ने सिर हिलाया।

'कोई जाता ही नहीं। हाँ लोभी-लम्पट पहुँच जाते हैं। जितने पुजारी देखे, सबको पत्थर ही पाया। पत्थर पूजते-पूजते इनके दिल भी पत्थर हो जाते हैं। इसके तीन तो बड़े-बड़े धर्मशाले है; मुदा है पाखंडी। आदमी चाहे,और कुछ न करे, मन में दया बनाये रखे। यही सौ धर्म का एक धर्म है।

दिन की रखी हुई रोटियाँ खाकर जब रमा कम्बल मोड़कर लेटा, तो उसे बड़ी ग्लानि होने लगी। रिश्वत में उसने हजारों रुपये मांगे थे; पर कभी एक क्षण के लिये भी उसे ग्लानि न आयी थी। रिश्वत बुद्धि से, कौशल से पुरुषार्थ से मिलती है। दान पौरुषहीन, कर्महीन या पाखण्डियो का आधार है। वह सोच रहा था— में अब इनता दीन हूँ कि भोजन और वस्त्र के लिए मुझे दान लेना पड़ता है। वह देवीदीन के घर दो महीने से पड़ा हुआ था,पर देवीदीन उसे भिक्षुक नहीं, मेहमान समझता था। उसके मन में कभी दान का भाव आया ही न था। रमा के मन में ऐसा उद्वेग उटा कि इसी दम थाने में जाकर अपना सारा वृत्तान्त कह सुनाये। यही न होगा, दो-तीन साल की सजा हो जायगी; फिर तो यों प्राण सूली पर न टंगे रहेंगे। कहीं डूब ही क्यों न मरूं। इस तरह जीने से फायदा ही क्या ? न घर का हूँ, न घाट का। दुसरों का भार तो क्या उठाऊँगा, अपने ही लिए दूसरों का मुँह ताकता हूँ। इस जीवन से किसका उपकार हो रहा है। धिक्कार है मेरे जीने को!

रमा ने निश्चय किया, कल निशंक होकर काम की टोह में निकलूँगा। जो कुछ होना है, हो।

२६

अभी रमा मुँह-हाथ धो रहा था, कि देवीदीन प्राइमर लेकर आ पहुँचा और बोला-भैया, यह तुम्हारी अंगरेजी बड़ी विकट है। एस-आई-आर
[ १६७ ]'सर' होता है, तो पी-पाई-टो 'पिट' क्यों हो जाता है ? बी-यू-टी' 'बट' होता है; लेकिन पी-यू-टी 'पुट' क्यों होता है ? तुम्हें भी बड़ी कठिन लगती होगी?

रमा रे मुसकुराकर कहा-पहले तो कठिन लगती थी, पर अब आसान मालूम होती है।

देवी:—जिस दिन प्राइमर खतम होगी, महावीरजी को सवा सेर लटू साऊँगा। पराई-मर का महत्व है पराई स्त्री मर जाय। मैं कहता हूँ, हमारी मर। पराई के मरने से हमें क्या सुख ! तुम्हारे बाल-बच्चे तो है न भैया?

रमा ने इस भाव से कहा मानों हैं, पर न होने के बराबर हैं-हाँ. हैं तो!

'कोई चिट्ठी-चपाती आयी थी?

'न!'

'और न तुमने लिखी ? अरे! तीन महीने से कोई चिट्टी भी नहीं भेजी?घबराते न होंगे लोग?

'जब तक यहाँ कोई ठिकाना न लग जाय, क्या पत्र लिखूँ ?' अरे भले आदमी, इतना तो लिख दो कि मैं यहाँ कुशल से हैं। घर'से भाग आये थे, उन लोगों को कितनी चिन्ता हो रही होगी ? माँ-बाप तो है न ?

देवीदीन ने गिड़गिड़ाकर कहा-तो भैया, आज ही चिट्ठी डाल दो, मेरी बात मानो।

रमा ने अब तक अपना हाल छिपाया था। उसके मन में कितनी ही बार इच्छा हुई कि देवीदीन से कह दूँ पर बात ओठों तक आकर रुक जाती थी। वह देवीदीन के मुंह से आलोचना सुनना चाहता था। वह जानना बाहता था कि वह क्या सलाह देता है। इस समय देवीदीन के सद्भाव ने पराभूत कर दिया। बोला-मैं घर से भाग आया हूँ, दादा।

देवीदीन ने मूछों में मुसकुराकर कहा-यह तो मैं जानता हूँ। क्या बाप से लड़ाई हो गयी?

'नहीं!' [ १६८ ]'माँँ ने कुछ कहा होगा?

'यह भी नहीं !'

'तो फिर घरवालो से ठन गयी होगी ! वह कहती होगी मैं अलग रहूँगी।तुम कहते होगें मैं अपने मां-बाप से अलग न रहूँगा! या गहने के लिये जिद करती होगी, नाक में दम कर दिया होगा। क्यों ?

रमा ने लज्जित होकर कहा—कुछ ऐसी ही बात थी, दादा। वह तो गहनों की बहुत इच्छुक न थी, लेकिन पा जाती थी, तो प्रसन्न हो जाती थी, और मैं प्रेम की तरंग में आगा-पीछा कुछ न सोचता था।

देवीदीन के मुंह ले मानो आप-ही-आप निकल माया-सरकारी रक्कम तो नहीं उड़ा दी?

रमा को रोमांच हो आया। छाती धक-से हो गयी। वह सरकारी रकम की बात उसले छिपाना चाहता था। देवीदीन के इस प्रश्न ने उस पर छापा मार दिया। वह कुशल सैनिक की भाँति अपनी सेना को घाटियों से, जासूसों की आँख बचाकर, निकाल ले जाना चाहता था, पर इस छापे ने उसकी सेना को अस्त-व्यस्त कर दिया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह एकाएक कोई निश्चय न कर सका कि इसका क्या जबाब दूँ।

देवीदीन ने उसके मन का भाव भांपकर कहा—प्रेम बड़ा बेढब होता है भैया। बड़े-बड़े चूक जाते हैं; तुम तो अभी लड़के हो। गबन के हजारों मुकदमे हर साल होते हैं। तहकीकात की जाय तो सबका कारण एक ही होगा-गहना ! दस बीस वारदात तो मैं आँखो देख चुका हूँ। वह रोग हो ऐसा है। औरत मुँह से तो यही कहे जाती है कि यह क्यों लाये वह क्यों लाय, रुपये कहां से आयेंगे, लेकिन उसका मन आनन्द से नाचने लगता है। यहीं एक डाक बाबू रहते थे। बेचारे ने छुरी से गला काट लिया ! एक दूसरे मियां साहब को मैं जानता हूँ, जिनको पांच साल की सजा हो गयी, जेहल में मर गये। एक तीसरे पण्डितजी को जानता हूँ, जिन्होंने अफीम खाकर जान दे दी। बुरा रोग है। दूसरों को क्या कहूँ, मैं भी तीन साल की सजा काट चुका हूँ। जवानी की बात है, जब बुढिया पर जोवन था। ताकती थी तो मानो कलेजे पर तीर चला देती थी ! मैं डाकिया था। मनीइर्डर तकसीम
[ १६९ ]किया करता था। यह कानों के झूमके के लिए जान खा रही थी। कहती थी, सोने ही का लूँगी। इसका बाप चौधरी था ! मेवे की दूकान थी। मिजाज बुढ़ा हुआ था। मुझ पर प्रेम का नशा छाया हुआ था। अपनी आमदनी की डोंगे मारता रहता था कभी फूलों का हार लाता, कभी मिठाई, कभी अतर-फूलेल। सदर का हल्का था। जमाना अच्छा था। दूकानदारों से जो चीज़ मांग लेता, मिल जाती थी। आखिर मैंने एक मनोआर्डर पर झूठे दस्तखत बनाकर रुपये उड़ा दिये। कुल तीस रुपये थे। झूमके लाकर इसे दिये। इतनी खुश हुई कि कुछ न पूछो; लेकिन एक महीने में चोरी पकड़ ली गयी। तीस साल की सजा हो गयी। सजा काटकर निकला तो यहां भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। वहां मुंह केसे दिखाता। हां, घर पत्र भेज दिया। बुढ़िया खबर पाते ही चली आयी। यह सब कुछ हुआ; मगर गहनों से उसका पेट नहीं भरा। जब देखो, कुछ-न-कुछ बनता ही रहता है। एक चीज आज बनबायी, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज बनवायी। यही तार चला जाता है। एक सोनार मिल गया है, मंजूरी में साग-भाजी ले जाता है। मेरी तो सलाह है, घर एक खत लिख दो। लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता मिल गया, तो काम बिगड़ जायगा। मैं न किसी से एक खत लिखवाकार भेज दूँ?

रमा ने आग्रहपूर्वक कहा——नहीं दादा ! दया करो। अनर्थ हो जायेगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे घर वालों का भय है।

देवी——घरवाले खबर पाते ही आ जायेंगे। यह चर्चा ही न उठेगी। उनकी कोई चिन्ता ही नहीं। डर पुलित ही का है।

रमा——मैं सज़ा से बिल्कुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक दिन मुझे वाचनालय में जान-पहचान की एक स्त्री दिखायी दी। हमारे घर बहुत आती-जाती थी। मेरी स्त्री से बड़ी मित्रता थी। एक बड़े वकील की पत्नी है।उसे देखते ही मेरी नानी मर गयी। ऐसा सिटपिटा गया कि उसकी ओर ताकने की हिम्मत न पड़ी। चुपके से उठकर पीछे के बरामदे में जा छिपा।अगर उस वक्त उससे दो-चार बातें कर लेता, तो घर का सारा समाचार मालूम हो जाता, और मुझे विश्वास है, कि वह इस मुलाकात को किसी से चर्चा भी न करती। मेरी पत्नी से भी न कहती; लेकिन मेरी हिम्मत न
[ १७० ]पड़ी। अब अगर मिलना भी चाहूँ, तो नहीं मिल सकता। उनका पता—ठिकाना कुछ भी तो नहीं मालूम।

देवो०—तो फिर उसी को क्यों नहीं एक चिट्ठी लिखते।

रमा०—चिट्टी तो मुझसे न लिखी जावेगी।

देवी०—तो कब तक चिट्टी न लिखोगे?

रमा०—देखा चाहिये।

देवी०—पुलिस तुम्हारी टोह में होगी।

देवीदीन चिता में डूब गया। रमा को भ्रम हुआ शायद पुलिस का भय इसे चिंंतित कर रहा है। बोला—— हाँ, इसकी शंका मुझे हमेशा बनी रहती है। तुम देखते हो, मैं दिन को बहुत कम घर से निकलता हूँ, लेकिन मैं तुम्हें अपने साथ नहीं घसीटना चाहता। मैं तो जाऊँगा ही, तुम्हें क्यों उलझन में डालूँ। सोचता हूँ, कहीं और चला जाऊँ किसी ऐसे गांव में जाकर रहूँ, जहाँ पुलिस की गन्ध भी न हो।

देवीदीन ने गर्व से सिर उठाकर कहा——मेरे बारे में तुम कुछ चिन्ता न करो भैया, यहाँ पुलिस से डरनेवाले नहीं है। किसी परदेशी को अपने घर ठहराना पाप नहीं। हमें क्या मालूम किसके पीछे पुलिस है ? यह पुलिस का काम है, पुलिस जाने। मैं पुलिस का मुखबिर नहीं, जासूस नहीं, गोइन्दा नहीं। तुम अपने को बचाये रहो, देखो भगवान् क्या करते है। हाँ, कहीं बुढ़िया से न कह देना, नहीं तो उसके पेट में पानी न पचेगा।

दोनों एक क्षण चुपचाप बैठे रहे। दोनों इस प्रसंग को इस समय बंद कर देना चाहते थे। सहसा देवीदीन ने कहा——क्यों भैया, कहीं मैं तुम्हारे घर चला जाऊँ। किसी को कानोंकान खबर न होगी। मैं इधर-उबर से सारा ब्योरा पूछ आऊँगा। तुम्हारे पिता से मिलूंगा, तुम्हारी माता को सामझाऊँगा, तुम्हारी घरवाली से बातचीत करूँगा। फिर जैसा उचित जान पड़े वैसा करना।

रमा ने मन-ही-मन प्रसन्न होकर कहा——लेकिन कैसे पूछोगें दादा, लोग कहेंगे न कि तुम्हें इन बातों से क्या मतलब।

देवीदीन ने ठट्टा मारकर कहा-मैया, इससे सहज तो कोई काम ही नहीं। एक जनेऊ गले में डाला और ब्राह्मण बन गये। फिर चाहे हाथ देखो, [ १७१ ]चाहे कुण्डली जांचो, चाहे सगुन विचारो, सब कुछ कर सकते हो। बुढ़िया भिक्षा लेकर आयेगी। उसे देखते ही कहूँगा, माता तेरे को पुत्र के परदेश जाने का बड़ा कष्ट है, क्या तेरा कोई पुत्र विदेश गया है ? इतना सुनते ही घर-घर के लोग आ जायेंगे। यह भी आयेगी। उसका हाथ देखूँगा।

इन बातों में मैं पका भैया, तुम निश्चिन्त रहो। कुछ कमा लऊँँगा देख लेना। मात्र-मेला भी होगा। स्नान करता आऊँगा। रमा की आँखें मनोल्लास से चमक उठीं। उसका मन मधुर कल्पनाओं के संसार में जा पहुँचा। जालपा उसी वक्त रतन के पास दौड़ी जायगी। दोनों भांति-भांति के प्रश्न करेंगी-क्यो बाबा;, वह कहाँ गये है ? अच्छी तरह है न? कब तक घर आयेंगे ? कभी बाल-बच्चों की सुधि आती है उनको ? वहां किसी कामिनी के माया-जाल में तो नहीं फंस गये ? दोनों शहर का नाम भी पूछेगी ? कहीं दादा ने सरकारी रुपये चुका दिये हो, तो मजा आ जाय। तब एक ही चिन्ता रहेगी।

देवीदीन बोला——तो है न सलाह?

रमा——कहाँ जाओगे दादा, कष्ट होगा।

'माघ का स्नान भी तो करूंगा। कष्ट के बिना नहीं पुन्न होता है! मैं तो कहता हूँ, तुम भी चलो। मैं वहाँ सब रंग-ढंग देख लूँँगा। अगर देखना कि ममला टिचन है, तो चैन से घर चले जाना ! कोई खटका मालूम हो तो मेरे साथ ही लौट आना।'

रमा ने हंसकर कहा——कहाँ की बात करते हो दादा ? मैं यों कभी न जाऊँगा ! स्टेशन पर उतरते ही कहीं पुलिस का सिपाही पकड़ ले तो बस !

देवीदीन ने गंभीर होकर कहा——सिपाही क्या पकड़ लेगा, दिल्लगी है। मुझसे कहो मैं प्रयागराज के थाने में ले जाकर खड़ा कर दूं। अगर कोई तिरछी आँखो से भी देख ले तो मुंछ मुड़ा लूँ। ऐसी बात है भला, सैकड़ों खूनियों को जानता हूँ, जो यहीं कलकत्ते में रहते हैं ! पुलिस के अफसरों के साथ दावतें खाते हैं, पुलिस उन्हें जानती है, फिर भी उनका कुछ नहीं कर सकती। रुपये में बड़ा दम है भैया!

रमा ने कुछ जवाब न दिया। उसके सामने यह नया प्रश्न या खड़ा हुआ। जिन बातों को वह अनुभव न होने के कारण महा कष्ट साध्य समझता था, [ १७२ ]उन्हें इस बूढ़े ने निर्मुल कर दिया और बुढ़ा शेखीबाजों में नहीं है। वह मुँह से जो कहता है, उसे पूरा कर दिखाने का सामर्थ्य रखता है। उसने सोचा, तो क्या मैं सचमुच देवीदीन के साथ घर चला जाऊँ। यही कुछ रुपये मिल जाते, तो नये सूट बनवा लेता, फिर शान में जाता। वह उस अबसर की कल्पना करने लगा, जब वह सूट पहने हुए घर पहुंचेगा। उसे देखते ही गोपी और विश्वम्भर दौड़ेंगे-भैया आये, भैया आये ! दादा निकल आयेंगे। अम्मा को पहले विश्वास न आयेगा, मगर जब दादा जाकर कहेंगे- हां आ तो गये, तब वह रोती हुई, द्वार की ओर चलेंगी। उसी वक्त में पहुँचकर उनके पैरों पर गिर पडूंगा। जालपा वहां न आयेगी। वह मान किये बैठी रहेगी। रमा ने मन-ही-मन वह वाक्य भी सोच लिया, जो वह जालपा को मनाने के लिए कहेगा। शायद रुपये की चर्चा ही न आये ! इस विषय पर कुछ कहते हुए सभी को संकोच होगा। अपने प्रियजनों से जब कोई अपराध हो जाता है तो हम उघाड़कर उसे दुःखी नहीं करते। चाहते है कि उस बात का उसे ध्यान ही न आये; उसने साथ ऐसा व्यवहार करते हैं, कि उसे हमारी ओर से जरा भी भ्रम न हो, वह भूल जर भी न समझे, कि मेरी अपकीर्ति हो रही है।

देवीदीन ने पूछा-क्या सोच रहे हो ? चलोगे न ?

रमा ने दबी जबान से कहा- तुम्हारी इतनी दया है, तो चलूँँगा; मगर पहले तुम्हें मेरे घर जाकर पूरा-पूरा समाचार लाना पड़ेगा। अगर मेरा मन न भरा तो मैं लौट आऊँँगा।

देवीदीन ने दृढ़ता से कहा-मंजूर!

रमा ने संकोच से आँखें नीची करके कहा-एक बात और है।

देवी०-क्या बात है ? कहो।।

'मुझे कुछ कपड़े बनवाने पड़ेंगे।

'बन जायंगे।'

'मैं घर पहुँचकर तुम्हारे रुपये दिला दूँँगा।

'और मैं तुम्हारी गुरु-दक्षिणा भी वहीं दे दूंगा।'

'गुरु-दक्षिणा भी मुझो को देनी पड़ेगी। मैंने चार हरक अंगरेजी पढ़ा दिये, तो तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा। तुमने मुझे जो पाठ पढ़ाये
[ १७३ ]हैं, उन्हें मैं उम्र भर नहीं भूल सकता। मुंह पर बड़ाई करना खुशामद है: लेकिन दादा, माता-पिता के बाद जितना प्रेम मुझे तुमसे है उतना और किसो से नहीं। तुमने ऐसे गाढ़े समय मेरी बांह धकड़ी जब मैं बीच धार में बहा जा रहा था। ईश्वर ही जाने, अन तक मेरी क्या गति हुई होता, किस घाट लगा होता !'

देवीदीन ने बृहल से कहा——और जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न धुसने दिया तो?

रमा ने हँसकर कहा——दादा तुम्हें अपना बड़ा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी स्वातिर करेंगे, कि तुम ऊब जानोगे। जालपा तुम्हारे चरण धो-धो पियेगी, तुम्हारी इतनी सेवा करेगी कि जबान हो जानोगे।

देवीदीन मे हँसकर कहा——तब तो बुढ़िया डाह के मारे जल भरेगी। मानेगी नहीं, नहीं तो मेरा जी चाहता है कि हम दोनों अपना डेरा-डेटा लेकर चलते और वहीं अपनी सिरकी तानते। तुम लोगों के साथ जिन्दगी‌ के बाकी दिन आराम से कट जाते। मगर इस चुडैल से कलकत्ता न छोड़ जायगा। तो बात पक्की हो गयी न?

'हाँ, पक्की हो है।'

'दुकान खुले तो चलें, कपड़े लायें और पाज ही सिलने को दे दें।'

देवीदीन के चले जाने के बाद रमा बड़ी देर तक अानन्द-कल्पनाओं में मग्न बैठा रहा। जिन भावनाओं को कभी उसने अपने मन में आश्रय न दिया था, जिनकी गहराई, विस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था, कि उनमें फिसलकर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था, उसी अथाह और अछोर कल्पना-सागर में वह आज स्वच्छन्द रूप से क्रीड़ा करने लगा। उसे अब एक नौका मिल गयी थी। वह त्रिवेणी की सैर, बह अलफ्रेड पार्क की बहार, वह खुसरो बाग़ का आनन्द, वह मित्रों के जलसे, सब याद श्रा-आकर हृदय को गुदगुदाने लगे। रमेश उसे देखते ही गले लिपट जायेगा। मित्रगरण पूछेगे, कहां गये थे यार ? खून' सैर की ? रतन उसकी खबर पाते ही दौड़ी पायेगी और पूछेगी——तुम कहां व्हरे ये बाबूजी, मैंने सारा कलकत्ता छान मारा। फिर जालपा को मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई। [ १७४ ]सहसा देवीदीन ने आर कहा—— भैया, दस बज गये, चलो बाजार होते आयें।

रमा ने चौककर पूछा——क्या दस बज गये?

देवी०——दस नहीं, ग्यारह का अमल होगा।

रमा चलने को तैयार हुआ; लेकिन द्वार तक आकर रुक गया।

देवीदीन ने पूछा——क्यों, खड़े कैसे हो गये?

'तुम्हीं चले जाओ; मैं जाकर क्या करूंगा!

'क्यों डर रहे हो?

'नहीं, डर नहीं रहा हूँ, मगर फायदा?

'मैं अकेले जाकर क्या करूंगा। मुझे क्या मालूम, तुम्हें कौन कपड़ा पसन्द है। चलकर अपनी पसन्द का ले लो। वहीं दरजी को दे देंगे।'


'तुम जैसा कपड़ा चाहे ले लेना। मुझे सब पसन्द है।' 'तुम्हें डर किस बात का ? पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।'

'मैं डर नहीं रहा हूं, दादा ! जाने की इच्छा नहीं है।'

'डर नहीं रहे तो क्या कर रहे हो। कह रहा हूँ, कि कोई तुम्हें कुछ न कहेगा, इसका मेरा जिम्मा; मुदा तुम्हारी जान निकली जाती है।'

देवीदीन ने बहुत समझाया, आश्वासन दिया: पर रमा जाने पर राजी न हुआ। वह डरने से कितना ही इनकार करे, पर उसको हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था, अगर किसी सिपाही ने पकड़ लिया, तो देवीदीन क्या कर लेगा। माना सिपाही से इसका परिचय भी हो, तो यह आवश्यक नहीं कि वह सरकारी मामले में मैत्री का निर्वाह करें। यह मिन्नत खुशामद करके रह जायगा, आयेगी मेरे सिर। कहीं पकड़ जाऊँ, तो प्रयाग के बदले जेल जाना पड़े। आखिर देवीदीन लाचार होकर अकेला ही गया।

देवीदीन घण्टे-भर में लौटा, तो देखा, रमा छत पर टहल रहा है। बोला——कुछ खबर है, के बज गये ? बारह का अमल है आज रोटी न बनाओगे क्या? घर जाने की खुशी में खाना-पीना छोड़ दोगे?

रमा ने झेंपकर कहा——बना लूँगा दादा, जल्दी क्या है। [ १७५ ]यह, देखो, नमूने लाया हूँ। इनमें जौन-का पसन्द करो, ले लूँ।' यह कहकर देवीदीन ने उनी और रेशमी कपड़ों के सैकड़ों नमूने निकाल कर रख दिय।पाँच छः रुपये गज से कम का कोई न था।

रना ने नमूनों को उलट-पलटकर देखा और बोला-इतने मँहगे कपड़े क्यो लाये और सस्ते न थे?

'सस्ते थे, मुदा विलायती थे।'

तुम विलायती कपड़े नहीं पहनते?

'इधर बीस साल से तो नहीं लिये, उधर की बात नहीं कहता। कुछ बेसी दाम लग जाता है, पर रुपया तो देश ही में रह जाता है'

रमा ने लजाते हुए कहा——तुम नियम के बड़े पक्के हो, दादा। देवीदीन की मुद्रा सहसा तेजवान् हो गयी। उसकी बुझी हुई आँखें चमक उठी। देह की नसें तन गयीं। अकड़कर बोला-जिस देश में रहते हैं, जिसका अन्न-जल खाते हैं, उसके लिए इतना भी न करें, तो जीने को धिक्कार है। दो जवान बेटे इसी सुदेश को भेंट कर चुका हूँ, भैया। ऐसे-ऐसे पटठे थे कि तुमसे क्या कहें! दोनों विदेशी कपड़े की दुकान पर तैनात थे। क्या मजाल थी कि कोई गाहक दुकान पर ना जाय। हाथ जोड़कर, धिधियाकर धमकाकर, लजवाकर सबको फेर देते थे। बजाने में सियार लोटने लगे। सबो ने जाकर कमिसनर से फरियाद की। सुनकर आग हो गया। बीस फोजी गोरे भेजे, कि अभी जाकर बाजार से पहरे उठा दो। गोरों ने दोनों भाइयों से कहा——यहां से चले जाव, मूदा वह अपनी जगह से जौ भर न हिलें। भीड़ लग गयी। गोरे उन पर घोड़े चढ़ा लाते थे, पर दोनों चट्टान की तरह डटे खड़े थे। अखिर जब इस तरह कुछ बस न चला तो सबो ने डण्डों से पीटना शुरू किया। दोनों वीर डंडे खाते थे, पर जगह से न हिलते थे। जब बड़ा भाई गिर पड़ा तो छोटा उसकी जगह पर आ खड़ा हुआ। अगर दोनों अपने डंडे सँभाल लेते, तो भैया, उन बीसो को मार भगाते, लेकिन हाय उठाना तो बड़ी बात है, सिर तक न उठाया। अन्त में छोटा भी वहीं गिर पड़ा। दोनों को लोगों ने उठाकर अस्पताल भेजा। उसी रात को दोनों सिधार गये। तुम्हारे चरन छूकर कहता हूँ भैया, उस वक्त ऐसा जान पड़ता था, कि मेरी छाती गज-भर को हो गयी है, पांव जमीन पर न
[ १७६ ]चहते थे। यही उमंग आती थी कि भगवान ने औरों को पहले न उठा लिया होता, तो इस समय उन्हें भी भेज देता। जब अर्थी चली है, तो एक लाख आदमी साथ थे। बेटों को गंगा में सौंपकर मैं सीधे बजाजे पहुंचा और उसी जगह पड़ा हुआ, जहां दोनों वीरों की लाश गिरी थी। गाहक के नान चिड़िये का पूत तक न दिखायी दिया। आठ दिन वहां से हिला तक नहीं। बस, भोर के समय आध घंटे के लिए घर आता था और नहा-धोकर कुछ जल पान करके चला जाता था। न दिन दूकानदारों ने कसम खायी, कि विलायती कपड़े अब न मँगायेंगे। तब पहरे उठा लिये गये। तब से विदेशी विलायती तक घर में नहीं लाया।

रमा ने सच्चे हृदय से कहा——दादा, तुम सच्चे वीर हो, और वे दोनों लड़के भी सच्चे योद्धा थे। तुम्हारे दर्शन से आँखें पवित्र होती हैं।

देवीदीन ने इस भाव से देखा मानो इस बड़ाई को वह बिल्कुल गतिशयोक्ति नहीं समझता। शहीदों की शान से बोला——इन बड़े-बड़े आदमियो के किये कुछ न होगा। इन्हें बस रोना आता है। छोकरियों की भांति बिसूरने के सिवा इनसे और कुछ नहीं हो सकता। बड़े-बड़े देशभकतो को बिना विलायती शराब के चैन नहीं आता। उनके घर में जाकर देखो तो एक भी देशो चीज न मिलेंगी। दिखाने को दस-बीस कुरते गाड़े के बनवा लिये, घर का और सब सामान विलायती है। सब-के-सब भोग-विलास में अन्धे हो रहे हैं, छोटे भी और बड़े भी। उन पर दावा यह है कि देश का उद्धार करेंगे। अरे तुम क्या देश का उद्धार करोगे ! पहले अपना उद्धार कर लो। गरीबों को लुटकर विलायत का घर भरना तुम्हारा काम है। इसीलिए तुम्हारा इस देश में जन्म हुआ है। हां, रोये जाओ, और विलायती सराबे उड़ाये जायो! विलायती मोटरे दौड़ाओ, विलायती मुरब्बे और अचार चखो, विलायती बरतनों में खाओ, विलायती दवाइयां पीयो, पर देश के नाम को 'रोये जायो। मुदा इस रोने से कुछ न होगा। रोने से माँ दूध पिलाती है, शेर अपना शिकार नहीं छोड़ता। रोओ उसके सामने जिसमें दया और धरम हो। तुम धमकाकर ही क्या कर लोगे ? जिस धमकी में कुछ दया नहीं है उस धमकी की परवाह कौन करता है ? एक बार यहाँ एक बड़ा भारी जलसा हुआ। एक साहब बहादुर खड़े होकर खूब उछले कुदे। जब वह नीचे
[ १७७ ] पाये तब मैंने उनसे पूछा——साहब, सच बतायो, जब तुम सुराज का नाम लेदो हो, उसका कौन-सा रूप तुम्हारी ब्रांखों के सामने आता है ? तुम भी बड़ी-बड़ी तलब लोगे, तुम भो अंगरेजों की तरह वंगलों में रहोगे, पहाड़ों की हवा खायोगे, अंगरेजो ठाट वनाये मोगे। इन सुराज से देश का क्या कल्यान होगा ? तुम्हारी और तुम्हारे भाई-बन्दों को जिन्दगी भले पाराम और बाद से गुजरे; पर देश का तो काई मना न होगा ! बर, बगलें झांकने लगे। तुम दिन में पांच बेर खाना चाहते हो. और वह भा अड़िया माल; गरोत्र किसान को एक जून सूखा च देना भी नहीं मिलता। उसी का रक्त चमकर तो सरकार तुम्हें हुई देतो है। तुम्हारा धान कभी उनकी ओर जाता है ? अभी तुम्हारा राज नहीं है, तब तो तुम भोग-विलास पर इतना मरते हो, जब तुहारा राज हो जायगा, तत्र तो तुम गरीबों को पीसकर पी जानोगे।

रमा भद्र समाज पर यह अाक्षेप न सुन सक्का। अाखिर यह भी तो भद्र समाज का एक ही अंग था। बोला——यह तो नहीं है दादा, कि पढ़े लिखे लोग किसानों का ध्यान नहीं करते। उनमें से कितने ही खुद किसान थे या हैं। उन्हें अगर विश्वास हो जाय कि हमारे काष्ट उठाने से किसानों का कोई उपकार होगा, और जो बक्त होगी वह किसानों के लिए खर्च की जायगी, तो वह खुशी से कम वेतन पर काम करेंगे: लेकिन जब वह देखते हैं कि बचत दुसरे हहप जाते हैं, तो वह सोचते हैं, अगर दूसरों को ही खाना है, तो हम क्यों न खायें।

देवी०——तो सुराज मिलने पर दस-दस पांच-पांच हजार के अफसर नहीं रहेंगे? वकीलों को लूट नहीं रहेगो ? पुलिस को लूट बन्द हो जायगी ?

एक क्षण के लिए रमा सिटापिटा गया। इस विषय में उसने खुद कभी विचार न किया था; मगर तुरन्त ही उसे जवांव सूझ गया। बोला——दादा, सब तो सभी काम बहुमत से होगा। अगर बहमत कहेगा कि कर्मचारियों के वेतन घंटा दिये जाय, तो घर जायगे। देहातों के संगठन के लिए भी बहुमत जितने रुपये मांगेगा, मिल जायेंगे। कुंजी बहुमत के हाथों में रहेगी। और अभी दस-पांच बरस चाहे न हो, लेकिन आगे चलकर बहुमत किसानों और मजूरों का ही हो जायगा।

देवीदीन ने मुसकराकर कहा-भैया, तुम भी इन बातों को समझते
[ १७८ ]हो। यही मैंने भी सोचा था। भगवान करें, अभी कुछ दिन और जीऊँ। मेरा पहला सवाल यह होगा कि विलायती चीजों पर दुगुना महसूल लगाया जाय और मोटरों पर चौगुना। अच्छा, अब भोजन बनाओ। सांझ को चलकर कपडे़ दरजी को दे देंगे ! मैं भी तब तक खा लू'।

शाम को देवीदीन ने आकर कहा——चलो भैया, अब तो अंधेरा हो गया।

रमा सिर पर हाथ धरे बैठा हुआ था: मुख पर उदासी छायी हुई थी। बोला——दादा, मैं घर न जाऊँगा।

देवीदीन ने चकित होकर पूछा——क्यों क्या बात हुई ?

रमा की आंखें सजल हो गयीं : बोला——कौन-सा मुंह लेकर जाऊँ दादा ! मुझे तो डूब मरना चाहिए था।

यह कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदना जो अब तक मूछित पड़ी थी, शीतल जल के वह छीटे पाकर सचेत हो गयी; और उसके कन्दन ने 'रमा के सारे अस्तित्व को जैसे छेद डाला। इसी क्रन्दन के भय से वह उसे छेड़ता न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था, संयत विस्मति से उसे अचेत ही रखना चाहता था; मानो कोई दु:खिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते डरती हो कि तुरन्त खाने को मांगने लगेगा।

२७

कई दिनों के बाद एक दिन कोई ८ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले। यह नक्शा वहाँ के एक हिन्दी दैनिक पत्र में छपा था और उसे हल करने वाले को पचास रुपये इनाम देने का वचन दिया गया था। नक्शा असाध्य-सा जान पड़ता था। कम-से-कम इन युवकों की बातचीत से ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ कि वहां के और भी कितने शतरंजबाजों ने इसे हल करने के लिए भरपूर ज़ोर लगाया पर कुछ पेश न पाया। अब रमा को याद आया कि पुस्तकालय में एक पत्र पर बहुत-से आदमी झुले हुए थे और उस नशे की नकल कर रहे थे। जो आता था, दो चार मिनट तक वह पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ, यह बात थी।

रमा का इनमें से किसी से भी परिचय न था; पर वह नकशा देखने के
[ १७९ ]लिए इतना उत्सुक हो रहा था कि उससे बिना पूँछे न रहा गया। बोला——आप लोगों में से किसी के पास वह नक्शा है?

युवकों में एक कम्बलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे, कोई अताई होगा। एक के रुखाई से कहा——हाँ, है तो; मगर तुम देखकर क्या करोगे, यहां अच्छे-अच्छे गोते खा रहे है ! एकः महाशय, जो शतरंज में अपना सानो नहीं रखते, उसे हल करने के लिए सौ रुपये अपने पास से देने को तैयार है।

दुसरा युवक बोला——दिखा क्यो नहीं देते जो ? कौन जाने यही बेचारे हल कर लें, शायद इन्हीं की सूझ लड़ जाय।

इस प्रेरणा में सज्जनता नहीं, व्यंग्य था। उसमें वह भाव छिपा था, कि हमें दिखाने में कोई उज नहीं है, देखकर अपनी आंखों को तृप्त कर ली; मगर तुम जैसे उल्लू उसे समझ ही नहीं सकते, हल क्या करोंगे!

जान पहचान की एक दूकान में जाकर उन्होंने रमा को नक्शा दिखाया। रमा को तुरन्त याद आ गया, यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है! सोचने लगा, कहां देखा है।

एक युवक ने चुटको ली—आपने तो हल कर लिया होगा?

दूसरा अभी नहीं किया तो एक क्षण में किये लेते हैं।

तीसरा-जरा दो-एक चाल बताइए तो?

रमा ने उत्तेजित होकर कहा—— यह मैं नहीं कहता कि मैं इसे हल कर ही लूंगा; मगर ऐसा नशा मैंने एक बार हल किया है और संभव है इसे भी हल कर लूँ। जरा कागज-पेंसिल दीजिए तो नकल कर लूं।

युवकों का अविश्वास कुछ कम हुआ। रमा को कागज पेंसिल मिल गया। एक क्षण में उसने नक्शा नकल कर लिया और युवकों को धन्यवाद देकर चला। एकाएक उसने फिर पूछा—'प्रजा मित्र' के सम्पादक के पास?

रमा ने घर पहुँचकर उस नक्शे पर दिमाग लगाना शुरू किया, लेकिन मुहरों की चालें चलने की जगह वह यही सोच रहा था कि यह नशा कहाँ देखा। शायद यह याद आते ही उसे नक्शो का हल भी सूझ जायेगा! अन्य, प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने से वह मानो छुटो पा जाता है। रमा आधी रात तक
[ १८० ] नकशा सामने खोले बैठा रहा। शतरंज की बड़ी-बड़ी मार्क की बाजियों खेली थी, उन सबका नकशा उन्ले वाद था। पर यह नशा कहाँ देखा?

सहमा उसको आँखों के सामने विजनो-लो काँध गयी। खोयी हुई स्मृति मिल गयी। अहा ! राजा साहब ने यह नकसा दिया था। हाँ, ठीक है। लगातार तीन दिन दिमाग लड़ाने के बाद इसे उसने हल क्रिया था। नक़शे की नकल भी कर लाया था। शिर तो उसे एक-एक चाल बाद आ गयी। एक पास में नकशा हल हो गया। उसने उल्लाब के नशे में जमीन पर दो-तीन कुलाचें लगानी। मूछों पर ताय दिया, आईने में मुंह देखा, और चारपाई पर लेट गया इस तरह अगर महाने में एक नकाशा मिलता जाय, तो क्या पूछना?

देवीदीन अभी आग सुलगा रहा था कि रमा प्रसन्न मुख आकर बोला——दादा, जानसे हो 'प्रजामित्र, अखबार का दफ्तर कहाँ है?

देवी——जानता क्यों नहीं हूँ। वहाँ कौन अखबार है, जिसका पता मुझे न मालूम हो ? 'प्रजा-मित्र का संपादक एक रंगीला युवक है, जो हरदम मुंह में पान भरे रहता है। मिलने जानो, सो आँखों से बातें करता है, मगर है हिम्मत का धनी। दो बेर जेल ही आया है।

रमा——ग्राज ज्ञरा बहाँ तक जानोगे?

देवीदीन ने कातर भाव से कहा——मुझे भेजकर क्या करोगे ? मैं न जा सकूंगा।

'क्या बहुत दूर है?

'नहीं, दूर नहीं है।'

'फिर क्या बात है?

देवीदीन में अपराधियों के भाव के कहा——बात कुछ नहीं है, बुड़िया दिगड़ती है। उन्ले वचन दे दुका हूँ, कि सुदेशी-विदेश के झगड़े में न पड़गा, न किसी अक्षवार के दफ्तर में जाऊँगा। उसका दिया जाता हूँ, तो उसका हुकुम भी तो बजाना पड़ेगा।

रमा ने मुसकराकर कहा——दादा, तुम तो दिल्लगी करते हो। मेरा एक बड़ा जरूरी काम है। उसने शतरंच का एक नकशा छापा था, जिस पर पचास रुपया इनाम है। मैंने वह नकशा हल कर दिया है। आज छप जाय, तो
[ १८१ ]मुझे यह इनाम मिल जाय। अखबार के दफ्तर में अक्सर खुफिया पुलिस के आदमी आते-जाते हैं। यही भय है। नहीं तो मैं खुद चला जाता। लेकिन तुम नहीं जा रहे हो तो लाचारीवश मुझे ही जाना पड़ेगा। बड़ी मेहनत से यह नक्शा हल किया है। सारी रात जागता रहा हूं।

देवीदीन ने चिन्तित स्वर में कहा-तुम्हारा वहाँ जाना ठीक नहीं।

रमा ने हैरान होकर पूछा-तो फिर ? क्या डाक से भेज दूँ?

देवीदीन ने एक क्षण सोचकर कहा- नहीं, डाक से क्या भेजोगे। सादा लिफाफा इधर-उधर हो जाय तो तुम्हारी मेहनत अकारथ जाय। रजिस्ट्री कराओ तो कहीं परसों पहुँचेगा', कल इतवार है। किसी और ने जबाव भेज दिया, वो इनाम वह ले जायगा। यह भी तो हो सकता है कि अखबार वाले धांधली कर बैठे और तुम्हारा जवाब अपने नाम से छापकर रुपया हजम कर लें।

रमा में दुविधे में पड़कर कहा——मैं ही चला जाऊँगा। 'तुम्हें मैं जाने न दूंगा। कहीं फंस जाओ तो बस!'

'फँसना तो एक दिन है ही ! कब तक छिपा रहूँगा ?'

'तो मरने के पहले ही क्यो रोना-पीटना हो ? जब फँसोगे, तब देखी जायगी। लाओ मैं चला जाऊँ। बुढ़िया से कोई बहाना कर दूंगा। अभी भेंट भी हो जायगी। दफ्तर ही में रहते भी हैं। फिर धूमने–घामने चल देंगे, दस बजे से पहले न लौटेंगे।'

रमा ने डरते-डरते कहा——तो दस बजे के बाद जाना, क्या हरज है ?

देवीदीन ने खड़े होकर कहा——तब तक कोई दूसरा काम आ गया, तो आज रह जायगा। घण्टे-भर में लौट आता हूँ। अभी बुढ़िया देर में आयेगी।

यह कहते हुए देवीदीन ने अपना कम्बल ओड़ा, रमा से लिफ़ाफ़ा लिया और चल दिया।

जग्गो साग, भाजी और फल लेने मण्डी गयी हुई थी। आधे-घण्टे में सिर पर एक टोकरी रखे और एक बड़ा-सा टोकरा नजूर के सिर पर रखवावे आयी। पसीने से तर थी। आते हु बोली——कहाँ गये? जरा बोझ को उतारो, गर्दन टूट गयी। [ १८२ ]रमा ने आगे बढ़कर टोकरी उतरवा ली। इतनी भारी थी कि संभाले न संभलती थी।

जग्गो ने पूछा——वह कहाँ गये हैं ?

रमा ने बहानां किया——मुझे तो नहीं मालूम, अभी इस तरफ चले गये हैं।

बुढ़िया ने मंजूर के सिर का टोकरा उतरवाया और जमीन पर बैठकर एक टूटी-सी पंखिया झलती हुई बोली——चरस की चाट लगी होगी और क्या ! मैं मर-मर कमाऊँ और वह बैठे-बैठे मौज उड़ाये और चरस पीयें।

रमा जानता था, देवीदीन चरस पीता है; पर बुढ़िया को शान्त करने के लिए बोला——क्या चरस पीते हैं ? मैंने तो नहीं देखा।

बुढ़िया ने पीठ की सारी हटाकर, उसे पंखे की डंडी के खुजलाते हुए कहा——इनसे कौन नशा छूटा है, चरस यह पियें, गांजा यह पियें, शराब इन्हें चाहिए, भांग इन्हें चाहिए। हाँ, अभी' तक अफीम नहीं खायी, या राम जाने खाते हों, मैं कौन हरदम देखती रहती हूँ। मैं तो सोचती हूँ कौन जाने आगे क्या हो, हाथ में चार पैसे होंगे, तो पराये भी अपने हो जायेंगे, पर इस भले आदमी को रत्ती-भर चिन्ता नहीं सताती। कभी तीरथ है, कभी कुछ, कभी कुछ मेरा तो (नाक पर उँगली रखकर) नाक में दम आ गया। भगवान उठा ले जाते तो यह कुसंग तो छूट जाता। तब याद करेंगे लाला। तब जाग्गी कहां मिलेगी जो कमा-कमाकर गुलछरें उड़ाने को दिया करेगी। रक्त के आँसू न रोयें, तो कह देना कोई कहता था। (मंजुर से) कै पैसे हुए तेरे?

मजूर ने बीड़ी जलाते हुए कहा——बोझ देख लोमाई, गर्दन टूट गयी !

जग्गो ने निर्दय भाव से कहा——हाँ, हां, गर्दन टूट गयी ! बड़ा सुकुमार है न ! यह ले, कल फिर चले आना।

मजूर ने कहा——यह तो बहुत कम है। मेरा पेट न भरेगा। जग्गो ने दो पैसे और थोड़े आलू देकर उसे विदा किया और दूकान सजाने लगी। सहसा उसे हिसाब की याद आ गयी। रमा से बोली——भैया, जरा आज का खर्चा तो टांक दो। बाजार में जैसे आग लग गयी है।

बुढ़िया छबड़ियों में चीजें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब
[ १८३ ]भी लिखती जाती थी। आलू, टमाटर, कद्दू, केले, पालक, सेम, सन्तरे, गोभी, सब चीजों का तौल और दर उसे याद था। रमा से दोबारा पढ़वाकर उसने सुना, तब उसे सन्तोष हुआ। इन सब कामों से छुट्टी पाकर उसने अपनी चिलम भरी और मोड़े पर बैठकर पीने लगी, लेकिन उसके अन्दाज से मालूम होता था कि वह तम्बाकू का रस लेने के लिए नहीं, दिल को जलाने के लिए पी रही है। एक क्षण के बाद बोली- दूसरी औरत होती तो घड़ी भर इनके साथ निबाह न होता। पहर रात से चक्की में जुत जाती हूँ और दस बजे रात तक दूकान पर बैठीं सती होती रहती हूँ। खाते-पीते बारह बजते हैं। तब जाकर चार पैसे दिखायी देते हैं। और जो कुछ कमाती हूँ, यह नशे में बरबाद कर देता है। सात कोठरी में छिपा के रखूँ पर इसकी निगाह पहुंच जाती है। निकाल लेता है। कभी एक-आध चीज वस्तु बनवा लेती हूँ तो वह आँखों में गड़ने लगती है ! तानो से छेंंदने लगता है। भाग में लड़कों का सुख भोगना नहीं बदा था, तो क्या करू ? छाती फाड़के मर जाऊँ ? मांगे से मौत भी तो नहीं मिलती। सुख भोगना लिखा होता, तो जवान बेटे चल देते, और इस पियक्कड़ के हाथों मेरी यह सांसत होती ? इसी ने सुदेसी के झगड़े में पड़कर मेरे लालों की जान ली। आयो इस कोठरी में भैया, तुम्हें सुन्दर की जोड़ी दिखाऊँ। दोनों इस जोड़ी से पांच-पांच सौ हाथ फेरते थे।

अंधेरी कोठरी में जाकर रमा ने सुन्दर की जोड़ी देखी। उस पर बानिश थी साफ-सुथरी, मानो किसी ने फेरकर रख दिया हो।

बुढ़िया ने सगर्व नेत्रों से देखकर कहा—— लोग कहते थे कि यह जोड़ी महाब्राह्मन को दे दो, तुझे देख-देख कलक होगा। मैंने कहा—यह जोड़ी मेरे लालों की जुगल जोड़ो है। यही मेरे दोनों लाल हैं।

बुढ़िया के प्रति आज रमा के हृदय में असीम श्रद्धा जागृत हुई। कितना पावन धर्य है, कितनी विशाल वत्सलता, जिसने लकड़ो के इन दो टुकड़ों: को जीवन प्रदान कर दिया है! रमा मे जग्गो को माया और लोभ में डूबी हुई, पैसे पर जान देनेवाली, कोमल भावों से सर्वथा विहीन समझ रखा था। आज उसे विदित हुआ कि उसका हृदय कितना स्नेहमय, कितना कोमल, कितना मनस्वी है। बुढ़िया ने उसके मुँँह की ओर देखा तो न जाने क्यों
[ १८४ ]उसका मातृ-हृदय उसे गले लगाने के लिए अधीर हो उठा। दोनों के हृदय प्रेम के सूत्र में बंध गये। एक ओर पुत्र-स्नेह था, दूसरी ओर मातृ-भक्ति! वह मालिन्य जो अब तक गुप्त भाव से दोनों को पृथक किये था, आज एकाएक दूर हो गया।

बुढ़िया ने कहा——मुंह-हाथ धो लिया है न बेटा! बड़े मीठे सन्तरे लायी हूं, एक लेकर चखो तो।

रमा ने सन्तरा खाते हुए कहा——आज से मैं तुम्हें अम्मा कहा करूँगा।

बुढ़िया के शुष्क, ज्योतिहीन, ठंडे; कृपणता नेत्रों से मोती के–से दो बिन्दु निकल पड़े।

इतने में देवीदीन दबे पाँव आकर खड़ा हो गया। बुढ़िया ने तड़पकर पूछा—— यह इतने सबेरे किधर सवारी गयी थी सरकार की ?

देवी ने सरलता से मुसकराकर कहा——कहीं नहीं, जरा एक काम से चला गया था।

'क्या काम था, जरा मैं भी सुनूं, या मेरे सुनने लायक नहीं है?'

'पेट में दरद था, जरा बैदजी के पास चूरन लेने गया था।'

'झूठे हो तुम, उडो उससे जो तुम्हें जानता न हो। चरस की टोह में गये थे तुम?'

'नहीं, तेरे चरन छूकर कहता हूँ. यह झूठ-मूठ मुझे बदनाम करती है।'

'तो फिर कहाँ गये थे तुम ?'

'बता तो दिया। रात खाना दो कौर ज्यादा खा गया था, सो पेट फूल गया, और मीठा-मीठा....'

झूठ है, बिल्कुल झूठ! तुम चाहे झूठ बोलो, तुम्हारा मुँह साफ कहे देता है, यह बहाना है। चरस, गाँजा इसी टोह में गये थे तुम। एक न मानूंगी। तुम्हें इस बुढ़ापे में नसे को सूझती है, यहाँ मेरा मरन हुआ जाता है। सबेरे के गये-गये नौ बजे लौटे हैं, जानो यहाँ कोई उनकी लौंडी है!'

देवीदोन ने एक झाडू लेकर दुकान में झाडू लगाना शुरू किया, पर बुढ़िया ने उसके हाथ से झाडू छीन लिया और पूछा——तुम अब तक थे कहाँ ? जब तक यह न बताओगे, भीतर घुसने न दूंगी।