प्रेमचंद रचनावली ५
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती-प्रेस, पृष्ठ ७२ से – ९१ तक

 


निकले। एकाएक उसे एक बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मीजान दो हजार लिख दें। रसीद बही की जांच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ी भी गई तो कह दूंगा, मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस विचार को उसने मन में टिकने न दिया। इस भय से, कहीं चित्त चंचल न हो जाए, उसने पेंसिल के अंकों पर रोशनाई फेर दी, और रजिस्टर को दराज में बंद करके इधर-उधर घूमने लगा।

इक्की दुक्की गाड़ियां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा, बाबू साहब आज यहीं हैं, तो सोचा जल्दी से चुंगी देकर छुट्टी पर जायं। रमा ने इस कृपा के लिए दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की, और गाड़ीवानों ने शौक से दी क्योंकि यही मंडी का समय था और बारह-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता था, मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बंद हो जाती थी, दूसरे दिन का इंतजार करना पड़ता था। अगर भाव रुपये में आधा पाव भी गिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गई। दस-पांच रुपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नई बात मालूम हुई। सोचा, आखिर सुबह को मैं घर ही पर बैठा रहता हूं। अगर यहां आकर बैठ जाऊं तो रोज दस-पांच रुपये हाथ आ जायं। फिर तो छ: महीने में यह सारा झगड़ा साफ हो जाय। मान लो रोज यह चांदी न होगी, पंद्रह न सही, दस मिलेंगे, पांच मिलेंगे। अगर मुबह को रोज पांच रुपये मिल जायं और इतने ही दिनभर में और मिल जाये, तो पांच-छ: महीने में मैं ऋण से मुक्त हो जाऊ। उसने दराज खोलकर फिर रजिस्टर निकाला। यह हिसाब लगा लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर-फेर कर देना उसे इतना भंयकर न जान पड़ा। नया रंगरूट जो पहले बंदूक की आवाज से चौंक पड़ता है, आगे चलकर गोलियों की वर्षा में भी नहीं घबड़ाता।

रमा दफ्तर बंद करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुंचा। रमा ने कहा, लौटकर चुंगी लूंगा। बिसाती ने मिन्नत करनी शुरू की। उमें कोई बड़ा जरूरी काम था। आखिर दस रुपये पर मामला ठीक हुआ। रमा ने चुंगी ली, रुपये जेब में रक्खे और घर चला। पच्चीस रुपये केवल दो-ढाई घंटों में आ गए। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो पल्ला पार है। उसे इतनी खुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाजार से भी कुछ नहीं मंगवाया। रुपये भुनाते हुए उसे एक रुपया कम हो जाने का खयाल हुआ। वह शाम तक बैठा काम करता रहा। चार रुपये और वसूल हुए। चिराग जले वह घर 'चला, तो उसके मन पर से चिंता और निराशा का बहुत कुछ बोझ उतर चुका था। अगर दस दिन यही तेजी रही, तो रतन से मुंह चुराने की नौबत न आएगी।

सत्रह

नौ दिन गुजर गए। रमा रोज प्रात: दफ्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज यही आशा लेकर जाता कि आज कोई बड़ा शिकार फंस जाएगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही नहीं। पहले दिन की तरह फिर कभी भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ कम श्रेय की बात नहीं थी कि नौ दिनों में ही उसने सौ रुपये जमा कर लिए थे। उसने एक पैसे का पान

भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आवें, तो उसे भी उसने बातों में ही टाला। बस, कल का दिन और था। कल आकर रतन कंगन मांगेगी तो उसे वह क्या जवाब देगा। दफ्तर से आकर वह इसी सोच में बैठा हुआ था। क्या वह एक महीना भर के लिए और न माने जायगी। इतने दिन वह और न बोलती तो शायद वह उससे उऋण हो जाता। उसे विश्वास था कि मैं उससे चिकनी-चुपड़ी बातें करके राजी कर लूंगा। अगर उसने जिद की तो मैं उससे कह दूंगा, सराफ रुपये नहीं लौटाता। सावन के दिन थे, अंधेरा हो चला था, रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दोचार बाजियां खेल आऊं, मगर बादलों को देख-देख रुक जाता था। इतने में रतन आ पहुंची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आई है और मुरव्वत और मुलाहजे की कल्पना को भी कोसों दूर रखना चाहती है।

जालपा ने कहा—तुम खूब आई। आज मैं भी जरा तुम्हारे साथ घूम आऊंगी। इन्हें काम के बोझ से आजकल सिर उठाने की फुर्सत नहीं हैं। | रतन ने निष्ठुरता से कहा-मुझे आज तो बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आई हूँ।

रमा उसका लटका हुआ मुंह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न काना चाहता था। बड़ी तत्परता से बोला-जी हां, खूब याद है, अभी सराफ की दुकान से चला आ रहा हूं। रोज सुबह-शाम घंटे भर हाजिरी देता हूँ, मगर इन चीजों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के हैं। मानियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए हैं, पर शायद अभी एक महीने से कम में चीज तैयार न हो, पर होगी लाजवाब! जी खुश हो जायगा।

पर रतन जरी भी न पिघली। तिनककर बोली-अच्छा | अभी महीना भर और लगेगा। ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में पूरी न हुई ! आप उससे कह दीजिएगा मेरे रुपये वापस कर दे। आशा के कंगन देवियां पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं ।

रमानाथ-एक महीना न लगेगा, में जल्दी ही बनवा दूंगा। एक महीना तो मैंने अंदाज कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गई हैं। कई दिन तो नगीने तला करने में लग गए।

रतन–मुझे कंगन पहनना ही नहीं है, भाई । आप मेरे रुपये लौटा दीजिए, बस। सुनार मैंने भी बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कगन मेरे पास होगे, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी।। धांधली के शब्द पर रमा तिलमिला उठा–धांधली नहीं, मेरी हिमाकत कहिए। मुझे क्या जरूरत थी कि अपनी जान संकट में डालता। मैंने तो पेशगी रुपये इसलिए दे दिए कि सुनार खुश होकर जल्दी से बना देगा। अब आप रुपये मांग रही हैं, सराफ रुपये नहीं लौटा सकता।

रतन ने तीव्र नेत्रों से देखकर कहा-क्यों, रुपये क्यों न लौटाएगा?

रमानाथ-इसलिए कि जो चीज आपके लिए बनाई है, उसे वह कहां बेचता फिरेगा। संभव है, साल-छ: महीने में बिक सके। सबकी पसंद एक-सी तो नहीं होती।

रतन ने त्योरियां चढ़ाकर कहा-मैं कुछ नहीं जानतीं, उसने देर की है, उसका दंड भोगे। मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रुपये। आपसे यदि सराफ से दोस्ती है, आप मुलाहिजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए। नहीं आपको शर्म आती हो तो उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूंगी। वाह, अच्छी

दिल्लगी ! दुकान नीलाम करा दूंगी। जेल भिजवा देंगी। इन बदमाशों से लड़ाई के बगैर काम नहीं चलता।

रमा अप्रतिभ होकर जमीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी मनहूस घड़ी थी, जब उसने रतन से रुपये लिए । बैठे-बिठाए विपत्ति मोल ली।

जालपा ने कहा-सच तो है, इन्हें क्यों नहीं सराफ की दुकान पर ले जाते, चीज आंखों से देखकर इन्हें संतोष हो जायेगा।

रतन-मैं अब चीज लेना ही नहीं चाहती।

रमा ने कांपते हुए कहा-अच्छी बात है, आपको रुपये कल मिल जायेंगे।

रतन-कल किस वक्त?

रमानाथ-दफ्तर से लौटते वक्त लेता आऊंगा।

रतन–पूरे रुपये लूंगी। ऐसा न हो कि सौ-दो सौ रुपये देकर टाल दे।

रमानाथ-कल आप अपने सब रुपये ले जाइएगा।

यह कहता हुआ रमा मरदाने कमरे में आया, और रमेश बाबू के नाम एक रुक्का लिखकर गोपी से बोला-इसे रमेश बाब के पास ले जाओ। जवाब लिखते आना।

फिर उसने एक दूसरा रुक्का लिखकर विश्वम्भरदास को दिया कि माणिकदास को दिखाकर जवाब लाए।

विश्वम्भर ने कहा-पानी आ रहा है।

रमानाथ–तो क्या सारी दुनिया बह जाएगी । दौड़ते हुए जाओ।

विश्वम्भर-और वह जो घर पर न मिलें?

रमानाथ-मिलेंगे। वह इस वक्त कहीं नहीं जाते।

आज जीवन में पहला अवसर था कि रमा ने दोस्तों से रुपये उधार मांगे। आग्रह और विनय के जितने शब्द उसे याद आये, उनका उपयोग किया। उसके लिए यह बिल्कुल नया अनुभव था। जैसे पत्र आज उसने लिखे, वैसे ही पत्र उसके पास कितनी ही बार आ चुके थे। उन पत्रों को पढ़कर उसका हृदय कितना द्रवित हो जाता था; पर विवश होकर उसे बहाने करने पड़ते थे। क्या रमेश बाबू भी बहाना कर जायंगे? उनकी आमदनी ज्यादा है, खर्च कम, वह चाहें तो रुपये का इंतजाम कर सकते हैं। क्या मेरे साथ इतना सुलक भी न करेंगे? अब तक दोनों लड़के लौटकर नहीं आए। वह द्वार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आई और उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं। मोटर पर बैठी और चल दी।

दोनों कहां रह गए अब तक कहीं खेलने लगे होंगे। शैतान तो हैं ही। जो कहीं रमेश रुपये दे दें, तो चांदी है। मैंने दो सौ नाहक मांगे, शायद इतने रुपये उनके पास न हों। ससुराल वालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता। माणिक चाहे तो हजार-पांच सौ दे सकता है,लेकिन देखा चाहिए, आज परीक्षा हो जायगी। आज अगर इन लोगों ने रपये न दिए, तो फिर बात भी न पूछेगा। किमी का नौकर नहीं हूँ की जब वह शतरंज खेलने को बुलायें तो दौड़ा चला जाऊं। रमा किसी की आहट पाता, तो उसका दिल जोर से धड़कने लगता था। आखिर विश्वम्भर लौटा, माणिक ने लिखा था-आजकल बहुत तंग हूं। मैं तो तुम्हीं से मांगने वाला था।

रमा ने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया। मतलबी कहीं का ! अगर सब-इंस्पेक्टर ने मांगा होता तो पुर्जा देखते ही रुपये लेकर दौड़े जाते। खैर, देखा जायगा। चुंगी के लिए माल तो आयगी ही।

इसकी कसर तब निकल जायगी।

इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने लिखा था- मैंने अपने जीवन में दो-चार नियम बना लिए हैं। और बड़ी कठोरता से उनका पालन करता हूं। उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूंगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जाएगा कि जहां मित्रों से लेन-देन शुरू हुआ, वहां मनमुटाव होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना चाहती। इसलिए मुझे क्षमा करो।

रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बांधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखाई देता था, इसमें संदेह है। इतनी ही एकाग्रता से वह कदाचित आकाश की काली, अभेद्य मेघ-राशि की ओर ताकता । मन की एक दशा वह भी होती है, जब आंखें खुली होती हैं और कुछ नहीं सूझता; कान खुले रहते हैं और कुछ नहीं सुनाई देता।

अठारह

संध्या हो गई थी म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाडू लगा रहा था। चपरासियों ने भी जूते पहनना शुरू कर दिया था खोंचेवाले दिनभर की बिक्री के पैसे गिन रहे थे। पर रमानाथ अपनी कुर्सी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था। आज भी वह प्रात:काल आया था, पर आज भी कोई बड़ा शिकार न फंसा, वही दस रुपये मिलकर रह गए। अब अपनी आबरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय था ! रमा ने रतन को झांसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन को यह अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रुपये मैंने खर्च कर दिए। अगर उसे मालूम हो जाए कि उसके रुपये तत्काल मिल सकते हैं, तो वह शांत हो जाएगी। रमा उसे रुपये से भरी हुई थैली दिखाकर उसका संदेह मिटा देना चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा है। उसने आज जान- बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रुपये उसके पास थे। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या गरज थी कि रमा से आज की आमदनी मांगता। रुपये गिनने से ही छुट्टी मिली। दिनभर वहीं लिखते-लिखते और रुपये गिनते-गिनते बेचारे की कमर दुख रही थी। रमा को जब मालूम हो गया कि खजांची साहब दूर निकल गए होंगे, तो उसने रजिस्टर बंद कर दिया और चपरासी से बोला-थैली उठाओ । चलकर जमा कर आएं।

चपरासी ने कहा-खजांची बाबू तो चले गए ।

रमा ने आंखें फाड़कर कहा-खजांची बाबू चले गए ! तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं? अभी कितनी दूर गए होंगे?

चपरासी-सड़क के नुक्कड़ तक पहुंचे होंगे।

रमानाथ-यह आमदनी कैसे जमा होगी?

चपरासी–हुकुम हो तो बुला लाऊं? रमानाथ-अजी, जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें आधे रास्ते से बुलाने जाओगे। हो तुम भी निरे बछिया के ताऊ। आज ज्यादा छान गए थे क्या? खैर रुपये इसी दराज में रखे रहेंगे। तुम्हारी जिम्मेदारी रहेगी।

चपरासी-नहीं बाबू साहब, मैं यहां रुपया नहीं रखने दूंगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती। कहीं रुपये उठ जायं, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊं। सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहां।

रमानाथ–तो फिर ये रुपये कहां रक्खें?

चपरासी-हुजूर, अपने साथ लेते जाएं।

रमा तो यह चाहता ही था। एक इक्का मंगवाया, उस पर रुपयों की थैली रक्खी और घर चला। सोचता जाता था कि अगर रतन भभकी में आ गई, तो क्या पूछना कह दूंगा, दो-ही चार दिन की कसर है। रुपये सामने देखकर उसे तसल्ली हो जाएगी।

जालपा ने थैली देखकर पूछा-क्या कंगन न मिला?

रमानाथ-अभी तैयार नहीं था, मैंने समझा रुपये लेता चलं जिसमें उन्हें तस्कीन हो जाय।

जालपा-क्या कहा सराफ ने?

रमानाथ–कहा क्या, आज-कल करता है। अभी रतन देवी आई नहीं?

जालपा-आती ही होगी, उसे चैन कहां?

जब चिराग जले तक रतन न आई, तो रमा ने समझा अब न आएगी। रुपये आलमारी में रख दिए और घूमने चल दिया। अभी उसे गए दस मिनट भी न हुए होंगे कि रतन आ पहुंची और आते-ही-आते बोली-कंगन तो आ गए होंगे?

जालपा–हां आ गए हैं, पहन लो । बेचारे कई दफा सराफ के पास गए। अभाग देता ही नहीं, हीले-हवाले करता है।

रतन-कैसा सराफ है कि इतने दिन से होले-हवाले कर रहा है। मैं जानती कि रुपये झमेले में पड़ जाएंगे, तो देती ही क्यों न रुपये मिलते हैं, ने कंगन मिलता हैं ।

रतन ने यह बात कुछ ऐसे अविश्वास के भाव से कही कि जालपा जल उठी। गर्व से बोली-आपके रुपये रखे हुए हैं, जब चाहिए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं। आखिर जब सराफ देगा, तभी तो लाएंगे?

रतन-कुछ वादा करता है, कब तक देगा?

जालपा-उसके वादों का क्या ठीक, सैकड़ों वादें तो कर चुका है।

रतन-तो इसके मानी यह हैं कि अब वह चीज न बनाएगा?

जालपा-जो चाहे समझ लो।

रतन-तो मेरे रुपये ही दे दो, बाज आई ऐसे कंगन से।

जालपा झमककर उठी, आल्मारी में थैली निकाली और रतन के सामने पटककर बोली-ये आपके रुपये रखे हैं, ले जाइए।

वास्तव में रतन की अधीरता का कारण वहीं था, जो रमा ने समझा था। उसे भ्रम हो रहा था कि इन लोगों ने मेरे रुपये खर्च कर डाले। इसीलिए वह बार-बार कंगन को तकाजा करती थी। रुपये देखकर उसका भ्रम शांत हो गया। कुछ लज्जित होकर बोली-अगर दो-चार दिन में देने का वादा करता हो तो रुपये रहने दो। जालपा-मुझे तो आशा नहीं है कि इतनी जल्द दे दे। जब चीज तैयार हो जायगी तो रुपये मांग लिए जाएंगे।

रतन–क्या जाने उस वक्त मेरे पास रुपये रहें या न रहें। रुपये आते तो दिखाई देते हैं,जाते नहीं दिखाई देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं। अपने ही पास रख लो तो क्या बुरा?

जालपा-तो यहां भी तो वही हाल है। फिर पराई रकम घर में रखना जोखिम की बात भी तो है। कोई गोलमाल हो जाए, तो व्यर्थ का दंड देना पड़े। मेरे ब्याह के चौथे ही दिन मेरे सारे गहने चोरी चले गए। हम लोग जागते ही रहे, पर न जाने कब आंख लग गई, और चोरों ने अपना काम कर लिया। दस हजार की चपत पड़ गई। कहीं वही दुर्घटना फिर हो जाय तो कहीं के न रहा।

रतन-अच्छी बात है, मैं रुपये लिए जाती हू; मगर देखना निश्चित न हो जाना। बाबूजी से कह देना सराफ का पिंड न छोड़ें।

रतन चली गई। जालपा खुश थी कि सिर से बोझ टला बहुधा हमारे जीवन पर उन्हीं के हाथों कठोरतम आघात होता है, जो हमारे सच्चे हितैषी होते हैं।

रमा कोई नौ बजे घूमकर लौटा, जालपा रसोई बना रही थी। उसे देखते ही बोली-रतन आई थी. मैंने उसके सब रुपये दे दिए।

रमा का पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक गई। आंखें फैलकर माथे पर जा पहुंचीं। घबराकर बोला-क्या कहा, रतन को रुपये दे दिए? तुमसे किसने कहा था कि उसे रुपये दे देना?

जालपा-उसी के रुपये तो तुमने लाकर रखे थे। तुम खुद उसका इंतजार करते रहे। तुम्हारे जाते ही वह आई और कंगन मांगने लगी। मैंने झल्लाकर उसके रुपये फेंक दिए।

रमा ने सावधान होकर कहा-उसने रुपये मागे तो न थे?

जालपा-मांगे क्यों नहीं। हां, जब मैंने दे दिए तो अलबत्ता कहने लगी, इसे क्यों लौटाती हो, अपने पास ही पड़ा रहने दो। मैंने कह दिया, ऐसे शक्की मिजाज वालों का रुपया मैं नहीं रखती।

रमानाथ-ईश्वर के लिए तुम मुझसे बिना पूछे ऐसे काम मत किया करो।

जालपा-तो अभी क्या हुआ, उसके पास जाकर रुपये मांग लो. भो; मगर अभी से रुपये घर में लाकर अपने जी का जंजाल क्यों मोल लोगे?

रमा इतना निस्तेज हो गया कि जालपा पर बिगड़ने की भी शक्ति उसमें न रहो। रुआंसा होकर नीचे चला गया और स्थिति पर विचार करने लगा। जालपा पर बिगड़ना अन्याय था। जब रमा ने साफ कह दिया कि ये रुपये रतन के हैं, और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रुपये मत देना, तो जालपा का कोई अपराध नहीं। उसने सोचा-इस समय झल्लाने और बिगड़ने से समस्या हल न होगी। शांत चित्त होकर विचार करने की आवश्यकता थी। रतन से रुपये वापस लेना अनिवार्य था। जिस समय वह यहां आई है, अगर मैं खुद मौजूद होता तो कितनी खूल्मृती से सारी मुश्किल आसान हो जाती। मुझको क्या शामत सवार थी कि घूमने निकला | एक दिन में घूमने जाता, तो कौन मरा जाता था । कोई गुप्त शक्ति मेरा अनिष्ट करने पर उतारू हो गई है। दस मिनट की अनुपस्थिति ने सारा खेल बिगाड़ दिया। वह कह रही थी कि रुपये रख लीजिए। जालपा ने जरा समझ से काम लिया होता तो यह नौबत काहे को आती। लेकिन फिर मैं बीती हुई बातें सोचने लगा। समस्या है, रतन

से रुपये वापस कैसे लिए जाएं। क्यों न चलकर कहूं, रुपये लौटाने से आप नाराज हो गई हैं। असल में मैं आपके लिए रुपये न लाया था। सराफ से इसलिए मांग लाया था, जिसमें वह चीज बनाकर दे दे। संभव है, वह खुद ही लज्जित होकर क्षमा मांगे और रुपये दे दे। बस इस वक्त वहां जाना चाहिए।

यह निश्चय करके उसने घड़ी पर नजर डाली। साढे आठ बजे थे। अंधकार छाया हुआ था। ऐसे समय रतन घर से बाहर नहीं जा सकती। रमा ने साइकिल उठाई और रतन से मिलने चला।

रतन के बंगले पर आज बड़ी बहार थी। यहां नित्य ही कोई-न-कोई उत्सव, दावत, पार्टी होती रहती थी। रतन को एकांत नीरस जीवन इन विषयों की ओर उसी भांति लपकता था, जैसे प्यासा पानी की ओर लपकता हैं। इस वक्त वहां बच्चों का जमघट था। एक आम के वृक्ष में झूला पड़ा था, बिजली की बत्तियां जल रही थीं, बच्चे झूला झूल रहे थे और रतन खड़ी झुला रही थी। हू-हक मचा हुआ था। वकील साहब इस मौसम में भी ऊनी ओवरकोट पहने बरामद में बैठे सिगार पी रहे थे। रमा की इच्छा हुई, कि झूले के पास जाकर रतन से बातें करे, पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका। वकील साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा दिया और बोले-आओ रमा बाबू, कहो, तुम्हारे म्युनिसिपल बोर्ड की क्या खबरें हैं?

रमा ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा-कोई नई बात तो नहीं हुई।

वकील-आपके बोर्ड में लड़कियों को अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव कब पास होगा? और कई बोर्डो ने तो पास कर दिया। जब तक स्त्रियों की शिक्षा का काफी प्रचार न होगा, हमारा कभी उद्धार न होगा। आप तो योरप न गए होंगे? ओह ! क्या आजादी है, क्या दौलत है, क्या जीवन है, क्या उत्साह है। बस मालूम होता है, यही स्वर्ग है। और स्त्रियां भी सचमुच देवियां हैं। इतनी हंसमुख, इतनी स्वच्छंद, यह सब स्त्री-शिक्षा का प्रसाद है।

रमा ने समाचार-पत्रों में इन देशों का जो थोड़ा-बहुत हाल पढ़ा था, उसके आधार पर बोला-वहां स्त्रियों का आचरण तो बहुत अच्छा नहीं है।

वकील-नान्सेंस ! अपने- अपने देश की प्रथा है। आप एक युवती को किसी युवक के साथ एकांत में विचरते देखकर दांतों तले उंगली दबाते हैं। आपका अंत:करण इतना मलिन हो गया है कि स्त्री-पुरुष को एक जगह देखकर आप संदेह किए बिना रह ही नहीं सकते, पर जहां लड़के और लड़कियां एक साथ शिक्षा पाते हैं, वहां यह जाति-भेद बहुत महत्त्व की वस्तु नहीं रह जाती-आपस में स्नेह और सहानुभूति की इतनी बातें पैदा हो जाती हैं कि कामुकता का अंश बहुत थोड़ी रह जाता है। यह समझ लीजिए कि जिस देश में स्त्रियों की जितनी अधिक स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है। स्त्रियों को कैद में, परदे में, या पुरुषों से कोसों दूर रखने का तात्पर्य यही निकलता है कि आपके यहां जनता इतनी आचार- भ्रष्ट है कि स्त्रियों का अपमान करने में जरा भी संकोच नहीं करती। युवकों के लिए राजनीति, धर्म, ललित-कला, साहित्य, दर्शन, इतिहास, विज्ञान और हजारों ही ऐसे विषय हैं, जिनके आधार पर वे युवतियों से गहरी दोस्ती पैदा कर सकते हैं। कामलिप्सा उन देशों के लिए आकर्षण का प्रधान विषय है, जहां लोगों की मनोवृत्तियां संकुचित रहती हैं। मैं सालभर योरप और अमेरीका में रह चुका हूं। कितनी ही सुंदरियों के साथ मेरी दोस्ती थी। उनके साथ खेला है, नाचा भी हूं।

पर कभी मुंह से ऐसा शब्द न निकलता था, जिसे सुनकर किसी युवती को लज्जा से सिर झुकाना पड़े, और फिर अच्छे और बुरे कहां नहीं हैं?

रमा को इस समय इन बातों में कोई आनंद न आया, वह तो इस समय दूसरी ही चिंता में मग्न था।

वकील साहब ने फिर कहा-जब तक हम स्त्री-पुरुषों को अबाध रूप से अपना-अपना मानसिक विकास न करने देंगे, हम अवनति की ओर खिसकते चले जाएंगे। बंधनों से समाज का पैर न बाँधिए, उसके गले में कैदी की जंजीर न डालिए। विधवा-विवाह का प्रचार कीजिए, खूब जोरों से कीजिए, लेकिन यह बात मेरी समझ में नहीं आती कि जब कोई अधेड़ आदमी किसी युवती से ब्याह कर लेता है तो क्यों अखबारों में इतना कुहराम मच जाता है। योरप में अस्सी बरसे के बूढे युवतियों से ब्याह करते हैं, सत्तर वर्ष की वृद्धाएं युवकों से विवाह करती हैं, कोई कुछ नहीं कहता। किसी को कानोंकान खबर भी नहीं होती। हम बूढों को मरने के पहले ही मार डालना चाहते हैं। हालांकि मनुष्य को कभी किसी सहगामिनी की जरूरत होती है तो वह बुढापे में, जब उसे हरदम किसी अवलंब की इच्छा होती है, जब वह परमुखापेक्षी हो जाता है।

रमा का ध्यान झूले की ओर था। किसी तरह रतन से दो-दो बातें करने का अवसर मिले। इस समय उसकी सबसे बड़ी यही कामनी थी। उसका वहां जाना शिष्टाचार के विरुद्ध था।आखिर उसने एक क्षण के बाद झूले की ओर देखकर कहा-ये इतने लड़के किधर से आ गए?

वकील–रतन बाई को बाल-समाज से बड़ा स्नेह है। न जाने कहां-कहां से इतने लड़के जमा हो जाते हैं। अगर आपको बच्चों से प्यार हो, तो जाइए ।

रमा तो यह चाहता ही था, चट झूले के पास जा पहुंचा। रतन उसे देखकर मुस्कराई और बोली-इन शैतानों ने मेरी नाक में दम कर रखा है। झूले से इन सबों का पेट ही नहीं भरता। आइए, जरा आप भी बेगार कीजिए, मैं तो थक गई। यह कहकर वह पक्के चबूतरे पर बैठ गई।

रमा झोंक देने लगा। बच्चों ने नया आदमी देखा, तो सब-के-सब अपनी बारी के लिए उतावले होने लगे। रतन के हाथों दो बारियां आ चुकी थीं, पर यह कैसे हो सकता था कि कुछ लड़के तो तीसरी बार झूलें, और बाकी बैठे मुंह ताकें । दो उतरते तो चार झूले पर बैठ जाते। रमा को बच्चों से नाममात्र को भी प्रेम न था; पर इस वक्त फंस गया था, क्या करता। आखिर आध घंटे की बेगार के बाद उसका जी ऊब गया। घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे। मतलब की बात कैसे छेड़े। रतन तो झूले में इतनी मग्न थी, मानो उसे रुपयों की सुध ही नहीं।

सहसा रतन ने झूले के पास जाकर कहा–बाबूजी, मैं बैठती हूं, मुझे झुलाइए, मगर नीचे से नहीं, झूले पर खड़े होकर पेंग मारिए।

रमा बचपन ही से झूले पर बैठते डरता था। एक बार मित्रों ने जबरदस्त झूले पर बैठा दिया, तो उसे चक्कर आने लगा; पर इस अनुरोध न से झूले पर आने के लिए मजबूर कर दिया। अपनी अयोग्यता कैसे प्रकट करे। रतन दो बच्चों को लेकर बैठ गई, और यह गीत गाने लगी-

         कदम की डरिया झूला पड़ गयो री,
           राधा रानी झूलन आई। रमा झूले पर खड़ा होकर पेंग मारने लगा, लेकिन उसके पांव कांप रहे थे, और दिल बैठा जाता था। जब झूला ऊपर से गिरता था, तो उसे ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई तरल वस्तु उसके वक्ष में चुभती चली जा रही है-और रतन लड़कियों के साथ गा रही थी-
        कदम की डरिया झूला पड़ गयो री,
             राधा रानी झूलन आई।

एक क्षण के बाद रतन ने कहा-जरा और बढ़ाइए साहब, आपसे तो झूला बढ़ता ही नहीं।

रमा ने लज्जित होकर और जोर लगाया, पर झूला न बढ़ा। रमा के सिर में चक्कर आने लगा।

रतन- आपको पेंग मारना नहीं आता, कभी झूला नहीं झूले?

रमा ने झिझकते हुए कहा- हां, इधर तो वर्षों से नहीं बैठा।

रतन-तो आप इन बच्चों को संभालकर बैठिए, मैं आपको झुलाऊंगी। अगर उस डाल से न छू ले तो कहिएगी । रमा के प्राण सूख गए। बोला-आज तो बहुत देर हो गई है, फिर कभी आऊंगा।

रतने-अजी अभी क्या देर हो गई है, दस भी नहीं बजे घबड़ाइए नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब झूलकर जाइएगा। कल जालपा को लाइएगा, हम दोनों झूलेंगे।

रमा झूले पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा, अब गिरा। वह लड़खड़ाता हुआ साइकिल की ओर चला और उस पर बैठकर तुरंत घर भागा। कुछ दूर तक उसे कुछ होश न रहा। पांव आप ही अपि पैडल घुमाते जाते थे। आधी दूर जाने के बाद उसे होश आया। उसने साइकिल घुमा, दो कुछ दूर चला, फिर उतरकर सोचने लगा-आज संकोच में पड़कर कैसी बाजी हाथ से खोई, वहां से चुपचाप अपना सा-मुंह लिए लौट आया क्यों उसके मुंह से आवाज नहीं निकली! रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती। सहसा उसे याद आयी थैली में आठ सौ रुपये थे, जालपा ने झझलाकर थैली की थैली उसके हवाले कर दी। शायद, उसने भी गिना नहीं, नहीं जरूर कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रुपयों में मिला दे, तो गजब ही हो जाए। कहीं का न रहू। क्यों न इसी वक्त चलकर बंशी रुपये मांग लाऊं, लेकिन देर बहत हो गई है, सबेरे फिर आना पड़ेगा। मगर यह दो सौ रुपये मिल भी गए, तब भी तो पांच सौ रुपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबंध होगा? ईश्वर ही बेड़ा पार लगाएं तो लग सकता है। सबेरे कुछ प्रबंध न हुआ, तो क्या होगा | यह सोचकर वह कांप उठा।। जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा ने सोचा, एक बार फिर गंगू के पास चलें, शायद दुकान पर मिल जाय, उसके हाथ-पांव जोडू संभव है, कुछ दया आ जाय। वह सराफ जा पहुंचा, मगर पंगू की दुकान बंद थी। वह लौटा ही था कि चरनदास आता हुआ दिखाई दिया। रमा को देखते ही बोला—बापूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए रुपये कब तक मिलेंगे?

रमा ने विनम्र भाव से कहा-अब बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं हैं। देखो गंगू के रुपये चुकाए हैं, अब की तुम्हारी बारी है।

चरनदास-वह सब किस्सा मालूम है, गंगू ने होशियारी से अपने रुपये न ले लिए होते,

तो हमारी तरह टापा करते। साल भर हो रहा है। रुपये सैकड़े का सूद भी रखिए तो चौरासी रुपये होते हैं। कल आकर हिसाब कर जाइए, सब नहीं तो आधा-तिहाई कुछ दे दीजिए। लेते-देते रहने से मालिक को ढाढ़स रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो उसे शंका होने लगती है कि इनकी नीयत खराब है। तो कल कब आइएगा?

रमानाथ-भई, कल मैं रुपये लेकर तो न आ सकूंगा, यों जब कहो तब चला आऊ। क्यों, इस वक्त अपने सेठजी से चार-पांच सौ रुपयों का बंदोबस्त न करा दोगे? तुम्हारी मुट्ठी भी गर्म कर दूंगा।

चरनदास-कहां की बात लिए फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे मुझे बातें सुननी पड़ती हैं। क्या बड़े मुंशीजी से कहना पड़ेगा?

रमा ने झल्लाकर कहा-तुम्हारा देनदार मैं हूँ, बड़ मुंशी नहीं हैं। मैं मर नहीं गया हूं, घर छोड़कर भागा नहीं जाता हूं। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो?

चरनदास-साल भर हुआ, एक कौड़ी नहीं मिली, अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दो सौ की फिकर कर रखिएगा।

रमानाथ-मैंने कह दिया, मेरे पास अभी रुपये नहीं हैं।

वरन्दम-रोज गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो, रुपये नहीं हैं। कल रुपये जुटा रखना। कल आदमी जाए। जरूर।

रमा ने उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उल्टे तकाजा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास तकाजा न भेज़ दे। आग ही हो जायेगें। जालपा भी समझेगो, कैसा लबाड़िया आदमी है।

इस समय रमा की आंखों से आंसू तो न निकलते थे, पर उसका एक-एक रोआं रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की ! वह समझदार औरत हैं, अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर में पूंजी भांग भी नहीं हैं, तो वह मुझे कभी उधार गहने न लेने देती। उसने तो कभी अपने मुंह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शान जमाने के लिए मरा जा रहा था। इतना बड़ा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफायत से काम नहीं लिया? मुझे एक-एक पैसा दांतों से पकड़ना चाहिए थी। साल भर में मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हजार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता, तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रुपये जरूर अदा हो जाते, मगर यहां तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या जरूरत थी कि जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा करके रोज सैर करने जाती? सैकड़ों रुपये तो तांगे वाला ले गया होगा, मगर यहां तो उस पर रोब जमाने की पड़ी हुई थी। सारा बाजार जान जाय कि लाला निरे लफंगे हैं, पर अपनी स्त्री न जानने पाए । वाह री बुद्धि | दरवाजे के लिए परदों की क्या जरूरत थी। दो लैंप क्यों लाया, नई निवाड़ लेकर चारपाई क्यों बिनवाई? उसने रास्ते ही में उन खर्चा का हिसाब तैयार कर लिया, जिन्हें उसकी हैसियत के आदमी को टालना चाहिए था। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिंता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है, लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है, तो उसे याद आती है कि कल मैंने पकौड़ियां खाई थीं। विजय बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी।

जालपा ने पूछा-कहां चले गए थे, बड़ी देर लगा दी? रमानाथ-तुम्हारे कारण रतन के बंगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रुपये उठाकर दे दिए, उसमें दो सौ रुपये मेरे भी थे।

जालपा–तो मुझे क्या मालूम था, तुमने कहा भी तो न था; मगर उनके पास से रुपये कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।

रमानाथ-माना; पर सरकारी रकम तो कल दाखिल करनी पड़ेगी।

जालपा-कल मुझसे दो सौ रुपये ले लेना, मेरे पास हैं।

रमा को विश्वास न आया। बोला-कहीं न हों तुम्हारे पास । इतने रुपये कहां से आए?

जालपा–तुम्हें इससे क्या मतलब, मैं तो दो सौ रुपये देने को कहती हूं।

रमा का चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बंधी। दो-सौ रुपये यह दे-दे, दो सौ रुपये रतन से ले लें. सौ रूपये मेरे पास हैं ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जाएगी, मगर यही तीन सौ रुपये कहां से आएंगे? ऐसा कोई नजर न आता था, जिससे इतने रुपये मिलने की आशा को जा सके। हां, अगर रतन सब रुपये दे दे तो बिगड़ी बात बन जाय। आशा को यही एक आधार रह गया था। जब वह खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा-आज किस सोच में पड़े हो?

रमानाथ–सोच किस बात का? क्या मैं उदास हूं?

जालपा–हां, किसी चिंता में पड़े हुए हो, मगर मुझसे बताते नहीं हो ।

रमानाथ- ऐसी कोई बात होती तो तुमसे छिपाता?

जालपा-वाह, तुम अपने दिल की बात मुझसे क्यों कहोगे? ऋषियों की आज्ञा नहीं है।

रमानाथ-मैं उन ऋषियों के भक्तों में नहीं हूं।

जालपा-वह तो तब मालूम होता, जब मैं तुम्हारे हुदय में पैठकर देखती।

रमानाथ-वहां तुम अपनी ही प्रतिमा देखतीं।

रात को जालपा ने एक भयंकर स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा-क्या है जालपा, क्या स्वप्न देख रही हो?

जालपा ने इधर-उधर घबड़ाई हुई आंखों से देखकर कहा-बड़े संकट में जान पड़ी थी। न जाने कैसा सपना देख रही थी ।

रमानाथ- क्या देखा?

जालपा-क्या बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी कि तुम्हें कई सिपाही पकड़े लिए जा रहे हैं। कितना भंयकर रूप था उनका।

रमा का खून सूख गया। दो-चार दिन पहले, इस स्वप्न को उसने हंसी में उड़ा दिया होता; इस समय वह अपने को सशंकित होने से न रोक सको, पर बाहर से हंसकर बोला-तुमने सिपाहियों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों पकड़े लिए जाते हो?

जालपा–तुम्हें हंसी सूझ रही है, और मेरा हृदय कांप रहा है।

थोड़ी देर के बाद रमा ने नींद में बकना शुरू किया-अम्मां, कहे देता हूं, फिर मेरा मुंह न देखोगी, मैं डूब मरूं।

जालपा को अभी तक नींद न आई थी, भयभीत होकर उसने रमा को जोर से हिलाया और बोली-मुझे तो हंसते थे और खुद बकने लगे। सुनकर रोएं खड़े हो गए। स्वप्न देखते थे क्या? रमा ने लज्जित होकर कहा-हां जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं।

जालपा ने पूछा-अम्मांजी को क्यों धमका रहे थे। सच बताओ, क्या देखते थे?

रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूंगा।

जालपा-अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।

रमा करवट पौढ़ गया; पर ऐसा जान पड़ता था, मानो चिंता और शंका दोनों आंखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं। जागते हुए दो बज गए। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उंडेलती हुई बोली-बड़ी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग ही रहे हो?

रमा-हां जी, नींद उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रुपये कहां से आ गए? मुझे इसका आश्चर्य है।

जालपा-ये रुपये मैं मायके से लाई थी, कुछ बिदाई में मिले थे, कुछ पहले से रखे थे।

रमानाथ-तब तो तुम रुपये जमा करने में बड़ी कुशल हो। यहां क्यों नहीं कुछ जमा किया? जालपा ने मुस्कराकर कहा-तुम्हें पाकर अब रुपये की परवाह नहीं रही।

रमानाथ-अपने भाग्य को कोसती होगी।

जालपा-भाग्य को क्यों कोसू, भाग्य को वह औरतें रोएं, जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरुष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।

रमा ने विनोद भाव से कहा-तो मैं तुम्हारे मन का हूं।

जालपा ने प्रेम-पूर्ण गर्व से कहा-मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियां हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम० ए० हैं पर सदा रोगी। दूसरी विद्वान भी है और धनी भी, पर वेश्यागामी। तीसरा घरघुस्सू है और बिल्कुल निखट्टू।

रमा का हृदय गद्गद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी के साथ उसने कितना बड़ा विश्वासघात किया। इतना दुराव रखने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे निष्कपट होकर रहता, तो मेरा जीवन कितना आनंदमय होता !

उन्नीस

प्रात:काल रमा ने रतन के पास अपना आदमी भेजा। खत में लिखा, मुझे बड़ा खेद है कि कल जालपा ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया, जो उसे न करना चाहिए था। मेरा विचार यह कदापि न था कि रुपये आपको लौटा दें, मैंने सराफ को ताकीद करने के लिए उससे रुपये लिए थे। कंगन दो-चार रोज में अवश्य मिल जाएंगे। आप रुपये भेज दें। उसी थैली में दो सौ रुपये मेरे भी थे। वह भी भेजिएगा। अपने सम्मान की रक्षा करते हुए जितनी विनम्रता उससे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रक्खी। जब तक आदमी लौटकर न आया, वह बड़ी व्यग्रता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचती, कहीं बहाना न कर दे. या घर पर मिले ही नहीं, या दो

चार दिन के बाद देने का वादा करे। सारा दारोमदार रतन के रुपये पर था। अगर रतन ने साफ जवाब दे दिया, तो फिर सर्वनाश ! उसकी कल्पना से ही रमा के प्राण सूखे जा रहे थे। आखिर नौ बजे आदमी लौटा। रतन ने दो सौ रुपये तो दिए थे; मगर ख़त का कोई जवाब न दिया था।

रमा ने निराश आंखों से आकाश की ओर देखा। सोचने लगा, रतन ने खत का जवाब क्या नहीं दिया? मामूली शिष्टाचार भी नहीं जानती? कितनी मक्कार औरत है। रात को ऐसा मालूम होता था कि साधुता और सजनता की प्रतिमा ही है, पर दिल में यह गुबार भरा हुआ था ! शेष रुपयों की चिंता में रमा को नहाने-खाने की भी सुध न रही।। कहार अंदर गया, तो जालपा ने पूछा-तुम्हें कुछ काम-धंधे की भी खबर है कि मटरगश्ती ही करते रहोगे । दस बज रहे हैं, और अभी तक तरकारी-भाजी का कहीं पता नहीं? कहार ने त्योरियां बदलकर कहा-तो का चार हाथ-गोड़ कर लेई । कामें से तो वो रहिन। बाबू मेम साहब के तीर रुपैया लेबे का भेजिन रहा।

जालपा-कौन मेम साहब?

कहार-जौन मोटर पर चढ़कर आवत हैं।

जालपा-तों लाए रुपये?

कहार-लाए काहे नाहीं। पिरथी के छोर पर तो रहत हैं, दौरत-दौरत गोड़ पिराय लाग।

जालपा-अच्छा चटपट जाकर तरकारी लाओ।

कहार तो उधर गया, रमा रुपये लिए हुए अंदर पहुंचा तो जालपा ने कहा-तुमने अपने रुपये रतन के पास से मंगवा लिए न? अब तो मुझसे न लोगे?

रमा ने उदासीन भाव से कहा-मत दो ।

जालपा-मैंने कह दिया था रुपया दे दूंगी। तुम्हें इतनी जल्द मांगने की क्यों सूझी? समझी होगी, इन्हें मेरा इतना विश्वास भी नहीं।

रमा ने हताश होकर कहा-मैंने रुपये नहीं मांगे थे। केवल इतना लिख दिया था कि थैली में दो सौ रुपये ज्यादे हैं। उसने आप ही आप भेज दिए । जालपा ने हंसकर कहा-मेरे रुपये बड़े भाग्यवान हैं, दिखाऊं? चुन-चुनकर नए रुपये रखे हैं। सब इसी साल के हैं, चमाचम ! देखो तो आंखें ठंडी हो जाएं। इतने में किसी ने नीचे से आवाज दी–बाबूजी, सेठ ने रुपये के लिए भेजा है।

दयानाथ स्नान करने अंदर आ रहे थे, सेठ के प्यादे को देखकर पूछा-कौन सेठ, कैसे रुपये? मेरे यहां किसी के रुपये नहीं आते । प्यादा-छोटे बाबू ने कुछ माल लिया था। साल भर हो गए, अभी तक एक पैसा नहीं दिया। सेठजी ने कहा है, बात बिगड़ने पर रुपये दिए तो क्या दिए। आज कुछ जरूर दिलवा दीजिए।

दयानाथ ने रमा को पुकारा और बोले-देखो, किस सेठ का आदमी आया है। उसका कुछ हिसाब बाकी है, साफ क्यों नहीं कर देते? कितना बाकी है इसका?

रमा कुछ जवाब न देने पाया था कि प्यादा बोल उठा-पूरे सात सौ हैं, बाबूजी ।

दयानाथ की आंखें फैलकर मस्तक तक पहुंच गईं–सात सौ । क्यों जी, यह तो सात सौ कहता है?

रमा ने टालने के इरादे से कहा-मुझे ठीक से मालूम नहीं। प्यादा-मालूम क्यों नहीं। पुरजी तो मेरे पास है। तब से कुछ दिया ही नहीं, कम कहां से हो गए।

रमा ने प्यादे को पुकारकर कहा-चलो तुम दुकान पर, मैं खुद आता हूं।

प्यादा-हम बिना कुछ लिए न जाएंगे, साहब ! आप यों ही टाल दिया करते हैं, और बातें हमको सुननी पड़ती हैं।

रमा सारी दुनिया के सामने जलील बन सकता था, किंतु पिता के सामने जलील बनना उसके लिए मौत से कम न था। जिस आदमी ने अपने जीवन में कभी हराम का एक पैसा न छुआ हो, जिसे किसी से उधार लेकर भोजन करने के बदले भूखों सो रहना मंजूर हो, उसका लड़का इतना बेशर्म और बेगैरत हो । रमा पिता की आत्मा का यह घोर अपमान न कर सकता था। वह उन पर यह बात प्रकट न होने देना चाहता था कि उनका पुत्र उनके नाम को बट्टा लगा रहा है। कर्कश स्वर में प्यादे से बोला-तुम अभी यहीं खड़े हो? हट जाओ, नहीं तो धक्के देकर निकाल दिए जाओगे।

प्यादा-हमारे रुपये दिलवाइए, हम चले जायं। हमें क्या आपके द्वार पर मिठाई मिलती है ।

रमानाथ- तुम न जाओगे | जाओ लाला से कह देना नालिश कर दें।

दयानाथ ने डांटकर कहा-क्या बेशर्मी की बातें करते हो जी। जब गिरह में रुपये न थे. तो चीज लाए ही क्यों? और लाए, तो जैसे बने वैसे रुपये अदा करो। कह दिया, नालिश कर दो। नालिश कर देगा, तो कितनी आबरू रह जायगी? इसका भी कुछ खयाल है । सारे शहर में उंगलियां उठेंगी; मगर तुम्हें इसकी क्या परवा। तुमको यह सूझी क्या कि एकबारगी इतनी बड़ी गठरी सिर पर लाद ली। कोई शादी-ब्याह का अवसर होता, तो एक बात भी थी। और वह औरत कैसी है जो पति को ऐसी बेहूदगी करते देखती है और मना नहीं करती। आख़िर तुमने क्या सोचकर यह कर्ज लिया? तुम्हारी ऐसी कुछ बडी आमदनी तो नहीं है।

रमा को पिता की यह डांट बहुत बुरी लग रही थी। उसके विचार में पिता को इस विषय में कुछ बोलने का अधिकार ही न था। नि:संकोच होकर बोला-आप नाही इतना बिगड़ रहे हैं, आपसे रुपये मांगने जाऊं तो कहिएगा। मैं अपने वेतन से थोड़ा-थोड़ा करके सब चुका देंगी। अपने मन में उसने कहा-यह तो आप ही की करनी का फल, है। आप ही के पाप का प्रायश्चित कर रहा हूं।

प्यादे ने पिता और पुत्र में वाद-विवाद होते देखा, तो चुपके से अपनी राह ली। मुंशीजी भुनभुनाते हुए स्नान करने चले गए। रमा ऊपर गया, तो उसके मुंह पर लज्जा और ग्लानि की फटकार बरस रही थी। जिस अपमान से बचने के लिए वह डाल-डाल, पात-पात भागता- फिरता था, वह हो ही गया। इस अपमान के सामने सरकारी रुपयों की फिक्र भी गायब हो गई। कर्ज लेने वाले बला के हिम्मती होते हैं। साधारण बुद्धि का मनुष्य ऐसी परिस्थितियों में पड़कर घबरा उठता है; पर बैठकबाजों के माथे पर बल तक हीं पड़ता। रमा अभी इस कला में दक्ष नहीं हुआ था। इस समय यदि यमदूत उसके प्राण हरने आता, तो वह आंखों से दौड़कर उसका स्वागत करता। कैसे क्या होगा, यह शब्द उसके एक-एक रोम से निकल रहा था। कैसे क्या होगा। इससे अधिक वह इस समस्या की और व्याख्या न कर सकता था। यही प्रश्न एक सर्वव्यापी पिच की भांति उसे घूरता दिखाई देता था। कैसे क्या होगा | यही शब्द अगणित बगूलों की भांति चारों ओर उठते नजर आते थे। वह इस पर विचार न कर सकता था। केवल उसकी ओर से आंखें बंद कर सकता था। उसका चित्त इतना खिन्न हुआ कि आंखें सजल हो गई।

जालपा ने पूछा-तुमने तो कहा था, इसके अब थोड़े ही रुपये बाकी हैं।

रमा ने सिर झुकाकर कहा-यह दुष्ट झूठ बोल रहा था, मैंने कुछ रुपये दिए हैं।

जालपा--दिए होते, तो कोई रुपयों का तकाजा क्यों करता? जब तुम्हारी आमदनी इतनी कम थी तो गहने लिए ही क्यों? मैंने तो कभी जिद् ने की थी। और मान लो, मैं दो-चार बार कहती भी, तुम्हें समझ-बूझकर काम करना चाहिए था। अपने साथ मुझे भी चार बातें सुनवा दीं। आदमी सारी दुनिया से परदा रखता है, लेकिन अपनी स्त्री से परदा नहीं रखता। तुम मुझसे भी परदा रखते हो। अगर मैं जानती, तुम्हारी आमदनी इतनी थोड़ी है, तो मुझे क्या ऐसा शौक चर्राया था कि मुहल्ले भर की स्त्रियों को तांगे पर बैठा-बैठाकर सैर कराने ले जाती। अधिक-से-अधिक यही तो होता, कि कभी-कभी चित्त दुखी हो जाता, पर यह तकाजे तो न सहने पड़ते। कहीं नालिश कर दे, तो सात सौ के एक हजार हो जाएं। मैं क्या जानती थी कि तुम मुझ से यह छल कर रहे हो। कोई वेश्या तो थी नहीं कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना घर भरना मेरा काम होता। मैं तो भले-बुरे दोनों ही की साथिन हूं। भले में तुम चाहे मेरी बात मत पूछो, बुरे में तो मैं तुम्हारे गले पड़ेगी ही।

रमा के मुख से एक शब्द न निकला। दफ्तर का समय आ गया था। भोजन करने का अवकाश न था। रमा ने कपड़े पहने, और दफ्तर चला। जागेश्वरी ने कहा-क्या बिना भोजन किए चले जाओगे?

रमा ने कोई जवाब न दिया, और घर से निकलना ही चाहता था कि जालपा झपटकर नीचे आई और उसे पुकारकर बोली-मेरे पास जो दो सौ रुपये हैं, उन्हें क्यों नहीं सराफ को दे देते?

रमा ने चलते वक्त ज्ञान-बूझकर जालपा से रुपये न मांगे थे। वह जानता था, जालपा मांगते ही दे देगी, लेकिन इतनी बातें सुनने के बाद अब रुपये के लिए उसके सामने हाथ फैलाते उसे संकोच ही नहीं, भय होता था। कहीं वह फिर न उपदेश देने बैठ जाए-इसकी अपेक्षा आने वाली विपत्तियां कहीं हल्की थीं। मगर जालपा ने उसे पुकारा, तो कुछ आशा बंधी। ठिठक गया और बोला—अच्छी बात है, लाओ दे दो।

वह बाहर के कमरे में बैठ गया। जालपा दौड़कर ऊपर से रुपये लाई और गिन-गिनकर उसकी थैली में डाल दिए। उसने समझा था, रमा रुपये पाकर फूला न समाएगा; पर उसकी आशा पूरी न हुई। अभी तीन सौ रुपये की फिक्र करनी थी। वह कहां से आएंगे? भूखा आदमी इच्छापूर्ण भोजन चाहता है, दो-चार फुलकों से उसकी तुष्टि नहीं होती।

सड़क पर आकर रमा ने एक तारा लिया और उससे जार्जटाउन चलने को कहा शायद रतन से भेंट हो जाए। वह चाहे तो तीन सौ रुपये का बड़ी आसानी से प्रबंध कर सकती है। रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिल्कुल संकोच न करूंगा। जरा देर में जार्जटाउन आ गया। रतन का बंगला भी आया। वह बरामदे में बैठी थी। रमा ने उसे देखकर हाथ उठाया, उसने भी हाथ उठाया; पर वहां उसका सारा संयम टूट गया। वह बंगले में न जा सका। तांगा सामने से निकल गया। रतन बुलाती, तो वह चला जाता। वह बरामदे में न बैठी होती तब भी शायद वह अंदर

जाता, पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में डूब गया।

जब तांगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुंचा, तो रमा ने चौंककर कहा- चुंगी के दफ्तर चलो। तांगे वाले ने घोड़ा फेर दिया। ग्यारह बजते-बजते रमा दफ्तर पहुंचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बड़े बाबू ने जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलाएंगे। दफ्तर में जरा भी रियायत नहीं करते। तांगे से उतरते ही उसने पहले अपने कमरे की तरफ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश बाबू के कमरे की ओर गया।

रमेश बाबू ने पूछा- तुम अब तक कहां थे जी, खजांची साहब तुम्हें खोजते फिरते हैं? चपरासी मिला था?

रमा ने अटकते हुए कहा-मैं घर पर न था। जरा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बड़ी मुसीबत में फंस गया हूं।

रमेश-कैसी मुसीबत, घर पर तो कुशल है।

रमानाथ जी हां, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहां काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फंसा कि वक्त की कुछ खबर हो न रही। जब काम खत्म करके उठा, तो खजांची साहब चले गए थे। मेरे पास आमदनी के आठ सौ रुपये थे। सोचने लगा इसे कहां रक्खू। मेरे कमरे में कोई संदूक है न। यही निश्चय किया कि साथ लेता जाऊं। पांच सौ रुपये नकद थे, वह तो मैंने थैली में रक्खे तीन सौ रुपये के नोट जेब में रख लिए और घर चला। चौक में एक-दो चीजें लेनी थीं। उधर से होता हुआ घर पहुंचा तो नोट गायब थे।

रमेश बाबू ने आंखें फाड़कर कहा-तीन सौ के नोट गायब हो गए?

रमानाथ-जी हां, कोट के ऊपर की जेब में थे। किसी ने निकाल लिए?

रमेश-और तुमको मारकर थैली नहीं छीन ली?

रमानाथ-क्या बताऊं बाबूजी, तब से चित्त की जो दशा हो रही है, वह बयान नहीं कर सकता। तब से अब तक इसी फिक्र में दौड़ रहा हूं। कोई बंदोबस्त न हो सका।

रमेश-अपने पिता से तो कहा ही न होगा?

रमानाथ–उनका स्वभाव तो आप जानते हैं। रुपये तो न देते,उल्टा डांट सुनाते।

रमेश–तो फिर क्या फिक्र करोगे?

रमानाथ-आज शाम तक कोई न कोई फिक्र करूंगा ही।

रमेश ने कठोर भाव धारण करके कहा-तो फिर करो न | इतनी लापरवाही तुमसे हुई कैसे ! यह मेरी समझ में नहीं आता। मेरी जेब से तो आज तक एक पैसा न गिरा। आंखें बंद करके रास्ता चलते हो या नशे में थे? मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। सच-सच बतला दो, कहीं अनाप-शनाप तो नहीं खर्च कर डाले? उस दिन तुमने मुझसे क्यों रुपये मांगे थे?

रमा का चेहरा पीला पड़ गया। कहीं कलई तो न खुल जाएगी। बात बनाकर बोला-क्या सरकारी रुपया खर्च कर डालूंगा? उस दिन तो आपसे रुपये इसलिए मांगे थे कि बाबूजी को एक जरूरत आ पड़ी थी। घर में रुपये न थे। आपका खत मैंने उन्हें सुना दिया था। बहुत हंसे; दूसरा इंतजाम कर लिया। इन नोटों के गायब होने का तो मुझे खुद ही आश्चर्य है।

रमेश-तुम्हें अपने पिताजी से मांगते संकोच होता हो, तो मैं खत लिखकर मंगवा लें।

रमा ने कानों पर हाथ रखकर कहा-नहीं बाबूजी, ईश्वर के लिए ऐसा न कीजिएगा।

ऐसी ही इच्छा हो, तो मुझे गोली मार दीजिए।

रमेश ने एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा-तुम्हें विश्वास है, शाम तक रुपये मिल जाएंगे?

रमानाथ–हां, आशा तो है।

रमेश–तो इस थैली के रुपये जमा कर दो, मगर देखो भाई, मैं साफ-साफ कहे देता हूँ, अगर कल दस बजे रुपये न लाए तो मेरा दोष नहीं। कायदा तो यही कहता है कि मैं इसी वक्त तुम्हें पुलिस के हवाले करूं मगर तुम अभी लड़के हो, इसलिए क्षमा करता हूं। वरना तुम्हें मालूम है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार की मुरौवत नहीं करता। अगर तुम्हारी जगह मेरा भाई या बेटा होता, तो मैं उसके साथ भी यहीं सलूक करता, बल्कि शायद इससे सख्त। तुम्हारे साथ तो फिर भी बड़ी नर्मी कर रहा हूं। मेरे पास रुपये होते तो तुम्हें दे देता, लेकिन मेरी हालत तुम जानते हो। हां, किसी का कर्ज नहीं रखता। न किसी को कर्ज देता हूं, न किसी से लेता हूँ। कल रुपये न आए तो बुरा होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती ने आज अपना हक अदा कर दिया वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकड़ियां होती।

हथकड़ियां ! यह शब्द तीर की भाँति रमा की छाती में लगा। वह सिर से पांव तक कांप उठा। उस विपत्ति की कल्पना करके उसकी आंखें डबडबा आईं। वह धीरे- धीरे सिर झुकाए, सजा पाए हुए कैदी की भांति जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया; पर यह भयंकर शब्द बीच-बीच में उसके हृदय में गंज जाता था। आकाश पर काली घटाएं छाई थीं। सूर्य का कहीं पता न था, क्या वह भी उस पटारूपी कारागार में बंद है, क्या उसके हाथों में भी हथकड़ियां हैं?

बीस

रमा शाम को दफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबू दौड़े हुए आए और कल रुपये लाने की ताकीद की । रमा मन में झुंझला उठा। आप बड़े ईमानदार की दुम बने हैं। ढोंगिया कहीं का । अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों के तलवे सहलाते फिरेंगे: पर मेरा काम है, तो आप आदर्शवादी बन बैठे। यह सब दिखाने के दांत हैं, मरते समय इसके प्राण भी जल्दी नहीं निकलेंगे ।

कुछ दूर चलकर उसने सोचा, एक बार फिर रतन के पास चलें। और ऐसी कोई न था जिससे रुपये मिलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुंचा, तो वह अपने बगीचे में गोल चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास ही एक गुजराती जौहरी बैठा संदूक से सुंदर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था। रमा को देखकर वह बहुत खुश हुई। ‘आइये बाबू साहब, देखिए सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें लाए हैं। देखिए, हार कितना सुंदर है, इसके दाम बारह सौ रुपये बताते हैं।'

रमा ने हार को हाथ में लेकर देखा और कही-हां, चीज तो अच्छी मालूम होती है !

रतन-दाम बहुत कहते हैं।

जौहरी - बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हजार में ला दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूं। बारह

सौ मेरी लागत बैठ गई है।

रमा ने मुस्कराकर कहा-ऐसा न कहिए सेठजी, जुर्माना देना पड़ जाएगा।

जौहरी-बाबू साहब, हार तो सौ रुपये में भी आ जाएगा और बिल्कुल ऐसा ही। बल्कि चमक-दमक में इससे भी बढ़कर। मगर परखना चाहिए। मैंने खुद ही आपसे मोल-तोल की बात नहीं की। मोल-तोल अनाड़ियों से किया जाता है। आपसे क्या मोल-तोला हम लोग निरे रोजगारी नहीं हैं बाबू साहब, आदमी का मिजाज देखते है। श्रीमतीजी ने क्या अमीराना मिजाज दिखाया है कि वाह ।

रतन ने हार को लुब्ध नेत्रों से देखकर कहा कुछ तो कम कीजिए, सेठजी ! आपने तो जैसे कसम खा ली !

जौहरी-कमी का नाम न लीजिए, हुजूर । यह चीज आपकी भेंट है।

रतन-अच्छा, अब एक बात बतला दीजिए, कम-से-कम इसका क्या लेंगे?

जौहरी ने कुछ क्षुब्ध होकर कहा-बारह सौ रुपये और बारह कौड़ियां होंगी, हुजूर। आप से कसम खाकर कहता हूं, इसी शहर में पंद्रह सौ का बेचूगां, और आपसे कह जाऊंगा, किसने लिया।

यह कहते हुए जौहरी ने हार को रखने का केस निकाला। रतन को विश्वास हो गया, यह कुछ कम न करेगा। बालकों की भांति अधीर होकर बोली-आप तो ऐसा समेटें लेते हैं कि हार को नजर लग जाएगी ।


जौहरी-क्या करूं, हुजूर जब ऐसे दरबार में चीज को कदर नहीं होती, तो दुख होता है।

रतन ने कमरे में जाकर रमा को बुलाया और बोली-आप समझते हैं यह कुछ और उतरेगा?

रमानाथ-मेरी समझ में तो चीज एक हजार से ज्यादा की नहीं है।

रतन-उंह, होगा। मेरे पास तो छ: सौ रुपये है। आप चार सौ रुपये का प्रबंध कर दें, तो ले लें। यह इसी गाड़ी से काशी जा रहा है। उधार न मानेगा। वकील साहब किसी जलसे में गए हैं, नौ-दस बजे के पहले न लौटेंगे। मैं आपको कल रुपये लौटा देंगी।

रमा ने बड़े संकोच के साथ कहा-विश्वास मानिए, मैं बिल्कुल खाली हाथ है। मैं तो आपसे रुपये मांगने आया था। मुझे बड़ी सख्त जरूरत है। वह रुपये मुझे दे दीजिए, मैं आपके लिए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला दूंगा। मुझे विश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में मिल जाएगा।

रतन–चलिए, मैं आपकी बातों में नहीं आती। छ: महीने में एक कान तो बनवा न सके, अब हार क्या लाएंगे ! मैं यहां कई दुकानें देख चुकी हूं, ऐसी चीज शायद ही कहीं निकले। और निकले भी, तो इसके ड्योढे दाम देने पड़ेंगे।

रमानाथ–तो इसे कल क्यों न बुलाइए, इसे सौदा बेचने की गरज होगी, तो आप ठहरेगा।

रतन–अच्छा कहिए, देखिए क्या कहता है।

दोनों कमरे के बाहर निकले, रमा ने जौहरी से कहा--तुम कल आठ बजे क्यों नहीं आते?

जौहरी-नहीं हुजूर, कल काशी में दो-चार बड़े रईसों से मिलना है। आज के न-जाने से बड़ी हानि हो जाएगी। रतन-मेरे पास इस वक्त छ: सौ रुपये हैं, आप हार दे जाइए; बाकी के रुपये काशी से लौटकर ले जाइएगा।

जौहरी–रुपये का तो कोई हर्ज न था, महीने-दो महीने में ले लेता; लेकिन हम परदेशी लोगों का क्या ठिकाना, आज यहां हैं, कल वहां हैं, कौन जाने यहां फिर कब आना हो ! आप इस वक्त एक हजार दे दें, दो सौ फिर दे दीजिएगा।

रमानाथ-तो सौदा न होगा।

जौहरी–इसका अख्तियार आपको है; मगर इतना कहे देता हूं कि ऐसा माल फिर न पाइएगा।

रमानाथ–रुपये होंगे तो माल बहुत मिल जायेगा।

जौहरी-कभी-कभी दाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं मिलता।

यह कहकर जौहरी ने फिर होर को केस में रक्खा और इस तरह संदूक समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रुकेगा।

रतन का रोया-रोयां कान बना हुआ था, मानो कोई कैदी अपनी किस्मत का फैसला सुनने को खड़ा हो। उसके हृदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग की सारी अधीरता, उत्कंठा और चेष्य उसी हार पर केंद्रित हो रही थी, मानो उसके प्राण उसी हार के दानों में जा छिपे थे, मानो उसके जन्म-जन्मांतरों की संचित अभिलाषा उसी हार पर मंडरा रही थी। जौहरी को संदूक बंद करते देखकर वह जलविहीन मछली की भांति तड़पने लगी। कभी वह संदूक खोलती, कभी वह दराज खोलती; पर रुपये कहीं न मिले।

सहसा मोटर की आवाज सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ रहे थे। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने रोक दी और चबूतरे की तरफ चले। रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा-आप तो नौ बजे आने को कह गए थे?

वकील-वहां कोरम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता 'कोई दिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है?

जौहरी ने उठकर सलाम किया।

वकील साहब रतन से बोले-क्यों, तुमने कोई चीज पसंद की?

रतन–हां, एक हार पसंद किया है, बारह सौ रुपये मांगते हैं।

वकील-बस। और कोई चीज पसंद करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज नहीं।

रतन इस वक्त मैं यही एक हार लूंगी। आजकल सिर की चीजें कौन पहनता है।

वकील-लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया, तो कहोगी, मेरे पास होता, तो मैं भी पहनती।

वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का-सा सेह था। जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लड़कों से पूछ-पूछकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे। उसके कहने पर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज ही क्या थी। उन्हें अपने जीवन में एक आधार की जरूरत थी-संदेह आधार की, जिसके सहारे वह इस जीर्ण दशा में भी जीवन-संग्राम में खड़े रह सकें, जैसे किसी उपासक को प्रतिमा की जरूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फूल चढाए, किसे गंगा-जल से

नहलाए, किसे स्वादिष्ट चीजों का भोग लगाए। इसी भाति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत थी। रतन उनके लिए संदेह कल्पना मात्र थी जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शांत होती थी। कदाचित् रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आंखों के बिना मुख।

रतन ने केस में से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली-इसके बारह सौ रुपये मांगते हैं।

वकील साहब की निगाह में रुपये का मूल्य आनंददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसंद है, तो उन्हें इसकी परवा न थी कि इसके क्या दाम देने पड़ेंगे। उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा-सच-सच बोलो, कितना लिखें। अगर फर्क पड़ा तो तुम जानोगे।

जौहरी ने हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला-साढ़े ग्यारह सौ कर दीजिए। वकील साहब ने चेक लिखकर उसको दिया, और वह सलाम करके चलता हुआ।

रतन का मुख इस समय वसन्त की प्राकृतिक शोभा की भांति विसित था। ऐसा गर्व, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी न दिखाई दिया था। मानो उसे संसार की संपत्ति मिल गई हार को गले में लटकाए वह अंदर चली गई। वकील साहब के आचार-विचार में नई और पुरानी प्रशाओं का विचित्र मेल था। भोजन वह अभी तक किसी ब्राह्मण के हाथ का भी न खाते थे। आज रतन उनके लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने गई, अपनी कृतज्ञता को वह कैसे जाहिर करे?

रमा कुछ देर तक तो बैठा वकील साहब का योरप-गौरव-गान सुनता रहा, अंत को निराश होकर चल दिया।

इक्कीस

अगर इस समय किसी को संसार में सबसे दुखी, जीवन से निराश, चिताग्नि में जलते हुए प्राणी की मूर्ति देखनी हो, तो उस युवक को देखे, जो साइकिल पर बैठा हुआ, अल्फ्रेड पार्क के सामने चला जा रहा है। इस वक्त अगर कोई काला सांप नजर आए तो वह दोनों हाथ फैलाकर उसका स्वागत करेगा और उसके विष को सुधा की तरह पिएगा। उसकी रक्षा सुधा से नहीं, अब विष ही से हो सकती है। मौत ही अब उसकी चिंताओं का अंत कर सकती है, लेकिन क्या मौत उसे बदनामी से भी बचा सकती है? सवेरा होते ही, यह बात घर-घर फैल जायगी-सरकारी रुपैया खो गया और जब पकड़ा गया, तब आत्महत्या कर ली । कुल में कलंक लगाकर, मरने के बाद भी अपनी हंसी कराके चिंताओं से मुक्त हुआ तो क्या, लेकिन दूसरा उपाय ही क्या है।

अगर वह इस समय जाकर जालपा से सारी स्थिति कह सुनाए, तो वह उसके साथ अवश्य सहानुभूति दिखाएगी। जालपा को चाहे कितना ही दुख हो, पर अपने गहने निकालकर देने में एक क्षण को भी विलंब न करेगी। गहनों को गिरवी रखकर वह सरकारी रुपये अदा कर