खग्रास  (1960) 
चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ आवरण-पृष्ठ से – – तक

 

ख ग्रा स
महान् वैज्ञानिक उपन्यास

 

आचार्य चतुरसेन

 

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दिल्ली ☆ मथुरा

प्रकाशक
प्रभात प्रकाशन
२०५, चावड़ी बाज़ार,
दिल्ली
*
लेखक
आचार्य चतुरसेन
प्रथम संस्करण
१९६०
*
मुद्रक
गुलाबसिंह यादव
आगरा फाइन आर्ट प्रेस,
अहीरपाडा, आगरा
सर्वाधिकार सुरक्षित
*
मूल्य
साढ़े छः रुपया

सिंहावलोकन

१९५८ का साल राष्ट्रीय एव अन्तर्राष्ट्रीय उथल-पुथल का साल था। राजनैतिक दृष्टि से पश्चिमी तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया मे महान् परिवर्तन हुए, रूस और अमेरिका ने अन्तर्राष्ट्रीय प्रक्षेपणास्त्रो द्वारा व्योम मे कृत्रिम उपग्रह स्थापित किए। इन बातो से मनुष्य का दृष्टिकोण बदला, पश्चिमी एशिया का जागरण हुआ जिसने भारत के महत्त्व को बढाया और भारत राजनैतिक दृष्टि से विश्व की तीसरी शक्ति के समकक्ष हुआ। परन्तु विश्व शान्ति की उसकी भावना का सारे विश्व मे अभिनन्दन हुआ और इस दृष्टि से वह समूचे विश्व का आश्रय केन्द्र बना। ससार के राष्ट्रो के मुंह भारत की ओर उन्मुख हुए। चेकोस्लेवाकिया के प्रधान मन्त्री श्री विलियम सिरोकी, इन्डोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्ण, ब्रिटिश प्रधान मन्त्री श्री मैकमिलन, अमरीकी सेना के प्रधान जनरल मैक्सवेल टेलर, चीन का शिष्ट मण्डल, उत्तरी वियतनाम के राष्ट्रपति डा. होची मिन्ह, अफगानिस्तान के बादशाह जहीरशाह, रूमानियाँ के प्रधान मन्त्री श्री स्तोइका, न्यूजीलेण्ड के प्रधान मन्त्री श्री बाल्टर नैश, तुर्की के प्रधान मन्त्री श्री अदनान मेदरस, नैपाल के सेनाध्यक्ष जनरल तोरण शमशेर, कम्बोडिया के प्रधान मन्त्री नरोत्तम सिहनख, पाक प्रधान मन्त्री नून, कनाडा के प्रधान मन्त्री श्री जान डीकन बेकर, नारवे के प्रधान मन्त्री श्री गर्डिसन, और घाना के प्रधान मन्त्री डा० क्वामे ऐनक्रुमा ने भारत की राजनैतिक यात्राएँ की। भारतीय-गणराज्य के प्रधान मन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने भूटान यात्रा की, तथा भारत के राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद ने जापान और मलय-इन्डोनेशिया की यात्रा की।

अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओ मे रूस और अमेरिका के उपग्रहो की व्योम मे थापना के अतिरिक्त सर एडमण्ड हिलेरी ने दक्षिण ध्रुव यात्रा की। समय यदि सोवियत रूस ने धमकी न दी होती तो शायद तृतीय विश्व युद्ध भडक उठता। उस समय युगोस्लेविया से मास्को तक पश्चिमी एशिया के रूसी हवाई अड्डो पर अनगिनत बमबर्षक हमले के लिए तैयार खडे थे। रूस वास्तव मे पच्छिमी एशिया पर पच्छिमी राष्ट्रो का हमला होते ही अरब देशो की तरफ से लडने को कतई तैयार था। रूस का यह रुख देखकर ही पश्चिमी राष्ट्रो ने ईराक पर हमला नही किया। उन दिनो पैरिस, लडन और बर्लिन मे विदेशियो के लिए असाधारण सकट उठ खडा हुआ था। पश्चिमी राष्ट्र ईराक पर अपना सरक्षण चाह रहे थे, और एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रो ने एकमत से माग की थी कि पश्चिमी एशिया से अमरीका और ब्रिटेन की सेनाएँ हटा ली जाय। पश्चिमी राष्ट्र यह विरोध और धमकी देखकर दब गये और उन्होने ईराक की नई सरकार को मान्यता दे दी।

२६ सितम्बर को बर्मा के प्रधान मन्त्री ने वहाँ की राजनैतिक दलबन्दी से तग आकर प्रधान सेनापति को प्रधान मन्त्री बना दिया। उधर ८ अक्टूबर को जनरल अयूब खॉ की डाट खाकर पाकिस्तान के राष्ट्रपति मिर्जा ने नून का मन्त्रिमण्डल भग कर दिया। और जनरल अयूब खाँ ने सम्पूर्ण देश मे सविधान भग करके मार्शल-ला लगा दिया। अब जनरल अयूब पाकिस्तान के सर्वेसर्वा बन गए-मिर्जा दुम दबा कर योरोप भाग गए। थाईलैण्ड मे एक फौजी शासन भग होकर दूसरा फौजी शासन स्थापित हुआ। सूडान मे १७ नवम्बर को प्रधान सेनापति प्रदूव ने जनतन्त्री सरकार को उखाड कर अपना शासन स्थापित कर लिया, यद्यपि इस सैनिक विद्रोह को जनता का कोई सहयोग न था। लका और इन्डोनेशिया में भी सैनिक नेताओ ने फौजी शासन स्थापित करने की चेष्टा की। पर लका मे तो फौजी शासन का पहले ही भण्डा फोड हो गया। इन्डोनेशिया मे सैनिक नेताओ ने विदेशियो की सहायता से सुमात्रा में समानान्तर सरकार बनाई, पर चली नही। वैधानिक सरकार ने उसे उखाड फैका। विद्रोहियो ने विदेशो मे भागकर शरण ली। फ्रांस में फौजी जनरल द गाल ने अपनी सत्ता जमाई। इस काम मे अल्जीरिया स्थित फ्रेंच सेना ने उन्हे सहायता दी। अल्जीरिया में बसे फ्रेन्च नागरिको और फ्रेन्च सैनिको ने पहिले अल्जीरिया मे फौजी शासन स्थापित किया-फिर फ्रान्सीसी सरकार पर दबाब डाल कर उन्हे वहाँ का प्रधान मन्त्री बना दिया। प्रधान मन्त्री बनकर जनरल द गाल ने नया सविधान बनाया और जनमत लेकर नए सविधान के मातहत चुनाव करा कर फ्रान्स के राष्ट्रपति बन बैठे। लेबनान के नेताओ ने पच्छिमी गुट के समर्थक राष्ट्रपति शामौन को सशस्त्र विद्रोह करके पदच्युत किया और अरब राष्ट्रीयता के समर्थक सेनापति जनरल शेहाव को राष्ट्रपति और करामी को प्रधान मन्त्री बनाया।

अफ्रीका मे अत्यधिक महत्व की घटनाएँ 'घटी'। घाना के प्रधान मन्त्री डा० एन०मा ने अकरा मे अफ्रीकी राष्ट्रो के दो सम्मेलन बुलाकर अफ्रीकी राजनीति को नया मोड दिया। गिनी आजाद हुआ और नाइजीरिया तथा कैमरून आजादी के निकट पहुँचे। मिश्र और सीरिया ने मिल कर अरब गण राज्य की स्थापना करके संघराज्य पद्धति का सूत्रपात किया-बादं मे घाना और गिनी का भी सघराज्य बना।

सक्षेप मे १९५८ मे पच्छिमी देशो को सर्वत्र पराजय का मुंह देखना पडा। डलेस इस वर्ष कई बार विश्व को युद्ध के निकट ले गए। पच्छिमी एशिया मे पच्छिमी देशो का फौजी हस्तक्षेप हास्यास्पद बना। इस सम्बन्ध में ब्रिटेन की सबसे अधिक किरकिरी हुई। इस वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय और आर्थिक क्षेत्रो मे पच्छिमी एशिया ने पच्छिमी राष्ट्रो को धता बता कर सोवियत संघ की विदेश नीति का स्वागत किया।

पाकिस्तान में सैनिक क्रान्ति--

सैनिक शासन को जो पाकिस्तान में तनिक भी विरोध का सामना नही करना पड़ा इसका कारण यह था कि सात अक्टूबर की रात को जब जनरल इस्कन्दर मिर्जा ने दलीय प्रणाली को औपचारिक रूप मे खत्म किया उससे प्रथम ही वह खत्म हो चुकी थी, जिसका एक प्रमाण पूर्वी पाकिस्तान मे असेम्बली के उपप्रधान शहीद अली की मृत्यु है। पाकिस्तान के सविधान का निर्माण कुछ नेतानो की राजनैतिक आकाक्षाओ के आधार पर हुआ था तथा प्रत्येक दल मे अदूरदर्शी, सत्तालोलुप राजनीतिज्ञो की बाढ आ गई थी। जनरल मिर्जा सैनिक गुट के समर्थक थे। सुहरावर्दी एक ओर राष्ट्रीय असेम्बली मे लेवनान मे अमरीकी सेनाओ के उतारने का समर्थन कर रहे थे, दूसरी ओर तत्कालीन मुख्यमन्त्री अताउर रहमान खॉ कम्युनिष्ट प्रभावित शाति परिषद् की बैठक में पाकिस्तान की विदेश नीति की निन्दा कर रहे थे। पाकिस्तान मे न तो राजनीतिक निष्ठा थी, न राजनीतिक कार्यक्रम।

सैनिक क्रान्ति से १५ दिन प्रथम कराची मे मुस्लिम लीग कौन्सिल की बैठक हुई जिसमे रिपब्लिकनो द्वारा उसकी स्वयसेवक सेना पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचार हुआ। कयूमखॉ और उनके गुट ने सीधी कार्यवाही की राय दी। नतीजा यह हुआ कि कराची और लाहौर मे सेनाएँ तैनात कर दी गई। यदि लीग ऐसा-वैसा कदम उठाती तो अवश्य भीषण परिणाम होता। जनरल मिर्जा के पिट्ठू सीधी कार्यवाही के विरोधी थे। पर वे जानते थे कि सेना कब्जा करना चाहती है। इनमे एक महमूदाबाद के राजा भी थे जो चार अक्टूबर को ही पाकिस्तान छोडकर बेरुत चले गए थे जहाँ से फिर वे ईराक भाग गए।

अधिकाश सैनिक और असैनिक अधिकारियो को लीग से सहानुभूति थी। यह बात महत्त्व की थी। मुस्लिम लीग को यदि चुनाव जीतने की आशा होती तो क्रान्ति न होती। पर निष्पक्ष चुनावो की कोई सम्भावना ही न थी। क्योकि रिपब्लिकनो ने लाहौर मे तथा अबामी लीग ने ढाका मे चुनाव के लिए प्रशासन यन्त्र का उपयोग करने का निश्चय कर रक्खा था। ज्यो ही जनरल मिर्जा को पदच्युत किया गया-कुमारी फातिमा जिन्ना ने इसका स्वागत किया। जनरल अयूब अपने मन्त्रिमण्डल के साथ कायदे आजम और लियाकतअलीखाँ के मजारो पर गए और उन्होने सर्दार अब्दुर्रबनिश्तर की कब्र पर भी फातिहा पढा जो मृत्यु के समय लीग के अध्यक्ष थे।

हकीकत यह थी कि जनरल मिर्जा को जबर्दस्ती सेना को सत्ता सोपने को विवश किया गया था। जनरल अयूब ने उनसे कहा था कि या तो आप खुद हमारी बात मानले नही तो जबर्दस्ती मनवाई जायगी। जनरल मिर्जा का खयाल था कि सैनिक जनरल प्रशासन न कर सकेगे और अवसर पाकर वे सैनिक शासन के राष्ट्रपति बन जायेगे। इसलिए उन्होने बिना। विरोध सैनिक अधिकारियो का कहा मान लिया। इसके अतिरिक्त कोई चारा भी न था। उन्होने एक भारी भूल की कि सविधान खत्म करते ही मार्शलला की समाप्ति तथा राष्ट्रीय परिषद् के निर्माण की चर्चा शुरू करदी। जनरल' अयूब पूर्वी पाकिस्तान के दोरे पर थे। यह सुनते ही वे कराची दौडे और कहा मार्शल ला अभी लागू रहेगा। मिर्जा को राष्ट्रीय परिषद् का प्रस्ताव वापस लेना पड़ा और तब एक मन्त्रि मण्डल की स्थापना हुई जिसके प्रधान मन्त्री जनरल अयूब थे। इसके तीन दिन बाद ही जनरल मिर्जा को अपना बिस्तर बोरिया समेट कर भागना पडा।

जब जनरल मिर्जा को पदच्युत किया गया तब जनरल अयूब सशस्त्र सेनामो के सर्वोच्च सेनापति, प्रधान सेनापति, मार्शल-ला प्रशासक और प्रधान मन्त्री थे। पदच्युत किए जाने से कुछ घन्टे पूर्व जनरल मिर्जा ने जनरल अयूब से सशस्त्र सेनाप्रो के सर्वोच्च सेनापति का पद छोडने को कहा था, सविधान भग होने से प्रथम तक मिर्जा ही के पास यह पद था। पर जनरल अयूब इस बात को खूब समझते थे कि सेनाओ पर सीधा नियन्त्रण बिना रक्खे, केवल प्रधान मन्त्री का पद नहीं टिक सकेगा। बस उन्होने मिर्जा को पदच्युत कर दिया।

क्रान्ति की योजना सेना के कुछ उच्च अधिकारियो ने तैयार की थी। उनमे लेफ्टिनेन्ट जनरल आजम और शेख प्रमुख व्यक्ति थे जो इस समय मन्त्रिमण्डल में थे। तीन अन्य व्यक्तियो मे मेजर जनरल हमीद पेशावर मे एरिया कमाण्डर, मेजर जनरल देहिया खॉ आर्मी हैड क्वार्टरर्स रावलपिण्डी और विग्रेडियर पीरजादा थे।

फौजी प्रशासन की कठोरता तथा नए करो के भय से पाकिस्तानी पूजीपति नए उद्योगो मे अपनी पूंजी लगाने मे कतरा रहे थे। वहाँ की अस्थिर राजनीतिक स्थिति के कारण विदेशी व्यापारी भी वहाँ पूजी लगाने को तैयार न थे। यहाँ तक कि कुछ विदेशी पूंजीपति तो पाकिस्तानी उद्योगो से अपना रुपया ही समेट लेना चाह रहे थे।

क्रान्ति के बाद सैनिक प्रशासन को सब से बड़ी सफलता आर्थिक मोर्चे पर मिली जिसने उसे तत्काल लोकप्रिय बना दिया। अन्तर्राष्ट्रीय खुले बाजार मे डालर के बदले पाकिस्तान के ६.८३ रुपया मिल जाते थे जबकि पाकिस्तानी रुपए की अधिकृत दर ४.७६ थी। सैनिक प्रशासन के बाद पाकिस्तान के ५५५ रुपयो मे एक डालर मिलने लग गया। इस प्रकार पाकिस्तानी रुपए की कीमत मे २५ प्रतिशत की वृद्धि हो गई।

मार्शल-ला प्रशासन मे उपभोग्य वस्तुओ के मूल्य मे १० से ३० प्रतिशत तक की कमी हो गई। इससे कराची मे गत वर्ष जीवन यापन सूचक अग जो १८ प्रतिशत बढ गया था उसमे १० प्रतिशत कमी आ गई। तीस लाख मन खाद्यान्न या तो सरकार ने जप्त कर लिया या जमीदारो ने अपने स्टाक घोषित कर दिए। इससे खाद्यान्नो की कीमत मे स्थिरता आ गई। सोना तथा अन्य विलास सामग्री का तस्कर व्यापार लगभग समाप्त हो गया। बढिया कपडे के दाम भी गिर गए। कठोर प्रशासन से जनता में नागरिकता की भावना बढ गई। बसो की भीड-भाड, नगर की गन्दगी, खाद्यान्नों की मिलावट में सुधार हुआ। भ्रष्टाचार मे कमी हो गई। जनता की पुकार तुर्तफूर्त अधिकारियो तक पहुँचने लगी। प्रशासको ने कराची समुद्र तट से तीन करोड मूल्य का तस्कर सोना जप्त किया।

परन्तु देश की आर्थिक दुरवस्था ज्यो की त्यो थी। गत सितम्बर मे भूतपूर्व वित्तमन्त्री सैयद अमजद अली ने राष्ट्रीय एसेम्बली मे कहा था कि पाकिस्तान आर्थिक विनाश के कगार पर खडा है। उस समय पाकिस्तान की विदेशी मुद्रा का कोष ३० करोड रुपये के न्यूनतम स्तर तक पहुँच चुका था। कपडा, जूट और कपास के उत्पादन मे कोई वृद्धि नही हुई थी। भारत के साथ व्यापार कायम करने से पाकिस्तान की बहुत सी कठिनाइयां दूर हो सकती थी, परन्तु पाकिस्तानी रवैया इसके अनुकूल न था। पाकिस्तान का कहना था कि भारत और पाकिस्तान की अर्थ व्यवस्था एक दूसरे पर निर्भर नही। वैचारिक मतभेदो के कारण कम्युनिष्ट देशो से भी पाकिस्तान व्यापार सम्पर्क न बढा सका। पाकिस्तान ने बगदाद समझौते के रूप में अमरीका के साथ पारस्परिक व्यापार करार किए थे, इससे भी कम्युनिष्ट देशो से उसके व्यापारिक सम्पर्क मे बाधा पडी। सोवियत कूटनीतिज्ञो का कहना था कि पाकिस्तानी-अमरीका करार मे एक ऐसी धारा है कि जिसके आधार पर अमरीका पाकिस्तान मे सैनिक अड्डे बना सकता है।

पाकिस्तान अन्तत एक अविकसित देश है इसलिए उद्योगो मे पूजी विनियोजन का अधिकाश कार्य सरकार को स्वय करना पडता है जो अब लगभग ठप हो रहा था।

विज्ञान का वर्ष—

इस वर्ष को स्पुतनिक और राकेट का वर्ष भी कहा जा सकता है। इस अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिक वर्ष मे सबसे अधिक वैज्ञानिक खोजे की गई। इसी वर्ष जेनेवा मे विश्व का दूसरा परमाणु शक्ति सम्मेलन हुआ। और दक्षिणी ध्रुव पर विजय मिली। नागरिको ने प्रथम वार जेट विमानो मे यात्रा की। अमरीका ने परमाणु शक्ति चालित पनडुब्बी के सफल परीक्षण किए। इसलिए इसे विज्ञान का वर्ष ही कहा जाना चाहिए।

सबसे अधिक खोज अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिकी वर्ष के अन्तर्गत अन्तरिक्ष की हुई। वर्ष के अन्तिम दिनो मे मानव चन्द्रमा के सबसे निकट पहुँचा। यद्यपि चन्द्रमा तक पहुँचने के मानव प्रयत्न असफल हुए, परन्तु आगे को प्रेरणा अवश्य मिली। रूस और अमेरिका ने ही राकेट और उपग्रह अन्तरिक्ष मे छोडे, भारत मे भी दो परीक्षणात्मक राकेट मैसूर और पटना मे छोडे गए, जिनका उद्देश्य उनके बनाए हुए किसी विशेष प्रकार के राकेट-ईधन का परीक्षण करना था। इससे प्रथम रूस दो सफल स्पूतनिक व्योम मे स्थापित कर चुका था ११ अक्टूबर को पायोनियर नामक एक शक्ति वाला राकेट अमरीका ने छोडा था जो नष्ट हो गया। इसके बाद जनवरी ३१ को अमरीका का एक परीक्षण सफल हुआ। इसके बाद २६ जुलाई को अमरीका ने अपना सबसे बडा उपग्रह पायनियर अन्तरिक्ष कक्ष मे स्थापित किया। फिर नवम्बर मे साढे चार टन वजन का एटलस प्रक्षेपणास्त्र छोडा। रूस ने १५ मई को अपना तीसरा और सबसे भारी स्पुतनिक तृतीय छोडा। अमेरिका और रूस ने दो-तीन बार चन्द्रमा को राकेट भेजने के प्रयास किए। रूस ने राकेट मे दो कुत्ते भेजे जो २८१ मील तक जाकर पृथ्वी पर लौट आए। अमरीका ने मानव पर अन्तरिक्ष का प्रभाव देखने को एक बन्दर भेजा। अमरीका ने अपना एक उपग्रह एटलस प्रक्षेपणास्त्र मे भेजा था जो समूचा साढे चार टन वजन के प्रक्षेपणास्त्र के सहित कक्ष मे स्थापित होकर पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने लगा। इस परीक्षण से पृथ्वी से अन्तरिक्ष को और अन्तरिक्ष से पृथ्वी को सवाद सवहन के प्रयोग सफल हुए। सवहन क्षेत्र मे यह क्रान्ति हो गई कि पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक सदेश कुछ मिनिटो ही की बात रह गई।

अन्तरिक्ष के बाद पृथ्वी की भी खोज हुई जो अन्तरिक्ष की भांति ही विस्तृत थी। पृथ्वी की खोज का सम्बन्ध भी और गतिविधि से था। पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र में भारत ने बहुत महत्त्वपूर्ण योग दिया। भू चुम्बकीय परिवर्तनो, सौर-क्रियाओ और चुम्बकीय तूफानो के सम्बन्ध मे निरन्तर पर्यवेक्षण हुए। भारत के अन्तरिक्ष विज्ञान विभाग की ओर से बम्बई और कोडाहकनाल की वेधशालाओ मे आधुनिक यन्त्र लगाए गए। कोडाहकनाल मे सूर्य ग्रहण, सूर्य के धब्बो तथा सूर्य की लहरो के चित्र भी लिए गए। अमरीकी वैज्ञानिको ने पृथ्वी पर की गई खोज के अनेक रहस्योद्घाटन किए, प्रशात सागर तल की कीच मे उन्होने अनेक बहुमूल्य खनिजो की विद्यमानता का पता लगाया। यह बात भी जान ली गई कि ६० लाख वर्ग मील का दक्षिणी ध्रुव प्रदेश ठोस भूमि नही अपितु द्वीपो और पहाडो की शृखला का देश है। यह भी ज्ञात हुआ कि दक्षिणी ध्रुव क्षेत्र में इतनी बर्फ है कि सारी पृथ्वी पर उपलब्ध बर्फ से चालीस गुनी है। उत्तरी ध्रुव देश में दक्षिणी ध्रुव देश की अपेक्षा ५० प्र॰ श॰ हिमवर्षा अधिक है, तथा ध्रुव प्रदेशो मे निम्नतम तापमान शून्य से १२४ अश फौर्नहाइट नीचे है।

अमरीका और ब्रिटेन के बीच जेट विमानो द्वारा सार्वजनिक यात्रा आरम्भ हुई, जिससे यात्रा के समय मे कई घन्टे की कटौती हो गई।

सितम्बर मे जेनेवा मे विश्व परमाणु सम्मेलन हुआ जिसमे ८० देशो के ३ हजार वैज्ञानिको ने भाग लिया और छै सो निबन्ध पढे गए जिनमे विश्व मे परमाणु क्षेत्र मे हुई प्रगति पर प्रकाश डाला गया। इस वर्ष भर ब्रिटेन, रूस और अमेरिका में परिमाण सम्बन्धी अनुसन्धान होते रहे। आठ अगस्त को अमेरिका की परमाणु शक्ति चालित पनडब्बी 'नाटिलस' ने उत्तरी ध्रव क्षेत्र मे बर्फ के नीचे १ हजार ८३० मील लम्बी यात्रा एक किनारे से दूसरे किनारे तक की। 'स्केट' नामक दूसरी पनडुब्बी ने भी ऐसी ही यात्रा की।

चिकित्सा क्षेत्रो मे इस वर्ष एक नई आशका ने जन्म लिया कि रोगाणुनाशक दवाओं की रोग कीटाणुप्रो की नाशक शक्ति कम हो गई है। अस्पतालो के अन्दर बच्चो मे एक महामारी फैली जिसमे सैकडो बच्चे मर गए। भारत मे पैन्सिलीन के टीके से अनेक मृत्यु हुई।

इस वर्ष प्राचीन इतिहास के भी कुछ नए तत्त्व प्राप्त हुए। ईराक मे एक ऐसी खोपडी और ककाल मिले जिनसे अनुमान होता था कि अब से पैंतालीस हजार वर्ष पूर्व एक मानव जैसा जीव नीउरथेलर था जो चट्टानो और गदा से लडता था। उस समय शल्य चिकित्सा भी होती थी। इटली की एक कोयला खान मे एक करोड वर्ष पुराना एक नर-ककाल मिला।

इस प्रकार भूभौतिक वर्ष ३१ दिसम्बर को समाप्त तो हो गया लेकिन मानव मस्तिष्क पर ज्ञानार्जन का भारी भार डाल गया।

विश्वक्रान्ति की दहलीज पर—

आज हम अणु युग मे गुजर रहे है। इस अणु युग मे मानव विश्व के इतिहास मे होने वाली महान् औद्योगिक, सामाजिक और आर्थिक क्रान्ति के द्वार पर खडा था। सर्व प्रथम सन १९४२ मे शिकागो विश्वविद्यालय के एक प्राङ्गण में प्रथम आणविक ज्वाला प्रकट की गई थी। यह ज्वाला उस विशाल शक्ति का नियन्त्रित रूप में प्राप्त किया गया वह अश था, जो लगभग ३ अरब वर्ष पूर्व, उस समय से अपने अणुओ के केन्द्र मे छिप गया था जब पृथ्वी का जन्म हुआ था। पृथ्वी पर जलाई गई यह ऐसी प्रथम ज्वाला थी जिसका उद्गम सूर्य से नही हुआ था। इसलिए मानव-जाति के उथल पुथल भरे इतिहास मे यह घटना एक नए युग का प्रारम्भ थी। इस रहस्यमयी शक्ति को प्राप्त करके जीवन स्तर ऊँचा उठाया जा सकता था और मनुष्य की भौतिक इच्छाप्रो की कल्पनातीत पूर्ति की जा सकती थी। अमेरिका ने इसमे पहल की थी। १ अक्टूबर १९५७ के दिन ६२ सदस्य राष्ट्रो ने वियना मे अन्तर्राष्ट्रीय अणुशक्ति ऐजेन्सी की स्थापना की। और इसके एक सप्ताह बाद न्यूयार्क मे आणविक उद्योग सम्बन्धी मेले का आयोजन किया जिसमे १३० से अधिक निर्माताओ तथा सरकारी सस्थानो द्वारा अणशक्ति के कल्याणकारी उपयोगो का प्रदर्शन किया।

इस समय भी अमेरिका के पास अन्य देशो की तुलना मे प्राकृतिक ईंधनो का प्रचुर भण्डार मौजूद था, और वह तत्काल ही अणु-ईधन का इतना मुहताज न था। परन्तु वह भी अपने कोयले और तेल की प्रचुर वर्तमान खपत को सदैव इसी रूप मे चालू नही रख सकता था। अब उसे आशा हो रही थी कि १९८० तक उसके दो तिहाई कारखाने अणु-बिजली से चालू हो सकेगे। इसके अतिरिक्त आणविक भट्टियो मे उत्पन्न होने वाले मनुष्यकृत रेडियो-सक्रिय तत्त्व तथा रेडियो-आइसोटोपो से यह सम्भावना की जा रही थी कि इनसे उद्योग, कृषि, जीव-विज्ञान तथा चिकित्सा के क्षेत्र मे अमित लाभ होगे। अमरीका ने पेन्सिलवेनिया मे एक बडा आणुविक विजली घर स्थापित कर लिया था जिसमे साठ से अस्सी हजार किलोवाट तक बिजली उत्पन्न होती थी जो ७५ हजार घरो की आवश्यकता की पूर्ति के लिये काफी थी। अब वे और भी बिजली घरो की स्थापना कर रहे थे। ब्रिटेन मे ईधन का अकाल समुपस्थित हो गया था। पश्चिम एशिया के तेल उत्पादक क्षेत्रो से उसका प्रभुत्व हट रहा था-इस कारण ब्रिटेन बडी तेजी से इधर अग्रसर हो रहा है। उसने सन ५६ मे ही काल्डर हौल मे संसार का सबसे पहला प्राणुविक बिजली घर स्थापित कर लिया था, जहाँ ५०-६० लाख किलोमीटर बिजली उत्पन्न हो रही थी। इसके परिणाम स्वरूप ब्रिटेन की अब लगभग २ करोड टन कोयले की बचत हो रही थी।

ब्रिटेन के अतिरिक्त ६ योरोपीय राष्ट्रो-फ्रान्स, जर्मनी, इटली, बेल्जियम, लक्समवर्ग और हालेण्ड मे भी बडे-बडे कदम उठाए जा रहे थे। वहाँ डेढ करोड किलोवाट बिजली के उत्पन्न करने की क्षमता रखने वाले आणविक बिजलीघर बनाए जा रहे थे। एशिया के कुछ देश भी इसी प्रकार का आयोजन कर रहे थे।

रेडियो सक्रिय आइसोटोप—रेडियो सक्रिय आइसोटोपो का प्रयोग भी काफी प्रगति पा रहा था। कुछ चिकित्सक १० लाख रोगियो के रोगो का निदान और उपचार रेडियो-आइसोटोपो से कर रहे थे। ऋषक पौधो तथा खेती के रोगो और कीटाणुओ का खात्मा करने के लिए विकिरण का प्रयोग कर रहे थे। केवल अमेरिकी उद्योग को ही रेडियो-आइसोटोपो के प्रयोग से प्रतिवर्ष ४० करोड डालर की बचत हो रही थी। वह निकट भविष्य में ५ अरब डालर की बचत की आशा कर रहा था।

रोगों के विरुद्ध अभियान—लुइस पेस्टर ने सूक्ष्मवीक्ष्ण यन्त्र की सहायता से आयु के पूर्वार्द्ध मे होने वाले अधिकाश सक्रामक रोगो तथा महामारियो की रोक-थाम करने और उन पर नियन्त्रण करने के उपाय ही नही मालूम किये वरन-शल्य चिकित्सा मे भी महान् सफलता प्राप्त की थी। अब आणूनिक विकिरण एक नए तथा अधिक शक्तिशाली सूक्ष्म वीक्ष्ण यन्त्र के रूप में काम कर रहा था। इसकी सहायता से हम शरीर के भीतर की प्रक्रियाएँ देख सकते थे। शरीर मे अन्वेषी रेडियो-आइसोटोपो को प्रविष्ट कर के उनकी सहायता से प्रक्रियाओ का ज्ञान प्राप्त कर सकते थे। इस आणविक सूक्ष्म वीक्ष्ण यन्त्र के द्वारा ही मनुष्य आज पहिली बार जीवित हृदय के काम को अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देख रहा था।

राकेट और उपग्रह—११ सितम्बर १९५६ को स्पेन के वारसीलोना नगर मे भू भौतिक वर्ष की एक विशेष समिति की बैठक हुई थी जिसमे ५० देशो के १०० विशेषज्ञो ने भाग लिया था। इस बैठक मे अमरीका ब्रिटेन रूस, जापान, फ्रान्स, आस्ट्रेलिया और कनाडा ने अपने-अपने कार्यक्रम रखे थे। उस समय अमेरिकन प्रतिनिधि थे कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डा॰ जोजेफ कामलिन। उन्होने कहा था कि व्योम मे उपग्रह छोडना मनुष्य द्वारा उठाया गया एक अत्यधिक साहस पूर्ण कार्य है, जो सूझबूझ द्वारा उठाया गया है। यह पृथ्वी के क्षेत्र से आगे बढकर विश्व की प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करने का प्रथम अध्याय है। इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य बाह्य आकाश मण्डल तथा सूर्य-नक्षत्रो व अन्तर्नक्षत्रीय माध्यमो के कणो और विकरणो के आकाशमण्डल पर प्रभाव की जानकारी प्राप्त करना है। उन्होने कहा था कि अमरीका इस भूभौतिक वर्ष मे २०० अनुसन्धानात्मक राकेट छोडेगा जो विविध प्रकार के होगे तथा पृथ्वी से १५ सौ मील दूर रह कर भूमध्य रेखा के ४० अश उत्तर दक्षिण पृथ्वी के चारो ओर घूम कर ६० मिनिट मे पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर लेगे। दूर बीक्षण यन्त्रो व रेडियो विधियो के द्वारा इनके मार्ग का ज्ञान, निरीक्षण और नाप-तौल की जायगी। इस काम के लिये उत्तर से दक्षिण तक रेडियो-निरीक्षण केन्द्रो की व्यवस्था की गई और चिली, पनामा ब्रिटिश वैस्ट इन्डीज, क्यूवा तथा अमेरिका के अनेक स्थानो मे ऐसे निरीक्षण केन्द्र स्थापित किए गए।

इक्वेडर, चिली, अर्जेन्टाइना, दक्षिण अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, हवाई, दक्षिणी जापान, भारत और पाकिस्तान, मिश्र, दक्षिणी स्पेन, मास्को आदि मे दूरवीक्ष्ण यन्त्रो की सहायता से निरीक्षण केन्द्र स्थापित किए गए। भूमि पर निरीक्षण करने वालो का एक स्वयसेवक दल भी बनाया गया। आशा की गई कि इन उपग्रहो के द्वारा ऊपरी आकाश खण्ड की वायु की घनता, भूखण्ड की बनावट, ताप-दबाव, नक्षत्रो के अंशो तथा अल्ट्रा वायलेट विकिरण तथा ब्रह्माण्ड-किरणो का सही ज्ञान होगा।

व्योम विजय—

अन्तर्राष्ट्रीय भू-भौतिक वर्ष ने ससार को जो एक नई चीज दी वह है व्योम यात्रा द्वारा चन्द्रमा, मगल, शुक्र आदि ग्रहो तक पहुँचना और ५ लाख मील तक अनन्त अन्तरिक्ष मे यन्त्र भेजकर सौर-मण्डल के गूढतम रहस्यो को जानना। इस समय केवल इसका श्रीगणेश ही हुआ, परन्तु आशा होती है कि इस शताब्दी के अन्त तक मानव इस व्योम-यात्रा में सफल मनोरथ होगा।

राकेटो और प्रक्षेपणास्त्रो का विकास इस युग की सबसे अद्भुत और असाधारण घटना हे। इनके माध्यम से मनुष्य को इतने शक्तिशाली साधन प्राप्त हुए है कि वह व्योम मे उपग्रहो की स्थापना कर पाया। व्योम मे उपग्रह रूस और अमेरिका ने जिस प्रक्षेपणास्त्र की सहायता से भेजे है-उन अन्तर्वीपीय प्रक्षेपणास्त्रो से पृथ्वी के किसी भी भाग पर बैठे-बैठे ही महाविध्वसक वार किये जा सकते है। अत यह बात अभी भविष्य के गर्भ मे है कि इन यन्त्रो का रचनात्मक प्रयोग किया जाय या सैनिक प्रयोग।

एक महत्त्वपूर्ण बात इस सम्बन्ध मे यह है कि जब से मानव ने व्योम मे प्रवेश किया है तब से अब राकेट की शक्ति को अश्वशक्ति के आधार पर नही बल्कि उसके वेग के आधार पर प्राका गया है। यह वेग पौण्ड शक्ति या टन शक्ति की सीमा तक चला गया है। यह वेग पृष्ट भाग से गैस को बाहर निकालने वाले उपकरण से प्राप्त होता है। एक हजार या दो हजार पौड वजन के कृत्रिम उपग्रह को कक्ष मे स्थापित करने के लिए दो से लेकर चार लाख पौण्ड शक्ति वाले राकेट-इन्जनो की आवश्यकता होती है। राकेट को अत्यधिक ऊँचाई तक पहुचाने के लिए राकेटो को कई खण्डो मे विभक्त किया गया है। एक खण्ड का ईंधन समाप्त होने पर वह खण्ड जल कर नीचे गिर जाता है और दूसरा आगे गतिशील होता है।

चन्द्रलोक तक पहुँचने के लिए ऐसे शक्तिशाली राकेट की आवश्यकता है जो पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से छुटकारा पाने के लिए २५ हजार मील प्रति घण्टे के वेग से चल सके। तभी वह चन्द्र लोक तक पहुच सकता है। वैज्ञानिक अब यत्न से गुरुत्वाकर्षण की गहरी छानबीन कर रहे हैं। आइन्स्टीन ने भविष्य वाणी की थी कि घडी को यदि गुरुत्वाकर्षण शक्ति के क्षेत्र से बाहर ले जाया जाय तो उसकी गति तेज हो जायगी। वैज्ञानिक परमाणु-घडी को वाह्य अन्तरिक्ष मे भेजकर इस सत्य की परीक्षा करना चाह रहे है।

अब तक जो तथ्य जान लिए गए हैं उनसे बडे बडे तूफानो और आँधियो का पहिले से ही पता लग जाया करेगा। चन्द्रमा के स्वरूप मे भी अभी वैज्ञानिक अनेक जिज्ञासा रख रहे है। वे चन्द्रमा का निकटतम दूरी से चित्र लेना चाहते है। अभी तक किसी वैज्ञानिक को यह पता नही है कि पृथ्वी का अपना चुम्बकीय क्षेत्र क्या है? वे यह भी नही जानते कि चन्द्रलोक मे चुम्बकीय क्षेत्र है या नही। मानव शीघ्र ही भौतिक, भू-भौतिक, उल्का, चन्द्र-सम्पर्क, व्योम से सचार व्यवस्था, तथा व्योम रचना सम्बन्धी बहत सी बातो को जान लेगा। इसके बाद उसे नक्षत्रीय व्यापक सचार व्यवस्था, तथा जीव विज्ञान सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करने मे कुछ समय लगेगा। चन्द्रमा और अन्य ग्रहो की वैज्ञानिक जाँच भी वह दूसरे दौरान मे करेगा। इसके बाद वह व्योम यात्रा के योग्य होगा, तथा चन्द्रलोक और वहाँ से अन्य नक्षत्र लोको मे चालक विहीन यानो मे यात्रा कर पायेगा।

परन्तु व्योम-यात्रा का उद्देश्य केवल इतना ही नही है। इसके फल स्वरूप मानव जीवन पर भी बडे बडे परिणाम होगे। सम्भवत मानव के सम्पूर्ण विकट रोगो का अन्त हो जायगा। वह सुख से रह सकेगा। नासूर, थोडी उम्र मे बुढापा, नपुसकता, बाल सफेद होना, गजापन आदि बीमारियो का भी अन्त हो जायगा। अब यह पता लग गया है कि भूलोक के मनुष्यो को ये बीमारियाँ वाह्य अन्तरिक्ष से विकिरण के कारण उत्पन्न होती है। यह विकिरण ब्रह्माण्ड किरणो के रूप में पृथ्वी तक पहुँचता है और यहाँ पहुँचते पहुँचते इसका तेज कम हो जाता है। अमरीकी वायुसेना ने अन्तरिक्ष मे चूहे, बिल्ली, तथा इसी प्रकार के छोटे-बड़े जानवरो को बडे-बडे गुब्बारो मे भेजा, जो तीन दिन अन्तरिक्ष मे रह कर लौट कर पृथ्वी पर आ गए। इनके आश्चर्यजनक परिणाम हुए। चूहो के काले बाल कुछ दिन बाद सफेद हो गए। सम्भवतया कि ब्रह्माण्ड किरणो ने चूहो के शरीर मे प्रविष्ट होकर उनके बालो की जडे खोखली कर दी थी। कुछ जानवरो का शरीर बुरी तरह झुलस गया था, कुछ पागल हो गए। कुछ पर कुछ भी असर नहीं पड़ा।

यह ज्ञात हुआ कि ब्रह्माण्ड किरणो से शरीर के जीव-कोष नष्ट हो जाते है। जीव-कोष नष्ट होने से ही कैसर की बीमारी होती है तथा ब्रह्माण्ड विकिरण से कैन्सर का रोग असाध्य रूप धारण कर लेता है। कटिबन्ध के देशो मे कैन्सर की बीमारी नहीं होती। इस रोग के रोगी बहुधा समशीतोष्ण कटिबन्ध तथा उत्तरी प्रदेशो में पाए जाते है। विषुवत रेखा के आस पास ऊँचे रक्तचाप के रोगी होते ही नही। विकिरण का हृदय की गति पर बहुत कम प्रभाव पड़ता है। यह उत्तरी अक्षाश के प्रत्येक अक्षाश के साथ बढता है।

अब इन रहस्यमयी ब्रह्माण्ड किरणो की पूरी जानकारी इन उपग्रहो से प्राप्त होगी। उपग्रहो मे ब्रह्माण्ड किरणो की छानबीन के अनेक यन्त्र रखे गये थे। इनकी यथार्थ जानकारी के बाद यह जाना जायगा कि जीवित जीव-कोषो पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है। इसके बाद उसका निरोध विज्ञान के लिए आसान हो जायगा।

रोगी के लिए मौसम का अत्यन्त महत्त्व है। अभी हमे मौसम की भविष्यवाणी केवल २४ घन्टे पहिले होती है, वह भी अनिश्चित। परन्तु अब उपग्रहो से मौसम की सही भविष्य वाणी महीनो-सप्ताहो पूर्व प्राप्त हो सकेगी और चिकित्सक ठीक मौसम जानकर आपरेशन कर सकेगे तथा यह भी जान सकेगे कि उनके मरीजो के लिए प्रतिकूल परिस्थिति कब आने वाली है। अमरीकी राकेट विशेषज्ञ डाक्टर जानशेस्टा का कहना है कि जब उपग्रह अपनी कक्ष मे घूमता है तब गुरुत्वाकर्षण केन्द्रापसारी शक्ति के कारण नष्ट हो जाता है।

परन्तु शरीर पर ऐसी किसी शक्ति का प्रभाव नहीं होता। इसलिए भीषण रोगो के लिए सबसे उत्तम परिस्थिति यह है कि उपग्रह मे परिक्रमा करते हुए अस्पताल-सेनिटोरियम और प्रयोगशालाएँ बनाई जाय। इससे यह लाभ होगा कि हृदय पर कोई भार नहीं होगा और उसे बहुत कम काम करना पडेगा। क्योकि रक्त भारहीन होगा। ऐसी हालत मे चिकित्सक आसानी से हृदय का आपरेशन कर सकेगे।

परन्तु व्योमविजय की ये सारी अभिलाषाये तब तक पूरी नही हो सकती—जब तक विश्व की महती शक्तियाँ मानव कल्याण पर केन्द्रित नही होती। रूस और अमेरिका की दोनो महान् शक्तियाँ व्योम विजय की होड लगा रही है, पूरी तरह आसुरी भावनाओ से परिपूर्ण है। अपने अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को लेकर ये दोनो सबल शक्तियाँ विश्व के अरबो मनुष्यो के भय और आतक का कारण बनी हुई है। इन दोनो दुर्धर्ष शक्तियो के पास जो अमोघ प्रक्षेपणास्त्र और प्रलयकर अणु और उद्जन बम है, वे अभी तो यही सोच रही है कि देखे कोन सबसे प्रथम व्योम पर अधिकार जमाता है। व्योम पर अधिकार जमा कर समूचे विश्व को पलक मारते स्वाहा करने की शक्ति दोनो मे है। अभी रूस के विदेश मन्त्री ग्रोमिको ने दर्प से कहा है कि यदि युद्ध हुया तो युद्ध प्रारम्भ होने के बाद चन्द घन्टो मे ब्रिटेन का विनाश हो जायगा। उधर अमरीकी सीनेट मे रिपब्लिकन दल के सीनेटर फासिस केस ने कहा है कि अमेरिका के मध्यवर्ती मार वाले और प्रक्षेपणस्त्रो के ब्रिटेन स्थित अड्डो अथवा योरोप स्थित अन्य सैकडो अड्डो से छोड कर मास्को को एकदम मलियामेट करके गारत कर दिया जायगा। श्री ख श्चेव का कहना है कि एक ही रूसी हाइड्रोजन बम के प्रहार से न्यूयार्क और आसपास के चार करोड मनुष्य मर जायेगे तथा न्यूयार्क भस्म की ढेरी हो जायगा।

रूस ने ललकार कर कहा—

अमरीका इस भुलावे मे न रहे कि वह समुद्र पार शॉति से बैठा रह कर अन्य देशो मे लडाई छेड सकता है। रूस के पास ऐसे राकेट तैयार है जो किसी भी लक्ष्य पर उद्जन बम छोड़ सकते है। सोवियत संघ अपने शस्त्रागार से किसी भी आक्रान्ता को नष्ट कर सकता है। और कोई भी समुद्र आक्रमण से उसकी रक्षा नही कर सकता। अमरीकी सिनेटर श्री फ्रासिस केस ने जो कहा कि अमरीकी व्योम राकेट इङ्गलैण्ड मे प्रशिक्षित दलो को दिया जा सकता है और वहाँ से क्रेमलिन पर उद्जन बम गिराया जा सकता है, उन्होने इस बात की परवाह नही की कि हमले के जबाब मे वे सब योरोपीय देश होगे—जहाँ अमरीकी व्योम राकेट स्थापित किए जा रहे है। सिनेटर केस अमरीकी युद्ध विशेषज्ञो के उसी स्वार्थ की बात कर रहे है, जिनके अनुसार अन्य राष्ट्रो को युद्ध की जिम्मेदारी से लादा जाय। वे सोचते है कि अमरीका समुद्र पार, घर पर शाति से बैठा रहेगा।

विश्व आज अपने इतिहास के मोड पर खडा है। जो व्योम वितान इस धरिणी के प्राणियो को सूर्य की घातक किरणो से लक्षावधि शताब्दियो से बचाता रहा है, और आज जिसका उपयोग मानव जीवन को नवयुगनवजीवन प्रदान कर सकता है, उसी व्योम मे ये राजनीति-धुरीण पुरुष मानवविनाश का तानाबाना बुन रहे है।

कुछ दिन पूर्व सोवियत सरकार की ओर से सयुक्त राष्ट्रसघ की एक 'व्योम सस्था' स्थापित करने का सुझाव दिया था। बातचीत के रुख से प्रतीत होता है कि अमरीका भी रूस से मिलकर समझौता करने को तैयार है और व्योम का केवल शातिकालीन उपयोग होना स्वाभाविक है। आज पृथ्वी से दो ढाई हजार मील की ऊँचाई पर उपग्रह घूमने लगे है। व्योम मे स्थायी स्टेशन स्थापित करने की दिशा में रातदिन काम हो रहा है। अमेरिका ने केनवराल अन्तरीप मे सैतीस करोड डालर की एक व्योम-स्टेशन-योजना बनाई है। ऐसी दशा मे मास्को और वाशिंगटन परस्पर के सहयोग से व्योम नियन्त्रण योजना बना सकते है। प्रसन्नता की बात है कि दो बरस बाद रूस ने उस प्रस्ताव का महत्व समझा है जिसे पहिले पहिल अमेरिका ने उठाया था। परन्तु रूस चाहता है कि अमेरिका विदेशो मे स्थापित अपने सारे अड्डे समाप्त कर दे। चार अक्टूबर को अपना पहिला उपग्रह व्योम मे पहुचा कर, और फिर अब चन्द्रमा के चारो ओर घूमने वाला छै टन का भारी उपग्रह छोडने की तैयारी करके रूस ने यह प्रमाणित कर दिया है कि वह व्योम मे होने वाली दौड मे अमेरिका से आगे है। ससार के सम्मुख यह भय तो है कि व्योम का उपयोग जबाबी हमले के रूप में भी किया जा सकता है। अब अमेरिका से उसके समस्त सैनिक अड्डो की समाप्ति की शर्त लगाने से प्रथम रूस को भी विश्व के सामने यह आश्वासन देना चाहिए कि यदि अमेरिका ने अपने अड्डे—जो उसने द्वितीय महायुद्ध के बाद 'कम्युनिष्ट बाढ' को रोकने के लिए स्थापित किए थे—उठाले तो क्या व्योम से आक्रमण का खतरा मिट जायगा? इसके लिए रूस को पश्चिमी देशो का विश्वास प्राप्त करना चाहिए। पहिले भी वह द्वितीय विश्व युद्ध मे पश्चिमी राष्ट्रो तथा अमेरिका के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर मित्र शक्ति की भॉति सफलतापूर्वक रह चुका है। अब से कोई दो बरस प्रथम जनवरी सन् ५७ मे अमरीकी प्रतिनिधि श्री हेनरी केवट लाज ने व्योम के प्रति अमरीकी रवैये को व्यक्त किया था। तब तक किसी भी देश ने व्योम में उपग्रह नही छोड़े थे, न अन्तरमहाद्वीप प्रक्षेपणस्त्र ही सामने आये थे। श्री लाज ने कहा कि व्योम का उपयोग विशुद्ध वैज्ञानिक और शाति पूर्ण कार्यों के लिए होना चाहिए जिससे यह प्रगति मानव के लिए अभिशाप न बन कर वरदान बने। इसके वाद १२ जनवरी सन् १९५६ को अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहाबर ने तत्कालीन रूसी प्रधान मन्त्री बुलगानिन को यह सुझाव दिया था कि हम इस बात पर राजी हो जॉय कि व्योम का केवल शॉतिकालीन ही उपयोग किया जाय।

परन्तु आज सोवियत यूनियन और सयुक्त राज्य अमेरिका दोनो ही सैनिक उद्देश्यो से व्योम मे प्रक्षेपणास्त्रो का परीक्षण कर रहे है। अब ससार इतिहास की इस घड़ी में है जबकि इसी एक प्रश्न पर ससार के विनाश और विकास का फैसला होना है। इस सम्बन्ध मे भारत के प्रधान मन्त्री श्री जवाहरलाल के अनमोल शब्द हमारे कानो मे गूज रहे है जो उन्होने सर्व प्रथम रूसी स्पुतनिक के व्योम मे प्रविष्ट होने पर कहे थे—

"इस घटना से सिर्फ यह होगा कि लोग दूसरे ढग से सोचने को बाध्य होगे। मैं नहीं समझता कि इसका कोई प्रत्यक्ष या तुरन्त प्रभाव पड़ेगा। इससे यही होगा कि लोगो को यह महसूस करना पड़ेगा कि अब युद्ध-शस्त्री करण आदि की बात करना बेकार है जबकि यह युग इन सब चीजो से आगे बढ़ गया है। इस मानी मे हम कह सकते है—कि मानवता का तनाव कम करने की दिशा मे यह कुछ आगे बढ़ चुका है। यद्यपि दूसरे ढ़ग से। वैज्ञानिक और प्राविधिक प्रगति मानव बुद्धि की पहुंच से बहुत आगे बढ़ गई है। इस प्रगति और विज्ञान के युग मे हम लोगो के लिए सैनिक सधियो, शस्त्रीकरण की होड़, छोटे मोटे संघर्ष एव ऐसी अन्य बातों पर सोचना एक वाहियात सी बात प्रतीत होती है। हम बहुत पीछे पड़ गये है। यह तो ठीक वैसा ही मालूम होता है जैसे कोई अचानक आप से पाषाण युग के लोगो के तौर पर बात शुरू करदे। वैज्ञानिक और प्राविधिक प्रगति तथा मानव की विचार सीमा के बीच-मैं विशेष मानवो के बारे नहीं कहता-आज बहुत बड़ा अन्तर हो गया है। हमें इस युग के अनुसार चलना है जिसमे हम है। हम विमान पर यात्रा करते और राडर का उपयोग करते हैं पर वास्तव मे हम अतीत युग मे ही हैं। और संयुक्त राष्ट्र संघ मे भी उसी रूप मे बात करते है।

"जिस गति से विश्व वर्तमान मे आगे बढ़ रहा है, उसे देखते हुए यही उचित है कि साहित्य मे प्राविधिक और वैज्ञानिक पुट अधिक रक्खा जाय।"

इसी विचार से मै अपना यह 'खग्रास' आपको भेंट करता हूँ।

ज्ञानधाम-प्रतिष्ठान। -चतुरसेन
दिल्ली-शहादरा।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।