कुरल-काव्य/परिच्छेद ८४ मूर्खता

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २७६ से – २७७ तक

 

 

परिच्छेद ८४
मूर्खता

कहैं किसे हम मूर्खता तो सु लो पहिचान।
लाभप्रद का त्यागना, हानिहेतु आदान॥१॥
खोटे अनुचित कृन्य में, फँसना बिना विवेक।
प्रथमकोटि की मूर्खता, समझो यह ही एक॥२॥
धर्म अरुचि निर्दयपना, कहना निन्दित बात।
विस्मृत कर कर्तव्य को, बने मृढ़ प्रख्यात॥३॥
शिक्षित होकर दक्ष हो हो गुरुपद आरूढ़।
फिर भी इन्द्रियलम्पटी, उस सम और न मूढ़॥४॥
जीवन में ही पूर्व से, कहे स्वयं अज्ञान।
अहो नरक का, क्षु:बिल, मेरा भावी स्थान॥५॥
उच्चकार्य को मूढ़ नर, लेकर अपने हाथ।
करे न उसका नाश ही, बन्दी बनता साथ॥६॥
मूर्खमनुज की द्रव्य का, करें और ही भोग।
क्षुधाशान्ति के अर्थ पर, तरसें परिजनलोग॥७॥
कारणवश बहुमूल्य कुछ, पाजावे दि अज्ञ।
चेष्टाये उन्मत्त सीं, तो करता सावज्ञ॥८॥
मूढ़जनों की मित्रता, मन को बड़ी सुहात।
कारण टूटे से अहो, दुःख न हो कुछ ज्ञात॥९॥
बुधमण्डल में अज्ञ नर, त्यों ही दिखता हान।
पयसन घाल पलंग पर, ज्यों हो पैर मलीन॥१०॥

 

परिच्छेद ८४
मूर्खता

१—क्या तुम जानना चाहते हो कि मूर्खता किसे कहते है? जो वस्तु लाभदायक है उसको फेंक देना और हानिकारक पदार्थ को पकड़ रखना, बस यही मूर्खता है।

२—मूर्खता के सब भेदो में सबसे प्रमुख मूर्खता यह है कि ऐसे काम में अपने मन को प्रवृत्त करना जो कि अधम और अयोग्य है।

३—मूर्ख मनुष्य अपने कर्तव्य को भूल जाता है और मुख से निन्दित तथा कर्कष बातें बोलता है, वह उद्धन और निर्लज्ज हो जाता है तथा उसे कोई भी अच्छी बात नहीं सुहानी है।

४—एक आदमी खूब पढा लिया और चतुर है, साथ ही दुसरों का गुरु है, फिर भी वह इन्द्रिय-लिपसा का दास बना रहता है उससे बढ़कर मूर्ख और कोई नही है।

५—मूर्ख अपने विषय में अपने जीवन में स्वयं ही आगे से कह देता है कि उसका स्थान नरक के एक तुच्छ बिल में है।

६—उस मूर्ख को देखो जो एक महान कार्य को करने के लिए अपने हाथ में लेता है, वह उस काम को विगड़ ही न देगा किन्तु अपने को भी बेड़ियाँ पहिनने के योग्य बना लेगा।

७—यदि मूर्ख को सौभाग्य से बहुत सी सम्पत्ति मिल जावे तो उससे पराये लोग ही चैन उड़ाते है, किन्तु उसके बन्धुबान्धव तो भूखों ही मरते हैं।

८—यदि एक मूर्ख कोई बहुमूल्य वस्तु प्राप्त करले तो वह एक पागल और उन्मत्त की तरह व्यवहार करेगा।

९—मूर्ख लोगों को मित्रता बड़ी सुहावनी होती है, क्योंकि जब वह टूट जाती है तो कोई दुःख नही होता।

१०—योग्य पुरुषों की सभा मे किसी मूर्ख मनुष्य का जाना ठीक वैसा ही है जैसा कि साफ सुथरे पलंग के ऊपर मैला पैर रख देना।