कुरल-काव्य/परिच्छेद ६४ मंत्री

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २३६ से – २३७ तक

 

 

परिच्छेद ६४
मंत्री

जाने सब ही कार्य के, अवसर और उपाय।
तीक्ष्णबुद्धि वह भूप को, देवे मंत्रसहाय॥१॥
दृढ़निश्चय, सद्वश्यता, पौरुष, ज्ञान-अगार।
प्रजोत्कर्ष को नित्यरुचि, सचिव गुणों का सार॥२॥
भेद करे रिपुवर्ग में, मित्रों से अतिसख्य।
सन्धिकला में दक्ष जो, वही सचिव है भव्य॥३॥
साधन चुनने में कुशल, उद्यमप्रीति अपार।
सम्मति दे सुस्पष्ट जो, मंत्री गुणमणिसार॥४॥
नियम, क्षेत्र, अवसर जिसे, हों उत्तम विज्ञात।
भाषणपटु हो प्राज्ञतम, योग्य सचिव वह ख्यात॥५॥
प्राप्त जिसे स्वाध्याय से, प्रतिभा का आलोक।
उस नर को दुज्ञेय क्या, वस्तु अहो इस लोक॥६॥
विद्या पढ़ कर भी बनो, अनुभव से भरपूर।
और करो व्यवहार वह, अनुभव जहाँ न दूर॥७॥
बाधक अथवा अज्ञ भी, नृप हो यदि साक्षात।
तो भी मंत्री भूप को, बोले हित की बात॥८॥
मंत्रभवन में मंत्रणा, जो दे नाशस्वरूप।
सप्तकोटि रिपु से अधिक, वह अरि मंत्री रूप॥९॥
बिना विचारे बुद्धि से, मनसूवे निस्सार।
डग मग चंचल चित्तका, कर न सके व्यवहार॥१०॥

 

परिच्छेद ६४
मंत्री

१—देखो, जो मनुष्य महत्वपूर्ण उद्योगों को सफलतापूर्वक सम्पादन करने के मागों और साधनों को जानता है तथा उनको आरम्भ करने के समुचित समय को पहिचानता है सलाह देने के लिए वही योग्य पुरुष है।

२—स्वाध्याय, दृढ़-निश्चय, पौरुष, कुलीनता और प्रजा की भलाई के निमित्त सप्रेम चेष्टा ये मन्त्री के पांच गुण है।

३—जिसमे शत्रुओं के अन्दर फूट डालने की शक्ति है जो वर्तमान मित्रता के सम्बन्धों को बनाये रख सकता है और जो वैरी बन गये है उनसे सन्धि करने की सामर्थ्य जिसमे है बस वही योग्य मन्त्री है।

४—उचित उद्योगो को पसन्द करने और उनको कार्यरूप में परिणत करने के साधनो को चुनने की योग्यता तथा सम्मति देते समय निश्चयात्मक स्पष्टता ये परामर्शदाता के आवश्यक गुण हैं।

५—जो नियमों को जानता है तथा विपुल ज्ञान से भरा है जो समझ बूझकर बात करता है और जिसे प्रत्येक प्रसंग की परख है बस वही तुम्हारे योग्य मन्त्री है।

६—जो पुस्तको के ज्ञान द्वारा अपनी स्वाभाविक बुद्धि की अभिवृद्धि कर लेते है, उनके लिए कौनसी बात इतनी कठिन है जो उनकी समझ में न आ सके।

७—पुस्तकी ज्ञानमें यद्यपि तुम सुदक्ष हो फिर भी तुम्हे चाहिए कि तुम अनुभव जन्य ज्ञान प्राप्त करो और उसके अनुसार व्यवहार करो।

८—सम्भव है कि राजा मूर्ख हो और पग पग पर उसके काम में अड़चनें डाले फिर भी मन्त्री का कर्तव्य है कि वह सदा वही राह उसे दिखावे कि जो नियम सगत और समुचित हो।

९—देखो, जो मन्त्री, मंत्रणा-गृह में बैठकर, अपने राजा का सर्वनाश करने की युक्ति सोचता है, यह सप्तकोटि वैरियो से भी अधिक भयंकर है।

१०—चंचलचित्त का पुरुष सोचकर ठीक रीति निकाल भी ले पर उसे व्यावहारिक रूप देते हुए वह डगमगावेगा और अपने अभिप्राय को कभी पूरा न कर सकेगा।