कुरल-काव्य/परिच्छेद ६० उत्साह

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २२८ से – २२९ तक

 

 

परिच्छेद ६०
उत्साह

उत्साही नर ही सदा, हैं सच्चे धनवान।
अन्य नहीं निजवित्त के, स्वामी गौरववान॥१॥
सच्चा धन इस विश्व में, नर का ही उत्साह।
अस्थिर वैभव अन्य सब, बहते काल-प्रवाह॥२॥
साधन जिनके हाथ में, है अटूट उत्साह
क्या, निराश हों, धन्य वे, भरते दुःखद आह॥३॥
श्रम से भगे न दूर जो, देख विपुल आयास[]
खोज सदन उस धन्य का करता भाग्य निवास॥४॥
तरुलक्ष्मी की साख ज्यों, देता नीर प्रवाह।
भाग्यश्री की सूचना, देता त्यों उत्साह॥५॥
लक्ष्य मदा ऊँचा रखो, यह ही चतुर सुनीति।
सिद्धि नहीं जो भी मिले, तो भी मलिन न कीर्ति॥६॥
हतोत्साह होता नहीं, हारचुका भी वीर।
पैर जमाता और भी, गज खा तीखे-तीर॥७॥
हो जावे उत्साह ही, जिसका क्रम से मन्द।
उस नर के क्या भाग्य में, वैभव का आनन्द॥८॥
सिंह देख गजराज का, जब मन ही मरजाय।
कौन काम के दन्त तब, और वृहत्तर-काय॥९॥
है अपार उत्साह ही, भू में शक्ति महान।
हैं पशु ही उसके बिना, आकृति में असमान॥१०॥

 

परिच्छेद ६०
उत्साह

१—वे ही सम्पत्तिशाली कहे जा सकते है जिनमे उत्साह है और जिनमे यह उत्साह नही है वे क्या वास्तव में अपने धन के स्वामी है?

२—पुरुषार्थ ही यथार्थ में मनुष्य की सच्ची सम्पत्ति है, क्योकि दूसरी सम्पति तो स्थायी नहीं रहती, वह तो मनुष्य के हाथ से एक दिन अवश्य ही चली जावेगी।

३—वे मनुष्य धन्य है, जिनके हाथ में अटूट उत्साह रूपी साधन है, उनको यह कहकर कभी निराश न होना पड़ेगा कि हाय! हाय हमारा तो सर्वनाश हो गया।

४—धन्य है वह पुरुष जो परिश्रम से कभी पीछे नहीं हटता, भाग्यलक्ष्मी उसके घर की राह पूछती हुई आती है।

५—झाड़ तथा पौधों को सीचने के लिए जो पानी दिया जाता है उससे जिस प्रकार अच्छी बहार का पता लगता है, उसी प्रकार आदमी का उत्साह उसके भाग्यशीलता का परिचायक है।

६—अपने उद्देश्यों को उदात्त बनाये रहो, कारण यदि वे विफल रहे तो भी तुम्हारे यश को कलङ्क न लगेगा।

७—साहसी पुरुष पराजित होने पर भी निरुत्साहित नहीं होते। हाथी तीखे वाणों के गहरे आघात होने पर अपने पैरों को और भी दृढता से जमा देता है।

८—उन पुरुषों को देखो जिनका उत्साह शनै शनै क्षीण होरहा है। अपार उदारता के वैभव का आनन्द उनके भाग्य मे नही है।

९—जब हाथी सिंह को अपने ऊपर आक्रमण के लिए तैयार देखता है तब उसका हृदय बैठ जाता है। बताइये इतना बड़ा शरीर और उसके सुतीक्ष्ण लम्बे दाँत किस काम के?

१०—अपार उत्साह ही शक्ति है। जिसमे उत्साह नहीं वे तो निरे पशु है, उनका मानवशरीर तो एक मात्र शारीरिक विशेषता को ही प्रगट करने वाला है।

  1. क्लेश।