कुरल-काव्य/परिच्छेद ५ गृहस्थाश्रम

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ ११८ से – ११९ तक

 

 

परिच्छेद ५
गृहस्थाश्रम

आश्रम यधपि चार हैं, उनमें धन्य गृहस्थ।
मुख्याश्रय सबका वही, इससे श्रेष्ठ गृहस्थ॥१॥
मृतकों का सच्चा सखा, दीनों का आधार।
है अनाथ का नाथ वह, गृही दया साकार॥२॥
देव अतिथि पूजन सदा, स्वोन्नति निज जन भर्म[]
रक्षण पूर्वज कीर्ति का, पाँच गृही के कर्म॥३॥
दान बिना भोजन तथा, रुचै न निन्दा अंश।
वीजशून्य होता नहीं, उसका कभी सुवश॥४॥
धर्मराज्य के साथ में, जिसमें प्रेम-प्रवाह।
तोष-सुधा उस गैह में, पूर्ण फलें सब चाह॥५॥
पालन यदि करता रहे, मनुज गृही के कर्म।
आवश्यक क्यों हों उसे, अन्याश्रम के धर्म॥६॥
जो गृहस्थ करता सदा, धर्म-सुसंगत कार्य।
वह मुमुक्षुगण में कहा, परमोत्तम है आर्य॥७॥
साधक जो पर कार्य का, तथा उदारचरित्र।
है गृहस्थ वह सत्य ही, ऋषि से अधिक पवित्र॥८॥
धर्म तथा आचार का, है सम्बन्ध विशेष।
गृहजीवन के साथ में, भूषण कीर्तिविशेष॥९॥
जिस विधि करना चाहिए, करे उभी विधि कार्य।
है गृहस्थ वह देवता, कहते ऐसा आर्य॥१०॥

 

परिच्छेद ५
गृहस्थाश्रम

१—गृहस्थाश्रम में रहने वाला मनुष्य अन्य तीनों आश्रमों का प्रमुख आश्रय है।

२—गृहस्थ अनाथों का नाथ, गरीबों का सहायक और निराश्रित मृतकों का मित्र है।

३—पूर्वजों की कीर्ति की रक्षा, देवपूजन, अथितिसत्कार, बन्धु- बान्धवो की सहायता और आत्मोन्नति, ये गृहस्थ के पाँच कर्म है।

४—जो बुराई से डरता है और भोजन करने से पहिले दूसरों को दान देता है, उसका वंश कभी निर्बीज नही होता।

५—जिस घर में स्नेह और प्रेम का निवास है, जिसमे धर्म का साम्राज्य है वह सम्पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है—उसके सब उद्देश्य सफल होते है।

६—यदि मनुष्य गृहस्थ के सब कर्त्तव्यों को उचित रूप से पालन करे, तब उसे दूसरे आश्रमों के धर्मों के पालने की क्या आवश्यकता?

७—मुमुक्षुओं में श्रेष्ठ वे लोग है जो धर्मानुकूल गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करते है।

८—जो गृहस्थ दूसरे लोगों को कर्तव्यपालन में सहायता देता है और स्वय भी धार्मिक जीवन व्यतीत करता है, वह ऋषियों से अधिक पवित्र है।

८—सदाचार और धर्म का विशेषतया विवाहित जीवन से सम्बन्ध है और सुयश उसका आभूषण है।

९—जो गृहस्थ उसी तरह आचरण करता है जिस तरह कि उसे करना चाहिए, वह मनुष्यों में देवता समझा जायगा।

  1. भरण-पोषण।