कुरल-काव्य/परिच्छेद ५४ निश्चिन्तता से बचाव

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ २१६ से – २१७ तक

 

 

परिच्छेद ५४
निश्चिन्तता से बचाव

अमित कोप से निद्य वह, बेखटकी है तात।
अमिट अल्प सन्तोष से, मन में जो जमजात॥१॥
जैसे दुष्ट दरिद्रता, करती प्रतिभानाश।
वैसे ही निश्चिन्तता, करती वैभवनाश॥३॥
कभी नहीं निश्चिन्त को, होती धन की आय।
ऐसा करते अन्त में, निर्णय सत्र आम्नाय॥३॥
दुर्गाश्रय का कौनसा, कायर को उपयोग।
बहुसाधन से सुस्त के, क्या बढ़ते उद्योग॥४॥
निजरक्षा के अर्थ भी, करता सुस्त प्रमाद।
पीछे संकटग्रस्त हो, करता वही विषाद॥५॥
पर से शुभ वर्ताव को, सजग मनुज यदि तात।
तल में फिर कौन है, इससे बढ़कर बात॥६॥
ध्यान लगा जो चित्त से, कर सकता सब कार्य।
नहीं अशक्य उस आर्य को, भू में कुछ भी कार्य॥७॥
विज्ञप्रदर्शित कार्य को, करे तुरंत ही भूप।
शुद्धि न होगी अन्यथा, जीवन भर अनुरूप॥८॥
सुस्ती का जब चित्त में, होवे कुछ भी भान।
मिटे उसीसे लोग जो, उनका कर तब ध्यान॥९॥
रखता है निज ध्येय पर, दृष्टि सदा जो आर्य।
सहज सिद्धि उसके यहाँ, मनचाहे सब कार्य॥१०॥

 

परिच्छेद ५४
निश्चिन्तता से बचाव

१—अत्यन्त रोष से भी अचेत अवस्था बहुत बुरी है जो कि अहङ्कार पूर्ण अल्प सन्तोष से उत्पन्न होती है।

२—निश्चिन्तता के भ्रमात्मक विचार कीर्ति का भी नाश करते है जैसे दरिद्रता बुद्धि को कुचल देती है।

३—वैभव असावधान लोगों के लिए नहीं है ऐसा ससार के सभी विज्ञजनों का निश्चय है।

४—कापुरुष के लिए दुर्गो से क्या लाभ है। और असावधान के लिए पर्याप्त सहायक उपायो का क्या उपयोग ?

५—जो पहिले से अपनी रक्षा में प्रमादी रहता है तब वह अपनी निश्चिन्तता पर पीछे से विलाप करता है, जब कि वह विपत्ति से विस्मित हो जाता है।

६—यदि तुम अपनी सावधानी मे हर समय और हरेक प्रकार के आदमियों से रक्षा करने मे सुस्ती नहीं करते तो इसके बराबर और क्या बात है!

७—उस मनुष्य के लिए कुछ भी असम्भव नही है जो कि अपने काम मे सुरक्षित और सजग रहने का विचार रखता है।

८—राजा को चाहिए कि विद्वानों द्वारा प्रशसित कार्यों में अपने को परिश्रमपूर्वक जुटा दे। यदि वह उनकी उपेक्षा करता है तो वह दुख उठाने से कभी भी नही बच सकता।

९—जब तुम्हारी आत्मा अहङ्कार और उत्सेक से मोहित होने को हो तब मस्तक में उनका स्मरण रक्खो जो कि लापरवाही और वेसुवपन से नष्ट हो गये है।

१०—निश्चय ही एक मनुष्य के लिए यह सरल है वह जो कुछ इच्छा करे उसको प्राप्त करले, लेकिन वह अपने उद्देश को निरन्तर अपने मस्तिष्क के सामने रवखे।