कुरल-काव्य/परिच्छेद ४० शिक्षा

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १८८ से – १८९ तक

 

 

परिच्छेद ४०
शिक्षा

जो कुछ शिक्षा योग्य है, वह सब सीखो तात।
शिक्षण के पश्चात् ही, चलो उसी विध भ्रात॥१॥
जीवित, मानव जाति के, दो ही नेत्र विशेष।
अक्षर कहते एक को, संख्या दूजा शेष॥२॥
चक्षु सहित वह एक ही, जिसमें ज्ञान पवित्र।
गड्ढे केवल अन्य के, मुख पर बने विचित्र॥३॥
प्राज्ञपुरुष आते समय, देते हर्ष महान।
पर वे ही जाते समय, कर देते मन म्लान॥४॥
भिक्षुक सम यदि भर्त्सना, करते हों गुरुदेव।
फिर भी सीखो अन्यथा, तजना अधम कुटेव॥५॥
खोदो जितना स्रोत को, उतना मिलता नीर।
सीखो जितना ही अधिक, उतनी मति गम्भीर॥६॥
शिक्षित को सारी मही, घर है और स्वदेश।
फिर क्यों चूके जन्म भर, लेने में उपदेश॥७॥
जो कुछ सीखा जीव ने, एक जन्म में ज्ञान।
उससे अग्रिम जन्म भी, होते उच्च महान॥८॥
मुझ सम ही यह अन्य को, देता मनमें मोह।
इससे ही बुध चाव से, करते ज्ञान-विनोद॥९॥
विद्या ही नर के लिए, अविनाशी त्रुटिहीन।
निधि है, जिससे अन्य धन, होते शोभाहीन॥१०॥

 

परिच्छेद ४०
शिक्षा

१—प्राप्त करने योग्य जो ज्ञान है, उसे सम्पूर्ण रूप से प्राप्त करना चाहिए और प्राप्त करने के पश्चात् तदनुसार व्यवहार करना चाहिए।

२—मानव जाति की जीती जागती दो आँखें है, एक को अक कहते हैं और दूसरे को अक्षर।

३—शिक्षित लोग ही आँख वाले कहलाये जा सकते है, अशिक्षितों के शिर मे केवल दो गड्ढे होते है।

४—विद्वान् जहाँ कही भी जाता है अपने साथ आनन्द ले जाता है, लेकिन जब वह विदा होता है तो पीछे दु ख छोड़ जाता है।

५—यद्यपि तुम्हे गुरु या शिक्षक के सामने उतना ही अपमानित और नीचा बनना पड़े जितना कि एक भिक्षुक को धनवान् के समक्ष बनना पड़ता है, फिर भी तुम विद्या सीखो। मनुष्यों में अधम वे ही लोग है जो विद्या सीखने से विमुख होते है।

६—खोते को तुम जितना ही खोदोगे उतना ही अधिक पानी निकलेगा। ठीक इसी प्रकार तुम जितना ही अधिक सीखोगे उतनी ही तुम्हारी विद्या में वृद्धि होगी।

७—विद्वान् के लिए सभी जगह उसका घर है और सभी जगह उसका स्वदेश है। फिर लोग मरने के दिन तक विद्या प्राप्त करते रहने में असावधानी क्यो करते है?

८—मनुष्य ने एक जन्म में जो विद्या प्राप्त कर ली है वह उसे समस्त आगामी जन्मो में भी उच्च और उन्नत बना देगी।

९—विद्वान् देखता है कि जो विद्या उसे आनन्द देती है वह संसार को भी आनन्दप्रद होती है और इसीलिए वह विद्या को और भी अधिक चाहता है।

१०—विद्या मनुष्य के लिए त्रुटिहीन एक अविनाशी निधि है, उसके सामने दूसरी सम्पत्ति कुछ भी नही है।