कुरल-काव्य/परिच्छेद १ ईश्वर-स्तुति

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १०९ से – १११ तक

 
 

कुरल-काव्य


 

हिन्दी


 

गद्य-पद्यानुवाद

 

परिच्छेद १
ईश्वर-स्तुति

शब्द लोक की आदि में, ज्यों 'अ' वर्ण आख्यात।
आदीश्वर सबसे प्रथम, पुण्यपुरुष त्यों ख्यात॥१॥
जो अर्चें सर्वज्ञ के, कभी न तूने पाद।
तो तेरा पाण्डित्य भी, व्यर्थ रहा वकवाद॥२॥
शरण लिये जिसने यहाँ, उस विभु के पदपद्म।
कनक कमलगामी वही, करे उसे सुखसद्म॥३॥
वीतराग पदपद्म का, जो रागी दिनरात।
वह बड़भागी धन्य है, उसे न दुःखाघात॥४॥
गाते हैं उत्साह से, जो प्रभु के गुण वृन्द।
वे नर भोगें क्या कभी, कर्मों के दुखद्वन्द॥५॥
स्वयं जयी उस ईश ने, कथन किया जो धर्म।
दीर्घवयी होंगे उसे, समझ करे जो कर्म॥६॥
भवसागर गहरा बड़ा, जिसमें दुःख अनेक।
इनसे वह ही बच सके, शरण जिसे प्रभु एक॥७॥
धर्मसिन्धु मुनिराज के, चरणों में जो लीन।
योवन धन के ज्वार में, तिरता वही प्रवीण॥८॥
क्रियाहीन इन्द्रिय सदृश, भू में वे निस्सार।
अष्टगुणी प्रभु के चरण, जो न भजे विधिवार॥९॥
जन्ममृत्यु के जलधि को, करते वे ही पार।
शरण जिन्हें प्रभु के चरण, तारण को पतवार॥१०॥

 

परिच्छेद १
ईश्वर–स्तुति

१—"अ" जिस प्रकार शब्द-लोक का आदि वर्ण है, ठीक उसी प्रकार आदिभगवान पुराण-पुरुषों में आदिपुरुष है।

२—यदि तुम सर्वज्ञ परमेश्वर के श्रीचरणों की पूजा नहीं करते हो तो तुम्हारी सारी विद्वत्ता किस काम की?

३—जो मनुष्य उस कमलगामी परमेश्वर के पवित्र चरणों की शरण लेता है, वह जगत मे दीर्घजीवी होकर सुख-समृद्धि के साथ रहेगा।

४—धन्य है वह मनुष्य, जो आदिपुरुष के पादारविन्द मे रत रहता है। जो न किसी से राग करता है और न घृणा, उसे कभी कोई दुख नही होता।

५—देखो, जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उत्माहपूर्वक गान करते हैं, उन्हें अपने भले-बुरे कर्मों का दुखद फल नही भोगना पडता।

६—जो लोग उस परम जितेन्द्रिय पुरुष के दिखाये धर्ममार्ग का अनुसरण करते है, वे चिरजीवी अर्थात् अजर अमर बनेगे।

७—केवल वे ही लोग दुखों से बच सकते हैं, जो उस अद्वितीय पुरुष की शरण में आते है।

८—धन वैभव और इन्द्रिय-सुख के तूफानी समुद्र को वे ही पार कर सकते हैं, जो उस धर्मसिन्धु मुनीश्वर के चरणों मे लीन रहते है।

९—जो मनुष्य अष्ट गुणों से मण्डित परब्रह्म के आगे शिर नहीं झुकाता, वह उस इन्द्रिय के समान है, जिसमे अपने गुणों को प्रहण करने की शक्ति नही है।

१०—जन्म-मरण के समुद्र को वे ही पार कर सकते है, जो प्रभु के चरणों की शरण मे आ जाते है। दूसरे लोग उसे तर ही नहीं सकते।