कुरल-काव्य/परिच्छेद ११ कृतज्ञता

कुरल-काव्य
तिरुवल्लुवर, अनुवादक पं० गोविन्दराय जैन

पृष्ठ १३० से – १३१ तक

 

 

परिच्छेद ११
कृतज्ञता

करुणा करते श्रेष्ठजन, बिना रखे आभार।
उसके बदले को नहीं, सुर-नर का अधिकार॥१॥
आवश्यकता के समय, अनुकम्पा का दान।
जो मिलता वह अल्प भी, भू से अधिक महान॥२॥
स्वार्थत्याग के साथ में, जो होवे उपकार।
तो पयोधि से भी अधिक, उसकी शक्ति अपार॥३॥
पर से यदि होता कभी, राई-सा उपकार।
वह कृतज्ञ नर को दिखे, ताड़तुल्य हर-बार॥४॥
नहीं अवधि आभार की, अवलम्बित उपकार।
उपकृत की ही योग्यता, है उसका आधार॥५॥
सन्तों की वर प्रीति का, करो नहीं अपमान।
दुःख समय के बन्धु भी, मत त्यागो मतिमान॥६॥
आर्तजनों का कष्ट से, जो करता उद्धार।
जन्म जन्म भी नाम ले, उसका नर साभार॥७॥
सचमुच है वह नीचता, यदि भूले उपकार।
उस सम और न उच्चता, जो भूले अपकार॥८॥
वैरी का भी प्राज्ञ को, पहिले का उपकार।
स्मृत होते भूलती, तुरंत व्यथा भयकार॥९॥
अन्य दोष से निन्ध का, सम्भव है उद्धार।
पर कृतघ्न हतभाग्य का, कभी नहीं उद्धार॥१०॥

 

परिच्छेद ११
कृतज्ञता

१—आभारी बनाने की इच्छा से रहित होकर जो दया दिखाई जाती है, स्वर्ग और पृथ्वी दोनों मिल कर भी उसका बदला नहीं चुका सकते।

२—अवसर पर जो उपकार किया जाता है, वह देखने में छोटा भले ही हो, पर जगत में सबसे भारी है।

३—प्रत्युपकार मिलने की चाह के बिना जो भलाई की जाती है, वह सागर से भी अधिक बड़ी है।

४—किसी से प्राप्त किया हुआ लाभ, राई की तरह छोटा ही क्यों न हो, किन्तु समझदार आदमी की दृष्टि में बह ताडवृक्ष के बराबर है।

५—कृतज्ञता की सीमा, किये हुए उपकार पर अवलम्बित नहीं है, उसका मूल्य उपकृत व्यक्ति की लायकी पर निर्भर है।

६—महात्माओं की मित्रता की अवहेलना मत करो और उन लोगों का त्याग मत करो जिन्होंने संकट के समय तुम्हारी सहायता की है।

७—जो किसी को कष्ट से उबारता है, जन्म जन्मान्तर तक उसका नाम कृतज्ञता के साथ लिया जायगा।

८—उपकार को भूल जाना नीचता है, लेकिन यदि कोई भलाई के बदले बुराई करे तो उसको तुरन्त ही भुला देना बड़प्पन का चिह्न है।

९—हानि पहुँचाने वाले का यदि कोई उपकार स्मृत हो आता है तो महा भयङ्कर व्यथा पहुँचाने वाली भी चोट उसी क्षण भूल जाती है।

१०—और सब दोषों से कलङ्कित मनुष्यों का तो उद्धार हो सकता है, किन्तु अभागे अकृतज्ञ मनुष्य का कभी उद्धार न होगा।