कुँवर उदयभान चरित
इंशा अल्ला खां

लखनऊ: Anglo-Oriental Press, पृष्ठ ३ से – १० तक

 

कहानी का उभार और बोल चालकी दुल्हन का सिङ्गार॥

किसी देसमें किसी राजाके घर एक बेटा था उसे उसके मा बाप और सब घरके लोग कुँवर उदयभान कहके पुकारते थे। सचमुच उसके जोबनकी जोतमें सूरजकी एक सूत आमिली थी उसका अच्छापन और भला लगना कछ ऐसा न था जो किसीके लिखने और कहनेमें आसके पन्दरह बरस भरके सोलहवें में पांव रक्खा था कछ योहीसी उसकी मसें भीगती चळी थीं अकड़ मकड़ उसमें बहुतसी समारही थी किसीको कछ न समझता था पर किसी बातके सोचका घरघाट पाया न था और चाव की नदी का पाट उसने देखा न था एक दिन हरियाली देखनेको अपने घोड़े पर चढ़के अठखेलपन और अल्हड़पन के साथ देखता भालता चला जाता था इतनेमें एक हिरनी जो उसके साम्हने आई तो उसका जी लोट पोट हुआ उस हिरनीके पीछे सबको छोड़छाड़ कर घोड़ा फेंका भला कोई धोड़ा उसको पा सकता था? जव सूरज छुपगया और हिरनी आंखोंसे ओझलहुई तबतो यह कुँवर उदयभान भूखा प्यासा और उदासा अँभाइयां और अंगड़ाइयां लेता हक्का बक्का होके लगा आसरा ढूंढने इतनेमें कुछ अमरइयां ध्यान चढ़ी उधर चलनिकला तो क्या देखता है चालीस पचास रण्डियां एकसे एक जोवनमें अगली झूळा डाले हुए पड़ी झूलरही हैं और सावन गातियां हैं जो उन्हों ने उसको देखा तू कौन तू कौंनकी चिंघाड़सी पड़गई।

दोहा। कोई कहती थी यह उचक्का है। कोई थी कहती एक पक्का है।।

उन सवोंमेंसे एकके साथ इसकी आंख लड़गयी। वही झूलने वाली लाल जोड़ा पहनेहुए जिसको सबरानी केतकी कहते थे उसकेभी जीमें इसकी चाहने घरकिया पर कहने सुन्ने को उसने बहुतसी नाहनूहकी इस लग चलनेको भला क्या कहतेहैं और कहा जो तुमझटसे टपकपड़े यह न जाना जो यहां रण्डियां अपने झूलरही हैं अजी तुम जो इस रूप के साथ बेधड़क चलेआये हो! ठण्डी ठण्डी छांह चले जाओ। तब उन्हों ने मसोस के मलोळा खाके कहा इतनी रुखाइयां न दीजिये। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़ की छांह में ओस का बचाव करके पड़ रहूंगा बड़े तड़के धुन्धलके उठकर जिधर मुंह पड़ेगा चला जाऊंगा। किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पीछे सब लोगों को छोड़ कर घोड़ा फेंका था जब तळक उजाला रहा उसी के ध्यान में था। जब अंधेरा छागया और जी बहुत घबरागया इन अमरइयों का आसरा ढूंढ़कर यहां चला आया हूं। कुछ रोक टोक तो न थी जो माथा ठनक जाता और रुक रहता। सिर उठाये हांपता हुआ चला आया क्या जानता था पद्मनियां यहां पड़ी झूलती पींगें चढ़ा रहीं हैं पर योंही बदी थी बरसों मैं भी झूला करूंगा। यह बात सुनकर जो लाल जोड़े वाली सब की सिरधरी थी उसने कहा हां जी बोलियां ठोळियां न मारो। इन को कह दो जहां जी चाहे अपने पड़ रहें और जो कुछ खाने पीने को मागे सो इन्हें पहुंचा दो। घर आये को किसी ने आज तक मार नहीं डाला इनके मुंह का डौल गाल तमतमाये और होंठ पड़पड़ाये और घोड़े का हांपना और जी का कांपना और घबराहट और थरथराहट और ठण्डी सांसें भरना और निढाल होकर गिरे पड़ना इनको सच्चा करता है। बात बनाई और सचौटी की कोई छुपती है! पर हमारे और इनके बीच में कुछ ओटसी कपड़े लत्ते की कर दो। इतना आसरा पाके सब से परे कोने में जो पांच सात छोटे छोटे पौदे से थे उनकी छांह में कुंवर उदयभान ने अपना बिछोना किया सिरहाने हाथ धरके चाहता था सो रहे पर नींद कहीं चाहत की लगावट में आती थी? पड़ा पड़ा अपने जी से बातें कर रहा था। इतने में क्या होता है जो रात सांय सांय बोळने लगती है और साथ बालियां सब सो रहती हैं रानी केतकी अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहती है अरी तूने कुछ सुना है मेरा जी उस पर आगया और किसी डौल से नहीं थम सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब जो होनी हो सो हो। सिर रहता रहे जाता जाय मैं उस के पास जाती हूं। तू मेरे साथ चल पर तेरे पांव पड़ती हूं कोई सुनने न पावे। अरी यह मेरा जोड़ा मेरे और उस के बनानेवाळे ने मिळा दिया। मैं इसी लिये इन अमरइयों में आयी थी। रानी केतकी मदनबान का हाथ पकड़े वहां आ पहुंचती है जहां कुंवर उदयभान लेटे हुए कुछ सोच में पड़े पड़े बड़बड़ा रहे थे। मदनवान आगे बढ़के कहने लगी तुम्हें अकेला जान के रानी जी आप आई हैं। कुंवर उदयभान यह सुनके उठ बैठे और यह कहा क्यों न हो। जीको जीसे मिलाप है। कुँवर और रानी दोनों चुपचाप बैठे थे। पर मदनबान दोनोंके बदन गुदगुदा रही थी। होते २ अपने २ पते सवने खोले। रानीका पता यह खिला। राजा जगतपरकासकी बेटी है। और उनकी मा रानी कामलता कहाती हैं। इनको इनके मा बाप ने कह दिया है एक महीने पीछे अमरइयों में जाके झूल आया करो आज वही दिन था जो तुम से मुठभेड़ हो गयी। बहुत महाराजों के कुंवरों की बातें आयी पर किसी पर इनका ध्यान न चढ़ा तुम्हारे धन्य भाग्य जो तुन्हारे पास सब से छुपके मैं जो इनकी लड़कपन की गुइयां हूं मुझे अपने साथ लेके आई हैं। अब तुम अपनी कहानी कहो कि तुम किस देस के कौन हो उन्होंने कहा मेरा बाप राजा सूरजभान और मा रानी लछमीवास हैं। आपुस में जो गठजोड़ा हो जाय तो अनोखी अचरज और अचम्भे की बात नहीं योंही आगे से होती चली आई है। जैसा मुंह वैसा थपेड़ा जोड़ तोड़ टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चित्त चाही बात अच्छी लगेगी। पर हम तुम दोनों के जीका गठजोड़ा चाहिये। इसमें मदनवान बोळ उठी सो तो हुआ अब अपनी २ अंगूठियां हेर फेर करलो और आपुसमें लिखौटी भी लिखदो फिर कछ हिचर मिचर न रहे। कुँवर उदयभान ने अपनी अंगूठी रानी केतकी को पहनादी। और रानी केतकी ने अपना छल्ला कुँवर उदयभानकी उँगलीमें डाल दिया। और एक धीमीसी चुटकी लेली। इसमें मदनबान बोल उठी जो सच पूछो तो इतनी भी बहुत हुई इतना बढ़ चलना अच्छा नहीं मेरे सिर चोट है। अब उठ चलो और इनको सोनेदो और रो पड़े रौनी। बात चीत तो ठीक हो चुकी थी पिछळे पहरसे रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आयी थीं उधर चली गयीं और कुँवर उदयभान अपने घोड़ेकी पीठ लगकर अपने लोगोंसे मिळके अपने घर पहुंचे॥ कुंवरजीका अनूप रूप क्या कहूं। कुछ कहनेमें नहीं आता। खाना न पीना न लगचलना न किसी से कुछ कहना न सुन्ना जिस ध्यानमें थे उसीमें गुथे रहना और घड़ी २ कुछ २ सोच २ सिर धुन्ना। होते २ इस बात की ळोगोंमें चर्चा फैल गयी। किसी किसीने महाराज और महारानी से भी कहा कुछ दालमें काला है। वह कुँवर उदयभान जिससे तुम्हारे घरका उजाला है इन दिनों कछ उसके बुरे तेवर और बेडौल आंखें दिखाई देती हैं। घरसे बाहर पांव नहीं धरता। घरवालियां जो किसी डौलसे बहलातियां हैं तो कछु नहीं करता एक ऊंची सांसलेता है और जो बहुत किसीने छेडा तो छपरखट पर जाके अपना मुहँ लपेट के आठ आठ आंसू पड़ा रोता है। यह सुनतेही मा बाप कुँवरके पास दौड़े आये। गले लगाया मुंह चूमा पांव पर बेटेके गिरपड़े हाथ जोड़े और कहा जो अपने जी की बात है सो कहते क्यों नहीं क्या दुखड़ा है जो पड़े पड़े कराहते हो राजपाट जिसको चाहो देडालो कहो तो तुम क्या चाहते हो तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह है क्या जो हो नहीं सकता मुंह से बोलो जी खोलो जो कहने में कछ सुचकते हो तो अभी लिख भेजो जो कछ लिखोगे ज्यों की त्यों वही कर तुम्हें दियेजावेंगे जो तुम कहो कूये में गिरपड़ो तो हम दोनों अभी कूयेमें गिरपड़ते हैं। कहो सिर काटडालो तो सिर अपने काट डालतेहैं कुंवर उदयभान वह जो बोलतेही न थे लिखभेजनेका आसरा पाके इतना बोले अच्छा आप सिधारिये मैं लिख भेजता हूं पर मेरे उस लिखभेजनेको मेरे मुंहपर किसी ढबसे न लाना। नहीं तो मैं बहुत लजा ऊंगा इसीलिये मुखबात होकर मैंने कुछ न कहा और यहलिखभेजा 'अब जो मेरा जी नाक में आगया और किसी ढब न रहागया और आप ने मुझे सौ २ रूपसे खोला और बहुतसा टटोला तबतो लाज छोड़के हाथ जोडंके मुंहको फोड़के घिघियाके यह लिखताहूंजगमें चाहके हाथों किसी को सुख नहीं है भला वह कौन है जिसको दुख नहीं। वह उस दिन जो मैं हरयाली देखनेको गया था वहां जो मेरे साम्हने एक हिरनी कनौटियां उठाये हुए होली थी उसके पीछे मैंने घोड़ा बगछुट फेंका जबतक उजाला रहा उसीकी धुनमें चलागया जब अंधेरा होगया और सूरज डूबा तब जी मेरा बहुत उदासहुआ अमरइयां ताकके मैं उनमें गया तो उन अमरइयोंका पत्ता २ मेरे जीका गाहक हुआ। वहांका यह सुफल है कुछ रण्डियां झूला झूल रही थीं उन सबकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराजा जगतपरकासकी बेटी हैं उन्होंने यह अंगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अगूठी उन्होंने लेली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अंगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखेहुएके साथ पहुंचती है आप देखलीजिये और जिसमें बेटेका जी रहजाय वह कीजिये" महाराज और महारानी उस बेटेके लिखेहुए पर सोनेके पानीसे यों लिखते हैं "हम दोनोंने उस अंगूठी और लिखौटको अपने आंखोंसे मला अब तुम अपने जीमें कछ कुट्टो मत जो रानी केतकीके मा बाप तुम्हारी बात मानते हैं तो हमारे समधी और समधन हैं दोनों राज एक होजावें और जो कुछ नाहनूहकी ठहरेगी तो जिस डौलसे बन आवेगा ढाल तलवार के बल तुम्हारी दुल्हन हम तुमसे मिळावेंगे आजसे उदास मत रहाकरो खेलो कूदो बोलो चालो आनन्दें करो। हम अच्छी घड़ीशुभ महूरत शोचके तुम्हारी सुसरालमें किसी बाम्हनको भेजते हैं जो बात चितचाही ठीक करलावे' बाम्हन जो शुभघड़ी देखके हडबडीसे गया था उसपर बड़ी कड़ी पड़ी। सुन्तेही रानी केतकी के मा बापने कहा उनके हमारे नाता नहीं होने का उनके बाप दादे हमारे बाप दादे के आगे सदा हाथ जोड़ के बातें करते थे और जो टुक तेवरी चढ़ी देखते थे तो बहुत डरते थे क्या हुआ जो अब वह बढ़गये और ऊंचे पर चढ़गये जिसके माथे हम बांयें पांव के अंगूठे से टीका लगावें वह महाराजों का राजा हो जाय किसका मुँह जो यह बात हमारे मुँह पर लाये बाम्हन ने मनमें जल भुन के कहा अगले भी इसी विचार में थे और भरी सभा में यही कहते थे हम में उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं है पर कुँवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती नहीं तो ऐसी ओछी बात कब हमारे मुँह से निकलती यह सुनतेही महाराज ने उस ब्राम्हन के सिर पर फूलों की छड़ी फेंक मारी और कहा जो बाम्हन की हत्या का धड़का न होता तो तुझको अभी चक्की में दलवा डालता इसको लेजाओ और एक अंधेरी कोठरी में मूंद रक्खो जो इस बाम्हन पर वीती सो सब कुँवर उदयभान के मा बाप ने सुन्तही लड़ने की ठान अपना ठाठ बांधकर दल बादल जैसे घिर आते हैं चढ़ आया। जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी रानी केतकी सावन भादों के रूपसे रोने लगी और दोनों के जी पर यह आगयी। यह कैसी चाहत है जिसमें लहू बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा। कुँवर ने चुपके से यह लिखः भेजा "अब मेरा कलेजा टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है दोनों महाराजों को आपस में लड़ने दो किसी डौलसे जो हो सके तो तुम मुझे अपने पास बुलालो हम तुम दोनों मिलके किसी और देस को निकल चलें जो होनी हो सो हो सिर रहता रहे जाता जाय? एक मालन जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे उसने कुँवर की चिट्ठी किसी फूल पँखड़ी में लपेट सपेट के रानी केतकी तक पहुँचा दी। रानी ने उस चिट्ठी से आंखें अपनी मली और मालन को एक थाल भरके मोती देकर उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुँहकी पीकसे यह लिखा “ऐ मेरे जी के गाहक जो तू मुझे बोटी २ कर चील कउवे को देडाले तो भी मेरी आंखों को चैन और कलेजे में सुख होवे पर यह बात भाग चलने की अच्छी नहीं। डौल से बेटा बेटी के बाहर है। जी तुझसे प्यारा नहीं एक तो क्या जो करोर जी जाते हैं पर भागने की बात कोई मैं रुचती नहीं। यह चिट्ठी पीक भरी जो कुँवर तक जा पहुँचती है उस पर कई सोने के थाल हीरे मोती पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है और जितनी उसकी बेकली थी चौगुनी होजाती है और उस चिट्ठी को अपने गोरे दण्ड पर बांध लेता है।।