काव्य और कला तथा अन्य निबन्ध
परिचय
जन्म—माघ शुक्ल द्वादशी सं॰ १९४६
मृत्यु—कार्तिक शुक्ल एकादशी सं॰ १९९४
"सुँघनीसाहू" के नाम से प्रसिद्ध काशी के एक प्रतिष्ठित, धनी और उदार घराने में श्री जयशङ्कर प्रसाद जी का जन्म हुआ था।
प्रसाद जी ने अंग्रेजी की शिक्षा ८ वें दर्जे तक स्कूल में पाई थी। परन्तु घर पर उन्हें अंग्रेज़ी, हिन्दी-उर्दू और संस्कृत की अच्छी शिक्षा मिली। उस समय के काशी के अच्छे कवियों के सत्सङ्ग में बाल्यकाल से ही उनकी कविता के प्रति रुचि जागृत हो गई थी।
पन्द्रह वर्ष की उम्र से वे लिखने लगे थे। संवत १९६२ में 'भारतेन्दु' में प्रथम बार उनकी कविता प्रकाशित हुई। इसके बाद उन्हीं की प्रेरणा से निकले 'इन्दु' मासिक में नियमित रूप से उनकी कविता, कहानी, नाटक, और निबन्ध प्रकाशित होने लगे।
प्रसाद जी ने नवीन युग का द्वार हिन्दी मे खोला था। वे कविता की नवीन धारा के प्रवर्तक और उसके सर्वमान्य श्रेष्ठ कवि थे। हिन्दी के नाटक-साहित्य में उनका नाम सब से अधिक है और वे हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार के रूप में भी विख्यात हैं। कथा-साहित्य भी उनसे कीर्तिवान बना है। १९११ से, जब हिन्दी के अपने मौलिक कहानी लेखक नहीं थे, तब से उसके भण्डार को उन्होंने भरा है। कथा साहित्य मे प्रसाद-स्कूल, अपनी विशेष शैली के कारण अपना एक अलग ऊँचा स्थान रखता है। साहित्य के इन विविध अङ्गों की पूर्ति के साथ-साथ उन्होंने साहित्य तथा खोज सम्बन्धी निबन्ध भी लिखें हैं, जिनका स्थान साहित्य में बहुत ऊँचा हैं। काव्य और कला
तथा
जयशंकर 'प्रसाद'
प्रकाशक तथा विक्रेता
भारती-भण्डार
लीडर प्रेस, इलाहाबाद
प्रथग संस्करण
मूल्य १।)
सं० ‘९६,
मुद्रक—
पं० कृष्णाराम मेहता,
लीडर प्रेस, इलाहाबाद
प्रसाद जी हिन्दी ही नहीं, समस्त भारतीय साहित्य की उत्कृष्टतम विभूतियों में थे, यह बात कम से कम हिन्दी के पाठकों से तो नहीं छिपी है। वह जैसे उच्चकोटि के कलाकार थे, वैसे ही प्राचीन भारतीय साहित्य तथा आर्य संस्कृति के प्रकाण्ड तथा मर्मज्ञ ज्ञाता थे। और इससे भी बड़ी बात यह है कि उनमें वह सच्ची सहानुभूति थी जिसके द्वारा मनुष्य सब प्रकार के भेदभाव को भूल कर अपने मानव बन्धुओं की भावनाओं को आत्मसात करके उनके सुख-दुःख की वास्तविक अनुभूति कर सकता है और जिसके बिना कोई कवियशःप्रार्थी व्यक्ति अमर कलाकार तो क्या महान साहित्यिक के पद का भी अधिकारी नहीं हो सकता। और अपनी इस अद्भुत सृजन-शक्ति, असाधारण ज्ञान-राशि तथा उदार सहानुभूति का उन्होंने जीवन भर हिन्दी साहित्य के भण्डार की रिक्तता को कम करने तथा उसे सर्वांगीण से भरा-पूरा बनाने में ही सदुपयोग किया। हमारे जिन मनस्वियों ने हिन्दी साहित्य को इस योग्य बनाने में सहयोग प्रदान किया है कि वह अन्य भारतीय साहित्यों के बीच अपना मस्तक गर्व के साथ और बिना संकोच के ऊँचा उठा सके, उनमें प्रसादजी का बड़ा ऊँचा स्थान है। उन्होंने हिन्दी को क्या नहीं दिया? गीति काव्य, महाकाव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी और निबन्ध, आदि, हिन्दी साहित्य के सभी विभागों में उनका कलात्मक सदुद्योग दिखाई दे रहा है और उनकी कीर्ति-पताका फहरा रही है। हिन्दी संसार उनका ऋणी है और रहेगा, क्योंकि अपनी कृतियों से अपने लिए अमर कलाकारों में स्थान प्राप्त करने के साथ ही वे हिन्दी का भी मुख उज्जवल कर गए हैं। हिन्दी का साहित्याकाश इस कवि, नाटककार, उपन्यासकार और निबन्धकार के कृति-रूपी नक्षत्रों से प्रकाशमान है और चिरकाल तक रहेगा।
भारती-भण्डार का प्रसादजी के साथ बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। उनकी सभी कृतियों को प्रकाशित करने का उसे सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जिसके लिए वह अपने को विशेष रूप से भाग्यवान समझता है। प्रसादजी के साहित्यिक निबन्धों के इस संग्रह को साहित्य-प्रेमियों की सेवा में प्रस्तुत करते हुए जहाँ उस सन्तोष का अनुभव हो रहा है, वहाँ इस विचार से दुःख होना भी स्वाभाविक ही है कि प्रसादजी अब इस संसार में नहीं रहे। सान्त्वना के लिए उसके पास इस विचार के अतिरिक्त और क्या है कि उनके भौतिक शरीर का भले ही अन्त हो गया हो परन्तु उनके यशःशरीर के लिए तो जरा-मृत्यु आदि किसी आपत्ति की आशंका नहीं हो सकती। सब जानते हैं कि अपने किसी आत्मीय के विछोह में इस प्रकार की भावनाओं से मन को वास्तविक सन्तोष तो प्राप्त नहीं हो सकता, फिर भी किसी न किसी प्रकार दुःख में धैर्य्य-धारण तो करना ही पड़ता है।
श्री नन्ददुलारे वाजपेयी जी से तथा उनकी साहित्य-मर्मज्ञता से हिन्दी संसार भलीभांति परिचित है। निबन्धों के इस संग्रह के लिए एक योग्यतापूर्ण तथा श्रमसाध्य भूमिका लिख कर उन्होंने पाठकों का साधारणतः, और विद्यार्थियों का विशेषतः, जो उपकार किया है, उसके लिए हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
—प्रकाशक
क्रम
लेख | पृष्ठ | |
१—काव्य और कला | ...... | ३ |
२—रहस्यवाद | ...... | ३१ |
३—रस | ...... | ६३ |
४—नाटकों में रस का प्रयोग | ...... | ७९ |
५—नाटकों का आरम्भ | ...... | ८९ |
६—रंगमंच | ...... | ९५ |
७—आरम्भिक पाठ्य काव्य | ...... | १२३ |
८—यथार्थवाद और छायावाद | ...... | १३७ |
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