कामना
जयशंकर प्रसाद

वाराणसी: हिंदी पुस्तक भंडार, पृष्ठ ११८ से – १२५ तक

 

छठा दृश्य

स्थान-नवीन नगर की एक गली

(नागरिकों का प्रवेश)

१ नागरिक-सब ठीक है! कामना ने यदि उन विचार-प्रार्थियों के कहने से कुछ भी इस नगर पर अत्याचार किया, तो हम लोग उसका प्रतिकार करेंगे!

२ नागरिक-वह क्या?

१-विलास को यहाँ का राजा बनावेंगे और कामना को बन्दी।

२-यहाँ तक?

१-बिना राजा के हम लोगो का काम नहीं चलेगा। यह तुच्छ स्त्री-कोमल हृदय की पुतली शासन का भेद क्या जानेगी।

२-क्या और लोग भी इसके लिए प्रस्तुत हैं?

१-सब ठीक है, अवसर की प्रत्याशा है। चलो, आज दम्भदेव के यहाँ उत्सव है। तुम चलोगे कि नहीं?

२-हाँ-हॉ, चलूँगा।

(दोनों जाते हैं)

(करुणा का सन्तोष को लिये हुए प्रवेश)

करुण-किससे पूछूँ-भाई सन्तोष, थोड़ी देर यहीं बैठो, मैं क्रूर का घर पूछ आती हूँ। बड़ी पीड़ा होगी। आह-आह। (सहलाती है)

सन्तोष-करुणे। मैं तुम्हारे अनुरोध से यहाँ चला आया हूँ। मुझे तो इस वैद्य के नाम से भी निर्वेद होता है।

करुणा-मेरे लिए भाई-मेरे लिए! बैठो, मैं आती हूँ-(जाती है)

(एक नागरिक का प्रवेश)

नागरिक-(सन्तोष को देखकर) तुम कौन हो जी?

सन्तोष-मनुष्य-और दुखी मनुष्य।

नागरिक-तब यहाँ क्या है जो किसी के घर पर बिना पूछे बैठ गये?

सन्तोष-यह भी अपराध है? मैं पीड़ित हूँ, इसी से थोड़ा विश्राम करने के लिए बैठ गया हूँ।

नागरिक-अभी नगर-रक्षक तुम्हे पकड़कर ले जायगा। क्योंकि तुमने मेरे अधिकार में हस्तक्षेप किया है। बिना मेरी आज्ञा लिये यहाँ बैठ गये। क्या यह कोई धर्मशाला है?

सन्तोष-मैं तो प्रत्येक गृहस्थ के घर को धर्मशाला के रूप में देखना चाहता हूँ, क्योंकि इसे पापशाला कहने मे संकोच होता है!

नागरिक-देखो इस दुष्ट को। अपराध भी करता है और गालियाँ भी देता है। उठ जा यहाँ से, नहीं तो धक्के खायगा।

सन्तोष-हे पिता! तुम्हारी संतान इतनी बँट गई है।

नागरिक-क्या हिस्सा भी लेगा? उठ-उठ-चल-

सन्तोष-भाई, मैं बिना किसी के अवलम्ब के चल नहीं सकता। मेरी बहन आती है, मैं चला जाऊँगा।

नागरिक-क्या तेरी बहन!

सन्तोष-हाँ-

नागरिक-(स्वगत)आने दो, देखा जायगा।

(दौड़ती हुई करुणा का प्रवेश, पीछे मद्यप दुर्वृत्त)

दुवृत्त-ठहरो सुन्दरी! मुझे विश्वास है कि तुमको न्यायालय की शरण लेनी पड़ेगी-मैं व्यवस्था बतलाऊँगा, तुम्हारी सहायता करूँगा, तुम सुनो तो। हाँ-क्या अभियोग है? किसी ने तुम्हे-ऐं!

करुणा-(भयभीत) भाई सन्तोष। देखो यह मद्यप।

दुर्वृत्त-चलो, तुम्हें भी पिलाऊँगा। बिना इसके न्याय की बारीकियों नहीं सूझती-हाँ, तो फिर एक चुम्बन भी लिया-यही न।

करुणा-नीच-दुराचारी।

सन्तोष-क्यों नागरिक। यही तुम्हारा सभ्य व्यवहार है?

दुर्वृत्त-अनधिकार चेष्टा-मूर्ख! तू भी न्यायालय से दंड पावेगा-तुम साक्षी रहना नागरिक!

नागरिक-(करुणा की ओर देखता हुआ) सुन्दर है! हाँ-हाँ, यह तो अनधिकार चेष्टा प्रारम्भ से ही कर रहा है; बिना मुझसे पूछे यहाँ बैठ गया और बात भी छीनता है।

सन्तोष-मैं चिकित्सा के लिए यहाँ आया हूँ। क्यों मुझे तुम लोग तंग कर रहे हो-चलो करुणा, हम लोग चलें। दुर्वृत्त-वाह! चलो चलें! ए-तुम्हें परिचय देना होगा, तुम असभ्य बर्बर यहाँ किसी बुरी इच्छा से आये होगे। नागरिक! बुलाओ शान्तिरक्षक को।

सन्तोष-(हँसकर) शान्ति तुम्हारे घर कहीं है भी नो तुम उसकी रक्षा करोगे? बाबा, हम लोग जाते हैं, जाने दो।

दुर्वृत्त-परिचय देना होगा तब-

करुणा-परिचय देने में कोई आपत्ति नहीं है। मैं मृत शान्तिदेव की बहन हूँ।

(दुर्वृत्त आँख फाड़कर देखता है)

नागरिक-तब यह तुम्हारा भाई कैसे? इसमें कुछ रहस्य है।

दुर्वृत्त-तुम क्या जानो, चुप रहो। (करुणा से) हाँ, तो तुम्हारा तो बड़ा भारी अभियोग है, न्यायालय अवश्य तुम्हे सहायता देगा। क्यो, तुमने शान्तिदेव का धन कुछ पाया ? अकेली लालसा उसे नहीं भोग सकती। तुम्हारा भी उसमे कुछ अंश है।

नागरिक-हाँ, यह तो ठीक कहा- करुणा-मुझे कुछ न चाहिये। मुझे जाने की आज्ञा दीजिये। दुर्वृत्त-नहीं, मैं अपने पवित्र कर्त्तव्य से च्युत नहीं हो सकता। तुम्हारा उचित प्राप्य न्यायालय की सहायता से दिलाना मेरा कर्तव्य है। तुम व्यवहार लिखाओ।

सन्तोष-हम लोगो को कुछ न चाहिये।

(क्रूर का प्रवेश)

दुर्वृत्त-आओ नागरिक क्रूर। यह तुमसे चिकित्सा कराने बड़ी दूर से आया है।

क्रूर-(सन्तोष को देखता हुआ) यह। अरे इसकी तो टाँग सड़ गई है, भयानक रोग है, इसको काटकर अलग कर देना होगा।

सन्तोष-हे देव। यह क्या लीला है। ये सब पिशाच है कि मनुष्य! मुझे चिकित्सा न चाहिये, मुझे जाने दो।

नागरिक-नगर का दुर्नाम होगा, ऐसा नहीं हो सकता। तुम्हे चिकित्सा करानी होगी। मै शस्त्र ले आता हूँ। (जाता है)

(प्रमदा का सहेलियों के साथ नाचते हुए आना, दूसरी ओर से दम्भ का अपने दल के साथ)

दम्भ-क्यों दुर्वृत्त। क्रूर। तुम लोग अभी उत्सव में नहीं मिले।

क्रूर-कुछ कर्त्तव्य है आचार्य! यह पीड़ित है, इसकी चिकित्सा-

दम्भ-(सन्तोष को देखकर) छिः-छिः। पवित्र देवकार्य के समय तुम इस अस्पृश्य को छुओगे? (सन्तोष से) जा रे, भाग।

दुर्वृत्त-(धीरे से) यह शान्तिदेव की बहन है। उसके पास अपार धन था। इसे न्यायालय मे ले चलूँगा और क्रूर को भी इसकी चिकित्सा से कुछ मिलेगा। हम दोनों का लाभ है।

दम्भ-यह सब कल होगा। (नागरिक से) यह तुम्हारा घर है न?

नागरिक-हाँ।

दम्भ-आज इसे तुम अपने यहाँ रक्खो। कल इसकी चिकित्सा होगी। और प्रमदा! इस सुन्दरी को देवदासी के दल में सम्मिलित कर लो। इसके लिए न्यायालय का प्रबन्ध कल किया जायगा। आज पवित्र दिन है, केवल उत्सव होना चाहिये। (नागरिक सन्तोष को पकड़ता है, और प्रमदा एक मद्यप के साथ करुणा को खींचती है। विवेक दौड़कर भाता है)

विवेक-कौन इस पिशाच-लीला का नायक है।

(सब सहम जाते है। विवेक सबसे छुड़ाकर दोनों को लेकर हटता है)

दम्भ-तू कौन इस उत्सव मे धूमकेतु-सा आ गया? छोड़कर चला जा, नही तो तुझे पृथ्वी के नीचे गड़वा दूँगा।

विवेक-मैं चला जाऊँगा। फूल के समान आया हूँ, सुगन्ध के सदृश जाऊँगा। तू बच, देख उधर।

(सब उसे पकड़ने को चंचल होते है, विवेक दोनों को लिये हटता है। भूकम्प से नगर का वह भाग उलट-पलट हो जाता है)