कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

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पाँचवाँ दृश्य

स्थान-उपासना गृह नवीन रूप में

(विलास सब लोगो को समझा रहा है, सब लोगों को खड़े होकर अभिवादन करना सिखला रहा है । बीच मे बेदी, सामने सिंहासन, और दोनो ओर चौकियाँ हैं । मंडलाकार लोग एकत्रित है। राजदंड हाथ मे लिये हुए कामना रानी का प्रवेश। पीछे सेनापति विनोद और सैनिक)

कामना-(सिहासन के नीचे वेदी के सामने खड़ी होकर ) हे परमेश्वर । तुम सबसे उत्तम हो, सबसे महान् हो, तुम्हारी जय हो।

सब-तुम्हारी जय हो।

विलास-आप आसन ग्रहण करें ।

(कामना मच पर बैठती है।)

कामना-आप लोगो को सुशासन की आव- श्यकता हो गई है; क्योकि इस देश मे अपराधी की

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कामना

संख्या बहुत बढ़ती चली जा रही है। यह मेरे लिए गौरव की बात है कि मुझे आप लोगो ने इसके लिए उपयुक्त समझा है। परंतु आप लोगो ने मेरे और अपने बीच का सम्बन्ध तो अच्छी तरह समझ लिया होगा?

एक-नहीं।

विलास-(आश्चर्य से ) नहीं समझा ! अरे, तुमको इतना भी नहीं ज्ञान हुआ कि यह तुम्हारी रानी हैं, और तुम इनके प्रजा ?

सब-हम प्रजा हैं।

विलास-देखो, ईश्वर असंख्य प्राणियों का, इस सारी सृष्टि का जिस प्रकार अधिपति है, उसी प्रकार तुम अपने कल्याण के लिए,अपनी सुव्यवस्था के लिए, न्याय और दंड के लिए इनको अपना अधि- पति मानते हो। जिस प्रकार एक वन्य पशु दूसरे को सताकर उसे खा जाता है, और उसे दंड देने के लिए मृगया के रूप मे ईश्वर हम लोगो को आज्ञा देता है, उसी प्रकार हमारी इस जाति के एक दूसरे के अपराधियो को दंड देने के लिए रानी की आव- श्यकता हुई। और, वह हुई ईश्वर की प्रतिनिधि ।

६६ [ ६७ ] अब हम सब लोग उसकी आज्ञा और नियमो का पालन करें, क्योकि उसने तुम्हारे कष्टो को मिटाने के लिए पवित्र कुमारी होने का कष्ट उठाया है। उसके संकल्प हमारे शुभ के लिए होगे।

विनोद-यथार्थ है। (तलवार सिर से लगाता है)

सब-हम अनुगत है । हमारी रक्षा करो।

कामना-तुम सब सुखी होगे । मेरे दो हाथ है, एक न्याय करेगा, दूसरा दंड देगा। दंड के लिए सेनापति नियुक्त है, परंतु न्याय मे सहायता के लिए एक मंत्री की-परामर्शदाता की आवश्यकता है, जिसमे मैं सत्य और न्याय के बल से शासन कर सकूॅ। तुम लोगों में से कौन इस पद को ग्रहण करना चाहता है ?

(सब परस्पर मुँह देखते हैं)

कामना-मै तो विलास को इस पद के उप- युक्त समझती हूँ; क्योकि इन्हीं की कृपा और परामर्शों हम लोगो ने बहुत उन्नति कर ली है।

लीला-मेरी भी यही सम्मति है।

सब लोग-अवश्य।

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कामना

(कामना एक स्वर्ण-पट्ट विलास को पहनाती है। एक ओर विलास दूसरी ओर विनोद चौकियों पर बैठते है। धूनी जलती है)

विलास-अपराधियो को बुलाया जाय ।

विनोद-(सैनिकों से) जाओ, उन्हे ले आओ।

(दो सैनिक एक एक को बाँधे हुए ले आते हैं)

कामना-क्यो, तुम लोगों ने शान्तिदेव की हत्या की?

विलास-और तुम अपना अपराध स्वीकार करते हो कि नहीं ?

१ अपराधी-हत्या किसे कहते है, यह मै नहीं जानता। परंतु जो वस्तु मेरे पास नहीं थी, उसी को लेने के लिए हम लोगो ने शांतिदेव पर तीरो से वार किया।

२ अपराधी-और इसलिए कि उसके पास का सोना हम लोगों को मिल जाय ।

कामना-देखो, तुम लोगों ने थोड़े-से सोने के लिए एक मनुष्य की हत्या कर डाली। यह घोर दुष्कर्म है।

विलास-और इसका दंड भी ऐसा होना

६८ [ ६९ ] चाहिये कि देखकर लोग काँप उठे, फिर कोई ऐसा दुस्साहस न करे।

विवेक-जिसमे डरकर लोग तुम्हारा सोना न छुएँ।

कामना-कौन है यह ?

विनोद-वही पागल ।

विवेक-इसने उसी वस्तु के लेने का प्रयत्न किया है, जिसकी आवश्यकता इस समय समग्र द्वीपवासियो को है । फिर-

विलास-परंतु इसका उद्योग अनुचित था ।

विवेक-मैं पागल हूँ, क्या समझूँगा कि उचित उपाय क्या है। उपाय वही उचित होगा, जिसे आप नियम का रूप देंगे । परंतु मै पूछता हूँ, यहाँ इतने लोग खड़े है, इनमें कौन ऐसा है, जिसे सोना न चाहिये ?

(कामना विलास का मुँह देखती है)

विवेक-वाह | कैसा सुंदर खेल है । खेलने के लिए बुलाते हो, और उसे फंसाकर नचाते हो। स्वयं ज्वाला फैला दी है; अब पतंग गिरने लगे हैं, तो उनको भगाना चाहते हो ?

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कामना

विलास-न्याय में हस्तक्षेप करनेवाले इस वृद्ध को निकाल दो। पागलपन की भी एक सीमा होती है।

(वह निकाला जाता है)

कामना-अच्छा, इन्हे वंदीगृह में ले जाओ। अंतिम दंड इनको फिर दिया जायगा ।

(बन्दियों को सैनिक ले जाते हैं । विलास और कामना बाते करते हैं)

कामना-सेनापति, उपस्थित सभी पुरुषों को आज का स्मरण-चिह्न लाकर दो।

(विनोद सबको स्वर्ण मुद्रा देता है)

कामना-प्यारे द्वीप-वासियो, मेरी एकांत इच्छा है कि हमारे द्वीप-भर के लोग स्वर्ण के आभूषणों से लद जायँ । उनकी प्रसन्नता के लिए मै प्रचुर साधन एकत्र करूँगी। परंतु उस काम में क्या आप लोग मेरा साथ देंगे?

सब-यदि सोना मिले, तो हम लोग सब कुछ करने के लिए प्रस्तुत हैं।

विलास-सब मिलेगा, आप लोग रानी की आज्ञा मानते रहिये।

७० [ ७१ ]एक-अवश्य मानेगे । परंतु न्याय क्या ऐसा ही-

विलास-यह प्रश्न न करो।

विनोद-राजकीय आज्ञा की समालोचना करना पाप है।

विलास-दंड तो फिर दंड ही है। वह मीठी मदिरा नहीं है, जो धीरे से उतार ली जाय ।

सब-ठीक है । यथार्थ है।

विलास-देखो, अब से तुम लोग एक राष्ट्र में परिणत हो रहे हो । राष्ट्र के शरीर की आत्मा राज- सत्ता है। उसका सदैव आज्ञापालन करना, सम्मान करना।

सब -हम लोग ऐसा ही करेंगे।

(विनोद घुटने टेकता है। सब वैसा ही करके जाते है)

[पट-परिवर्तन ]