कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[ २९ ]

पाँचवाँ दृश्य

स्थान -उपासना गृह

(सामने धूनी में जलती हुई अग्नि । बीच मे कामना स्वर्ण-पट्टबाँधे । दोनो ओर द्वीप के नागरिक । सबके पीछे विलास),

कामना-पिता । हम सब तेरी संतान हैं।

(सब यही कहते हैं)

कामना-हमारी परस्पर की भिन्नता के अवकाश को तू पूर्ण बनाये रख, जिसमे हम सब एक हो रहे । [ ३० ]सब-हम सब एक हो रहे ।

कामना-हमारे ज्ञान को इतना विस्तार न दे कि हम सब दूर-दूर हो जॉय। हम सबके समीप रहे।

सब-हम सबके समीप रहे ।

कामना-हमारे विचारो को इतना संकुचित न कर दे कि हम अपने ही मे सब कुछ समझ ले । सब मे तेरी सत्ता का भान हो।

सब-सब मे तेरी सत्ता का भान हो । (घुटने टेकते है)

कामना -( उठकर ) हम लोगो मे आन एक नवीन मनुष्य है । वह आप लोगो को पिता का एक संदेश सुनावेगा।

एक वृद्ध-पवित्र पक्षियो के संदेश क्या अब बंद होगे ?

दूसरा-क्या मनुष्य से हम लोग संदेश सुनेंगे?

तीसरा-कभी ऐसा नहीं हुआ।

विलास-शांत होकर सुनिये । पवित्र उपासना- गृह मे मन को एकाग्र करके, विनत्र होकर, संदेश सुनिये । विरोध न कीजिये।

पहला वृद्ध-इस उपद्रव का अर्थ ? विदेशी [ ३१ ]युवक, तुम यहाँ क्या किया चाहते हो? विरोध क्या?

विनोद-सुनने मे बुराई क्या है ?

लीला-हमारे व्याह की उपासना यो उपद्रव में न समाप्त होनी चाहिये । आप लोग सुनते क्यों नहीं ?

कामना-मै आज्ञा देती हूँ कि अभी उपासना पूर्ण नहीं हुई ; इसलिए सब लोग संदेश को साव- धान होकर सुने।

दो-चार वृद्ध-इस उन्मत्त कथा का कहीं अंत होगा ? कामना | आज तुम्हे क्या हुआ है ? तुम केवल उपासना का नेतृत्व कर रही हो, आज्ञा कैसी? वह क्यो मानी जाय ?

कई स्त्री-पुरुष-हम लोगो को यहाँ से चलना चाहिये, और कोई दूसरा व्यक्ति कल से उपासना का नेता होगा।

विलास-अनर्थ न करो, ईश्वर का कोप होगा। (विलास के सकेत करने पर कामना अग्नि में राल डालती है)

विलास-ईश्वर है, और वह सबके कर्म देखता है।अच्छे कार्यों का पारितोषिक और अपराधों का [ ३२ ]दंड देता है। वह न्याय करता है, अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा

विवेक-परन्तु युवक, हम लोग आज तक उसे पिता समझते थे। और, हम लोग कोई अपराध नहीं करते। करते है केवल खेल । खेल का कोई दंड नहीं। यह न्याय और अन्याय क्या ? अपराध और अच्छे कर्म क्य है, हम लोग नहीं जानते। हम खेलते है, और खेल में एक दूसरे के सहायक है, इसमे न्याय का कोई कार्य नहीं। पिता अपने बच्चों का खेल देखते है, फिर कोप क्यो ?

विलास-यह तुम्हारी ज्ञान-सीमा संकुचित होने के कारण है। तुम लोग पुण्य भी करते हो, और पाप भी।

विवेक-पुण्य क्या ?

विलास-दूमरो की सहायता करना इत्यादि । पाप है दूसरों को कष्ट देना, नो निषिद्ध है।

विवेक-परंतु निषेध तो हमारे यहाँ कोई वस्तु नहीं है। हम वही करते हैं, जो जानते हैं; और जो जानते हैं, वह सब हमारे लिए अच्छी बात है।केवल निषेध का घोर नाद करके तुम पाप क्यो प्रचा[ ३३ ]रित कर रहे हो ? वह हमारे लिए अज्ञात बात है। तुम ज्ञान को अपने लिए सुरक्षित रक्खो । यहाँ-

कामना-दिव्य पुरुष से केवल शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये, इतनी-

विनोद-हम आपके आज्ञाकारी है। आपके नेतृत्व-काल मे अपूर्व वस्तु देखने मे आई, और कभी न सुनी हुई बाते जानी गई । आप धन्य है।

एक-हम लोग भी स्वीकार ही करेंगे। तो अब सब लोग जायें ?

विनोद-ब्याह का उपहार ग्रहण कर लीजिये।

कामना-वह ईश्वर की प्रसन्नता है। आप लोगो को उसे लेकर जाना चाहिये।

(विनोद और लीला सबको मदिरा पिलाते हैं)

कामना-है न यह उसकी प्रसन्नता ? दो-चार-अवश्य, यह तो बड़ी अच्छी पेया है ।

( सब मोह में शिथिल होते हैं)

-ईश्वर से डरना चाहिये, सदैव सत्कर्म-

एक-नही तो वह इसी ज्वाला के समान अपने क्रोध को धधका देगा।

दूसरा-और हम लोगो को दंड देगा। [ ३४ ]विवेक-परंतु प्यारे बच्चो, वह पिता स्नेह करता है. यह हम लोग कैसे भूल जायें, और उससे डरने लगे?

कामना-तुम्हे प्रमाण मिलेगा कि हम लोगो मे अपराध है; उन्हीं अपराधो से हम लोग रोगी होत और उसके बाद इस द्वीप से निकाल दिये जाते है। उन अपराधो को हम धीरे-धीरे छोड़ना होगा।

विवेक-तो फिर सब कर्म केवल अपराध ही हो जायेंगे-

और सब-हम लोग उन अपराधो को जानेंगे, और त्याग करेगे। रोग और निकाले जाने से बचेंगे।

विलास-सबका कल्याण होगा।

( एक दूसरे से आलिगन करते हुए मद्यपो की-सी प्रसन्नता

प्रकट करते हुए जाते हैं)

विवेक-परिवर्तन । वर्षा से धुले हुए आकाश की स्वच्छ चन्द्रिका-तमिनासे-कुहू से बदल जायगी- बालको के-से शुभ्र हृदय छल की मेघमाला से ढक जायेंगे।

(सोचता है)

विवेक-पिता । पिता ! हम डरेगे,तुमसे काँपेंगे? क्यो ? हम अपराधी है । नहीं-नहीं, यह क्या अच्छी [ ३५ ]बात है। यह क्या है ? अब खेल समाप्त होने पर तुम्हारी गोद मे शीतल पथ से हम न जाने पावेगे । तुम दंड दोगे। नहीं, नहीं-ओह । न्याय करोगे ? भयानक न्याय-क्योंकि हम अपराध करेगे, और वह न्याय होगा दंड-अह ! उसने कहा कि तुम निर्जीव बनाकर इस द्वीप से निकाल दिये जाते हो,यही प्रमाण है कि तुम अपराधी हो । क्या हम अपराधी है ? अपराध क्या पदार्थ है ? क्षुद्र स्वार्थों से बने हुए कुछ नियमो का भंग करना अपराध होगा। यही न ? परंतु हमारे पास तो कोई नियम ऐसे नहीं थे, जो कभी तोड़े जाते रहे हो । फिर क्यो यह अपराध हम पर लादा जा रहा है ? पिता । प्रेममय पिता । हमारे इस खेल मे भी यह कठोरता, यह दंड का अभिशाप लगा दिया गया । हमारे फूलो के द्वीप मे किस निर्दय ने कॉटे बखेर दिये ? किसने हमारा प्रभात का स्वप्न भंग किया ? स्वप्न-आ । कुदृश्यो से थकी हुई आँखों से चली आ-विश्राम । आ । मुझे शीतल अंक मे ले!-उँह । सो जाऊँ। (सोने की चेष्टा करता है | स्वप्न मे स्वर्ग और नरक का दृश्य देखता हुआ अर्ध-निद्रित अवस्था में उठ खड़ा होता है)[ ३६ ]मै क्या-क्या कह गया। ये सब अभूतपूर्व बातें कहाँ से हमारे हृदय मे उठ रही हैं। परंतु,नहीं-यह तो प्रत्यक्ष है, दिखलाई पड़ रहा है कि ज्वाला और उसके पहले विप से मिला हुआ धुओं फैलने लगा है। जलाने वाली, दिग्दाह कराने वाली,अमृत होकर सुखभोग करने की इच्छा, इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाने की कल्पना, इसे अवश्य नरक बनाकर छोड़ेगी। है ! नरक और स्वर्ग । कहाँ है ? ये क्यो मेरे हृदय में घुसे पड़ते हैं ? काल्पनिक अत्यंत उत्तमता, सुख-भोग की अनंत कामना, म्वर्गीय इंद्र-धनुष बनकर सामने आ गई है, जिसने वास्तविक नीवन के लिए इस पृथ्वी की दबी हुई ज्वालामुखियों का मुख खोल दिया है। हमारे फूलो के द्वीप के बच्चो। रोओगे इन कोमल फूलों के लिए, इन शीतल झरनो के लिए। पिता के दुलारे पुत्रो ! तुम अपराधी के समान बेंत-से कॉपोगे। तुम गोद में नहीं जाने पाओगे । हा । मैं क्या करूँ-कहाँ जाऊँ ?

(बड़बड़ाता हुभा जाता है)