कहानी खत्म हो गई
आचार्य चतुरसेन शास्त्री
ग्यारहवीं मई

दिल्ली: राजपाल एण्ड सन्ज़, पृष्ठ १२१ से – १३२ तक

 

ग्यारहवीं मई

११ मई, सन् १८५७ के ऐतिहासिक दिन पर एक रोमांचक कहानी।

ठीक साढ़े तीन बजे। सारी दिल्ली सो रही थी, लालकिले के बारूदखाने की ऊपरी मंज़िल में गंगाजमनी पिंजरे के भीतर से, जिसपर कारचोबी की वस्तनी चढ़ी थी, बुलबुल हज़ारदास्तान ने अपनी कूक लगाई। रात के सन्नाटे में उस सुरीले पक्षी का यह प्रकृत राग रात की बिदाई का सूचक था। कूक सुनते ही बहरामखां गोलन्दाज़ कल्मा पढ़ता हुआ उठ बैठा और तोप पर बत्ती दी। मोतीमस्जिद में अज़ान का शब्द हुआ। चप्पी-मुक्कीवालियां शाही मसहरी पर आ हाज़िर हुईं और धीरे-धीरे बादशाह के पांव दबाने लगीं। बादशाह की नींद खुली। वे तुरन्त नित्य-कृत्य से निपटकर मस्जिद में आ नमाज़ में सम्मिलित हो गए। उन्होंने सबके साथ नमाज़ पढ़ी और फिर वजीफा पढ़ने लगे। सूर्योदय के साथ ही बादशाह मस्जिद से निकले, चारों ओर मुजरा करनेवाले खड़े थे, दरवाजे पर पहुंचते ही हाथ में सुनहरी बल्लम लिए जसोलनी ने आगे बढ़कर ऊंचे स्वर में पुकारा:

'पीरो-मुर्शद हुजूरपाली बादशाह सलामत उम्रदराज़।' तीन बार उसने यह वाक्य घोषित किया। इसके बाद ही दरबारीगण अदब से झुक गए और बादशाह को देखते ही बोले:

'तरक्किए-इकबाल, दराजे-उम्र।'

बादशाह ने दीवाने-फरहत में प्रवेश किया। असीले अदब से सिर नवाए खड़ी थीं। आंगन में एक सुसज्जित तख्त बिछा था, बादशाह उसपर बैठ गए। जसोलनी दारोगा दोनों हाथों में अतलस चढ़ी बुकचियां लिए या हाज़िर हुई। गुसलखाने के दारोगा ने सामने आ सिर झुकाया। बादशाह उठकर गुसल करने चल दिए। जौनपुरी खली, सुगन्धित बेसन, चंबेली, शब्बो, मोतिया, बेला, जुही, गुलाब के तेल बोतलों में भरे क्रम से रखे थे। शक्काबे में एक ओर ठण्डा और दूसरी ओर गर्म पानी भरा था, चांदी के लोटे और सोने की लुटियां जगमगा रही थीं। गुस्ल हुआ और बादशाह पोशाक के कमरे में चले गए। ख्वाजा हसनबेग दारोगा ने आकर आदाब बजाया। उसने लखनऊ की चिकन का कुर्ता, दोनों ओर तुक में धुंडियां, लट्ठ का चौड़े पांयते का पायजामा जिसमें दिल्ली का कमरबन्द पड़ा था-हाजिर किया। बादशाह ने कपड़े बदले। मखमली चप्पल पहने। अब शमीमखाने का दारोगा आ हाज़िर हुआ, उसने सिर में तेल डाला, कंधा किया, कपड़ों में इत्र लगाया। बादशाह तस्बीहखाने में आए, माला फेरी, कुछ दुआएं पढ़ीं और दीवानेखिलवत में चले गए। दवाखाने के मुन्तज़िम ने आगे बढ़कर कोनिश की और हकीम अहसन की सील-मुहरबन्द शीशियां पेश की। मुहर तोड़ी गई और याकूती की प्याली तैयार की गई, तभी खवास ने चांदी की तश्तरी में छिलकोंसमेत दो तोला भुने चने पेश किए, बादशाह ने याकूती की प्याली पी, फिर चनों से मुंह साफ किया और बेगमी पान की एक गिलौरी खाकर मिट्टी के कागजी हुक्के को मुंह लगाया। इतने ही में खबरों का अफसर आ हाज़िर हुआ, रात-भर की खबरें सुनाई गई। बादशाह ने एक पान की गिलौरी और खाई और उठकर दीवाने-आम को चल दिए।

बादशाह तख्त पर बैठे। प्रत्येक विभाग का अधिकारी हाथ बांधे हाज़िर था, बादशाह ने सबकी ओर एक दृष्टि की। एकाएक एक चीत्कार ने उनका ध्यान भंग किया। एक भंगन रोती-पीटती चली आ रही थी, दीवाने-आम के सामने आकर वह धरती चूमकर और हाथ जोड़कर बोली:

'जहांपनाह, मिर्जा महमूद मेरी दो मुर्गियां ले गए।' लालकिले के बादशाह भंगन की फर्याद से खिन्न होकर बोले-रो मत, जा मुर्गियां आती हैं।

भंगन ज़मीन चूमती हुई उलटे पैर लौट गई, शाहज़ादा मिर्जा महमूद की तलबी हुई। वे आंखें नीची किए आ खड़े हुए।

'अरे महमूद! गरीब भंगन की मुर्गियां, हाय-हाय!' बादशाह ने करुण भाव से कहा, फिर अलीअहमद दारोगा की ओर देखकर बोले-दिलवा दो, और एक बढ़ती।

मिर्जा महमूद ने धरती चूमी और दारोगा ने उन्हें संग ले जाकर तीन मुगियां भंगन को दिलवा दीं। वह सन् १८५७ की ग्यारहवीं मई का प्रभात था। मुगलों का प्रताप-सूर्य अस्त हो चला था, बादशाह बहादुरशाह बूढ़े और असहाय थे। उनकी बादशाहत सिर्फ लालकिले ही तक सीमित थी। बाकी तमाम मुल्क अंग्रेजी अमलदारी में आ गया था। बादशाह भावुक और सज्जन थे। दुहत्थे शासन की गड़बड़ी देश में चल रही थी। दिल्ली में भांति-भांति की अफवाहें फैल रहीं थीं, कुछ लोग कहते थे कि ग्यारहवीं मई को दिल्ली लूटी जाएगी! परन्तु अफसर सावधान न थे।

सात बजे सुबह हथियारबन्द सिपाहियों की एक टुकड़ी नावों के पुल को पार करके नगर में घुसी। उसने पहले पुल के ठेकेदार को मार डाला और उसका सब रुपया लूट लिया। इसके बाद उन्होंने पुल को तोड़ दिया। नगर कोतवाल खबर पाते ही अंग्रेज़ रेजीडेण्ट के पास गया। रेजीडेण्ट ने कोतवाल को तमाम कागज़ात शहर में ले जाने की आज्ञा दी और तुरन्त किले में आकर उसके सब फाटक बन्द करा दिए। उस समय किले में और भी कई अंग्रेज़ पुरुष और स्त्री थे।

थोड़ी देर बाद किसीने किले के लाहौरी दरवाजे पर आकर कहा:

'द्वार खोल दो।'

'तुम कौन हो?'

'मैं मेरठ के रिसाले का सवार हूं।'

'और लोग कहां हैं?'

'अंगूरी बाग में हैं।'

'उन्हें भी ले आओ।

सवार लौट गया और सूबेदार चुपचाप फाटक पर टहलने लगा। विद्रोही दल फाटक पर आ पहुंचा। और सूबेदार ने फाटक खोल दिया। विद्रोही दल तेजी से किले में घुस पड़ा। यह देख रेजीडेण्ट पीले पड़ गए। उन्होंने सूबेदार को आज्ञा दी कि फाटक की गारद के सिपाहियों को बन्दूक भरने की आज्ञा दो। सूबेदार ने गाली देकर कहा-भाग सूअर।-इसके बाद ही एक गोली ने रेजीडेण्ट का काम तमाम कर दिया। अब तो जहां जो अंग्रेज़ मिला कत्ल कर दिया गया। दरियागंज, जहां अंग्रेज़ लोग रहते थे, वहां के सभी मकानों में आग लगा दी गई। सारे शहर में लूट-मार और मार-काट मच गई। और दोपहर होते-होते शहर का वह भाग धांय-धांय जलने लगा।  उसी दिन प्रातःकाल आठ बजे के लगभग पांच-छः सवार दीवाने-खास की ओर बढ़े और जोर-जोर से चिल्लाने लगे। बादशाह ने गुलामों से कहा-देखो, ये कौन हैं, उन्हें शोर करने से रोक दो।-इतना कहकर वे अपने खास कमरे में चले गए। उन्होंने अपने मुख्तार गुलामअब्बास को बुलाया और कहा-ये सवार मेरठ से आए हैं और चाहते हैं कि मज़हब की हिफाज़त में अंग्रेजों से लड़ें, तम फौरन कप्तान डगलस के पास जाकर इत्तला कर दो और उनसे मुनासिब बन्दोबस्त करने को कह दो।-इतना कह उन्होंने अपने शाही खिदमतगार से कहकर दरवाज़ा बन्द करा लिया। आज्ञानुसार गुलामअब्बास कप्तान डगलस के पास गया और उन्हें शाही हुक्म सुना दिया। कप्तान डगलस सुनते ही साथ हो लिए और दीवाने-खास में आए, बादशाह भी इनसे मिलने के लिए आ गए। बादशाह में इस समय खासी शक्ति थी। वे बिना किसीका सहारा लिए सिर्फ लकड़ी टेकते हुए आ गए थे। उन्होंने कप्तान डगलस से पूछा-आपको मालूम हुआ कि क्या मामला है? ये फौजी सवार आए हैं। और मनमानी कार्यवाही बहुत जल्द शुरू करना चाहते हैं।-हकीम अहसानउल्लाखां और गुलामअब्बास भी उस समय वहीं उपस्थित थे। कप्तान डगलस ने बादशाह से प्रार्थना की कि खास बैठक का दरवाजा खुलवा दीजिए जिससे मैं उन सवारों से मुंह दर मुंह बात कर सकें। बादशाह ने कहा कि मैं आपको ऐसा न करने दूंगा, क्योंकि वे लोग कातिल हैं, ऐसा न हो कि आपपर वार कर दें। परन्तु कप्तान डगलस ने दरवाजा खुलवाने के लिए हठ किया, पर बादशाह सहमत नहीं हुए और कप्तान डगलस का हाथ थामकर कहा कि मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा। इसी वक्त हकीम अहसानउल्लाखां ने उसका दूसरा हाथ पकड़ लिया और कहा-अगर आपको बातचीत ही करनी है तो बरामदे में से कर लीजिए।-इसपर कप्तान डगलस दीवाने-खास और कमरा शाही के बीचवाले कटहरे में आए। और उस स्थान को देखने लगे जहां वे सब सवार जमा हो रहे थे। वहां तीस-चालीस सवार नीचे खड़े नजर आए जिनमें से कुछ के पास नंगी तलवारें थीं और कुछ पिस्तौल और कारतूस हाथ में लिए हए थे। और भी कई एक पुल की तरफ से चले आ रहे थे। इनके साथ अनेक पैदल भी थे, जो शायद साईस थे, जिनके सिरों पर गठरियां थीं। कप्तान डगलस ने सवारों को ललकारकर रहा-इधर न आना। ये शाही बेगमात के कमरे हैं। तुम यहां खड़े होकर बादशाह की बेइज्जती कर रहे हो। यह सुनते ही वे सब एक एक करके राजघाट के फाटक से चले गए। इनके जाने के बाद कप्तान बादशाह के पास फिर हाजिर हुए। बादशाह ने किला और शहर के दरवाजे बन्द करने के लिए कहा, जिससे विद्रोही भीतर न आ सकें। कप्तान डगलस ने बादशाह को विश्वास दिलाया कि भय की कोई बात नहीं है और वे उचित प्रबन्ध करेंगे।

यह कहकर कप्तान डगलस चले गए और वादशाह अपने कमरे में चले आए। अब्बास और हकीम अहसानुल्लाखां दोनों दीवाने-खास में आकर बैठ गए। यहां इन्हें बैठे हुए एक घण्टा बीता होगा कि कप्तान डगलस का खिदमतगार एक रुक्का लिए हुए दौड़ता आया, जिसमें हकीम अहसानुल्लाखां को बुलाया था। अहसानुल्लाखां ने अब्बास को भी साथ ले लिया। जो आदमी उन्हें लेने के लिए आया था, उसने कहा था कि कप्तान डगलस कलीदखाने में हैं। परन्तु वहां पहुंचकर मालूम हुआ कि वे अपने मकान पर चले गए हैं। इसी समय उन्होंने दरियागंज में बहुत-सा धुआं उड़ते देखा। और राह-चलतों की ज़बानी सुना कि सवार बंगलों पर फायर कर रहे हैं। जब वे गश्त करते हुए कप्तान डगलस के निवास-स्थान पर लाहौरी दरवाजे (किले के) पर पहुंचे तो मालूम हुआ कि वे तीसरे कमरे में हैं। बीच के कमरे में मिस्टर सीमैन फ्रेजर मिले। हकीम अहसानुल्लाखां कप्तान डगलस से मिलकर फिर किले के अन्दर चले गए। और अब्बास मिस्टर फ्रेज़र के अनुरोध से इनके साथ हो लिए। ये बादशाह से दो तोपें और कुछ पैदल सवार कप्तान डगलस के निवास स्थान की रक्षा के लिए मांगने जा रहे थे। अब्बास और मि० फ्रेजर सीढ़ियों से उतर आए, उनके साथ एक सज्जन और थे। मि० फ्रेजर के पास एक तलवार थी और इनके साथी के पास एक हाथ में पिस्तौल और दूसरे में बन्दूक थी। मि० फेज़र ने जल्द पहुंचने की इच्छा की। बादशाह के कमरे में पहुंचकर उन्होंने ज्योंही खबर कराई बादशाह बाहर आ गए। अब्बास ने मि० फेज़र की प्रार्थना बादशाह से निवेदन की। बादशाह ने सुनते ही तमाम फौज जो उस वक्त उपस्थित थी, कुछ अफसरोंसहित, जो मिल सके, दो तो लेकर फौरन कप्तान डगलस के निवास स्थान पर पहुंचने की आज्ञा दी। इसी समय हकीम अहसानुल्लाखां भी आ गए। उन्होंने बादशाह से कहा कि कप्तान डगलस ने दो पालकियों के लिए भी प्रार्थना की है। जिससे लेडियों को, जो इनके मकान में ठहरी हैं, हरमसरा में लाकर छिपा दिया जाए। बादशाह ने हकीम अहसानुल्लाखां से बन्दोबस्त करने के लिए कहा। और नियत सेवकों को दो पालकियां और उनके उठाने के लिए विश्वासी कहारों को भेजने का हुक्म दिया और कहा-उन्हें सीधे रास्ते न लाएं। किन्तु बाग के पीछे से चक्कर देकर लाएं, जिससे विद्रोही सवारों को, जो किले में घुस गए हैं, यह न मालूम होने पाए।-बादशाह हुक्म देकर अन्दर खड़े हुए जल्दी की ताकीद कर रहे थे और हकीम अहसानुल्लाखां इनके पास खड़े हुए थे। थोड़ी देर बाद एक सेवक, जो पालकियां लेने गया था, वापस आकर कहने लगा कि पालकियां भेज दी गई हैं। परन्तु थोड़ी देर बाद पालकियोंवाले भी उलटकर आ गए। उन्होंने सूचना दी कि मि० फेज़र कत्ल कर दिए गए।

यह दस बजे से पहले की घटना है। हकीम अहसानुल्लाखां ने फिर दूसरा आदमी ठीक खबर लाने को भेजा। साथ ही कप्तान डगलस कहां हैं, यह भी दर्याफ्त कराया। वे लोग कुछ देर बाद वापस आए और कहा कि मि फेज़र ही नहीं किन्तु कप्तान डगलस और उनके साथवाली स्त्रियां भी कत्ल कर डाली गई।

बादशाह यह सुनकर अन्दर चले गए, मगर गुलामअब्बास हकीम अहसानुल्लाखां के साथ अत्यन्त साहस करके दीवानखाने के कमरे में चला आया। तत्काल बाद ही पैदल सिपाहियों के दोनों दस्ते, जो किले के फाटकों पर थे, मेरठ के बागी सवारों को साथ लिए हुए दीवाने-खास में आए, जहां इन लोगों ने बन्दूकों और पिस्तौलों से हवा में फायर किए और एक हंगामा जमा कर दिया। बादशाह शोरगुल सुनकर अन्दर से निकल आए और दीवाने-खास के दरवाजे पर खड़े होकर अपने खिदमतगारों से कहा-लोगों को शोर मचाने से रोको और सिपाहियों को आगे आने को कहो।-फिर शोर बन्द हो गया। और अफसर सवार उसी तरह घोड़ों पर चढ़े हुए बादशाह के पास आए और कहा-वे चाहते हैं कि कारतूसों का इस्तेमाल एकदम बन्द कर दिया जाए, जो हिन्दू और मुसलमान दोनों के मजहब के खिलाफ है। क्योंकि इनमें सुअर और गाय की चर्बी है। और उन्होंने यह भी कहा कि हाल ही में उन्होंने मेरठ के तमाम अंग्रेजों को कत्ल कर डाला है, और अब वे बादशाह से सहायता चाहते हैं। बादशाह ने जवाब दिया-मैंने तुम्हें नहीं बुलाया था। यह तुमने बड़ी दुष्टता का काम किया। इसपर एक सौ या दो सौ के लगभग सिपाही जो मेरठ से आए थे, आगे बढ़े और दीवाने-खास में घुस गए और कहाजब तक हुजूर बादशाह हममें सम्मिलित न हों, हम मुर्दा लोग हैं और कुछ भी नहीं कर सकते। फिर बादशाह एक कुर्सी पर बैठ गए और सिपाही, सवार, अफसर एक के बाद दूसरे आते गए और जमीन पर गिर-गिरकर बादशाह को अपना हाथ इनके सिरों पर रखने के लिए प्रार्थना की। बादशाह ने ऐसा ही किया। उस समय खूब शोर और ऊधम मचा हुआ था। और सब लोग एक राय होकर ऊंची आवाज़ से चिल्ला रहे थे। बादशाह अपने खास कमरे में चले गए। और सवारों ने सहन में घोड़े बांधकर दीवाने-आम में अपने विस्तर खोलकर बिछा दिए। और किले के चारों तरफ पहरा तैनात कर दिया।

विद्रोहियों के शहर में घुस आने, अंग्रेजों के कत्ल करने, इमारतों को जलाने, ढहाने, महसूलखाना मीरवहर को ढा देने की खबर जब छावनी में पहुंची तो जंगी अफसरों ने तमाम फौज को तैयार होने का हुक्म दिया।

सबसे पहले ५४ नं० रेजीमेण्ट हिन्दुस्तानी पैदलों की छः कम्पनियां रेली साहब की अधीनता में काश्मीरी दरवाजे की ओर चलीं। इनके साथ सिर्फ बन्दूकें थीं। दो कम्पनियां मेजर टेम्प्रेस की अधीनता में तोपों के साथ जाने को तैयार हो गईं। थोड़ी दूर ही पर विद्रोहियों से इनकी भेंट हो गई। अफसर बेफिक्री से आगे-आगे चल रहे थे। विद्रोहियों ने सिपाहियों से कहा-तुम्हें हम कुछ न कहेंगे, सिर्फ इन फिरंगियों को मारेंगे।-इतना कहकर उन्होंने गोलियां सर करनी शुरू कर दी। पहली ही गोली में कर्नल रेली गिर पड़े, विद्रोहियों ने तत्काल उनका सिर काट डाला।

कम्पनी के सिपाहियों ने अफसरों की आज्ञा से न बन्दूकें भरीं न विद्रोहियों को रोका-वे सब भी विद्रोहियों में मिल गए। इतने में एक कप्तान सिपाहियों की गारद लिए पहुंच गए जो एक सप्ताह के लिए शहर की रक्षा के लिए नियत किए गए थे। उन्होंने यह माजरा देख अपनी गारद को फायर का हुक्म दिया। पर उन्होंने भी उनकी परवाह न की और कहने लगे-तुम फिरंगियों ने हमारा मज़हब खराब किया है। हमसे अब रहम की आशा न रखना। निदान सभी अफसर कत्ल कर डाले गए।

ग्यारह बजे दोपहर को जब इस घटना की खबर छावनी पहुंची तब ७४ नं० रेजीमेण्ट की पूरी टुकड़ी विद्रोह का दमन करने को शहर की ओर चली। परन्तु इसकी सिर्फ दो ही कम्पनियां वहां हाजिर थीं, बाकी सब सिपाही लापता थे। रास्ते में अफसरों की लाशें छावनी की ओर गाड़ियों पर लदी हुई आती दीख पड़ी। उनके ऊपर स्त्रियों के गाउन पड़े थे।

बारह बजे के लगभग पहाड़ी पर का बुर्ज स्त्रियों, घायलों और बच्चों से भर  गया। किसी तरह का प्रबन्ध सम्भव न था, बेहद शोर हो रहा था। न खाने का प्रबन्ध था न पानी का। कोई न किसीकी आज्ञा मानता था और न कुछ सुनता था।

शाम हो रही थी, शहर में चारों ओर आग ही आग दीख रही थी। पद-पद पर विपद और अशान्ति बढ़ रही थी, आसपास के सिपाही बे-कहे हो रहे थे। अन्त में सबने जैसे बना वहां से भाग जाने में खैर समझी। जिधर जिसका सींग समाया भाग निकला। कोई करनाल, कोई मेरठ और कोई किसी ओर।

उसी दिन सुबह सात-आठ बजे के बीच सर पी ओफल्स मेटकाफ युगली साहब के मकान पर गए और कहा-मेगजीन में चलकर दो तो निकलवा दीजिए और उन्हें पुल पर भिजवा दीजिए जिससे विद्रोही पुल न पार कर सकें।

युगली साहब मेटकाफ साहब के साथ मेगज़ीन तक आए। वहां लेफ्टिनेण्ट ड्यूली, लेफ्टिनेन्ट रेंज, कंडक्टर और एक्टिङ्ग सब-कण्डक्टर कटरो तथा सार्जण्ट एडवर्ड और स्टुअर्ट अपने हिन्दुस्तानी अमले के साथ हाज़िर थे। सर पी ओफल्स अपनी गाड़ी से उतर पड़े और लेफ्टिनेण्ट ड्यूली के साथ बुर्ज पर गए जो यमुना की तरफ था। वहां से पुल साफ नजर आ रहा था। वहां पहुंचकर देखा तो विद्रोही पुल को पार कर रहे थे। यह देखते ही सर पी और मेटकाफ लेफ्टिनेण्ट ड्यूली को लेकर तुरन्त शहरपनाह के दरवाजे देखने गए, जो सब खुले थे और विद्रोही उसमें शोर मचाते हुए प्रविष्ट हो रहे थे। यह देख लेफ्टिनेण्ट घोड़ा दौड़ाते हुए मेगज़ीन में वापस आए और उसके दरवाजे बन्द कराकर तेगे लगवा दिए और दरवाजे के भीतर दो तोपें छः पन्नी की दुचन्द गर्राव भरवाकर एक्टिङ्ग सब-कन्डक्टर और सार्जेण्ट स्टुअर्ट की अधीनता में दे दी। इन लोगों को बत्तियां देकर हुक्म दे दिया गया कि अगर विद्रोही दरवाजे के भीतर घुसें तो तो सर कर दी जाएं। मेगज़ीन का बड़ा दरवाजा भी उसी तरह दो तोपों से मज़बूत कर दिया गया तथा दरवाजों के अन्दर गोखरू बिछवा दिए गए। इसके सिवा दो तोपें दूरदर्शिता के खयाल से इस तरह और रखवा दी गईं कि उनका गोला दरवाजे और बुर्ज तक पहुंच सके। दरवाज़ों तथा सामान के दफ्तर के बीच के रास्ते में छ:-छः पन्नी और चौबीस पन्नी का गुब्बारा इस तरह गाड़ दिया गया था कि जिधर चाहें घुमाकर आसपास के मकानों की रक्षा कर सकें। इन सब गुब्बारों और तोपों में दूने गर्राव छरे भरवा दिए गए थे। इस प्रकार मेगज़ीन की रक्षा का यथासम्भव प्रबन्ध करके हिंदुस्तानी अमलों को हथियार बांटे गए, जो उन्होंने अनिच्छा से लिए। इसके बाद कण्डक्टर एकलो तथा साजण्ट स्टुअर्ट ने एक शिताबा लगाया। और हुक्म दिया गया कि जब लेफ्टिनेण्ट के हुक्म से कण्डक्टर युमली अपनी टोपी सिर से उठाकर इशारा करें, फौरन शिताबे में आग दे दी जाए।

यह प्रबन्ध हो ही रहा था कि किले से एक गारद ने आकर कहा-शाहेदेहली का हुक्म है कि फौरन मेगज़ीन उनके हवाले कर दी जाए। परन्तु, इस हुक्म की तालीम नहीं की गई, न जवाव दिया गया। इसी बीच में लेफ्टिनेण्ट को इत्तला मिली कि मेगज़ीन की दीवारों पर चढ़ने के लिए किले से जीने आ रहे हैं।

कुछ देर में जीने आ गए और टिड्डीदल की तरह विद्रोही मेगज़ीन में घुस आए। भीतर के सिपाही भी उनमें मिल गए। जब तक गोला-बारूद रहा लड़ाई होती रही। लाशों के ढेर लग गए पर विद्रोही बहुत थे।

लेफ्टिनेण्ट रेंज ने रक्षा के सब उपाय कर डाले, सब तोपें चार-चार बार सर की गईं। विद्रोही सावन-भादों की बौछार की तरह गोलियां बरसा रहे थे। जब गोला-बारूद खत्म हो गया और बचने की कोई आशा न रही तो लेफ्टिनेण्ट ड्यूली ने मेगज़ीन को उड़ाने का इशारा किया। उसकी तामील तुरन्त कर दी गई। तमाम शिताबों में आग लगा दी गई। ऐसा धड़ाका हुआ कि आसपास के मकान ढह गए। जो दीवारें टूट गई थीं उनके रास्ते बचे-खुचे आदमी जमुना की ओर भागे। लेफ्टिनेण्ट रेंज और कण्डक्टर ड्यूली जीवित बच निकले। पर ये दोनों बुरी तरह झुलस गए थे। उनका सारा माल-असबाब, उनकी स्त्री और तीन बच्चे इसमें खत्म हो चुके थे और उनका एक हाथ भी बिलकुल निकम्मा हो गया था। जमुना-पार इन्हें विद्रोहियों ने घेर लिया। कई घाव आए, उनके सब कपड़े उतार लिए गए। ये भूखे-प्यासे किसी तरह बारह दिन भटकते-फिरते मेरठ पहुंच पाए।

लूट-पाट और खून-खरावी का बाजार गर्म था। विद्रोही सिपाहियों के साथ बहुत-से शहर के लुच्चे-गुण्डे मिल गए थे। पहले उन्होंने गिरजाघर और अंग्रेजों की कोठियों को लूटकर जला डाला, औरत-बच्चे और मर्द जो जहां मिले, कत्ल कर डाले गए। कुछ अंग्रेज़ स्त्री-पुरुष किसी तरह जान बचाकर छावनी में इकट्ठे हो गए थे। कैसे जान बचावें, भागकर कहां जाएं, यह सूझ नहीं पड़ता था। अनेक अंग्रेज अफसर हाथ, पैर और चेहरे पर कालिख पोत, फटे चिथड़े पहन कहीं के कहीं भाग निकले थे। सड़कों पर घोड़ों, बग्घियों, पालकियों और पैदलों की भरमार थी। चारों तरफ से बन्दूकों की आवाजें आ रही थीं। घायलों और मरनेवालों के कराहने की आवाज़ों से कलेजा कांप रहा था। सारे बाजार बन्द, सारी गलियों में सन्नाटा, सारे घर बन्द। विद्रोहियों ने नगर में एक घोड़ा भी नहीं छोड़ा था। सब छीन ले गए थे। जिन दुकानदारों ने उनसे दाम मांगा उनको उन्होंने मार डाला। बिना किसी छोटे-बड़े का लिहाज़ किए सबसे बदज़बानी की। मुसाफिरों को लूट लिया। शहरवाले भूखे मर रहे थे। विधवाएं मकानों में रो रही थीं। वे विद्रोहियों को गालियां दे रही थीं। नित नया कोतवाल बदलता था। जहां नकद रुपया दीखता विद्रोही लूट लेते थे। सब रुपया सिपाहियों के अधिकार में था। शाही खजाने में एक पैसा भी जमा न था, किसी-किसी विद्रोही रेजीमेण्ट के पास इतना रुपया जमा हो गया था कि वे मुश्किल से कूच कर सकते थे। बोझ कम करने को उन्हें रुपयों की मुहरें बदलवानी पड़ती थीं। महाजनों ने मुहरों का भाव इतना बढ़ा दिया था कि सोलह की मुहर चौबीस-पचीस की मिलती थी। जैसे उन्होंने महाजनों को लूटा था उसी भांति महाजन अब उन्हें लूटते थे। बहुधा पीतल की अशफियां तक बेच दी जाती थीं। जिस रेजीमेण्ट को लूट का माल हाथ न लगा था वे रुपयेवालों पर ईर्ष्या करते थे। रुपयेवाले सिपाही लड़ाई से कतराते थे। इससे दूसरी रेजीमेण्ट के सिपाही उन्हें लानत-मलामत देते थे। कभी-कभी दोनों में ठनते-ठनते रह जाती थी।

बादशाह की तरफ से प्रत्येक पैदल को चार आना और सवार को एक रुपया रोज़ भत्ता मिलता था। शाहजादे फौज के अफसर बना दिए गए थे। पर ये ऐश के पुतले दया के पात्र थे। बेचारों को दुपहरी की धूप में घोड़े पर चढ़कर घर से बाहर निकलना मुसीबत थी। इन्होंने गजलें सुनना, शराब पीना और मौज करना सीखा था। तोप और बन्दूकों की आवाज़ से इनके दिल धड़कते थे। न ये बेचारे परेड कराना जानते थे, न फौज का संचालन, न उनपर शासन ही कर सकते थे। उनकी मूर्खता पर सिपाही हंसते थे। कभी-कभी बदज़बानी भी कर बैठते थे। जो शाही फौज थी वह तो और भी बहादुर थी। जब उसका जी चाहता युद्धस्थल से लौट आती थी। ये लोग पैरों पर ज़ख्म के बहाने चिथड़े लपेटकर हाय-तोबा करते, लंगड़ाते वापस चले आते थे। ये लोग मारतों के पिछाड़ी और भागतों के अगाड़ी थे। बाहशाह सलामत फौज के लिए मिठाई वगैरा युद्ध स्थल में भेजते थे तो यार लोग रास्ते ही में उसे लूट लेते थे।

जिन विद्रोहियों का मतलब हल हो चुका था और जेबें भर गई थीं, उन्होंने अपनी तलवारें और बन्दूकें कुओं में डाल दी थीं; और तितर-बितर होकर जंगलों और देहातों में भाग गए थे। उन्हें भय था कि अंग्रेज़ी फौजें आ रही हैं। वास्तव में यदि उसी दिन अंग्रेज़ी फौजें आ जाती तो दिल्ली पर उसी दिन अधिकार हो जाता। इन्हें भी गांव के गूजरों ने खूब लूटा।

न तो बादशाह की आज्ञा ही कोई न मानता था, न शाहजादों ही को कोई पूछता था, न वे बिगुल की परवाह करते थे और न वे अफसरों की सुनते थे, न वे अपना कर्तव्य ही पालन करते थे। अपनी वर्दियां तक पहनने की उन्हें परवाह न थी। बेचारे शाहजादे जो इनके अफसर बनाए गए थे, अपनी फौज की भाषा तक नहीं समझ सकते थे। वे दुभाषियों के द्वारा बातें करते थे। वे अपने ऐशो-आराम की याद कर-करके पछताते थे।

शिल के गोलों से शहर के बहुत-से मकानात खंडहर हो चुके थे। दीवाने-खास में जो संगमर्मर का तख्त बिछा था, चूर-चूर हो गया था। अंग्रेजी स्कूल लूटकर जला डाला गया था और अंग्रेज़ी किताबें गली-कचों में पड़ी हुई थीं, जो अंग्रेजी बोलता था उसीकी सिपाही खूब मरम्मत कर डालते थे।

मेगजीन फटने से सैकड़ों मकान ढह गए थे। पांच सौ से अधिक आदमी मर गए थे। लोगों के मकानों में इतनी गोलियां गिरी थीं कि लड़कों ने आध-आध सेर और किसी-किसी ने सेर-सेर भर चुन ली थीं। मेगज़ीन फटने के बाद विद्रोही और गुण्डे उसे लूटने को टूट पड़े। जो सामान टोपी, बन्दूक, तलवार और संगीनें ले सके उठा ले गए। खलासियों ने घरों को उम्दा-उम्दा हथियारों से भर लिया और रुपये के तीन सेर के हिसाब से तोल-तोलकर बेच डाला। तांबे की चादरें रुपये की तीन सेर विकी। बन्दूक की कीमत आठ आना थी। फिर भी कोई खरीदता न था। अच्छी से अच्छी अंग्रेज़ी किर्च चार पाने में महंगी थीं और संगीन तो एक आने को भी कोई नहीं पूछता था। तोपदान और परतले इतने अधिक थे कि लूटनेवालों को इसका एक पैसा भी नहीं मिलता था। मजनू के टीले में जितनी बारूद थी, आधी तो गूजरों ने लूट ली थी और आधी शहर में आ गई थी। सिर्फ सात मास बाद २७ जनवरी, १८५८ को तख्ता पलट चुका था। वही बदनसीब दीवाने-खास था। चीफ कमिश्नर पंजाव सर जान लारेंस की आज्ञा से भाग्यहीन बादशाह पर एक योरोपियन फौजी कमीशन की अधीनता में मुकदमा चलाया जा रहा था। लेफ्टिनेण्ट कर्नल डास प्रधान विचारक के आसन पर थे। बादशाह मुहम्मदशाह अभियुक्त की हैसियत से अदालत में हाज़िर थे। दीवानेखास की सुनहरी छत लरज रही थी और उसके संगमर्मर के खम्भे कांप रहे थे।

हलफ आदि की साधारण कार्यवाही होने के बाद बादशाह पर फर्द जुर्म लगाया गया जिसका मतलब यह था:

बादशाह मुहम्मद बहादुरशाह ने कम्पनी बहादुर के पेंशनयाफ्ता होने पर भी सैनिकों को बगावत करने में उत्तेजना और मदद दी। उन्होंने अपने बेटे मिर्जा मूगल को, जो सरकार अंग्रेजी की प्रजा था, और अन्यों को सरकार अंग्रेज़ी के विरुद्ध हथियार उठाने में मदद दी। उन्होंने ब्रिटेन की प्रजा होने पर भी उसके प्रति राजभक्ति नहीं रखी। और अपने को अनुचित रूप से बादशाहे-हिन्द प्रसिद्ध कर लिया। जिससे अनेक अंग्रेज़ औरतें, बच्चे व मर्द कत्ल कर दिए गए। ये सब एक्ट १६ सन् १८५७ की रू से भयानक अपराध हैं।

फर्द जुर्म सुनाने के बाद अदालत ने वादशाह से पूछा:

'मुहम्मद बहादुरशाह, तुमने ये अपराध किए हैं?'

बादशाह ने मुस्कराकर कहा-नहीं।

अदालत ने गवाह बुलाने का हुक्म दिया। परन्तु सरकारी वकील ने मुकदमे की तशरीह करते हुए कहा कि अदालत के अधिकार सिर्फ फैसले ही तक सीमित किए गए हैं। क्योंकि मेजर जनरल विलसन ने अभियुक्त से वादा किया है कि उसे प्राणदण्ड नहीं दिया जाएगा। क्योंकि अभियुक्त की ज़िन्दगी का जिम्मा कप्तान हड्सन ने लिया है, इसलिए इस फौजी कमीशन को अधिकार नहीं था कि अभियुक्त के लिए कोई दण्ड तजवीज़ करे।

कागज़ पढ़े जाने लगे और बादशाह बेहोश हो गए। विवश अदालत अगले दिन के लिए उठ गई।

वह बूढ़ा बदनसीब बादशाह रंगून के एक शानदार कैदखाने में एक लाचार लावारिस कैदी की भांति अपने आखिरी दिन बिताकर एक दिन मर गया!