कवि-रहस्य/8 काव्यार्थ के मूल
‘सामान्यवाची भी पद मेरे प्रति विशेषवाची हो गया ? सामान्यतः स्त्रीपद का प्रयोग जहाँ होता है तहाँ हमको उसी वामनयना (मेरी प्रिय-तमा) का भान होता है ।’
फिर न्याय का यह सिद्धांत है, कि ‘निरतिशय ऐश्वर्य से युक्त हो ही कर ईश्वर जगत् का कर्ता होता है ।’ इसी आधार पर कवि कहता है——·
किमोहः किं कायः स खलु किमुपायस्त्रिभुवनं
किमाधारो धाता सृजति किमुपादान इति च ।
अतक्यैश्वयें त्वय्यनवसरदुःस्थो हतधियः
कुतर्कोऽयं कांश्चिन्मुखरयति मोहाय जगतः ॥
(६) समयविद्याओं म बौद्धसिद्धांत के आधार पर यह श्लोक है--
कलिकलुषकृतानि यानि लोके मयि निपतन्तु विमुच्यतां स लोकः।
मम हि सुचरितेन सर्वसत्वाः परमसुखेन सुखावनी प्रयान्तु ॥
बोधिसत्त्व कहते हैं--‘जितने पाप के फल हैं सब मेरे ऊपर गिरें और मेरे जितने पुण्य हैं उनसे संसार के सब प्राणी सुखी होवें ।’
(७) अर्थशास्त्र के सिद्धांत के आधार पर--
बहुव्याजं राज्यं न सुकरमराजप्रणिधिभिः
‘राजकार्य छल से भरा हुआ है--विना चारों के काम नहीं चल सकता’।
(८) नाट्यशास्त्र के सिद्धांत के आधार पर--
पार्वती को नृत्य की शिक्षा देते हुए शिव जी की उक्ति--
एवं धारय देवि बाहुलतिकामेवं कुरुष्वांगकं
मात्युच्चैर्नम कुञ्चयाग्रचरणं मां पश्य तावत्स्थितम् ।
‘हे देवि इस तरह बाहु को फैलाओ--शरीर को ऐसा करो-- बहुत नीचे न झुको--पैरों को जरा मोड़ लो--मैं जैसे खड़ा हूँ सो देखो’ ।
(९) कामशास्त्र के आधार पर--
नाश्चयं त्वयि यल्लक्ष्मीः क्षिप्त्वाऽधोक्षजमा गता।
असो मन्दरतस्त्वं तु प्राप्तः समरतस्तया ॥
‘लक्ष्मी विष्णु को छोड़कर जो तुम्हारे पास आई--इसमें कुछ आश्चर्य नहीं । विष्णु मन्दर पर्वत से आये (मन्द रत हैं) और तुम समर (लड़ाई) से आये (सम-रत) हो ।’
(१०) लौकिक——
पिबन्त्यास्वाद्य मरिचताम्बूलविशदैमुंखैः ।
प्रियाधरावदंशानि मधूनि द्रविडांगना:॥
‘मिर्च और पान से स्वच्छ मुख द्वारा द्रविड स्त्रियाँ अपने प्रियतम के अधरों में लगा हुआ मद्य पीती हैं ।’
(११) कवि-कल्पित कथा के आधार पर--
अस्ति चित्रशिखो नाम खङ्विद्याधराधिपः ।
दक्षिणे मलयोत्संगे रत्नवत्याः पुरः पतिः ॥
तस्य रत्नाकरसुता श्रियो देव्याः सहोदरी ।
स्वयंवरविधावासीत् कलत्रं चित्रसुन्दरी ॥
‘मलय के दक्षिण भाग में रत्नवती नगर में खङ्गविद्याधराधिप राजा हैं । रत्नाकर की लड़की लक्ष्मीदेवी की सहोदर बहिन चित्र--सुन्दरी नाम की स्वयंवर विधान से उनकी पत्नी हुई ।’
(१२) प्रकीर्ण--धनुर्वेद के आधार पर--
स दक्षिणापांग निविष्टमुष्टि नतांसमाकुञ्चितसत्यपादम्।
ददर्श · चक्रीकृतचारचापं प्रहर्तुमभ्युद्यतमात्मयोनिम् ॥
‘शिवजी ने कामदेव को देखा जिस समय कामदेव दक्षिणनेत्र में मुष्टि लगाये कन्धे को झुकाये बायें पैर को मोड़े धनुष खींचे उनको बाण मारने को उद्यत थे ।’
(१३) उचित संयोग के आधार पर--
पाण्डपोऽयमंसापितलम्बहारः क्लुप्तांगरागो हरिचन्दनेन ।
आभाति बालातपरक्तसानुः सनिर्झरोद्गार इवाद्विराजः॥
‘पांडय राजा के कन्धे पर (लाल) माला पड़ी है--और शरीर में
(१४) योक्तृसंयोग——
कुर्वदि्भ: सरदन्तिनो मधुलिहामस्वादु दानोदकं
तन्वानैर्नमुचित्रुहो भगवतश्चक्षुः सहस्रव्यथाम् ।
मज्जन् स्वर्गतरंगिणीजलभरे पंकीकृते पांसुभि--
र्द्यात्राव्यसनं निनिन्द विमनाः स्वर्लोकनारीजनः ॥
‘स्वर्ग की स्त्रियाँ राजा की सवारी से जो उपद्रव हुआ उसकी निन्दा करती गईं । उस सवारी से इतनी धूल उड़ी कि देवताओं के हाथियों की मद-धारा धूल से भरी हुई मधुमक्खियों को कुस्वादु लगने लगी--भग-वान् इन्द्र की हजारों आँखों में पीड़ा होने लगी--जिस स्वर्गगंगा के जल में वे स्त्रियाँ नहाती थीं उसका जल पंकमय हो गया ।’
(१५) उत्पाद्यसंयोग--
उभौ यदि व्योम्नि पृथक्प्रवाही आकाशगंगापयसः पतेताम् ।
तेनोपनीयेत तमालनील मामुक्त मुक्तालतमस्य वक्षः ।
‘नील आकाश में यदि स्वर्गगंगाजल की दो धाराएँ गिरती तो उससे भगवान् कृष्ण की मुक्तामालाशोभित वक्षस्थल की उपमा हो सकती ।
(१६) संयोगविकार--
गुणानुराग मिश्रेण यशसा तव सर्पता ।
दिग्वधूनां मुखे जातमकस्मादर्धकुंकुमम् ॥
‘गुणानुराग (लाल) से मिश्रित तुम्हारा (श्वेत) यश जब सर्वत्र फैला तब दिशारूपी स्त्रियों के मुख-कुंकुम आधा ही रंजित से हुए (आधाश्वेत ही भासित हुआ) ।’
काव्य के ‘विषय’ या ‘पात्र’ सात प्रकार के होते हैं--
(१) ‘दिव्य’, स्वर्गीय--जहां इन्द्र, शची, अप्सरा इत्यादि के वर्णन स्वर्ग ही के संबंध में होता है ।
स्वर्गीय पुरुष का मर्त्यलोक में आना तथा मर्त्य पुरुष का स्वर्ग जाना—जैसे शिशपालवध में नारद का द्वारका आना, अर्जुन का इन्द्र के पास जाना। स्वर्गीय व्यक्ति मर्त्य हो जाय तथा मर्त्य स्वर्गीय हो जाय—जैसे श्रीकृष्ण का अवतार और गंगातट पर मरे हुए मनुष्यों का विमान पर स्वर्ग जाना। स्वर्गीय वृत्तांत की कल्पना—जैसे दो गंधर्वो के वार्तालाप की कल्पना। किसी व्यक्ति का स्वर्गीय भाव उनके प्रभाव से आविर्भूत हुआ—जैसे श्रीकृष्ण ने यशोदा की गोद में सोये हुए स्वप्न में कुछ ऐसी बातें कहीं जिनसे उनका दिव्य-भाव सूचित हुआ।
(३) मर्त्य (मानुष) मनुष्यों की घरेलू घटनाओं का वर्णन।
(४) पातालीय—नागलोक में तक्षकादि नागों के चरित्र का वर्णन।
(५) मर्त्यपातालीय—कर्णार्जुन युद्ध में कर्ण के शर में प्रविष्ट नाग जब दोबारा उनके पास आया और कहा फिर भी मैं तुम्हारे शर में प्रवेश करता हूँ तुम उस शर को चलाओ। तब कर्ण (मनुष्य) ने नाग (पातालीय) से कहा कि 'यह समझ रक्खो कि कर्ण दोबारा एक बाण को नहीं चलाता—तुम देखो मैं अभी मामूली मर्त्यलोकसम्बन्धी शरों ही से अर्जुन को मार गिराता हूँ।'
(६) दिव्यपातालीय—शिवजी (दिव्य) के शरीर पर नागराज (पातालीय) का वर्णन।
(७) स्वर्गमर्त्यपातालीय—जनमेजय के सर्पयज्ञ के संबंध में आस्तीक ऋषि (मनुष्य), तक्षकनाग (पातालीय) और इन्द्र (स्वर्गीय) का वर्णन।