कवि-रहस्य
गंगानाथ झा

इलाहाबाद: हिन्दुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ८३ से – ८५ तक

 

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देश-विभाग की तरह काल-विभाग का भी ज्ञान आवश्यक है ।

१५ निमेष की ‘काष्ठा’

३० काष्ठा की ‘कला’

३० कला का ‘मुहर्त’

३० मुहूर्त की ‘अहोरात्र’ (दिन रात)

यह हिसाब चैत्र और आश्विन मास का है (जब रात दिन बराबर होते हैं)। चैत्र के बाद तीन महीने तक प्रतिमास एक मुहूर्त करके दिन की वृद्धि होती है और रात का ह्रास। फिर उसके बाद तीन मास तक प्रतिमास एक मुहूर्त रात की वृद्धि, दिन की हानि होती है । इस तरह आश्विन में जाकर दिन रात बराबर हो जाते हैं। आश्विन के बाद तीन महीने तक प्रतिमास एक मुहुर्त दिन का ह्रास रात की वृद्धि । उसके बाद तीन मास तक रात्रि का ह्रास दिन की वृद्धि । इस तरह चैत्र में फिर रात दिन बराबर हो जाते हैं ।

जितने काल में सूर्य एक राशि से दूसरे राशि में जाता है उतने काल को ‘मास’ कहते हैं । वर्षा ऋतु से छः महीने ‘दक्षिणायन’ (सूर्य दक्षिण की ओर) रहते हैं, और शिशिर ऋतु से छः महीने ‘उत्तरायण’ । दो अयनों का संवत्सर’ (वर्ष)——यह काल का मान ‘सौर’ (सूर्य के अनुसार) कहलाता है । १५ अहोरात्र का ‘पक्ष’ । जिस पक्ष में चन्द्रमंडल प्रतिदिन बढ़ता है उसे ‘शुक्लपक्ष’, जिसमें घटता है उसे ‘कृष्णपक्ष’

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कहते हैं । दोनों पक्षों का एक ‘मास’ जिसके आदि में शुक्ल पक्ष पीछ कृष्णपक्ष होता है । यह मान ‘पित्र्य’ कहलाता है । वैदिक क्रियाएँ सब इसी मान के अनुसार होती हैं । ‘पित्र्य’ मास के पक्षों का व्यत्यास कर देने से ‘चान्द्र’ मास होता है, जिसके आदि में कृष्णपक्ष पीछे शुक्लपक्ष होता है । आर्यावर्त के वासी और कवि इसी चान्द्रमास का अवलम्बन करते हैं । ऐसे दो पक्षों का ‘मास’, दो मासों का ‘ऋतु’, छः ऋतुओं का ‘संवत्सर’ । संवत्सर चैत्र मास से आरंभ होता है ऐसा ज्योतिषियों का सिद्धांत है, श्रावण से आरम्भ होता है ऐसा लोकव्यवहार प्रसिद्ध है । नभ-नभस्य (श्रावण-भादों) वर्षा-ऋतु । इष-ऊर्ज (आश्विन-कार्तिक) शरत् । सह-सहस्य (अगहन-पूस) हेमन्त । तप-तपस्य (माघ-फाल्गुन) शिशिर । मधु-माधव (चैत-वैशाख) वसन्त । शुक्र-शुचि (जठ-आसाढ़) ग्रीष्म ।

वर्षा-ऋतु में पूर्वीय हवा बहती है, ऐसी कवि प्रसिद्धि है । वस्तुस्थिति एसी नहीं भी हो तथापि वर्णन ऐसा ही होना चाहिए । शरत् ऋतु में किधर की वाय होगी सो नियमित नहीं है । हेमन्त में पश्चिम वाय——ऐसा कुछ लोगों का सिद्धांत है । कुछ लोग ‘उत्तर’ कहते हैं । असल में दोनों ठीक हैं पाँचवाँ । शिशिर में भी हेमन्त की तरह पश्चिम वा उत्तर, वसन्त में दक्षिण वायु बहती है । वसन्त में वायु का नियम नहीं है ऐसा कुछ लोग कहते हैं । कुछ लोग ‘नैऋत’ बतलाते हैं ।

ऋतुओं के वर्णन में इनकी चार अवस्थाओं का वर्णन उचित है । ये अवस्थाएँ हैं——सन्धि, शैशव, प्रौढि, अनुवृत्ति । दो ऋतुओं के बीच के समय को ‘ऋतुसन्धि’ कहते हैं । [‘शैशव’ है आरम्भ का समय, ‘प्रौढि’ पूर्ण परिणतावस्था का समय । एक ऋतु के बीतने पर भी जिस समय कुछ-कुछ उसके चिह्न दिखाई देते हैं उसे बीते ऋतु की ‘अनुवृत्ति’ कहते हैं । जैसे कमल फूलने का ऋतु है ग्रीष्म——पर कभी-कभी कहीं-कहीं वर्षा के आने पर भी कमल फूलते देखे जाते हैं]

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यह तो हुई प्राचीनों के अनुसार कवि-शिक्षा-प्रणाली । पर आज- कल के उत्साही कवियों को इससे हतोत्साह नहीं होना चाहिए। संस्कृत

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में १००,१५० बरस का पुराना एक ग्रन्थ है ‘कविकर्पटिका’। इसमें ग्रन्थ-कार की प्रतिज्ञा है——

यत्नादिमां कण्ठगतां विधाय श्रुतोपदेशाद् विदितोपदेशः।

अज्ञातशब्दार्थविनिश्चयोऽपि श्लोकं करोत्येव समासु शीघ्रम् ॥

अर्थात् इस ग्रन्थ को जो कण्ठस्थ कर लेगा सो शब्दार्थ को नहीं जानते हुए भी सभाओं में शीघ्र श्लोक बना सकेगा । इसका प्रकार यों है । अनुष्टुप् छन्द में चन्द्रमा का वर्णन करना है । इसके लिए बहुत से समुचित शब्दान् का संग्रह है । (१) आदि के पाँच अक्षर के शब्द--‘कर्पूरपूर’, ‘पिण्डीरपिण्ड’, ‘गंगाप्रवाह’ इत्यादि । (२) तदुत्तर तीन अक्षर के शब्द--‘नीकाशं’, ‘संकाशं’, ‘संस्पर्धि’ इत्यादि । (३) द्वितीयपाद में दो अक्षर के-- ‘वपुः’, ‘तेजः’, ‘दीप्तिः’ इत्यादि । (४)द्वितीयपाद म इसके बाद--‘यस्य’, या ‘तस्य’। (५) फिर तीन अक्षर के पद--‘प्रसाद्यते’, ‘विलोक्यते’, ‘प्रतीक्ष्यते’ इत्यादि । (६) तृतीयपाद में आदि के तीन अक्षर--‘चन्द्रोऽयम्’, । (७) फिर तृतीय पाद में पाँच अक्षर--‘राजते रम्यः’, ‘शोभते भद्रः’,‘भासते भास्वान्’ । (८) चतुर्थपाद के आदि तीन अक्षर--‘नितान्तम्’, ‘नियतं’, ‘सुतराम्’ । (९) चतुर्थपाद के अन्तिम पाँच अक्षर--‘कामिनी- प्रियः’, ‘जनवल्लभः’, ‘प्रीतिवर्धनः’ ।

इतना जिसे अभ्यास रहेगा सो मनुष्य सभा में चन्द्रवर्णन के प्रस्ताव में शीघ्र ही ये तीन श्लोक पढ़कर सुना देगा।

कर्पूरपूरनीकाशं वपुर्यस्य प्रसाद्यते ।

चन्द्रोऽयं राजते रम्यो नितान्तं कामिनीप्रियः॥१॥

पिण्डोरपिण्डसंकाशं तेजो यस्य विलोक्यते ॥

चन्द्रोऽयं शोभते भद्रो नियतं जनवल्लभः ॥२॥

गंगाप्रवाहसंस्पधि दीप्तिर्यस्य प्रतीक्ष्यते ।

चन्द्रोऽयं भासते भास्वान् सुतरां प्रीतिवर्धनः॥३॥

इसी तरह और लम्बे छन्दों की पदावली दी गई है ।

कवि होने का कैसा सुगम मार्ग है !

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