कवि-रहस्य/'काव्य पुरुष'-'साहित्य वधू'-संयोग
( २ )
साहित्य के विषय में एक रोचक और शिक्षाप्रद कथानक है । पुत्र को कामना से सरस्वतीजी हिमालय में तपस्या कर रही थीं। ब्रह्माजी के वरदान से उन्हें एक पुत्र हुआ-जिसका नाम ‘काव्यपुरुष’ हुआ (अर्थात् पुरूष के रूप में काव्य)। जन्म लेते ही उस पुत्र ने यह श्लोक पढ़कर माताको प्रणाम किया--
यदेतद्वाङमयं विश्वमथ मूर्त्या विवर्तते ।
सोऽस्मि काव्यपुमानम्ब पादौ वन्देय तावको ॥
अर्थात्––‘जो वाङमयविश्व (शब्दरूपी संसार) मूर्तिधारण करके
विवर्तमान हो रहा है सो ही काव्यपुरुष मैं हूँ। हे माता ! तेरे चरणों को प्रणाम करता हूँ ।’ इस पद्य को सुनकर सरस्वती माता प्रसन्न हुई और कहा--‘वत्स, अब तक विद्वान् गद्य ही बोलते आये आज तूने पद्य का उच्चारण किया है । तू बड़ा प्रशंसनीय है । अब से शब्द-अर्थ-मय तेरा शरीर है-संस्कृत तेरा मुख--प्राकृत बाहु––अपभ्रंश जाँघ––पैशाचभाषा पैर––मिश्रभाषा वक्षःस्थल--रस आत्मा––छन्द लोम––प्रश्नोत्तर, पहेली इत्यादि तेरा खेल––अनुप्रास उपमा इत्यादि तेरे गहने हैं ।’ श्रुति ने भी इस मन्त्र में तेरी ही प्रशंसा की है—
चत्वारि श्रृंगास्त्रयोऽस्य पादा द्वे शीर्षे सप्तहस्तासोऽस्य ।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मत्या आविवेश ।
इस वैदिक मन्त्र के कई अर्थ किये गये हैं । (१) कुमारिलकृत तन्त्रवार्तिक (१।२।४६) के अनुसार यह सूर्य की स्तुति है। चार ‘शृंग’ दिन के चार भाग हैं । तीन ‘पाद’ तीन ऋतु-शीत, ग्रीष्म, वर्षा । दो ‘शीर्ष’ दोनों छः छः महीने के अयन । सात 'हाथ' सूर्य के सात घोड़े। ‘त्रिधाबद्ध’ प्रातः मध्याह्न-सायं-सवन (तीनों समय से सोमरस खींचा जाता है) । ‘वृषभ’ वृष्टि का मूल कारण प्रवर्तक । ‘रोरवीति’, मेघ का गर्जन । ‘महो देव’ बड़े देवता-सूर्य जिसको सभी लोग प्रत्यक्ष देवता-रूप में देखते हैं। (२) सायणाचार्य ने ऐसा अर्थ किया है-इसमें यज्ञ रूप अग्नि का वर्णन है। चार ‘शृंग’ हैं चारों वेद । तीन ‘पाद’ तीनों सवन-प्रातः मध्याह्न सायं । दो ‘शीर्ष’ ब्रह्मौदन और प्रवर्दी । सात ‘हाथ’ सातों छन्द । ‘त्रिधाबद्ध’ मन्त्र-कल्प-ब्राह्मण तीन प्रकार से जिसका निबन्धन हुआ है । ‘वृषभ’ कर्मफलों का वर्षण करनेवाला । ‘रोरवीति’ यज्ञानुष्ठान काल में मन्त्रादिपाठ तथा सामगानादि शब्द कर रहे हैं । (३) सायणाचार्य ने भी इसे सूर्यपक्ष में इस तरह लगाया है-चार ‘श्रृंग’ हैं चारों दिशा। तीन ‘पाद’ तीन वेद । दो ‘शीर्ष’ रात और दिन । सात ‘हाथ’ सात ऋतु-वसन्तादि छः पृथक् पृथक् और एक सातवाँ ‘साधारण’ । ‘त्रिधाबद्ध’ पृथिवी आदि तीन स्थान में अग्नि आदि रूप से स्थित-अथवा ग्रीष्म-वर्षा-शीत तीन काल में बद्ध । ‘वृषभ’ वृष्टि करनेवाला। ‘रोरवीति’ वर्षाद्वारा शब्द करता है। ‘महो देव’ बड़े देवता । ‘मात्र्याना आविवेश’ नियन्ता आत्मा रूप में सभी जीवों में प्रवेश किया । (४) शाब्दिकों के मत से इस मन्त्र में शब्द रूप ब्रह्म का वर्णन है––जिसको विशद रूप से पतञ्जलि ने महाभाष्य (पस्पशाह्निक पृ० १२) में बतलाया है । चार ‘शृंग’ हैं चारों तरह के शब्द, नाम-आख्यात-उपसर्ग-निपात (उद्योत के मत से परा-पश्यन्ती-मध्यमा-वैखरी) । तीन ‘पाद’ तीनों
इतना कहकर सरस्वतीजी चली गई। उसी समय उशनस् (शुक्र महाराज) कुश और लकड़ी लेने जा रहे थे। बच्चे को देख कर अपने आश्रम में ले गए। वहाँ पहुँचकर बच्चे ने कहा––
या दुग्धाऽपि न दुग्धेव कवियोग्धभिरन्वहम् ।
हृदि नः सनिषत्तां सा सूक्तिधेनुः सरस्वती ॥
अर्थात् ‘सुभाषित की धेनु-जो कवियों से दुही जाने पर भी नहीं दुही की तरह बनी रहती है-ऐसी सरस्वती मेरे हृदय में वास करें। उसने यह भी कहा कि इस श्लोक को पढ़कर जो पाठ आरंभ करेगा वह सुमेधा बुद्धिवान् होगा। तभी से शुक्र को लोग 'कवि' कहने लगे । ‘कवि’ शब्द ‘कवृ’ धातु से बना है-जिससे उसका अर्थ है ‘वर्णन करनेवाला’ । कवि का कर्म है 'काव्य'। इसी मूल पर सरस्वती के पुत्र का भी नाम 'काव्यपुरुष' प्रसिद्ध हुआ। इतने में सरस्वतीजी लौटी,पुत्र को न देखकर दुखी हुई। वाल्मीकि उधर से जा रहे थे। उन्होंने बच्चे का शुक्र के आश्रम में जाने का ब्यौरा कह सुनाया। प्रसन्न होकर उन्होंने वाल्मीकि को छन्दोमयी वाणी का वरदान दिया। जिस पर दो चिड़ियों में से एक को व्याध से मारा हुआ देखकर उनके मुंह से यह प्रसिद्ध श्लोक निकल आया––
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौञ्चमिथुनावकमवधीः काममोहितम् ॥
इस श्लोक को भी वरदान दिया कि कुछ और पढ़ने के पहले यदि कोई इस श्लोक को पढ़ेगा तो वह कवि होगा । मिथिला में अब तक बच्चों को सबसे पहले यही श्लोक सिखलाया जाता है । इसी के साथ-साथ एक और श्लोक सभों को सिखलाया जाता है ।
सा ते भवतु सुप्रीता देवी शिखरवासिनी ।
उग्रेण तपसा लब्धो यया पशुपतिः पतिः ॥
फिर इसी ‘मा निषाद' श्लोक के प्रभाव से वाल्मीकि ने रामायण रचा और द्वैपायन ने महाभारत ।
एक दिन ब्रह्माजी की सभा में दो ब्रह्मर्षियों में वेद के प्रसंग शास्त्रार्थ हो रहा था उसमें निर्णेत्री होने के लिए सरस्वतीजी बुलाई गई। काव्य-पुरुष भी माता के पीछे हो लिये। माता ने मना किया——बिना ब्रह्माजी की आज्ञा के वहाँ जाना उचित नहीं होगा । इस पर रुष्ट होकर काव्यपुरुष कहीं चल दिये । उनको जाते देख उनके मित्र कुमार (शिवजी के पुत्र) रोने लगे । उनकी माता ने काव्यपुरुष को लौटाने के लिए एक उपाय सोचा । प्रेम से दृढ़ बन्धन प्राणियों के लिए कोई दूसरा नहीं है ऐसा विचार कर उन्होंने ‘साहित्यवधू’ रूप में एक स्त्री को सिरजा और उससे कहा--‘वह तेरा धर्मपति काव्यपुरुष रूठ कर चला जा रहा है-उसके पीछे जा उसे लौटा ला।’ ऋषियों से भी कहा ‘तुम भी काव्यपुरुष की स्तुति कर हुए इनके पीछे जाओ। ये ही तुम्हारे काव्यसर्वस्व होंगे ।’
सब लोग पहले पूरब की ओर चले--जिधर अंग-बंग-सुम्ह-पुंड्र इत्यादि देश हैं । इन देशों में साहित्यवधू ने जैसी वेशभूषा धारण किया उसी का अनुकरण उन देशों की स्त्रियों ने किया । जिस वेषभूषा का वर्णन ऋषियों ने इन शब्दों में किया––
आचिन्दनकुचापितसूत्रहारः
सीमन्तचुम्बिसिचयः स्फुटबाहुमूलः ।
दूर्वाप्रकाण्डरुचिरास्वगरूपभोगात्
गौडाङ्गनासु चिरमेष चकास्तु वेषः ॥
[चन्दन चतकुचन पर विलसत सुन्दर हार ।
सिरचुम्बी सुन्दर वसन बाहुमूल उघरार ॥
अगुरु लगाये देह में दूर्वा श्यामल रूप ।
शोभित सन्तत हो रही नारी गौड अनूप ॥]
उन देशों में जाकर काव्यपुरुष ने जैसी वेषभूषा धारण की वहाँ के पुरुषों ने भी उसी का अनुकरण किया। उन देशों में जैसी भाषा साहित्य-वधू बोलती गई वहाँ वैसी ही बोली बोली जाने लगी। उसी बोल चाल की रीति का नाम हुआ ‘गौडी रीति––जिसमें समास तथा अनुप्रास का प्रयोग अधिक होता है। वहाँ जो कुछ नृत्य गीतादिकला उन्होंने दिखलाई उसका नाम हुआ ‘भारतीवृत्ति’। वहाँ की प्रवृत्ति का नाम हुआ ‘रौद्रभारती ।’
वहाँ से सब लोग पाञ्चाल की ओर गये । जहाँ पाञ्चाल-शूरसेन- हस्तिनापुर-काश्मीर-वाहीक-वाह्लीक इत्यादि देश हैं । वहाँ जो वेशभूषा साहित्यवधू की थी उसका वर्णन ऋषियों ने यों किया––
ताटंकवल्गनतरंगितगण्डलेख--
मानाभिलम्बिदरदोलिततारहारम् ।
आश्रोणिगुल्फपरिमण्डलितोत्तरीयं
वेषं नमस्यत महोदयसुन्दरीणाम् ॥
[तडकी चञ्चल झूलती सुन्दरगोलकपोल ।।
नाभीलम्बित हार नित लिपटे वस्त्र अमोल ।]
इन देशों में जो नृत्यगीतादिकला साहित्यवधू ने दिखलाई उसका नाम ‘सात्वतोवृत्ति’ और वहाँ की बोलचाल का नाम हुआ ‘पांचाली रीति’ जिसमें समासों का प्रयोग कम होता है ।
वहाँ से अवन्ती गये । जिधर अवन्ती-वैदिश-सुराष्ट्र-मालव-अर्बुद-
भृगुकच्छ इत्यादि देश हैं । वहाँ की वृत्ति का नाम हुआ ‘सात्वती-कैशिकी’। इस देश की वेशभूषा में पांचाल और दक्षिण देश इन दोनों का मिश्रण है । अर्थात् यहाँ की स्त्रियों की वेषभूषा दाक्षिणात्य स्त्रियों के समान——और
अवन्ती से सब लोग दक्षिण दिशा को गये--जहाँ मलय-मेकल-कुन्तल-केरल-पालमञ्जर-महाराष्ट्र-गंग-कलिंग इत्यादि देश हैं। वहाँ की स्त्रियों की वेषभूषा का वर्णन ऋषियों ने यों किया है––
आमूलतो वलितकुन्तलधारचूड--
श्चूर्णालकप्रचयलांञ्छितभालभागः ।
कक्षानिवेशनिविडोकृतनीविरेष
वेषश्चिरं जयति केरलकामिनीनाम् ॥
[बाँधे केश सुवेश नित बुकनी रंजित भाल ।
नीवी कच्छा में कसी, विलसित दक्षिणबाल ॥]
यहाँ की प्रवृत्ति का ‘दाक्षिणात्य वृत्ति’ नाम हुआ । साहित्यवधू ने यहाँ जिस नत्यगीतकला का उपयोग किया उसका नाम ‘कैशिकी’ हुआ । बोलचाल की रीति का नाम ‘वैदर्भी’ हुआ जिसमें अनुप्रास होते हैं, समास नहीं होता ।
‘प्रवृत्ति’ कहते हैं वेषभूषा को, ‘वृत्ति’ कहते हैं नृत्यगीतादिकला- विलास को––और ‘रीति’ कहते हैं बोलचाल के क्रम को। देश तो अनन्त हैं परन्तु इन्हीं चार विभागों से सभों को विभक्त किया है-प्राच्य-पांचाल--अवन्ती--दाक्षिणात्य । इन सभों का सामान्य नाम है ‘चक्र-वतिक्षेत्र’ जो दक्षिण समुद्र से लेकर उत्तर की ओर १,००० योजन (४,००० कोस) तक प्रसरित है। इस देश में जैसी वेशभूषा कह आये हैं वैसी ही होनी चाहिये । इसी के अन्तर्गत एक विदर्भ देश है जहाँ कामदेव का क्रीडा़स्थान वत्सगुल्म नामक नगर है। उसी नगर में पहुंचकर काव्यपुरुष ने साहित्यवधू के साथ विवाह किया और लौटकर हिमालय आये जहाँ गौरी और सरस्वती उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। इन्होंने वधू-वर को वर दिया कि सदा कवियों के मानस में निवास करें ।
यही काव्यपुरुष की कथा है ।