कविवचनसुधा  (1906) 
रामकृष्ण वर्मा

काशी: भारत जीवन प्रेस, पृष्ठ आवरण-पृष्ठ से – ८४ तक

 
 

॥कविवचनसुधा॥

जिसको

श्रीयुत ठाकुर महेश्वरबक्ससिंह तालुकेदार
रामपुर मथुरा जिला सीतापुर
को आज्ञानुसार बाबू रामकृष्ण वर्म्मा
ने कविताप्रेमी महाशयों के
चित्तविनोदार्थ निज

॥काशी॥
भारतजीवन प्रेस में मुद्रित किया।



१९०६ ई॰।

॥ श्रीः ॥
कविवचनसुधा।
दोहा।

श्री गुरुचरण सरोज रज निजमन मुकुर सुधारि। बरणौं रघुपति बिसद जम जो दायकफलचारि ॥

सवैया ।

अवधेश के द्वार सकार गई सुत गोद मैं भूपति लै निकसे । अवलोकि हो सोच विमोचन सो ठगि सी रही ने न ठगे धिक से। तुलसी मनग्नन रजनि अंजन नैन सुखमन जाति कसे । सजनी शशि तै सम शील उमै नवनील सरोरुह से बिकसे ॥२॥

कवित्त।

भूषित विभूति सिद्धि सम्पति प्रसूति सितकण्ठ उपवीत सेष सेखर शरीर है । कालहू के काल पै कृपाल सदा दासन उदित उदारता हमेस हुलसी रहै ॥ औध चचरीक चित पुंडरीक पायन पै नित गुनगायन का रसना रसी रहे । मंदाकिनी मालि अंक मण्डित मृणाली मंजु मूरति महेश मरे मानस बसी रहै ॥ ३॥

सुमनोज मये उनये घन मै दमकैं दशहूं दिशि दामिनिया । फहराय फुही रस मैं बरसैं जगी जूगुनू जोतिन जामिनिया ।। महिपाल जू तैसेही सीरी समीर सुगन्धित मन्द है गामिनियां । अस पावस अंक पियाके अली बनि सोई भली विधि भामिनियां ॥ ४ ॥

बन बागन में पपिहा करि कूक अचूक ह्वै बान से मरेत ये।
महिपाल मनोज मनोजमई जुत जूगुनु जामिनि हेरत ये॥
कुल साज के साजन को सजिये त्यहि ते बजि कै मन फेरत ये।
घनघोर घटा घुमड़ाय अरी घहराय घरी घरी घेरत ये॥५॥

चन्दमुख चमक चहूधा चौक चौतरा के बाहिरै लौ बगर मरीची भाति भलिकै। कोमल कपोल पै डगर भृकुटी की कोर बलित बिरानी लट तार सी बिछलि कै॥ कबि लछिराम स्याम सुन्दर सराहौ किमि समगन सान मै रही हौ कर मलि कै। कामधनु कगर कनक दरपर मानों लोटति लपटि लोल पन्नगी मचलि के॥६॥

आरसबलित बैठी सुमन की सेज पर प्यारी परभात नील नेह सरसन तै। मरगजी कचुकी सुरङ्ग पट स्वेदकन तेसै बर बदन बिराजै बुन्द बन तै। कर के सँभारन में सीसफूल फैल्यो खुलि पांखरी बिराजै लछिराम या समन तै। मारे काम कमल जुगल जोरि मानो मनि चूर कें बगरि गई कालीनाग फन तै॥७॥

कुललाज जँजीरन सों जकर्यो जुलमी तऊ उधम ठानत है।
तन मैन महावत ऐड़के आंकुस ताहू की आनि न आनत है॥
झुकि झूमि झुकै उझकै न रुकै परमेस जू जोग न जानत है।
पिय रावरो रूप बिलोके बिना मन मेरो मतङ्ग न मानत है॥८॥

मदन-मसाल कैधौ चम्पकली-माल कैधौ भानु की प्रभा है कैधौं सोहै छबिजाल सी। रति अंस सार कैधौ मैन कामनारि कैधौं सम्पावन क्रान्ति कैधौं चित्त हरि आलसी॥ रमाकर सूल कैधौ गिरा हरमूल कैधौ शिवा शशिगार कैधौं भव बृज जाल सी। ऐसी बाल लाल कैधौं लाल लाल लाल कैधौ राधिका विसाल कधौ हरि-हियमाल सी ।। ९ ॥

चन्दन चरचि चारु मातिन को उर चारु चली आभचारु गति मायल मराल सी। केसरि रँग्या दूकुल हांसी में भरत फूल सौतिन करत सूल अली चन्द बाल सी ॥ गहगही चांदनी उठत महमही अङ्ग लहलही ललित लता है छत्रि जाल सी । बूंधुट उठाये चहुंओरन उनास होत जात शिवनाथ कैधौं मदन मसाल सी ॥ १० ॥

सवैया ।

बेली घनी घर के ढिग मैं अलबेली करै नित जाइ बिहारन । सासु औ नन्द सबै सुख देत हैं भूषित है उर हीर के हारन ।। कन्त न होत रुसन्त कबौं कविवंस भरो गृह दूध भँडारन । आजहि कोकिल कैरव बोलत प्यारीके पीरी परी केहि कारन ॥ देखुरी देख या ग्वालि गवारिन नैको नहीं थिरता गहती है । आनन्द सी रघुनाथ पगी पगी रङ्गन सी फिरते रहती है ॥ कान सों कान तरचोना सु छवै करि एसी कछू छविको गहती है । जोबन आइवे की महिमा अंखियां मनो कानन सों कहती है ।।

॥ दोहा ॥

कनकलता श्रीफलफरी, रही बिजनबन फूलि।

ताहि तजत क्यों वावरे, सुअलि सांवरे भूलि ॥

राधे को रसाल रूप कहां लौ बखान करौं हरिद्याल उपमा बिसाल सुखकन्द पर । नूपुर बजत पग भूपुर धरत गति गुजनकी भौर कैसी मंजु अरबिन्द पर ॥ बिम्ब से प्रवाल से गुलाल पर झूमि रह्यो झूमका मयूर ज्यों अनन्द पर । गुदे लाल तार से सेवार से सरस बार फूलि रह्यो मानों इश्कपेंचा चारु चन्द पर ।। १४॥

भरकत सूत कैधौं पन्नगी के पूत कधौं राजत अभूत तमरान के से तार हैं । मकतूल गुनग्राम सोभित सरस स्याम काम मृग कै कुहू के कुमार हैं । कोप के किरनि के जलज नलिनी के अन्तु उपमा अनन्त चारु चवर सिंगार हैं। कारे सटकारे भीने सोधसे सुगन्ध बास ऐसे बलभद्र नव बार तेरे बार है ॥ १५ ॥

सुननी चिकन की बिछाये डोरी लाल लाल ताकी मखमल की सी सोमा दरवार है । तिरछी चितौनि येती उदगी दौरिजात बारुनी दुरान आगे खड़े चोवदार है ॥ वकसी देवान दुओ कोय लागे कानन सों अंजन के दसखत सिद्ध कारबार हैं । लाज औ मनोज ये हुजूर के खवास खास नागरि के नैन के नबाव नायकानन कमल पै चम्प -कली तापै मुकता की फली तापै केदली के खम्भ तो हेम भृङ्गी बर । ताप भरो पानिप सरोवर लहरि लेत तापै एक कचनार दोय कली सोने कर ॥ तापै हेमसाखा दोय पल्लव प्रवाल कीन्हे तापर कनक कम्बु तापर रसाल फर । तापै बिम्ब तापे कीर तापै अरबिन्द धनु तापै इन्दु तापै धन ताप सात्विकी डगर ॥ १७ ॥

कुन्द की कली सी दन्तपक्ति कौमुदी सी विच विच रेख मीसी की अमी सी सी गटकि जात । बीसी त्यों रची सी बिरची सी बरछी सी तिरछी सी अखियां वै सफरी सी त्यों फरकि जात ॥ सर की नदी सी दया मानसिन्धु की सी मनो चक्रित खरी सी रति डरी सी सरकि जात । चौफन्द फँदी सी मोहैं कसी सी ससी सी दुखि जाकी सीसी करिबे मै सुधा सीसी सी ढराक जात ॥ १८ ॥

नखत से मोती नथवन्दिया जराऊ जरी तरल तरचौननकी आमा मुख फूटी है । देवकीनंदन कहै तैसिये सुचम्पकली पचलरी मंत्र गति मोहनी की लूटी है | चूनरी कुसुम्भी रङ्ग उनरी परत तन कलितकिनारी की ललित रस जूटी है । बाल तेरी छाती पै हमेल छबिछूटी मानो लाल दरियाई बीच बेलदारबूटी है ॥१९॥

दीन्हो दई रूप कैधौ याही को सकलि सब जाकी बेस बातें बस वाल मै करैया सी। अखि अलबेली की अनोख। अरविन्द ऐसी बान ऐसी लेखी परि प्रानन हरैया सी ॥ सुकवि निहाल कहै मेनका सुकेसी ऐसी केतिको खड़ी है जाके पायन परैया सी। महल महान पर बैठी चारु चन्द्रमा सी वाके आसपास और तरुनी तरेया सी ॥ २० ॥

आंगन पौरि खौं दौरि गई सुनि बांसुरी की धुनि बाजन लागी । बेनी अचेत परी जवते तबते बवरी कोइ लाज न लागी ।। तोरन तौलिबे को तरुनी सुहने हरिको सखि लाजन लागी । काल ही काल दसी सी तिया फिरि आजु वही धुनि बाजन लागी॥ मनमें थिर है करि ध्यान सुजानको आमन में तन तूरति री । झपकी अखियां न खुले प्रहलाद पिया बतियां न बिसूरति री ।। मुख चन्दकी खोर चकोरी तिया मनमें अभिलाखन पूरति री। बलि हों तो बुलावति बोलै नहीं वह है गई सांवरी मूरति री२२

कवित्त ।

कैधौं रतिपति रति गेह के रुचिर खम्भ अमल अनूप रूप हरै रूपजात के । रतिके अरम्भ पिय भुजपरिरम्मन को सुखद सवारे विधि बुधि अवदात के ॥ कलानिधि बनक कनक कदलीन हूं के हीन करि कलम मलीन गति मात के । जघन सघन वोट आवरनहूं की मन मुनि बस करन हरन युधि सात के ॥ २३ ॥

सोहैं मेचमाले से तमाल दुति काले अति अमित कसाले पले सेरे ढिग चाले रौं । लखिये खुसाल हाले २ पति माले कोले करि के अचाले नहिं लाले सो ये आले री ॥ बहुत रसाले बनमाले गले हाले हले चित अन्तराले कंज काले सो हटा ले री । भाल की सी नाले कंजकेतू सी बचाले वृनवाले नन्दलाले को हियाले में लगा ले री ॥ २४ ॥

ऐसे बोन मैन के न देखे ऐनमैन के जगैया रैन सैन के जितैया सौति सीन के । कमल कुलीनन के सकुली करनहार कानन लौ कोयन के लोयन रॅगीन के ॥ भनत कबिन्द्र भावती के नैन जावक सो पेखे प्रेम पायक सो नायक नवीन के । सांचे सो अमीन के अमीन मानो मीन के सराहै को खगीन के मृगीन पन्नगीन के।।२५॥

जैसे खरे कुन्द से सगे से रसबुन्द के पगे से रातिद्वन्दके जगे से कुंजतार के । मालती मुकुर मोतिया के माल मुरि जात दुरिजात चौका पै चमेली सुकुमार के || दन्तपंक्ति प्यारी की विसाल कवि हर्दयाल उपमा रसाल न मराल भषुहार के । साचे सो अनार के अनार मानो मारके सराहे कौन चार के रसाल बिज्जसार के २६

तमतम तामस रसादिपति तोयद सी नीलकनटन पै सुजट प्रजुटी सी है। जनपति कन्दरप दीपतिछटा सी छांह हाटक फाटक ओप चटक मटी सी है ॥ कचकुच दुबिच बिचित्र कृतवत बक छूटी लट घट पटतट लपी सी है। विरह असुभ्रपक्ष ती-तन प्रदोष पाथ पन्नगी पिनाकी पग पूजि पलटी सी है ॥ २७ ॥

जाको जो स्वभाव सोतो टरत न सौ उपाउ तिल पचि ताउ जोपै निपटि अपान है । लालकी कुचालि चालि है। छिपाय हरबाल और ब्रलबाल तो बजावती निसान है ॥ कित हित बातन में हित बचनाय धाय राखत सयान जौ न भाषत निदान है। मौलिसिरी माधवी औ मालती मधूकन पै ठोकत फिरत सो मधूक रसमान है ॥ २८॥

सवैया ।

कंज से सम्पुट सोहैं खडे गड़ि जात हिये जनु कुन्त की कोर हैं।

मेरु हैं पै हरि हाथ में आवन चक्रवती पै बड़ेई कठोर है ॥ मावती तेरे उरोजन मैं गुन दास लखै कछु औरही अोर हैं। शम्भु हैं पै उपजावें मनोज सु बृत्त हैं पैपरचित्त के चोर है २९

कवित्त।

लागी डीठि लगन लजान लागी लोगन को लंक लागी लचन लोमान लागे पजनेख । चम्पक प्रसून दुति कज कलिका से गात और औरै रङ्गन सु अङ्गन परत देख ॥ कसमसे कसे उर उकसे उरोजन पै उपटत कंचुकी की तुरुप तिरीछी तेख । उदया सु अस्ताचल दूनो कोर दाबि मानो दीपति नवीन पथ रविश्य चक्र- रेख ॥ ३० ॥

ठाढी खण्ड तीसरे रँगीली रङ्गरावटी में ताकी छवि ताकि छकि रह्यो नँदनन्द है । कालिदास बीचिन मैं सोभा की दरीचीन मैं इन्दु की मरीचीन मैं झलक अमन्द है । लोग लखि भरमें कहा धौं यहि घर मैं सुजगमगै रगमग जोतिन की कन्द है। लालन की माल है कि मालन की जाल है कि चामीकर चपला कि रवि है कि चन्द है ॥ ३१॥

कैधौ सिसुताई के सम्याने ताने सुन्दर ये कैधौं सुधराई पट कूट कि है लाज की । कोकसाल कोक है कि कानन के गुम्मन कि बलिभद्र कोमल कुलह काम बाज की ॥ मोहनी की जाल कि उचाल इमि कुम्भन की डारी है अँवारी के जवन गजराज की। गोरे गोरे गोल कुच तेरे नील किंचुकी कि पहिरे सनाह रतिरन के समाज की ॥ ३२॥ जावक सुरङ्ग मै न ईङ्गर के रङ्ग मै न इन्दुवधू अङ्ग में न रङ्गोनि बाल मै । बिम्बफल विद्रुम बिलोके बहुभांतिन के बिलै जात एमी छबि बन्धुन विसाल मै ॥ कहै कविगङ्ग लाख ललना अधर लाली लाल वारि डारौ लाग्य मांति रङ्ग लाल मैं । किंसुक रसाल मै न कुसुम की माल मे न गुंजन गुलाल मै न गुललाला लाल मै ॥ ३३॥

मखमलतलपग पलपल सोम बढ़े केदली से खम्भ जंघ अमल सुहावतो । केहरि के लकहि कलक कटि देनहार छवि भौर निन्दक मन्दाकनाफ भावतो ॥ त्रिबलीरु कचकुच ग्रीव चिबुका अधर रद नासा नैन मोचि उपमा न पावतो । नीलपट मध्य या मुखाराबन्द भ्राजमान इन्दु ज्यों सघन घन टारि छबि पावतो ॥ ३४ ॥

ग्रीषम दुपहरी में प्यारी परजंक पर सोवत निसंक छचि छाई स्वदकन की । कंचुकी अरुण छूटी अलके कपोलन पे सोहै उर माल पै मराल के भखन की ॥ गह भुन बाम के उठाय मुख चूमि लियो जागि परी औचक अनूप यों लखन की । लूटत लोनाई बड़ेमागन सो पाई छवि देखे बनि आई अरुनाई या चखन की ३५

सर्वया ।

एक समै मनमोहनजू सजि बीन बजावत बेन रसालहिं।

चित्त गयो चलि मोहन को बृखभानसुता उर मोति के मालहिं।।

सो छवि ब्रह्मा लपेटत यों कर लेकर सोकर कज सी नालहिं।

ईश के सीस कुसभ के पुञ्ज मनो पहिरावत व्यालिनी व्यालहिं३६

गङ्ग नहीं मुकता भरी माग है सेस नहीं उर बेनी बिसाल है

भूति नहीं मलयागिरि सोमित चन्द नहीं यह उद्दित भाल है ॥
लीक नहीं मकतूल को पुञ्ज है ध्यान नहीं बिन लाल बेहाल है।
काम महीप संभारि के बैधिये शम्भु नहीं यह कोमल बाल है ३७
सीसी गुलाबके नावत सीस लगावत चन्दन घोरि कै गातन ।
तापर बैठी अटा पर जाइ के चादनी फैलि रही हिमि रातन ।।
डालत हैं कासारी समीर उसीर के नीर के चीर है मातन ।
बर्फ के बुन्द परै तन पै पै तऊ बिरहानल आगि बुझात न ३८

कवित्त।

मीन से बिठूलता कठोर है सुकच्छप से हिये घाव करै को
बराह से उदार है । बिरह बिदारिबे को प्रबल नृसिंह जू से बावन से छली दोऊ तनमन हार हैं ॥ द्विज से अनीत अरु बीर रघुबीर ऐसे कृष्ण से दयाल सुखदेव या विचार हैं । मौनता ते बोध
काम-भरे ते कलकी कहे प्यारीके पयोधर कै दसौ अवतार है ३६

सवैया।

रूप अनूप बनी सखियां जु सुता बृखभान की पान सी भूपर ।
पूरण भाग महा अनुराग से वारौं कहा इन मोहनी जू पर ।।
रीझि रँग्यो अचरा कुसुमी सुभ बोलत बात लगे कुच दूपर ।
लाल ध्वना मकरध्वज की फहरात मनो गजकुम्भन ऊपर ४०
पौढ़ी हुती पलका पर बाल खुल्यो अचरा नहिं जानत कोऊ ।
ऊचे उरोज की कचुकी ऊपर लाल लसे चरिचा ढिग सोऊ ।।
सो छबि मोहन देखि छक्यो कवि ताप कहै उपमा लखि ओऊ।
मानो मढे मुलतानी बनात सों मैन महीप के गुम्मन दोऊ ४१

कवित्त।

मोहन को मन तेरे हाथही लगोई रह अंक उरझानी रमबेलि सरसत है । काकनद नाल दोऊ रूपक सरोवर में दग्वि दावि सौतिन को मन तरसत है| भरमी सुकवि यत्र विधिने बनाय रावी व्याकुल सुचेत होत नेक परसत है । बाह की दुलन मांह डाले मन मुनिन के जग बस कर तेरे भुन दरसत हैं ॥ ४२ ॥

कैधौ युगनंघन के थम्भन के खम्भ केधौ ऊपर उलंघन के सिढ़ी जुग फारे है । कधी रूपरेजा बांधि नेजन से निकमि आगे जाहिर करत नीति रति के मिनारे हैं । भौन कवि कह मे आसे बरदार कैधौ आसे द्वै निकासे खासे हुकुम विचार है । जुरवा जलूम तीन उरवा परत काम कुरवा करत मंजु मुरवा तिहार है

सुदर बदन राधे सोमा को सदन तेरो बदन बनायो चार-बदन बनाय कै । ताकी रुचि लेन को उदित भया रैनपनि राख्यो मतिमूढ निज कर बगराय कै ॥ कहै कवि चिन्तामणि ताहि निसि चोर जानि दियो है सजाइ पाकमामन रिमाय के । या निसि फरची अमरावती के आस पास मुख में कम मिम कारिख लगाय के ॥ ४४ ॥

कहां मृतु हांस कां सुखद मुबास कठां नित को उनाम कहां सबही को मोहनो । कहा मृदु बैन पुनि कहा ये लनीले नैन कहां नेह मरी सैन कहां मुरि जोहनो ॥ चि की नि और जोबन जुन्हाई कहां उपमा लजाई जैसे मनि काडी पाहनो। आनद को कन्द जिन मोहे नंद नन्दन को कहां चन्द मन्द कहां तेरो मुख साहनो ॥ ४५ ॥

भाग भरे आनन अनूप दाग सीतला के देव अनुराग झिझिया से झमकत हैं । नजरि निगोडिन को गड़ि गड़ि गडे पर आड़े करि पै न डीठि लोभ लपकत है || जोबन कि मान मुख खेत रूप बीज बोयो बीज भरे बूदन अमन्द दमकत है बदन के बैझे पै मदन कामनैनी के चुटारे सर चोटन चटा से चमकत है ॥ ४६॥

बदन सुराही में छबीली छवि छाक्यो मद अमर पियाले छिन छिन में गहत हैं। अलसाय पोढ़त कपोल परजक पर कबहूं गजक जानि चखन चहत है ॥ प्रेमनग साथी ये तो सदा रहै अक मरे छक्योई रहत काऊ कळू न कहत है । झूकि परै बात के कहे त अनखात न्यारो बेतरि को मोती मतवारोई रहत है ॥ ४७॥

छाड्यो चल सागर बिधायो तन आप आय अधर के बीच रह्यो औरन चहत हैं। विधि के बनाउ बस आनि परो बेसरि में बन्यो है सँयोग मणि कंचन सहत है ॥ पूरन प्रताप चन्द पायो है मुखा- रबिन्द येतो कहा लहे कन्त नेतो तू लहत है । प्यारी के बदन पिये मोती मतवारी सदा झूमत रहत है ॥ ४८॥

रतिहू की मति पतिहू की ललचात अति मैनहू के नैन देख लालच भरति हैं। सुन्दर सरस मुभ सौरभ सहन सोहै पै मदन जू को मद करकस नानि करी कर निदरति है ॥ सोभित सुभग कोऊ चोप घन कर तेरे जघन जुगुल मनि कण्ठ जो हरत है । भाय की उतारी कैधौं सोभा साचे ढारी छवि कनक के कदली की बदली परति है ॥ ५० ॥

कोमलता कंज सौ गुलाब सों सुगन्ध लै के इन्दु सो प्रकार लीन्हों उदित उजेरो है । रूप रति-आनन सुचातुरी सुजानन में नीर लै निबानन सों कौतुक निवारो है ॥ कहै कवि ठाकुर मसाला विधि कारीगर रचना निहारि को न होत चित चेरो है । कंजन को रङ्ग ले सवाद लै सुधा को बसुधा को मुग्ध लुटि बनायो मुख तेरो है ॥ ५१॥

सवैया ।

खजन के दृग के मद गमन अंजन राजमि ये सरमी।

आनन की छबि आनन में चतुरानन कानन में जु सभी ।।

जोग करै तिय की उपमा अब को महिमा बरने बकसी।

सिन्धु मथ्यो तब चन्द कढ्यो जब चन्द मथ्यो तब तू निकसी||५२।

एक समै बलि राधिका कृष्णजू कलि किये जल मे सुग्न पाये।

चीर में अङ्ग रह्यो लपटाय बढी उपमा छबि देत दिवाये ।।

हरी दरियायी की कंचुकी में कुच की उपमा कवि देत बताये ।

बाज के त्रास मनो चकवा जलजात के पात में गात छिपाये।।५३।।

कवित्त ।

शील की छमा है अनिमा है द्विज दीनन की सुजम् नमा २ है कै उमा है देन बर की । रक्षक सदा है बल विक्रम अदा है भीम गदा की ददा है सिच्छदा है कवि कर की ॥ समर उजा है दुख दोष विरजा है सदा पूनी जे कुजा है अनुजा है हिमिकर की। धरम धुना है देन शत्रुन सजा है पुनि पालन प्रना है द्वै भुना रघुबर की ॥ ५४ ॥

मैन चैन भजन कुरङ्ग मद-गंजन परस भौर सनन सलोनई लगत हैं । पानिप के पंजन छबीली छबि छजन जलज जल मजन ते उपमा पगतु है ।। मीन सुत बंजन कपोत कीर कनन कुमारी वृषभान जू की आनन जगतु हैं । वारौ काटि खनन मुरारि मन रजन ये तरे हग अंजन निरजन ठगतु है ॥ ५५ ॥

सवैया ।

गुनगाहक सों बिनती इतनी हकनाहक नाहिं ठगावनो है ।

यह प्रेम बजार की चादनी चौक में नैन दलाल अंकावनो है ॥

गुन ठाकुर ज्योति जवाहिर है परबीनन सो परखावनो है।

अब देख बिचारि सँभारि कै माल जमा पर दाम लगावनो है।।५६।।

कवित्त ।

ऐसी छवि कंज में न देखी खन-गंज में चकोर मोर मंज में नमीन की उमङ्ग में । कर्दकील कैरव कटाक्षऊ निखेद कर बेधि करि बानन से कानन के सङ्ग में ॥ सती बाधि सौतिन के साल के करनहार हग्द्याल बाल के विसाल हग रङ्ग में । माते ऐसे अङ्ग में मनो मतङ्ग जङ्ग में न चंचलाई मृग कुरङ्ग तुरङ्ग में ॥ ५७॥ गहिरो अकास पुनि लाहो अथाह थाह अलि विकराल ब्याल काल को खेलाइयो । सेर समसेर धार सहिबो प्रवाह बान गज मृगराज द्वे हथेरिन लराइबो ॥ गिरि सो गिरन ज्वाल माल में जरन होइ काशी में कगैट देह हिमि में गलाइबो । पबिो बिष विषम कबूल कवि नागर पै कठिन कराल एक नेह को निवाहिवो ॥ ५८ ॥

सेवती नेवार सेत होरन के हार जूही जूथ औ अनार मोती विद्रुम लसन्त भो । पन्ना पोखगज पत्र चक समान फाव माणिक गुलाब नील इन्दिवर गन्त भो ॥ माधवी नमूनो गऊ-मेदकल सूनो दुनो औध बाटिका बजार पूनो बिलसन्त भो । जतन जलूम जोरि रतन रसाल रङ्ग अतन अनन्द हेतु जौहरी बसन्त भो ॥ ५९ ॥

सौरभ सुपास सोधि सोहत सिलीमुख है साहसी समीर साफ सोखी सो सवै जगे । कोकिला कलाप कम्प कौतुक कहै को कुन कम- नीय केलि कला कलित ठगै लगे । फूलन की फाव चारु चांदनी हिताब औध आनँद की आव नौल नेह उमगै लगे । पायक पपीहा जगावत प्रवीन पंचमायक प्रताप ऋतु नायक रंग लग ॥ ६० ॥

आयो ऋतुराज परो मृगन समाज भान बावरे बियोगी पात पूरब को जाफ भो । पुहुप पराग पौन पल्लव पपीहा पिक पीतम पिछानि प्रीति अवध इजाफ भो ॥ मुकुलित मानती मलिन्द मुखरित मंजु मैन मलकीयति मुलुक मानो माफ भो । साफ मो सनेह खौफखद को खिलाफ भो मुनाफ भो मजा को जोहि जगत जुराफ भो ।। ६१ ॥

मानिनी मबास औध माफिक मवाप्त मानि मान मजबूत द्वै मुखा- लिफ मलीक भो । माख्यो मननात मारु मरजी मुफस्सिल भे मुदित मुहीम मल्ल मधु को अनीक भो ॥ मारुत मुसाहब मलिन्द मुखतार मंत्री मारू राग नौवति नकीब पिकपीक भो । फीक भो फसाद फूलहीक भी हकीक हियो नीक भो नजीक नेह रहम रफीक भो ।। ६२ ॥

केतकी कतार चारु चम्प कचनार प्रांम अगर अनार डौर डार मार को जनै । पाटल पलात आस पास बास भास खास अवनि अकास प्रेम पास हास सो सनै ।। चातकी सुचाह गन्ध-वाह को प्रवाह वाह राह रस को मुबाह कोकिला लिये भने । श्रोध उपरान सुख साज सो दरान दिल आजु ऋतुराज को समान देखते बन ॥ ६३ ॥

श्रावन में अगर अनारन औ वारन में औ बल अलोक औषधीन आवयेले को। अम्बर अटान आदि अलिन अबान अङ्ग अटकी अवास अम्बु अम्बुज अकेले को ॥ आले' अङ्ग असुक अभूषन अपीच औध आनद अतीव गने अब को अलेले को। आस पाठहूं अकास अवनि असेष अङ्ग पाछे। औध अमल बसन्त अलबेले को ।। ६४ ॥

सन्त के असन्त के अनन्त जन्त मन्त के सुरति कन्त तन्त के बिलोकि बाग वन्त के । वन्त केहू बीरन समीरही रहै न देत धीर सौर बीर लये सौरम दिगन्त के ॥ गन्त के महान औध कान्ह की लहान असहान मानवान मधुपान कुसुमन्त के । सन्त के कहन्त पिक बिरही दहन्त करौ कैसै बिना कन्त अन्त बासर बसन्त के ॥ ६५ ॥

पपीहा को कवित्त ।

चातक चमार चीरो चौंकि चौकि देत चूखे चूकत न चोट चाण्डारन को मूखी है । बावरी बनाक्त बयारि बरिजाय या बिसासिनि बियोगीनी के दोष बिना दूखी है ।। आये अब लौ न आली अवध अनन्ददान ऋतुराज रोपी है रमून रीति रूखी है। काढ़त करेजो काटि कुहूकी कटारी कोपि कैलिया कसाइन कलंक ही की भूखी है ॥ ६६ ॥

कमल मो रङ्ग औ मुलायमता लीन्हीं सब चंचलता मीन खज मृग श्यामताई है । मैनवान कुन्तन कटाक्ष की कटाई लीन्हीं मोदकता मत्त दन्ति कविता बताई है ।। बसीकर्ण मोहन सो दोनो ये बिचारि लीन्ही गोरू द्वैज चन्द्रमा सी भ्र की कताई है। यहि विधि विधि विधि सकल सकेलि साज प्यारी नैन राखि कीन्ही सर्वोपरिताई है ॥ १७ ॥

ऐसी नहिं मृगन न खज मीन ऐसी लखी पेखी नहिं कुन्त नोक जहर सुढारती । नहिं ऐसी पन्नगी न गीसुरी रु आसुरी न किन्नरी नरीन बीच सोसिनान्न तारती ॥ हीरा की कनी हूं ऐसी चूभै नाहि चित्त बीच देइ जाकी उपमा सो हारी हेरि मारती । ऐसी बान मैन की न गांसी आंसीकरै तन जैसी री कटाच्छ प्यारी तेरी करि डारती ॥६८॥

सवैया।

नारंगी अच्छ औ श्रीफल स्वच्छ मनोज की गुञ्जन की छवि हारे ।

कुम्भवधू बर के हैं किधौं २ कल्प रतीपति पद्मिनी हारे ॥

उन्नत है गिरि सो गिरि ईश किधी मनमोहनि गोल बिहारे ।

कुन्दन कजन रीति कि दुन्दुभि के ये उरोन हैं प्याग तिहारे।।६९।।

कवित्त ।

कहि गये आवन न आये मनभावन सु सावन तुलानो अति देखि अकुलाती मैं । साल दै दै सालत सलाका जिमि सुधि आये जेती कही बातै निसि सरद सोहाती मै ॥ येते पैजु मनुहारि कीन्हों है किसोर श्राली योग को सँदेसो ऊधो ल्यायो लिखि पाती मैं । कर लेत काँप्यो कर लोचन उमडि चले जेते अङ्क देखे तेते छेद परे छाती मैं ॥ ७० ॥

कियो है करार सो बिसारि दियो दगादार नन्द के कुमार सङ्ग की सँयोगिनी बने । कौन मुख लैकै ताहिं उधव पठायो इहां कैसे कही वाने हाय कहां लौ गिनी बनै। ग्वाल कवि याते एक बात तू हमारी सुनु जोपै यह हहै तौ न फेरि योगिनी बनै कूबरी को कूबर कतरि लाइ दीजो हमै ताकी करै टोपी तब गोपी योगिनी बने ॥ ७१॥

रामलला नहछू चिराग सन्दीपनिहूं बरवै बनाय विरमाई मति साई की। पारवती जानकी के मंगल ललित गाय राम रम्य अज्ञा रची काम धेनु नाई की ॥ दोहा औ कवित्त गीत बद्ध कृष्ण कथा कही रामायन बिनै मांह बात सब ठाई की । जग में सुहानी जगदीशहूं के मन मानी सन्त-सुखदानी बानी तुलसी गोसाई की ।। ७२ ॥

अधर मधुर लाल लाल अरविन्द भाल लाल सिर पाग पेंच खैचि मन लसिगो । मेहँदी करन लाल जावक रसाल पद कंज मंजु लाल लखि भली भांति गसिगो ॥ लोक लाज कुल काज साज औ समान सब लाल मुखचन्द हेरि अनायास नसि गो । युगुल अनन्य और सूमि न परत कछू ललित ललाई लाल लोचननि बसिगो ।। ७३ ।।

सवैया।

फागुन माह भरो उत्साह सु चाह हजारन होत हमेसे ।

गावती गीत सुप्रीति पगी ललना गन डारती रंग रंगे से ।।

लाड़िली लाल गुलाल अबीर लिये पिचका कर कन सुदेसे ।

युग्म अनन्य उमग सताप भिनाय के भीजि रहे बर बेसे ॥७४॥

कवित्त ।

क्रीट कमनीय पंच खड चंड कर द्युति दाम को दबाय देत लेत मन मोल है । हीरन जड़ित महामणिन खचित चारु रचित मनोज चोन सहित अतोल है ॥ बानक बिलोकि सुधि बुधि गति रोकि जात झलक लखत चहूंओर चित लोल हे । युगल अनन्य जाके उर न बसत छबि सोई सठ जनम जनम डमा- डोल है ॥ ७८॥

चीरा पचरंग सीस ईसता सहित चारु चमक चलांक चन्द चांदनी चमन है । हीरा नवबरन बिचित्र मित्र मान मद समन सोहायो आन भांति छन छन है ।। धीरा न रहत कहूं नेकहूं निहारि नैन चैन न परत चितवत चितवन है। युगल अनन्य पट पीरा मुख बीरा कर सोहे धनु तीरा हेरो जानकीरमन है ।

सवैया।

आज सिया रघुवीर सखीह समाज सकेत बसन्त सजावत ।

रङ्ग उमङ्ग अनन्त बिधान वितान लतान मनोज लजावत ॥

गावती गीत पुनीत अलीगन बीन मृदङ्ग रबाब बजावत ।

युग्म अनन्य अजूब उछाह बिलोकतही भय मान मजाक्त ।७७

कवित्त।

चिबुक अधर मृदु मधुर कपोल गोल लोल कल कुण्डल सनेह सह हेरिये । मन्द मुसकान रसखान नेह निसि नैन अंजन समेर अव- लोकि छबि छेरिये ॥ बार बार उर उमगाय नखसिख ध्यान सरस सजाय योग ज्ञान गुन गेरिये । युगल अनन्य सावधान सीय पीय जोहि मोहि एकरस तिलहू न मुख फेरिये ।।

बाड़व ज्यों अम्भ पर इन्द्र जैसे जम्भ पर रावन के दम्भ पर रघुकुल राज है । पौन बारिबाह पर शम्भु रतिनाह पर ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज है ॥ दावा द्रुमद्रुण्ड पर चीता मृगझुण्ड पर भूषन भुसुण्ड पर जैसे मृगरान है । तेज तिमिरस पर कान्ह निमि कस पर त्यों मलेच्छ बंस पर शेर शिवराज है।

घोड़न गोंदाय सब धरती छोडाय लीन्ही देश ते निकारि धर्म द्वारा दै भिखारी से । साहू के सपूत समबन्धी शिवराज वीर केते बाद- शाह फिरें बन बन बनचारी से ॥ भूपन बखानै केते दीन्हे बन्दिखाने केते केते गहि राखै सख सैयद बजारी से । भहतौ से मुगल महाजन से शाहजादे डाँड लीन्हों पकरि तें पठान पटवारी से ॥

कत्ता की कराकरी चकत्ता को कटक कूटो सो तो शिवराज कीन्ही अकथ कहानियां । भूषन मनत तेरे धौमा की धुकार सुनि दिल्ली औ बिलाइति लौं सकल बिललानियां ॥ आगरे अगारन लौ फादती पगारन सभारती न बारन मुखन कुम्हिलानियां । कीची कहै यो करौ गरीबी कहै भागि चली बीत्री बिना सूचनसु नीबी गहे रानिया ॥ ८१ ॥

सेवा भूमिपाल बीर कत्ता के सकत तो रूम के चकत्ता को संका सरसात है । काशमीर काबुल कलिङ्ग कलकत्ता सवै कुल्ल कर- नाटक की हिम्मति हेरातु है। बलख विहार बङ्ग व्याकुल बलोच बीर बारही विलायत विलात विललात है। तरी धाक धुंधुर धग में धुंसि धाम धाम अंधाधुन्ध आंधी सी धधात दिन रात है ॥ ८२ ॥

गरुड़ को दावा सदा नाग के समूहन पै दावा गज-युत्थन पै सिंह सिरताज को। दावा पुरहूत को पहारन के कुलपर दावा ज्यों पक्षिन के गन पर बाज को || भूषन अखण्ड नवखण्ड महिमण्डल में तिमिर पर दावा रवि-किरनि समाज को। उत्तर दखिन देश पूरब औ पश्चिम लौ जहां बादशाही तहा दावा शिवराज को ॥ ८३॥

आगमन सुनत सुजान प्राण प्रीतम को आनि सजे सखिअन सुन्दरी के आस पास ॥ कहै पदमाकर त्यो पन्नन के होज हरे ललित लवालब भरे है जलबास बास ॥ गूधि गूंधि गेंदे गज गौहरन गंजगुल गजक गुलाबी गुल गजरे गुलाब पास । खासे खसबीजन के ग्वानि खानि खाने खुले खूबी के खजाने खसखाने खूब खाम खास ॥ ८३ ॥

चन्द की कला सी कैसी भानु की प्रभा सी जैसी भानु की प्रभा सी कैसी दीपसिखा ज्वाल है । दीपसिखा जाल कैसी कुन्दन लता सी जैसी कुन्दनलता सी कैसी छबि छटा हाल है। छविछटा हाल कैसी पोखरान लरी जैसी पोखराज लरी कैसी हेम कंज-नाल है। हेम कंन नाल कैसी सोनजुही माल जैसी सोनजुही माल कैसी जैसी वह बाल है ॥ ८५ ॥

खासी खासी कोठरिन में राउरी सौ सेजन सों आसपास अगर कपूर बगरे रहैं । दरन में परदे गलीचन सो सामा भूमिसामा सुबरन के जड़ाऊ सो जड़े रहै । ऐसे ठौर कन्तन सों युवती हेमन्तही मै पौढे पलका पै दोऊ आनन्द भरे रहै । सीतल सपट्ट मांह कपटे समूह सुख लपटे दुसालन में चपटे परे रहै ॥

कब दिन राति होत सांझ परमात यह जानत न बात कोऊ रंग के रसाला मैं। कहै पदमाकर जुराफा से जुरेई रहैं जागल न जागे सच जोतिहू की जाला मैं ॥ ऊरुन से ऊरु मुख मुख से लगाये उर उर सों लगाये जागे पागे प्रेम पाला मै ॥ पूम को न पाला गनै दूखन दुसाला होत है रहे रसालः दोऊ एके चित्रसाला मै ॥ ८७ ॥

अगर को धूप मृगमद को मुगन्धवर बसन विमाल मोती। अङ्ग ढाकियतु है । कहै पदमाकर पै पान को न गौन तहां ऐसे । भौन उमगि उमगि छकियतु है ॥ भोग के संयोग योग सुरत हेमन्त ही में एते और सुखद सुहाये वाकियतु है । तान की तरङ्ग तरुनापन तरनि तेन तूल तेल तरुनी तमोल ताकियतु है ॥८८॥

ग्रीषम के ताप तें अताप तन तायो रहै बरषा में मेघमाला अबली निहारी मैं । सरद सुग्वाई हेम हाहा के बिताई तापै सिसिर सताई मन्द मारुत की मारी मैं ॥ रामनाथ होरी में किसोरी तब ऐसे कहै ऊधो यह बात कहि दीनो सभा सारी मै। आयो है बसन्त प्राण तर तें उफनान लागै अब ना बचेगी । श्याम तेरी बेकगरी मै ॥८९॥

महराज भये गरुआई भई रसह विष चोरि कै पाजतु है ।

तुम पुरान सुनौ समुझौ सुरव दे के नहीं दुख दीजतु है ॥

कहि ठाकुर मोते बनी न बनी न बनी को बनी करि लीजतु है।

हरि जैमी करी अपने ब्रज को अपनो करि ऐसो न कजितु है ।।

जाके लगै सोई जानै व्यथा पर-पीरन को उपहास करना।

सागर जो चित मों चुभि जाय तो कोटि उपाथ करो तो टरै ना।। वेद नेक सी किंकिरी जाके परै अतिपीरन कस हूं धीर धरै ना। केसे परै कल एरी भटू जब आँखि में आँखि परे निकरै ना ॥९१ ॥

तिन्है नाहिं सराहत कोऊ अहै जहॅ यांचक ताही पतीजिये जू । हठ नाही की नाही भली है भटू तजि नाही विनै सुनि लीजिये जू । कवि शङ्कर जो रस नाही हिये रसनाही को तो रस दीजिये जू । यहि नाहीं में नाही कछू रस है मन में बति नाहीं न कीजिये जू ॥ ९२ ॥

गही जब बाही तब करी तुम नाही पांव धरी पुलकाही नाही नाही सो सोहाई हौ । चुम्बन में नाही औ अलिङ्गन में नाहीं परिरम्भन मैं नाही नाही नाही अवगाही है।।। ठाकुर कहत जब डारी गलवाही तब करी तुम नाही आली चतुर सोहाई हो । करो नाही नाहीं जैसे डोलै परछाही जह हां ते नीकी नाही सो कहां ते सीखि आई हौ ।। ९३ ॥

सवैया ।

अजु कहां अरसात नम्हात देखात कछू अब यो अलबेले ।

लाल महावर माल लसै अधरान पै अंजन को रँग मेले ॥

त्यों परताप कहा कहिये पिय छोडि कहा इत आइ अकेले ।

मोहन जाउ तहा ही जहां जिन के सत्सङ्गन में निसि खेलेर ९४

गुरुलोगन की तनि लान सबै हम प्रीति करी तुम सो बजि कै।

बिसराइ दई तुम तौन लला निवहीं नहि सो तनिको छनि कै ।।

बदनाम भई अब रीति नई कहुँ रैन बसो अनतै भनि के ।

दिखरावन को यह रूप नयो इत प्रातहि आवत है। सजि के ।।

कवित्त ।

गरद गुलाल मुख मण्डित ललित दृग कज्जल कलित मुकुलित प्राणप्यारी के । ईश कवि सोहै अंग बसन सुरंग रंग संग बालबृन्द वृषभानु की कुमारी के ॥ कहत अभीर हौ अभीर बलबीर जू से पार रंग धार तट कंचुकी किनारी के । कंचन के जालेदार बाले कर टार यार चूमि ले कपोल गोल २ मदवारी के ॥ ९६ ॥

अंजन दै नैन बान नागर समारे कर भृकुटी कमान स्वार पनच चढ़े लीनै । ईश कवि सोरह सिगार तुंग पैदर के द्वादश हूं भूषण सवारि चित्त दै लीनै ॥ कंचुकी पताका सारी नील को निशान करि दीने दाह नूपुर नगारे अलबेली ने । पीतम के सङ्ग रति जङ्ग जीतिवे के काज येते दल साने आज अबला अकेली नै ॥ ९७ ॥

सङ्ग नन्दलाल के बिसाल रस रास कीन्हें होती थीं निहान्न सो तो अलख लखावैगी। गरे भुन माल उर उर सो रसाल लायो तामें गनपाल कसे सेल्ही लटकावैगी ॥ नाम रूपलाल गुन गनै कुलजाल तजि जीहैं तौन कौन सोहस्मि रट लावैं गी। ऊधो जू कृपाल भला है करि दयाल माखौ नियत ग्वसम । कैसै भसम रमावैगी ॥ ९८॥

सवैया।

दनिदयाल कृपाल हमैं शरणागत राखिये नित्त नहीं।

मोहिं किंकर आपन जानि सदा गिरजापति लाज मामि रही ।। ३ गनिये नहि दोष कृपा करिये केहि के ढिग जाय कलेस कहीं। आधीन कहै तुमते को बड़ो जेहि के दरबार में जाय रहौ ९९||

कुण्डलिया ।

दीनबन्धु करुणायतन कृपानन्द सुखरासि ।

त्राहि २ राखिय शरण काटि सकल जग फांसि ॥

काटि सकल जगफासि मोह क्रोधादि वृन्द जे ।

राखिय शरण उदार नाथ अब बिलम न कीजे ॥

दीजे भक्ति रसाल आपको सुयश हो बन्दी ।

नासि सकल दुखरासि शम्भु को बाहन नन्दी ॥ १०० ।।

मनहरण।

प्रौढरढरन अशरण के शरण हार प्रारतिहरण चरण चित लाइये । दीनन अधार प्रभु ज्ञान गुनपार राखो सरस उदार पतितन गति-दाइये ॥ बारक चढ़ाय जलबुन्द सिर नाय द्विजराज सुख पाय पाहि याहि सिर नाइये। शंकर दयाल चन्द्र माल है कृपाल दीजै भक्ति सो रसाल तकि शरण सिधाइये ॥१॥

कूबरी की यारी को न सोच हमैं मारी ऊधो एकै अफसोस सांवरे की निठुरान को । योग जो लै आयो सो हमारे सिर आंखन पै राखन को ठौर तन तनको न आन को॥ अङ्ग अङ्ग ब्रती हे वियोग ब्रजचन्द जू के औध हिए ध्यान वा रसीली मुसकान को। आँखै असुभान को करेजन में बान को जुबान गुनगान को औ कान बंसीतान को ॥२॥

सवैया।

निसि बासर श्याम स्वरूप लखै पल लागत चित्त अचेत गहैं ।

प्रतिबाद करै तो वही गुन को बिमुखान ते नाहीं मिलाप चहै ॥

गनपाल रसज्ञ जो ता रस को सखि ताही सों नेक प्रमोद लहैं ।

सत नेह की बात सतानन में असतान के जी में परै सो कहैं ||३||

कवहूं मुख की छवि पै अरुझै सुरमैं जल बेग बहावो करें ।

तन पानिप पै छन देत मनै कुल लाज सुबुद्धि भुलावो करें ।

गनपाल सदा लिन स्वारथ मों चित प्रेम नदी उमगावो करें।

सजनी तन भूप अनूप बने हग देखत रूप बिकावा करें ।। ४ ॥

लखि कोमल मंजु सरोज प्रभा मुख सेति सदा तरसोई करें ।

तन पानिप चन्द छटा दरसे सुखसिन्धु हिये सरसोई करें ।

गनपाल सखी बिरहागिनि सो जगजाल सबै झरसोई करै ।

मन चेत को देत सहेत तऊ दृग आनन्द पै बरसोई करें ॥ ५ ॥

चारि हूं ओर ते पौन झकोर झकोरनि घोर घटा घहरानी ।

ऐसे समै पदमाकर कान्ह की श्रावत पीत-पटी फहरानी ॥

गुज की माल गोपाल गरे ब्रनबाल बिलोकि थकी थहरानी ।

नीरज ते कढ़ि नीर-नदी छवि छीजत छीरज पे छहरानी ॥६॥

दन्त की पङ्गति कुन्दकली अधराधर पल्लव खोलन की ।

चपला चमकै धन विज्जु लस छबि मोतिन माल अमोलन की ॥

घुघुरारी लटें लटकै मुख ऊपर दुति दीपति लाल अतोलन की ।

नवछाउरि प्रागा करै तुलसी बलि जाउं लला इन बालन की।

कबित्त।

दौरि दौरि घोरि घोरि घोरि कोरि मेघ यों दिसा दिमानि सासि कै निसासि के दिनेस के। बलाक दन्त झेलते मनोपहार पेलते सो औध ज्यों पठेवटे गनेस के अदेस के॥ घूमि घूमि झूमि झूमि चूमि चूमि भूमि को जुटै छुटै हुटै बुटै मुटै लुटै रसेस के। मरे नदी सकुण्ड से झरैं फुहार सुड से अरण्य झुड झुड से बितुण्ड से सुरेस के॥८॥

सोनहरे सेल्हीदार तेलिआ लबौरी लाल सबुजा सुरङ्ग किसमिती सुर खेले के। सन्दली सँजाफी सिरगा समुन्द अबलखी बीर तागरा दराज मोल औ महेले के॥ खिङ्ग चम्भा चाकगुली केहरी चीनी नुकरा मुसकी कल्यान औध आहे मनरेले के। पानगति पेले नम फेले मेघमेले कीन बेले अलबेल बाजी इन्द्र के तबेले के॥६॥

काबली सिराजी लक्का लोटन गिरहबान जोगिआ पटैन चपचीनी लीला लाल है। गोला कलपेटि आनि सावरा सुवेसराजा गमसकी ठठीर चोवा चंदन मराल हैं॥ तामड़ा पिलङ्ग दो पहरबाज धरिआ भभूरा कौडिन सुरुख औध उपमाल हैं। सोहै मेघमाल ये बहाल अन्तराल सुरपाल के कपोतनाल कैधों ये बिसाल हैं॥१०॥

सुरुख सहाबी सूहे सन्दली सन्दली स्याह सफतालू सोसनी सुरङ्ग सजवाले हैं। सबुज सोनहरा सगरफरा समेत साफ सरब-
ती सोफी सुरमई से निकाले हैं ॥ आसमानी आबी आगरई औ अबीरी औध आवासी अरंववानी अव्वल अम्याले हैं। आछे औधवाले अबमाले हैं अकास कैधौं फैले आजु आले मघवान के दुसाले है ।। ११ ॥

किसमिसी कोकई कपूरी कोच की है काही किसमिती कासनी पियाजी कजपूत के । जाफरानी जीजई बदामी बरसई आध बैंजनी बनोटी ऊदे मूर्गिया अभूत के ।। फाकतई फीलई गुलाबी लाखी फालसई नाफरमानी नसूनी नारंजी सबूत के । चम्पई अनाले तूसी पीले पिसतई काले पावस घनाले कै दुसाले पुरहून के ॥ १२॥

बाटिका विहङ्गन पै बारिजात रङ्गन पै बायु बेग गङ्गन पै बसुधा बगार है । बांकी बेनु तानन पै बंगले बितातन पै बेस औध पानन पै बीथिन बजार है | बृन्दाबन बेलिन पै बनिता नबेलिन पै ब्रजचन्द केलिन पै बंशीवट मार है । बारि के कनाकन 4 बद्दलन बांकन पै बीजुरी बलाकन पै वरषा बहार है ।।

यमुनाके पावन पुलिन जे सुभावन के पावन के पावन ले? सारदा गुनाक्न को। मिचकी चलावन पै कुच की हलावन त्यों चूनरी चुना -वन को कहे सुहावन को ॥ देखे. बनै मावन प्रसेद मुख आवन को मोती मनो प्रेम हंस सावन लुनावन को । आई मनमावन बुलावन झुलावन पै सावन सुहावन को गायन सुनावन को ॥ १४ ॥

बैठी मंच मानिक को फेरत रई को औष माधुरी की मूरति सी सूरति सनेह की । सावन सुंहावनं को माक्न सखीन साथ तैसई सोहाई आई छटा घटा मेघ की ॥ ता समै बजाई कान्ह बंशी तान आई कान सुधि सी हेरानी हिये मैनवान बेह की । दूध की न दही की न माखन मही हू की न कुल की कही की न देह की न गेह की ॥ १५ ॥

सवैया।

होय पियूख पयोनिधि ते बिधु जीति प्रकाश अकंटक छावै । बोलनि हांस बिलासंनि खोलनि डोलनि सोम सिंगार बतावै ॥ गैध अनन्द लखे ब्रजचन्द यों आदर सोम अनूप महा वै । राधिका के मुख के सुखसिन्धु की सीकर ताको सरोज न पावै ।। अब यों मन आवत है सजनी उनसे सपनेहुँ न बौलिये री। अरु जो मिलने वै मिलें तो मिलें मन से गसगुंज न खोलिये री॥ हग देखन की कछु सौंह नहीं उन गोहन भूलि न डोलिये री। घनानंद जानि महा कपटी चित को न प्रयोजन फोलिये री॥

कवित्त ।

उधो सुनो ऊधम मचायो बर्षा ने हरि बिन हर्षाने ते बखाने केती माती है । भकती है भुजङ्ग मयावनी मयूर बोले ओलती अहू ते एक हू ते प्रान खाती है ॥ घोर धन टारि घहरात जो मुमाति जात कैसे के गुदरती राती उदारती छाती है। करन कटा सो विज्जुछटा की तडप देखि तरप अटा सी घटा घिसि घिसि जाती है ॥ १८॥ दबानो मारिनिधि की जिमी सी सिफी आसमान शस्त दिशानधन घोर घहराती है। मदनं नरेश जू को चमू चढ़ि तुङ्ग तुङ्ग चुमैं धरि क्षत्रिन की छटा छहराती है ।। मोहन भनत नील गिरि की गिरा सो चारु बनी हेम पच्छ स्वच्छ महत् कहराती है। माती है मतङ्गन ते उमड़ि उमड़ाती आज तरप अटा सों घटा घिसि घिसि जाती है ।। १९ ।।

पिय पैये तो बोध बतये घने जेहि पैये जो औध अतीब कहां। ये कलंकिनि कोयल काहिहैं वैर बुरो बिधु जीव छपीव कहां ॥ उपमान कहाय है हाय किते मुरछाय कह्यो घरी तीन महां । अहो नाह मै काह कहोगी तबै पुछिहै पपिहा जबै पीव कहां ॥ २०॥

दोहा प्रेमसागर ।

बिधि हरिहर जाको सदा जपत रहत हैं नाम ।

बसो निरन्तर मो हिये सिया सहित सो राम ॥ २१ ॥

मन चाहत सब दिन रहौं तव ढिग ये प्रिय नात ।

काह करों कछु बस नहीं परालब्ध की बात ॥ २२ ॥

तव बिछुरत क्षण में मरों काह जियो बिन तोहिं ।

तव मूरति उर में बसी वहै जियावत मोहिं ॥ २३ ॥

गनप गिरा गुरु गौरिपति सीतापति-पद ध्याय ।

बरणत राधाबर-चरित रसिक जनन सिर नाय ॥ २४ ॥

कवित्त।

गनपाले हालचाल बिमल बिसाल बानि राजत अमल तल कमल पदन के । उर गुंजहार बनमाल वारापार बनी सुखमा अपार रूपसागर हरन के ॥ सिखिमख मुकुट लकुट कर कञ्चन की पीतपट लपट छटान के कदन के । नग के कृदन मुसुकान में रदन सोहैं छबि के सदन मनमोहन मदन के ॥ २५ ॥

सवैया।

हम हूं सब जानति लोक की चालहिं क्यों इतनो बतरावती हो। हित नामे हमारो बनै सो करो सखियाँ सबै मेरि कहावती हौ ।। हरिचन्द जू यामे न लाम कछू हमै बातन क्यों बहरावती हौ । सजनी मन पास नही हमरे तुम कौन कों का समझावती हौ । अबहीं मिलिबो अबहीं मिलिबो यह धीरज हूं में घिरैबो करै। उर तै बढि आवै गरे ते फिरै मन को मन माहिं घिरैबो करै ।। कबि बोधा न चाह हितू हित की नितही हिरवासी हिरैबो करें। कहते न बनै सहतेही बने मनही मन पीर पिरबो करै ॥२७॥ तुम आपनी ओर चहै सो करौं हम आपनो नेह न छोडि हैं जू। तुम बोलो चहै अनबोलो रहौ हम प्रीति सो नैन न मोरि है जू ॥ विधि को जो लिखो सो मिटैगो नहीं बिरहानल में विष घोरिहै जू । लिख देत हैं कोरहि कागज पैबम और सों प्रीति न जोरि हैं जू ॥ गुणगाहक सो विनती इतनी हकनाहक नाहिं ठगावनो है। यह प्रेम बजार की चांदनी चौक में नैन दलाल अंकावनो है ।। गुन ठाकुर ज्योति जवाहिर है परबीनन सों परखावना है। अब देख्नु बिचारि संभारि कै माल जमा पर दाम लगावनो है ॥ यह मेरी दशा निसिबासर है नित तेरी गलीन को माहियो है। चित कीन्हो कठोर कहा इतनो अस तोहिं नहीं यह चाहिबो है। कवि ठाकुर नेक नहीं दरसो कपटीन को काह सराहिको है। मम भावे तिहारे सोइ करिये हमैं नेह को नातो निबाहिबो है ॥ उचके कुच के कच के भर से लचके करिहां मतिमन्दहु मैं । अधरा मै मिठाई है ऐसी कछू वह तो मिसिरी में न कन्दहु मैं ।। मुख की छबि सो दविजात सरोज फिकाई सी धावत चन्दहु मैं । जो पै ऐस हूं राधे सो रूसत हैं तो सयान कहा नदनन्दहु मैं ॥

दोहा।

तु क्यों न मानत मुकतई तुम बिन हमैं न चैन ।

निसिबासर देखत रहत तऊ न मानत नैन ॥ ३२ ॥

सवैया।

सुनि नेहमरी बतियाँ हिय की मुख इन्दु सो वा मग फेरते तो। मन धारि दया प्रतिपालत जानि सुधानिधि वानि सों सेरते तो॥ गनपाल भ्रमी मग कुजन धीर बिचारि दयानिधि टेरते तो । कबहुं करि सूधे सरोज से नैन मया करि मो दिसि हेरते ती ॥ रूप अनूप दियो विधि तोहिं तो मान किये न सयान कहावै । और सुनो यह रूप जवाहिर भाग बड़े विरले कोऊ पावै ॥ ठाकुर सूम के जात न कोऊ उदार सुने सबही उठि धावै । दजिये ताहिं दिखाइ दया करि जो चलि दूर ते देखन आवै ॥

दोहा।

नीच निचाई जो तनै तो चित अधिक डरात ।

ज्यौं निकलंक मयंक लखि गर्ने लोग उतपात ॥ ३५ ॥

सवैया ।

सोहैं सहेलिन में सुकुमारि सवारे सिंगार सुमांति मली के । सामुहे आरसी में लाख रूप भये उर सीतल छैल छली के ॥ आंजिवे लोचन को लछिराम जू अंजन आंगुरी बीच लली के । चेटुआ भोर मलिन्द को यों चपक्यो मनो कोर गुलाबकली के।

सांझ ही सो रंगरावटी में मधुरे सुर मोदन गाय रही है सांवरे रावरे की मुसकानि कला काहे के ललचाय रही है ।। लालसा में लछिराम निहोरि अबै कर जोरि बुलाय रही है । बैजनी सारी के भीतर में पग-पैजनी प्यारी बजाय रही है ॥

कवित्त।

पैजनी झमक पायजेब की जमक रङ्ग जावको चमक महाधीरज हितै गई । लंक को लचनि रोमराजी की रचनि चारु चोली बिरचनि सो बियोगिनि वितै गई । कवि लाछिराम घालि धूघुट मदन चन्द मन्द मुसुकानि की मरोरनि हितै गई । सांकरी गली में डारि सांकरे सनेहन की सांकरे समर चारु चखन चितै गई ॥ ३८॥

सवैया।

चख चंचल चारु चुरावत चित्त कछू मुसकात श्री लाजत हैं। उठि प्रात समै बलदेव सखी पय्यक बिचित्र पै भ्रानत है ॥ जगजीवन राम सिया शुभ अङ्गन भूषण वेस विराजत हैं । अवनीतनया तन हेरि रहे सुख सों दोउ सामुहे राजत है ॥ आजु लखी ब्रजरान प्रिया पथ्यकहिं पै सुख व्वै रहे हैं बर । आनँद सो मुसकाय कछू बलदेव तमोलहिं ले रहे हैं कर ॥ सो भर मैन महीपति के भट लान समाजहिं के रहे हैं डर । चारिहू नैन कसाकसी कै भृकुटी धनु पै जनु दे रहे हैं सर ॥ कुलकानि सुवानि सुनी सिगरी उर धीरज नेक घिरात नहीं । मृदु मूरति सांवरी बावरी कै चलिगै किंतहूँ सो सुझात नहीं ॥ गनपाल कहै तू मिलावन आनि सो मों मन में तो बिसात नहीं। सिख तेरी है सीतल नीर सी पै बिरहागि हिये की बुझात नहीं॥

कवित्त।

आजु कुंन मन्दिर अनंद भरि बैठे श्याम श्यामासङ्ग रङ्गन उमङ्ग अनुरागे है । घन घहरात बरसात होत जात ज्यों ज्यों त्योंही त्यों अधिक दोऊ प्रेम पुन पागे हैं ।। हरिचन्द अलकै कपोल पै सिमिट रही बारि बुन्द चुवत अतिहि नीक लागे हैं। भीजि भीजि लपटि लपटि सतराइ दोऊ नीलपीत मिलि मये एकै रङ्ग बाग है ॥ ४२ ॥

सवैया ।

ब्रज के सब नाउ धरै मिलि ज्यों ज्यों बढायकै त्यों दोऊ चाव करें। हरिचन्द हँसैं जितनो सबही तितनो हृढ़ दोऊ निमाव करें । सुनि के चहुंघा चरचा रिस सों परतक्ष ये प्रेम प्रभाव करें । इत दोऊ निसंक मिले बिहरै उत चौगुनो लोग चवाव करें ।।४।। हौं करि हारी उपाव घनी सजनी यह प्रेम फँदो नहिं टूटै । बाढ़त जात व्यथा अधिकी निसिबासर को बिरहानल घटै।। मोहिं देखाव लला मुखचन्द सु प्रेमसखी इतनो यश लटे । लालन देखत जौ मरिजाउं तो मैं कलिजाउ महादुख छूटै ॥४४॥ प्रेम पयोधि परेउ गहिरे अभिमान को फेनु कहा गहि रे मन । कोप तरङ्गनि सो वहिरे पछिताय पुकारत क्यों बहि रे मन ।। देव जू लाज लिहाज ते कूटि रह्यो मुख मंदि अजौ रहिरे मन । जोरत तोरत प्रीति तुहीं अब तेरो अनीति तुहीं सहिरे मन ।। मोहन को मन मोहन को बप्ति ले पद पंकज मौन मझारो। त्यों गनपाल न चाउ हिये विष लेत सुधा हरि छ्वै करि डारो॥ येकौ चलेगी न तेरी अली सब रहैं धरी उर माहिं हजारो । ठाठ परो सब योंही रहगो चलैगा जबै कढि प्रान वजारो॥ मङ्गल के पद जानो नहीं तुम जंगलबासी बड़े खल खाली । रागे न रङ्ग उमङ्ग भरे सुक पाले न जू पिंजरान की जाली ।। पाके अनार के बीजन के रस छाके नही यह कौन खुसाली । खात कहा खटनामुनि के फल कोचकी होत है चोच की लाली ॥ दृगलाल बिसाल उनीदे कळू गरबीले लजीले सु पेखहिंगे । कब धों सुथरी विथुरी अलकें झपकी पलकें अबरेखहिंगे ।। कवि शम्भु सुधारत भूषण वेस निहारि नयो जग लेखहिंगे । अगिरात उठी रतिमन्दिर से कब मोरहिं भामिनि देखहिंगे ।

कबित्त।

करम करम कर पति सों मिलाप भयो आनन्द उमङ्ग इत उर न समाति है । सुक्ख महादुक्ख मेहि दीजिये न भूलि नाथ घरी की धमक सुनि छाती अकुलाति है ॥ जनम जनम लगि मानि हौ असान तेरो कहै कवि कृष्ण प्रीति हिये न समाति है। येरे घरियार-दार टेरि कहौं बार बार मोगरी न मार मो गरी- बिनि की राति है ॥ ४९॥

अमित पुराण वेद शास्त्रन को बांचि बांचि सासन वुझाय करि नितही थका करें। द्विज बलदेव कहै बेदन को भेद लखि अमृतसी बानी सुनि कुपथ ढका करें ॥ श्रातन सों मा कछु गुप्तऊ न राखै मन चाखै शब्द सुन्दर सो नितही चका करै । कहत है ताको कछु जाने तामे याको नित भाषा बिन जाने सन्नि-पाती से बका करै ॥ ५० ॥

मोह की निसा में जान बासर त्रिनामें होत दिब्य तन छामें वैस नाहक बितावै तू । जैहै बीति जामै नेक पैहै न अरामैं ये न ऐहै तव काम वैजनाथ जिन्है ध्यावै लोम जड़ता में देह गेह बनिता में भूलि भ्रमत धरा में हठता में काह पावै चाहै शिवधामै अष्टयामैं सुख जामै छोड़ि झूठ धनधामैं राम- नामै क्यों न गावै तू ॥ ५१ ॥

बाल समै रवि भक्ष कियो तब तीनिहुँ लोक भयो अँधि-यारो । ताहि ते त्रास भयो जग में सोइ संकट काहु से जात न टारो॥ देवन आनि करी बिनती तब छाडि दियो रवि कष्ट निवारो। को नहिं जानत है जग में यह संकटमोचन नाम तिहारो।। ५२ ॥

प्रेमसखी।

फूलछरी तरवारि चली इत ते पिचका मरि मारति तीर हैं। भीजि गई रंग से सिगरी बिथुरी अलकै न सँभारत चीर हैं । शस्त्र प्रहार सहै सिगरे भट होसभरे न गनै तन पीर हैं। प्रेमसखी प्रमदा मनमत्त खरी मनो घायल घूमत बीर हैं ॥५३॥

कबित्त ।

सोहैं मुचि सुभगात दामिनी सो दौरि दौरि कामिनी लपटि गई सचै सुकुमारे सों। गहि गहि ल्याई जू प्रबल घरहाई सवै होरी होरी करत किशोरी न्यारे न्यारे सो ॥ प्रेमसखी गुलचीप सिगरे नचाय दीन्हों युवती बनाय बहु कहत बिचारे सों। अंजन अँजाय हम चूरी सारी पैन्हि आय कहियो हुजूर जाय प्रीतम हमारे सो ॥ ५४॥

जनकदुलारी की सहेली अलबेली एक लाडिले लखन सों गुमान-मरी झगरी। दूसरी चतुर वेष पूरुप बनाय आय जाय रामपास ठाढी भई छवि-अगरी ॥ तीसरी तुरत दौरि बेंदी माल भरत के लगाय रिपुसूदन को ल्याई छीनि पगरी । बात कहिये के मिस प्यारे को बदन चूमि मागि आई तारी दै हँसन लागी सगरी ॥ ५५ ॥

सवैया।

और सहाय भई प्रमदा सब मित्र को ल्याइ सखी यहि ओर का। माग बड़े इनके कहिये तिय की छवि दीजिये राजकिशोर को । आजु खवासी करो सियकी युक्ती तन धारि खवावो तमोर को । दासी सबै हम है हैं लला मुख ते भरतार कहाँ चितचोर को ।।

जानि हैं जो इनके गुनको तिनके जग दोऊ सबै विधि बानि है । बानि है विश्व के पोषण की तिन को मरतार कहैं कछु हानि है । हानि है प्रेम सखी कवहूं जिन को सिय आपु सखी करि मानि है ।। मानिहै ताहि बिरंचि सदा जिन पै सियकी सियरी दृग जानि है।

रामलला झूलना।

महबूब गली दलदली खूब पग धरतेही अरझट्ट हुआ। फिर कोई उपाय नहि बन्य परै जग सेती भी खटपट्ट हुअा।। दिलगीर फकीर फिराक वही गलतान हाल बरबट्ट हुआ। रामलला उस छैल छबीले को लखते झटपट्ट हुआ ॥ ५८ ॥ पग नख सुखमा खोजत उपमा थकि रही शारदा भटाक २। घनश्याम रूप अभिराम देख गयो काम वामयुत सटकि २ ॥ सुनु बीर कीर की नाई मन फँसि जुलफ जाल में लटकि २ । रामलला हग बांकेन में सखियां अंखियां रहि अटकि अटकि।।

बन ठन्य चले सब छैल भले लखि मोही पुर नागरिया जी । केती मोह जाल फँसि बस्य भई मुसक्यान मोहनी केती डारियां जी ।। केती जुल्फ पेंच विच उरमि रही केती नैन सैन सों मारियां जी। रामलला लखि छक्य रही तन धन धाम सुवारियां जी ॥ ६०॥

कटि पट पीत तुनीर कसे चहुँघा मुक्ताहल लागरियां । सर चाप मनोहर भुज विशाल सिर क्रीट अधिक छवि आगरिया।। चख चंचल रूप अनूप लसै मुसकान मनोज उजागरिया । हॅसि रामलला मनमोह लियो सब जनक नगरकी नागरिया। ढाल ढरन हरि शरण साग करि करभ कुलह अँग रचा है। तरकस तीर सतो गुण सर भरि प्रेम फेट कटि खच्चा है ॥ ध्यान धनुष गुरुज्ञान पुरकसी नाम चौकसी बच्चा है । रामलला समसेर सुरति गहि सूर सिपाही सच्चा है ॥ ६२ ॥ हाल बेहाल हाय हरदम में सही इश्क दी चोट है। कारी घाव खाय दिल अन्दर दिलवर दिल पर लोटै हैं ।। निगर जिका क्या करै फकीरी दिल दिलगीरी मोटें हैं। रामलला सिर इश्क हाथ दिया फिर क्या करना ओटै है।।६३॥

पद गाने का।

गुरूनी ख़ब सिखलाई रटन सियाराम रटने की । जुगुति मजबूत बतलाई सकल जंजाल कटने की ॥ अगम की गैल दिखलाई दसा मति गति पलटने की। अजूबा चाख चखलाई न है अब चाह घटने की ॥ दिलअन्दर रेख खचलाई पिया छवि है जो जटने की। अविद्या मूल विचलाई गरूरी फौज हटने की। लिया इकरार लिखवाई जान मैदान डटने की ॥ कपट की टाटी खिसलाई बिरह बस्तर के फटने की। लगन क्या रामलला लाई गरे प्यारे लपटने की ॥६४ ॥ हम हैगे इश्क दीवाने हमन को होसदारी क्या । रहैं आजाद इस जग से हमन दुनियां से यारी क्या १ ॥ खलक सब नाम अपने को बहुत कुछ सिर पटकते हैं । हमन गुरुज्ञान है आलम हमन को नामदारी क्या २ ॥ जो बिछुड़े हैगे प्यारे से भटकते दरबदर फिरते । हमारा यार है हम में हमन को बेकरारी क्या ३ ॥ न पल बिछुड़े पिया हमसे न हम बिछुड़े पियारे से । जहां यह प्रीति लागी है तहां फिर इन्तजारी क्या ४ ॥ पिये रसप्रेम मतवाला फिकर की क्या जिकर कीजै । जो जानत है सबन घटकी उसे ज़ाहिर पुकारी क्या ५ ॥ कबीरा इश्क मत्कुकरा गरूरी दूर कर दिल से । य चलना राह नाजुक है हमन सिर बोझ भारी क्या ॥

राग होली।

सत सग रंग भेद ना जाना । बाजीगर की आतशबाजी देखत मन ललचाना । तन मन धन योबन मदमाती भूली ठौर ठिकाना, पिया घर ना पहिचाना शालरिकाई लरिकन सँग खाई ज्वान भये अभिमाना। भव दुखरोग ग्रस्यो बिरधापन आयो यम परवाना, सजन गृह कीन्ह पयाना २॥ जन्म कर्म धिरकार सखीरी पतिहित ब्रत नहिं ठाना । नेह निबाह मुभिरि पीतम को जो न हृदय हरषाना, ताहिं जड़ जानु पखाना ३॥ साहबदीन सदा सुख सङ्गी प्रभु सुन्ना मनमाना । द्वै अक्षर सुमिरण सुभ सङ्गति मागु यही बरदाना, दया करि दे भगवाना ४ ॥ ६६ ॥

सँभरि होली खलिये रघुबीर । श्रावत है श्री जनक-नन्दि-नी सङ्ग सखिन की भीर १॥ त्यहि अवसर तहँ आइ गये तब लखनलाल रणधीर । बोरि दई सारी चूनरिया महरानी जी की , चीर २ ॥ रामदास दे हांक कहत हैं सुनिये चारिउ बीर । आजु भाजि के नहिं उबरोगे श्रीसरयू के तीर ३ ॥ ६७ ॥

राग विलावल।

प्रात समय दधि मथत यशोदा अति सुख कमल नैन गुण गावति । नील बसन तन सजल जलद मनु दामिनि दिवि भुज-दण्ड चलावति ॥ चन्द बदनि लट लटकि छबीली मनु अम्मृत रस राहु चुरावति । गोरस मथत नाद इक उपनत किंकिणि धुनि सुनि श्रवण रमावति ॥ सूरस्थाम अचरा धीर ठाड़े काम कसौटी कसि दिखरावति ॥ ६८॥

प्राणपति नाही आये बीती बहार । घुमडि आये घनघटा चहूदिसि भरि गयो नदी अरु नार || बिजुरि तडपि धन गरजि वरषि जल सघन रनि अँधियार । डरपति विरह अकेली कामिनि नहिं गृह राजकुमार ॥ यह तन रैन सैन को सपना निकसत नाहीं सार । हे द्विनराम आस चरणन की राखो शरण उदार ॥ ६९ ॥

कवित्त ।

चारो युग बीच मीच मद को मलनहार नाम सुखसार तरवार धार- धाक है । यामे जो मरम धुर धरम धुरीन जन जानत सुजान जोन दिव्य दिलपाक है ॥ माया मल मद मांझ बस्यो जाको चित्त तौन लखि ना सकत नाम महिमा अवाक है । युगल अनन्य जाहि रुचत न रामलाल ताहिं पर बार बार कोटिन तलाक है ॥ ७० ॥ नाम के रटन बिनु छूटत न दाग है । चाहो चारो ओर दौर देखो गौर ज्ञानहीन दीनता न क्षीण होय झीन अघ आग है ॥ जहा तक साधन सुराधन बिलोकिये जू बाधन उपाधन सहित नट वाग है । तीरथ की आस सो तो नाहक उपास हेतु एकबार राम कहे कोटिन प्रयाग है ॥ युगल अनन्य इत उत भ्रम श्रम दाम नाम के रटन बिन छूटत न दाग है ॥ ७१ ॥

और नाम अपर मनीन के समान स्वच्छ रामनाम चित चिन्तामनि चाहि चाहरे। और नाम रैयत दिवान औ वजीर सम राम नाम अचल अखण्ड बादशाह रे ॥ और नाम शिष्य सद समता सजाय सदा राम नाम गुरू गुण अगम अथाह रे ॥ युगल अनन्य और नाम दिन चार प्यार राम नाम नेहनिधि नित्य निरबाह रे ॥ ७२ ॥

सवैया।

हाली में हाली कहे कछुहूं पर प्रीति पुनीत पगे बनमाली । माली मिसाल फिरो बर बाग सुसींचत होत सुगन्ध सुसाली । साली मिलाप बिना सजनी उरताप कलाप न आवत लाली । लाली ललाम लला की मला जब चित्त चढ़े तबहीं सुख हाली ॥ प्रेम बराबर ईश सही नहीं बाद बिबाद विषाद की गैल है । या रस स्वच्छ प्रतक्ष बिराजन मानत मूढ न ठानत सैल है ॥ नाम निसोत सनेह समेत रटे यकतार लखे सत सैल है । श्रीयुग्म अनन्य सुजान भले पर भाव विहीन बराबर बैल है। मिलि गांव के नांव धरो सबही चहुँघा लखि चौगुनो चाव करो। सब मांति हमैं बदनाम करो कहि कोटिन कोटि कुदांव करो ॥ जीवन को फल पाय चुकीं अब लाख उपाव करो। हम सोक्त हैं पिय अंक निसंक चवायनै प्राओ चवाव करो ॥

नेह लगाय लुभाय लई पहिले ब्रज की सबही सुकुमारियां । बेनु बजाय बुलाय रमाय हँसाय खिलाय करी मनुहारियां ॥ सो हरिचन्द जुदा कै बसे बधि है छल सों ब्रजबाल विचारियां। बाह जू प्रेम निबाह्यो भलो बलिहारियां मोहन वे बलिहारियां ॥

संसार असार निसारन है रहती हमेस मय मरने की । अहशान वही साहब निदान लाजिम हारबार सँभरने की ।। नर आसन में तू परा है कस अप्त समय नहीं बन परने की। अब मकर न कर कर निकर यही कैलासपती पग धरने की। मोहिं किये बस मोह महा मदमत्त गयन्द गुमानउ हारै । क्रोध बली बलवन्त बडो जब आवत अङ्ग अभङ्ग कै डोरै ॥ थिरता न लहै चित बृत्ति जबै घाटेका जो अनङ्ग तरङ्गन मारे । साहबदीन जो लोभ जग तो बिना करुणानिधि कौन सम्हारै ।। डोरू डिमक डिमक बाजै कर ठाढ़ा ही बैल तड़कत है । सीस जटा जहँ गङ्ग बहै वाके पांय पदुम्म झलकत है ।। डारे बिछौना बघम्बर के कर ऊपर ब्याल लहक्कत है । लखि आई सखी तेरे शङ्कर को हिय मांहि हमारे खटक्कत है ॥

दोहा।

कलियुग केशव नाम से सुफल होत सब काम ।

अन्तकाल यम से छुटत विहरत गोकुल धाम ॥ ८० ॥

कबित्त।

बेनी गठिबन्धन को बसन भुजङ्गपुच्छ उमा के बिबाह लोग संकित सहर को। लोचन अनल भाल रोचन सक्यो न करि सोचत पुरोहित बिलोकै मुख बर को ॥ भूत प्रेत डाकिनी पिशाच मड़वे में फिरै फफकि फफकि फनी उगलैं जहर को । कहा नेग योग जीव बचे को न योग तहां गारी देत भाग नेगदारी सबै घर को ॥ ८१॥

छलन सो छैल तनी गोकुल की गैल लगी कुविजा चुरैल पगी मन बच काय है । आप सुकुमारी हमैं करत भिखारी प्रीति पाछिली बिसारी ये कही जू कान न्याय है ॥ व्रजकाम जीते ब्रन बाम सबही ते ये ममारख अनीते जी ते लगी सो जनाय है। मरन उपाय है बचे न कोऊ पायहै जो काहू कलपायहै सो कैसे कल पायहै ।। ८२ ॥

सवैया ।

राम की बाम जो आनी चुराय सोलंक में मांचु की बेलि बई जू। क्यों रण जीतहुगे तिनसों जिनकी धनुरेख न नांघि गई जू ॥ बीस विसे बलवन्त हुते जो हुती दृग केशव रूप-रई जू । तोरि शरासन शङ्कर को पिय सीय स्वयम्बर क्यों न लई जू ।। सिद्धि समाज सने अजहूं कबहूं जग योगिन देख न पाई । रुद्र के चित्त समुद्र बसे नित ब्रह्महु पै बरणी जो न जाई ॥ रूप न रेख न रङ्ग विशेष अनादि अनन्त जो वेदन गाई ।

केशव गाधि के नन्द हमैं वह ज्योति को मूरतिवन्त देखाई ।।

दोहा ।

को बरणे रघुनाथ छवि-केशव बुद्धि उदार । जाकी सोमा सोभियत सोमा सब ससार ॥ ८५ ॥

कवित्त ।

कौड़ी पै कनौड़े द्वार दौड़े फिरें कूकुर सों खो जो पचास आस पाये पांच दाम जो। जासो लघु लाम देखै ताहिं को न पूछ बात पाये बिन काहू के न करै भले काम जो ॥ भनै बि- जै-भूप रूप नीति को न जानै ख्याति लीबो अनुरूप परजा के धन धाम जो। स्वामी के बिगारि काम आपनो सवारि धाम ओई बदकार मंत्री होत बदनाम जो ॥ ८६ ॥

दोहा।

रामचन्द्र रघुबंशमाण प्रबल प्रताप निधान । आगम निगम पुराण नित मानत परम प्रमान ॥ ८७ ॥ आये री घनश्याम नहिं आये री धन श्याम । केकी कूजत मुदित मन नचत बियोगिनि-बाम ॥ ८८ ॥ अतन करै शर को पतन हरि बिन मोतन माह । को जानै ढहै कहा अब आयो ऋतुनाह ॥ ८९ ॥ सखा चन्द की चांदनी तातो करत शरीर । छन छन सरसत असम-शर लागत मलय-समीर ॥९०॥ मन तो मेरो तुम लियो मन बिन तन केहि काज । की मन देहु दया करौ की तनमन तजि लान ॥ ९१ ॥ आवन कहि आये नहीं मन कपटी चितचोर । मदन प्राण-ग्राहक भयो तुम बिन नन्दकिशोर ॥ ९२ ॥ बोले ते बोले नहीं अनबोले जिय लेत । रसिक लाल या निठुर सों कैसे कीजै हेत ॥ ९३ ॥ नैनों के नोके बुरे उर सालत ज्यों तीर । ढूंढे घाव न पाइये बेध्यो सकल शरीर ॥ ९४ ॥ केतिक पनिघट घाट में केतिक हाट बजार । रसिकलाल नैनान के मारे परे हजार ॥ ९५ ॥ जब सुधि आवत मित्र की बिरह उठत तन जागि। ज्यों चूने की कांकरी जब छिरकहु तब आगि ॥ ९६ ॥ जाकी जासो लगन है रेकि सकै धौ कोय । नेह नीर इक सम बड़े रोके दुनो होय ॥ ९७ ॥ जाकी जासो लगन है कहां जाति कह पांति । गुदरो कैसे ठीकरी अपनी अपनी भांति ॥ ९८ ॥ तुम सुजान अलगरज हौ गरज बड़ी इत माहिं । दरस देत इत नैन को खरच लगत का तोहिं ॥ ९९ ॥ रसिक लाल की अरज सुनि इतनो यश करि देहु । की हँसि हेरो नजरि भरि की हमरो जिय लेहु ॥ १०० ॥

कवित्त ।

आनन्द अशेष देत राखत कलेश नहि राजत गणेश दिीश एक छवि छाकी है। एक दिशि दिपत दिनेश सव देश देश मेटत हमेश तम तोम दुति जाकी है । एक दिशि लक्षमी नारायण अनूपम है एक दिशि मूरति बिशाल गिरिजा की है। हृदयारविन्दहि बप्तिन्द हित मीत सीस मध्यमाग भ्राजत गुमानेश्वर झांकी है ॥ १॥

अम्बर अरुण अरुणोदय प्रभा को देत माला मुक्ता मांग में मनै हरत बल सों। राजत प्रभात पथ्येक पै मयकमुखी जग- मगी ज्योति हीर हारन अमल सों ॥ द्विज बलदेव केश छूटी लटै आनन पै तिनको हटावै मुख मंजुल के थल सों । तारन के मण्डल में तिमिर विचार मानो कालीनाग टारत कलानिधि कमल सों ॥ २॥

विद्रुमं की व्यच पै बिराजत बिचित्र बाल मुकुलित माला मुक्तहीर उर भावतो । छूटी लटै कुटिल कपोल कुच मण्डल लों कर सों सुधारत सुकवि छबि मावतो ॥ तारन की अवली कनक लतिका पै लसै उपमा अतूल बलदेव चित लावतो । मानों शम्भु शीश चढ़े पन्नग पियूष पीवै तिन को कमल सो कलानिधि हटावतो ।। ३॥

गुंजत भ्रगर तार तारन सितार तार अतर फुहार मजु बंजल समीर के । बसन-बिवर बंसी धुनि सुनि मनहर भूरुह गनप शब्द मुरज गंभीर के ॥ साखा लफ्टान छुटि भेटन फटान माव पिक प्यो रटान छटा गान सम तीर के। नृतक अपार को-किलाली आली ठौर और देखत बसन्त नृत्य धारन सुधीर के॥

कवित्त ।

सन्त असन्त न धीर धरै स कहा अबला निशि बासर अन्त की। अन्त की बोल सुनावत कोकिल पीव कहाँ पपिहा गनगन्त की । गन्त की औध के घोस अली गनपाल सबै शरणागत तन्त की। तन्त की करिति कन्त असन्तन ताप परी बधिकाई बसन्त की।

सवैया ।

गुल गुललाला औ गुलाब गुलचीनी गुलदाउदी विशद गुलसब्बो बिलगात है । चम्पक चमेली चारु चन्दन रु चांदनी से केवरा कुसुम केतकी के सरसात है । बेला बेल विशद बिसाल बेली सोहियत रस के बिसाल जूही जूथिक जनात है । सूरज. मुखी औ स्याम सेमर लसत नम शरद बदर फूल बाग सो लखात है ॥ ६ ॥

छप्पै ।

जहां उदित कचराज तहां देखत मुख इन्दै । जहां इन्दु को बास तहां फूल्यो अरबिन्दै ॥ जहां बसत सु मनोज तहा विवि शम्भु छवासी । पञ्चानन कटि जहां तहां गममत्त गवासी॥ गोपी कवित्त अचरज यह अरि अरि सब संगै रहत । अति राजनीति तियतन नगर रिपुरामिलि छबि को गहत ॥ न कछु क्रिया बिन विप्र न कछु कादरमिय छत्री। न कछु नीति बिन नृपति न कछु अच्छर बिन मंत्री ।। न कछु बाम बिन धाम न कछु गथ बिन गरुआई । न कछु कपट को हेत न कछु मुख आपु बड़ाई ॥ न कछु दान सम्मान बिन नष्ट कुभोजन जासु दिन । यह कबित सु नर हरि उच्चरै कछु न जन्म हरिमाक्त बिन ।। नेकबख्त दिलपाक वही जो मर्द सेर नर । अव्वल बली खोदाय दियो बिसियार मुलुक जर ।। तुम खालिक दुर वेश हुकुम पाले सब आलम । दौलत वख्त बुलन्द जङ्ग दुश्मन पर जालम ॥ ऐशाह तुरा गोयद खलक कवि नरहरि गोयद अजचनी । अकबर बराबर पादशाह मन्दिगर न दीदम् दर दुनी ॥ ९ ॥ तदिन सत्य जनि जाइ जदिन कोउ याचक जच्चै । तदिन सत्य जनि जाइ जदिन पर घर मन रच्चै ॥ तदिन सत्य जनि जाइ जदिन कोउ शरणहि आवै । तदिन सत्य जनि जाइ जदिन अरि सन्मुख धावै जनि जाइ सत्य नरहरि कहै बरु बिधना प्राणनि हरै । गोरच्छ अकब्बर साह सुन सत्य सुमङ्गल ना टरै ॥ १० ॥

सवैया।

ऐसे बने रघुनाथ कहै हरि काम कला छबि के निधि गारे । झांकि झराखे सो आवत दोख खड़ी भई आनि के आपने द्वार ।। रझिी सरूप सौ भीनी सनेह यों बोली हरे रस आखर भारे । ठाढ हो तोसों कहौंगी कळू अरे ग्वाल बड़ी २ आँखिनवारे ।।

कवित्त ।

फूलन सो बाल की बनाय बेनी गुही लाल भाल दीनी बेंदी मृगमद को असित है । अङ्ग अङ्ग भूषण बनाय ब्रजभूषण जू बीरी निज कर ते खवाई करि हित है ॥ है कै रस बस जब दीवे को महाउर को सेनापति श्याम गह्यो चरण ललित है । चूमि हाथ लाल के लगाय रही आंखिन सों येहो प्राणप्यारे यह अति अनुचित हे ॥ १२ ॥

'सवैया ।:

मेरी वियोग-बिथा लिखिबे को गणश मिलें तो उन्हीं ते लिखाओं। व्यास के शिष्य कहां मिलै मोहिं जिन्है अपना विरतान्त सुनाओं। राम मिलैं तो प्रणाम करौं कवितोष बियोग-कथा सरसाओं। पै इक सांवरे मीत बिना यह काहि करेजो निकारि दिखाओं ॥

कबित्त।

चित्त को भ्रमा छबि देखें तहां जा3 चाह दूनी उपजावें इन ऐसी रीति डारी है। नीर झरि लावै तन हूक ना बुझावै चैन पलक न लावै नींद अनत सिधारी है ॥ कहिये कहा री नेक मानत न हारी हम अति मनहारी ये कुपन्थ पगधारी हैं । तन तें मिली रहत मन में न लावै नेक आखें ये हमारी कहिवेई को हमारी हैं ॥ १४ ॥

सुरंग रँगीले अरसीले सरसीले सर सरस नुकीले मटकीले कीले काम के । सरबर मीले दरसाले सरसीले नीले सुन्दर सु- सीले उनमीले आठौ याम के ॥ छाजत छबीले जसवन्त गर- बीले वेस लाजत लजीले जलजात अभिराम के । चोखे चटकीले

झमकीले चमकीले चारु सोहत घतीले ये जतीले नैन बाम के ॥

सवैया।

ए करतार बिनै सुनि दास की लोकन के अवतार करो जनि। लोकन के अवतार करो जो तो मानुषही को सवाँर करो जनि ॥ मानुषही को सवाँर करो तो तिन्हैं विच प्रेम प्रचार करो जनि । प्रेम प्रचार करो तो दयानिधि केई बियोग बिचार करो जनि ॥ गिरि सों गिरिबो मरिबो बिष सोनिज हाथ सों काटिबो नीको गरे को पावक में जरिबो है भलो परिबो भलो सिन्धु में जन्म भरे को ।। त्यागियो है सुरलोक को नीको सु आर सही दुख नेक परे को । होत कलेस न जो इतने में सु होत बिदेसी सों प्रीति करे को।

कबित्त ।

तुमही बिचारो निरधारो प्रेम-पन्थन में भारी भारी ग्रन्थन में कैसी निप्सरत है । कहां आवै कहां जांय कासो कहै कौन सुनै मनसा बिकल याही मांझ मिसरत है ।। ठाकुर कहत चित्त चलन ललन प्यारे न्यारे हे सिधारे या निराली कसरत है । जासों मन लागो नैन लागे लगी प्रीति पूरी ताकी कहूं सूरति बिसारे बिसरति है ? ॥ १८ ॥

मधुर मधुर मुख मुरली बजाय धुनि धमाके धमारन की धाम धाम कै गयो । कहै पदमाकर त्यों अगर अबीरन को करि के घलाधली छलाछली चितै गयो । को है वह ग्वाल जो गुवालन के सङ्ग में अनङ्ग छबि वारो रसरङ्ग मे मिजै गयो । बै गयो सनेह फिरि छ गयो छरा को छोर फगुआ न दै गयो हमारो मन लै गयो॥ १९ ॥ मोहिं तजि मोहने मिल्यो है मन मेरो दौरि नैनहूं मिले हैं दोख दोख साँवरे शरीर। कहै पदमाकर त्यों तान में सु कान गये हो तो रही जकि थाके मूली सी भ्रमी सी बीर ॥ येतो निरदई दई इनको न दया दई ऐसी दशा भई मेरी कैसे घरों तन धीर । होतो मनहूं के मन नैनंहू के नैन जो पै कानन के कान तो ये जानते पराई पीर ॥२०॥

प्रात उठि मज्जम के मुदितं महेश पूजि षोडस प्रकार के विधान विधि और की। अवाहन आदि दे प्रदक्षिणा परी है पाँय दोऊ कर जोरि सिर ऊपर निहोर की ॥ आरसी अँगूठी मध्य लख्यो प्रतिबिम्ब प्यारी मनै रघुनाथ जरदाई मुख कोर की। मेरी प्रीति होय नन्दनन्दन सो आठौं याम मोसो जनि प्रीति होय नन्द के किशोर कीं ॥ २१ ॥

जैसी छवि श्याम की पगी है तेरी आँखिन में वैसी छवि तेरी श्याम-आँखिन पगी रहै । कहै पदमाकर ज्यों तान में पगी है त्योही तेरी मुसकानि कान्ह प्राणन पगी रहे ॥ धीर धर धीर घर कीरतिकिशोरी मेंई लगन इत उतै बराबर जगी रहै। जैसी रट तोहिं लागी माधव की राधे ऐसी राधे राधे राधे रट माधवे लगी रहै ॥ २२ ॥

एकै साथ धाये नन्दलाल श्री गुलाल दोऊ हगन गये री भरि आनन्द मढे नहीं । धोय धोय हारी पदमाकर तिहारी सौह अबतो उपाय एको चित्त पे चढ़े नहीं। कहां आवें कहां जाय कोसो कहै कौन सुनै कोऊ तो बताओ जासों दरद बढ़े नहीं । येरी मेरी बीर जैसे तैसे इन आँखिन तें कढ़िगो अबीर पै अहीर तो कड़े नहीं ॥ २३ ॥

सवैया।

वा निरमोहनि रूप की राशि जो ऊपर के उर आनत हहै । बारहिं बार बिलोकि घरी घरी सूरति तो पहिचानत हहै ॥ ठाकुर या मन की परतीति है जो पै समेह न मानति हहै । आवत है नित मेरे लिये इतना तो विशेषहुँ जानति हहै ॥२४॥

अब का समुझावती को समुझे बदनामी के बीज ता बो चुकीरी । तब वो इतनो न बिचार कियो यह जाल परे कहौ को चुकी री॥ कबि ठाकुर या रस रीति रँगे सब मांति पतिव्रत खो चुकी री। अरी नेकी बदी जो बदी हुती माल में होनी हुती मु तो हो चुकी री

जिय सूधे चितौनि की साधे रही सदा बातन में अनखाय रहे । हँसि कै हरिचन्द न बोले कबौ दृग दूरिहीं से ललचाय रहे ॥ नहिं नेक दया उर श्रावत है करि के कहा ऐसे सुभाय रहे । सुखकौन सो प्यार दियो पहिले जेहि के बदले यों सताय रहे ॥

छोड़ि के प्रीति प्रतीति लला इन बातन सो मति बान से हूलियो । मांगत है इतनो तुमसो हमरे हिय पालन में नित झूलियो । जोरि के हाथ कहै हरिचन्द हमारी यहै विनती सो कबूलियो । आवो न आवो मिलौ न मिलौ पै हमै अपने चित सों मति भूलियो

द्वारेही श्राइ कडै कबहूं कबहूं मृदु गाय कळे पिछवारे । बेनी पितम्बर की कछमी कबहूं सिर ऊपर मौर सँवारे ॥ एक उपाय अनेक केला नँदनन्दन चाहत चित्त हमारे माजे कहां लो बचैं सजनी कहूं गाजै टरै टटकान के टारे ।। आये हो उधो भले ब्रज में बहुतै दिनते करती उर जापनो। आइये बैठिये माथन पै संग साथिन में गनती तुव थापनो ॥ श्याम की बातें कछू न कहो जिन छोड़ दियो पितु मातहु आपनो । और कहा चहौ सो ना कही पहिले कहौ कूवरि को कुशलापनो।

कहां कल कंचन से तन सो ओ कहा यह मेघन सो तन कारो। सेजकली विकली वह होत कहां तुम सोइ रहो गहि डारो ॥ दासजू ल्यावही ल्याव कहौ कछू आपना वाको न बीच विचारो। कौल सी गोरी किशोरी कहा औ कहां गिरिधारन पाणि तिहारो॥ कामरी कारी कॅधा पर देग्वि अहीरहिं बोलि सबै ठहरायो । जोइ है सोइ है मेरो तो जीव है याको मै पाय सभी कछु पायो । कामरी लीन्हो उढाय तुरन्तहि काम री मेरो कियो मन भायो । कामरी तो मोहिं जारो हुतो बरु कामरी-वारे विचारे बचायो ।

कबित्त ।

छूट्यो गेह काज लोकलाज मनमोहनी को छूट्यो मनमो- हन को मुरली बजाइबो । देखि दिन दू में रसखानि बात फैलि जैहै सजनी कहां लों चन्द हाथन दुराइबो ॥ कालही कलिन्दी तीर चितयो अचानक हौं दोउन को दुहूं दुरि मृदु मुसकाइबो । दोऊ परै पैया दोउ लेत हैं बलैया उन्हें भूलि गई गैयां उन्है गागरि उठाइयो ॥ ३२॥

सवैया।

का कहिये परधीन भई गुरुलोगन में निशिवासर जीजिये । ना तरु लाख बनै बिगरै निज अंक भुजा भरिकै मिलि लीजिये ।। ठाकुर आवत यों मनमें कुलकानि को आजु बिदा करि दीजिये। जौ अपनो बस होइ सखी तो गोपालहिं आखिन ओट न कीजिये।

नैनन नीर न धार अपार न हां करि सांस भरै सुख कन्द को । चापलता दरसाय रही बलदेव कहो सो बिचारि ले मन्द को ॥ लोक की लाज नही पटकी न तो तोयो अबै जग जाल के फन्द को। नाहक नेह की बातें करै अरी नीके न तू निरख्यो नदनन्द को ।।

सांकरी खोरि में सांवरे सों जुड़ी दीठि सों दीठि मुकालिबे की। दृग देखि दली सकुची सिमटी सुधि ना रही बूंघुट घालिचे की ।। यह धौं अपराध लगायो कहा पर ती के नहीं चित सालिबे की। यहि गांव-चवाइन सों मिलि के परी प्रीति पतिव्रत पालिबे की।

ये ब्रजचन्द गोबिन्द गोपाल सुनो ने क्यों केते कलाम किये मैं त्यों पदमाकर आनद के नन्द हो नन्दनन्दन जानि लिये मै ॥ माखन चोरिकै खोरिन है चले भाजि कछू भय मानि जिये मैं । दौरिहं दौरि दुग्यो जो चहो तो दुरो क्यों न मेरे अँधेरे हिये मै ।।

कासों कहौ कोउ पीर न जानत तासों हिये की बतैयतु नाहीं। चौचंद ठाकुर है ब्रज में त्यहिते छन ही छन ऐयतु नाहीं ॥ आय के राह में भेंट भई छनएक मिले ते अधैयतु नाहीं। अङ्ग लगाइ कै जीबो चहै तिन्है आंखिन देखन पैयतु नाहीं ॥

अँग पारसी से जो पै भाषत हौ हरि आरसीही को सवाँरा करो। सम नैन के खंजन जानत तो किन खंजनही को इशारा करो। कवि शंकर शंकर से कुच जौ कर शंकर ही पर धारा करो । मेरो कहो जो सुधाकर सों तो सुधाकर क्यों न निहार करो ।।

चंदन पंख के नीर उसीर को सेज बिछाइ मरोरी । तूल भयो तन जात जरो बैरी दुकूल उतार घरो री॥ देव न सीरे सबै उपचार यही में तुसार को भार भरो री । लाज के ऊपर गाज परै ब्रजराज मिलै सोइ आज करोरी ॥

जान पखौवन की सुधि हेत मयूरन देती भगाय भगाय । मने के दियो पियरे पहिराउ सुमांव में प्यादे लगाय लगाय ॥ भुलावति वाकै हिये ते हरी सुकथान में दासी पगाय पगाय । कहा कहिये यह पापी पपीहा व्यथा हिय देत जगाय जगाय ॥

वासुरी छोरि के सारेंगी लेकर नारंगी पति पटै रँगवायो । मोर को मौर बिहाय गदाधर छोरि लटै नट वेष बनायो । गावत राग बिराग भरे अलि फेरि कै मेरे दुवार लौ आयो । येती करी मोहिं देखिबे काज अभागी मैं कान्ह हिये न लगायो ।।

कवित्त।

राजपौरिया के वेष राधे को बुलाय लाई गोपी मथुरा ते मधुबन की लतान में । कही तिन आय तुम्है राजा कस चाहत हैं कौन के कहे ते यहां लूटो दधि दान में॥ सङ्ग के सकाने गये डगर डराने हिये श्याम सकुचाने सो पकरि कियो पानि में ।

छूटि गयो छल वा छवीली को बिलोकन में ढीली मई मौहै वा लनीली मुसकान में ।।४२।।

सवैया ।

छितिपालन के दरबारन में अपकारी अपार आभगे मिले । सुर-थानन तीरथ क्षेत्रन में झगरावल प्रोहित नांगे मिले ॥ कवि शंकर पास भले के बुरे बमैं फूल में कण्टक लागे मिले । हम लेन गये फल मीठे जहां तहां कूर बबूरहिं आगे मिले ।।

कवित्त ।

देखि लेती हग भरि हरि धरि धीर आली चौगुनो चवाव फेरि कूटती तो कूटती । करि लेती मन के मनोरथ प्रवीन चेनी प्रीति पथवारी फेरि टूटती तो टूटती ॥ आवतो हमारी गेल छैल ब्रजचन्द प्यारो धैर घर बाहर की ऊठती तो ऊठती । लाय लेती छतिया में बतियाँ कै चित्तचाहि फेरि कुल गोकुल ते छूटती तो छूटती ॥ ४४ ॥

लावति न अंजन मँगावति न मृगमद कालिंदी के तीर न तमाल तरे जाति है। हेरत न धन गिरि गहन बनक बेनी बांधे ही रहत नीली सारी ना सोहाति है ॥ गोकुल तिहारी यह पाती बाँचिहैगो कौन याहू में तो कारे अखरान ही की पाति है । जा दिन ते लखे वा गवांरि गूजरी सों कान्ह तादिन ते कारो रँग हेरे अनखाति है ॥ ४५ ॥

कारो जल यमुना को काल सों लगत आली जानियत फैलि रह्यो विष कारे नाग को। बैरिनि मई है कारी कोयल निगोड़ी तैसी तैसही भँवर कारो बासी बन बाग को ॥ भूषण मनत कारे कान्ह को बियोग हमैं सबै दुखदाई भयो कारे अनुराग को । कारो धन घेरि घरि मारो अब चाहत है ताहू पै मरोसो करै आली कारे काग को ।। ४६ ॥ नित उठि आनि इत बोलि बोलि जात वेऊ झूठ भये बोल सबै बायस बिहन के। पतिया तिहारी तेऊ झूठ ये निवाज कबि झूठे दृग फरकै हमारे बाम अङ्ग के ॥ कारे काग झूठे कारे कागदौ तिहारे झूठे कारे ये हमारे नैन झूठे बिन ढङ्ग के। कान्ह एक तुमही न मिले हमैं झूठे सब झूठे मिले दई के सँवारे कारे रङ्ग के ॥ ४७ ॥

को हौ ज्योतिषी है। कछू ज्योतिष विचारि देखो याही धाम धाम काम जाहिर हमारो तो । आओ बैठि जाओ पा छुआओ पान खाओ नीके चित्त सों सुचित्त ढकै गणित विचागे तो ॥ ठाकुर कहत मेरे प्रेम की परिच्छा शिच्छा इच्छा को प्रतीति ताहि नीके निरधारो तो । मेरो मन मोहन सो लागि रह्या भाति मांति मोसों मन मोहन को लागिहै विचारो तो॥४८॥

ज्योतिष के धारी कह्यो पण्डित पुकारी हम देख्यो है बिचारी भारी भाग है तिहारो तो। तेरे रस बस कान्ह यश को सराहत हैं मिलिबे के काज धेनु बन बन चारो तो ॥ कहत अनन्द यह चन्दमुखी साच मान नन्द डर मान्यो तासो भयो है नियारो तो। धीर नेक धारो उर टारो दुख सारो सुख मिले नन्दवारो प्यारो ऐसही बिचारो तेरे ॥ ४९॥

भृकुटी तनी को सीसफूल की कनी को सोभा सकल सनी को ऐसो फूलो कंज फीको है । मैन की मनी को मैन-बान की अनी को पैन देन है धनी को हास हुलसनि ही को है ।। रूप अवनी को कहा रमा-रमनी को गजगति गमनीको लखि नीव मैलजी को है। विश्वबन्दनी को मन्द हास कन्द नीको मुख चन्दहू सों नीको बृषभान-नन्दनी को है ॥ ५० ॥

कूबरी की यारी को न सोच हमैं भारी ऊधो एकै अपसोस सांवरे की निठुरान को । योग जो लै आये सो हमारे सिर आखन पै राखन को ठौर तन तन को न आन को ॥ अङ्ग अङ्ग ब्रती हैं वियोग ब्रजचन्द जू के औध हिये ध्यान वा रसीली मुसकान को । आँखै अँसुवान को करेजो मैन-बान को औं कान बसीतान को जुबान गुनगान को ॥ ५१ ॥

उझकि झरोखे झांकि परम नरम प्यारी नेसुक देखाय मुख दूनो दुख दै गई । मुरि मुसक्याय अब नेकु ना नजरि जोरै चेटक सो डारि उर और बीज बै गई ॥ कहै कवि गङ्ग ऐसी देखी अनदेखी भली पेखै ना नजरि में बिहाल बाल के गई। गांसी ऐसी आंखिन सों आँसी आँसी कियो तन फासी ऐसी लटनि लपेटि मन ले गई ॥ ५२ ॥

सवैया ।

जानत तेई तुम्हें जेइ जान गुमान मेरे अपने मन में हौ । प्यार तें कोऊ कळू ना कहै चक हो जूपरे झख मारत हो। दूध औ पानी जुदो करिबे को कहै जब कोऊ कहा तब कै हो । श्वेतही रङ्ग मराल भए अब चाल कहौ जू कहां वह पैहो ।

एकै कहै सुख माल हरै मन के चढ़िवे की सिढ़ी इक पेखें । कान्ह को टोनों कियो कछु काम कबीश्वर एक यहै अबरेखै ।। राधिका की त्रिवली को बनाव बिचारि विचारियह हम लेखै । ऐसी न और न और न और है तीनि खचाव दई विधिरे खै ॥५४॥

कबित्त।

मोसों के करार गयो लम्पट लबार मन मानि अति बार मै सिंगारऊ बनायो री । छोडि कुललाज छोड़ि सखिन-समाज सखि छोड़ि गृहकाज ब्रजराज मन लायो री ॥ कुंज निशि जागी बन सिंह प्रेमपागी भन एकऊ न लागी अव शुक्र उइ आयो री । सेइ बनमाली घेरि आये बनमाली झरै लागे बनमाली बनमाली ते न आयो री ॥ ५५ ॥

चक्रवाक चक्रित चकोर मृग मीन मोर खंजन कपोत पिक चातृक चितै रहे । हिलत न पौन बन डोलत न चम्पडार चलत न चन्द रवि दङ्ग मन है रहे ।। बांसुरी बजाइ कान्ह नन्दन करत गान गोपी ग्वाल जीव जन्तु आनन्द उदै रहे । कंजनाल कुंजर पराग रस-भौर जाल मोती मुख मेलत मराल मन दै रहे ॥५६॥

सवैया।

सांकरी गैल में भेंट भई लाख बेनी बियोग व्यथान में ठाढ़े । चाहभरे दृग दोऊ दुहू के समोइ रहे अति धीरज गाढे ।। आइ न कोड परे यहि संक न अंक भरे अति आनंद बाढ़े । ढीली रसीली लिये अंखिया मुख दोऊ दुहून को जोहत ठाढ़े ॥ आवती जाती किती बटपूजन बाल वा काहू के सङ्ग सनै ना। ठाढो हुतो उत लालची लाल सों वाहू ते प्रेम सों जात बनै ना ।। बीति गई तीथि यो परमेश सो पानि तियानि को कानि मनै ना। साँवरी सूरत में अट की बटकी भटू भाँवरी देत गनै ना ॥५८||

बहु ज्ञान कथानि लै थाकी है। मैं कुल कानिहु को बहु नेम लियो। यह तीखी चितौनि के तारन त मनिदास तुणीर भयो इ हियो । अपने अपने घर जाहु सबै अबलों सखि सीख दियो सो दियो । अबतो हरि भौंह कमाननि हेतु हौ प्राणन को कुरबान किया ।

दास परस्पर प्रेम लखी गुन छीर को नीर मिले सरसातु है नीर बेचावत आपनो मोल जहां जहां जाइ के छीर विकातु है ।। पावक जारन छीर लगे तब नीर जरावत आपनो गातु है । नीर की पीर निवाहिबे कारण छीर घरी ही घरी उफनातु है ।

घर बाहर के सब घेरे फिरें जो अकेले कहूं करि पाइय तो। उनहीं की सबै मरजी की कहैं अपने जिय की समुझाइये तो ।। कहि ठाकुर लाल के देखिबे को अब मंत्र यही ठहराइये तो। बतियां कहिबो जिनसों न बनै छतियां कहीं कैसे लगाइये तो।।

एक वहै मुख देखाई भावत बादि सबै मिलि माइती राहो । कीजै कहा बस है न कळू सिगरी मिलि दाहन आई तो दाहो ॥ मोहिं न काज कछू कुलकानि सो जाहि निबाहन है सो निबाहो । मेरो तो माई उहै उर आनि रह्यो गड़ि गैयन को चरवाहो ॥

कबित्त ।

नैन नीको मृग को सुबैन नीको कोकिल को सैन नीको तीको गैन नीको बाज ताज को। चैन नीको ही को सुरैन अष्टमी को नीको ध्यैन छन्द नीको दैन नीको नीको नान को ।। स्वेन नीको गङ्ग को बजैन वेन ही को नीको ऐन नीको देव को सुपैन मैन साज को। दण्ड नीको दण्डि को घमण्ड गोडही को नीको खण्ड नीको मारत अखण्ड नीको राज को ।। ६३ ।।

कारे घुघुरारे कच बिकच सकुच तजि नैन ये हमारे छबि छैल फाँस फॅसिगो। उर बनमाल चारु चन्दन रुचिर माल लोचन विशाल भाल हेरि हिये धंसिगो ॥ कृष्णसिंह सांवरी सी मूरति मनोजमई निशि दिन हेरि हेरि अङ्ग अङ्ग रसिगो। कहो सब डक दै न रहो कछु शंक अब मों मन मयंक में कलङ्क कान्ह बसिगो ॥ ६४ ॥

सवैया।

धनि हैं गे वे तात ओ मात जयो जिन देह धरी सो घरी धनि हैं। धनि है हग जेऊ तुम्हें दरसै परसै कर तेऊ बड़े धनि हैं। धनि है ज्यहि ठाकुर ग्राम बसो जहँ डोलो लली सो गली धनि हैं। धनि हैं धनि हैं धनि तेरो हितू ज्यहि की तू धनी सो धनी धनि है ॥

कबित्त।

तूहीतो कहै री मनमोहन लखे मैं मनमोहन लखे को एको लक्षण लहोती तैं । वसिये गोबिन्द सुधि बुधि है सबै तो तोहि दीन्हीं ना अजौ लों लोक-लाजहिं चुनौती ते ॥ चङ्ग होतो चित्तरी कुरङ्गनैनी कैसे गन अङ्गनि अनङ्ग बारी अगिनि अगोती तै । बावरा भई है तै न सांवरी सबीह देखी सावरी साह देखि बावरी न होती तें ॥ ६६ ॥

सवैया।

द्वारिया द्वार के पौरिया पारि के पाहरू ये घर के घनश्याम हैं। दास है दासी सखीन के सेवक पाय परोसिन के धनधाम है ॥ श्रीपति कान्ह भ नित भांवरे मानभरी सतभामा सी बाम है। एक यही बिसराम थली वृषभान-लली के गली के गुलाम है ॥

कवित्त ।

मोही में रहत सदा मोहू ते उदास रहै सिखत न सीखहू सिखाये निरधाच्यो है । चौको सो चको सो कहूं जक सो जको सो के उपाय नथ को सो भांति भांति न निहायो है ।। ठाकुर कहत हित हासवारी बातन में जानत न हरि सो कहां धौ बोल हायो है। ऐसो चित्त चातुर सयान सावधान मेरो ऐरी इन आखिन अजान करि डायो है ।। ६८॥

जौ लगि न कोऊ परि लागति है आप उर तौ लगि पराई पीर कैसे पहिचानिहै। ॥ जानत हौ न आजु लौ न लाग्यो नेह काहू सन जबै नेह लागिहै तो हितहू न मानिहीं ॥ चतुर कबीश कहै मेरे कहिबे की बात नेकु ना रहैगी तू समुझि हिय ठानिहीं । जैसे तुम मोहिनी को लागत हौ प्यारे लाल वैसे तुम्है कोऊ नीक लागिहै तो जानिहौ ॥ ६९ ॥

सवैया ।

जो मिलि है तुम को तुमहूं सो कहूं कोउ तोसों जु पै हित मानिहीं । बूझे ते और की और धुनेगो सुनेगो नहीं जिसकी जो बखानिहौ ॥ ये सब मेरी कही शिवसागर तादिना ते तुम सांचु कै जानिहो । नेह सो देह दहेगी जब तबै प्यारे पराई व्यया पहिचानिहीं ॥

सोरठा।

प्रीति स ऐसी जान, काँटे की सी तौल है।

तिलभरि चढ़े गुमान, तौ मन सूई डग-मगै ॥

दोहा ।

चढि के मन तुरङ्ग पर चलिबो पावक माहिं ।

प्रेम पन्थ ऐमो कठिन सत्र सों निवहत नाहिं ॥

झूलना रामसहाय के-अलिफ ।

वह अलिफ इलाही एक है जी वहु भेष में आपु समाय रहा। कहि डोल्ता है कहिं बोल्ता है कहि सुन्ता है कहिं गाय रहा । नहिं और किसी से कहताहूं मै अपना मन समुझाय रहा । गुरु इश्क इसारा साहि दलै वाहिद में रामसहाय रहा ॥ १ ॥

वह अलिफ इलाही एक है जी जिन टेक धरी सोड़ पार पड़ा। कसि कमर करेजा हाथ लिया मैदान इश्क में आनि अड़ा ॥ यह भेद समुझि कर मूली पर मन्सूर भी तूर बनाय चड़ा । हद बेहद रामसहाय नही मिरहद में नेह निसान गडा ॥ २ ॥

वह अलिफ इलाही एक है जी जिसे सेख बिरहि मन ध्यावता है। कोई माला तसवी जपता हे दै बांग कोई गुण गावता है ॥ कोई जाय मनमारि मुराकिबे में कोई सून्य समाधि लगावता है । हर हाल में रामसहाय वही इक रामरूप दरसावता है ॥ ३ ॥ वह अलिफ इलाही एक है जी चहौ राम कहौ चहै। रब्ब कही। चही काबा श्री महजीद कहै। चहौ ठाकुर द्वाराधाम कहौ ॥ चहौ कहाँ कटोरा अमृत का चाहौ कौसल का नाम कहो तुम रामसहाय मिटाय दुई मनमस्त रहौ हरिनाम कहौ ॥ ४॥ वह अलिफ इलाही पाकजात आनन्द ब्रह्म अविनासी है। भरिपूर तुलासा नूर वही नहिं दूर सबन के पासी है ।। नहि ऊचा नीचा कम ज्यादा ज्यों का त्यों सब घट बासी हैं। तू रामसहाय न जाय कहीं वह काया काबा काशी है । बे-बरकत बारी ताला को सब कुदरत का सामान हुआ । अबगत सो आतप्त प्राबहवा परतच्छ जिमी अम्मान हुआ ।। मइ सूरति मूरति रङ्गं घने हरएक में नाम निशानं हुआ। पहिचानि ले रामसहाय उसे जग जिस्म हुआ वह जान हुआ ॥ ते-तरकस में ज्यों तीर भरे त्यों तन में स्वास सुमार कीजे। यह खाली छोडना खूब नही निज माम निसान को ताकि लीजे॥ इस दमही का सब दमदमा दम टूटे देह दीनार छीजे । तेहि रामसहाय उपाय यही दिल देग में दम को दम दीजे ॥ से-सेसवित्त सन्तोष सील साँचा सुभाव भरपूरों का । सिर बेचि के मरने को डरना यह खास खवास बेइश्क इवादत कमरना दिन भरना काम मजूरों का। खुश रहना रामसहाय सदां मजबूत मता मन्सूरों का ॥ ८ ॥ जीम-जाग जाग ऐ जी जाहिल बेहोश पड़ा क्यों सोता है । इस तन पिंजरे में आनि फँसा तू किस जङ्गल का तोता है ।। जो अबकी औसर चूक गया सिर पीटि सदां सों रोता है। कहु रामसहाई रामनाम क्यों उमर अकारथ खोता है ॥ ६ ॥ हे-हाजिर रहियो हाकिम से जिसकी नगरी में रहता है। इस जन्म जिमी के पट्टे में कुछ बाकी भी तू चहता है ।। जो फिरे हुये हैं हाकिम से उन गठबर का गढ़ ढहता है । जो सन्मुख रामसहाय सदा सो आदि अन्त सुख लहता है॥१०॥ ख-खैर इसी में जानै दिल मो खालिक से खुशहाल रहै । गुरुज्ञान गरीबी सिफत् सना दुनियां में सीधी चाल रहै ।। ना सोना चांदी माल रहै ना हीरा मोती लाल रहै । तू रामसहाय बिचारि देखु आद्यन्त में एक अकाल रहै दाल-दम् आता अरु जाता है सो तो तेरा पैगामी है। दो मीर मलायक की दस्तक तुझपर मौजूद मुदामी है । ऐसे पर भी कुछ गफलत् है तो आखिर को बदनामी है । छिपि रहौगो रामसहाय कहां साहब तो अन्तर्यामी है ॥ १२॥ जाल-जाहिर सरह शरीकर हौ अरु बातिन में मजबूत रहौ । दिल डोर तोरि कर दुनियां की उस साहब से साबूत करो ॥ इस तन तस्वी में दम दाना सूरति सनेह ले सूत करो । गुरुमन्तर रामसहाय जपो बसि भरम भयानक भूत करो ।।१३।। रे-राह चलोगो जीधर की ऊधर को यकदिन आओगे । गर काम करोगे दोजक का तो मिस्त में क्यों कर जाओगे ॥ जो बीज बबूर के बोओगे तो म्वरमा क्यों कर खाओगे। इम्साफ है रामसहाय यही अपना कीया फिर पाओगे ॥ १४ ॥ जे-जारी कर उस बारी से जो माफ तेरी तकसीर करै । या परमेश्वर की रीति नहीं जा आजिज को तानीर करै ।। है बन्दे नेवान गरीबों का बहु जालिम् को जनीर करै । साकिर रहु रामसहाय सदा जो चाहै सो रघुबीर करै ॥ १५ ॥ सनि-सदा तेरा संसार नहीं जिप्स को कहता तू मेरा है । फरजन्द फॉस जोरू ठगिनी घर भाठयारिन का डेरा है ।। तू मोह मवास मात रहा बे समुझ काल ने घेरा है । हुमियार हो रामसहाय सदां उठि लागु सबील सबेरा है ॥१६॥ शीन-शौक तुझे शिव मिलनका तो पीर क प्याला पिउ भाई । करि दृरि तकब्बुर ख्याल खुदी तमकन्त तकल्लुफ दुनियाई ॥ यह प्रेम का पन्थ दुहेला है ना अकिल चलै ना चतुराई । मुरमिद की मेहर मुहब्बत से कुछ रामसहाय सनद पाई ॥१७॥ स्वाद-सुलह राखु सतगुरु सेती तो काम तेग सब जारी है। तप तीरथ पूजा नेम धरम पर एक उसीला भारी है । परतीति करै सोइ पार पडै भव बूढ़े वे-अतिवारी है । श्रीरामसहाय दया सतगुरु की सांची बात बिचारी है ॥ १८ ॥ ज्वाद-जप्त कहां तिनके दिल को जिनने वहदत का जाम पिया। जब शौक होय तो शरम कहां डर डारि गरेबां चाख किया । खुसियाल खुमारी ख्याल खुदी जगजाल से पैर निकार लिया । सब अङ्गमे एकै रङ्ग रचै स्वइ रामसहाय सन्दा सुखिया॥ १९ ॥ तो-तैयारी करु बांधि कमर इस तन तीरथ का मेला कर । घट भीतर तेरे ज्ञान गुरू तू चित अपने को चेला कर ॥ गम सादी दुख सुख दुनियां के सो सहज स्वभाव न झेला कर । मुरशिद की मेहर सहाय सदा वेभरम खलक में खेला कर ॥२०॥ जो- जिकिर करो तो फिकिर छुटै नहि इकदिन जालिम लूटेगा। मैंदान मौत में यार तेरा यह तन तिनका सा टूटैगा ॥ जो मालिक से रूगोस हुआ फिर किप्तका लै कर छूटेगा। सुख पैहौ रामसहाय तभी जब भरम का भाँडा फूटैगा ॥ २१ ॥ ऐन-इश्क नहीं घर खाला का जो झप्सेती घुस जाओगे। बिन पूछे याचे खोलि कमर ऑगन में खाट बिछाओगे ॥ सिर काटि मनी को मैदाँ कर मुरशिद की ठोकर खाओगे। तब रामसहाय मिटाय खुदी महबूब महल कहुँ पाओगे ॥२२ ॥ गैन-गौर किया कर बहुतरा चिन भेदी भेद न पावेगा। उस अमर नगर की गैब गली बिन पूछे क्योंकर जावेगा । सिर पाय सेती उल्झाय रहा बिन समुझ कौन समझावेगा। तू रामसहाय विना मुर्सिद पानी में भीति उठावेगा ॥ २३ ॥ फे-फुर्सत का है वक्त अभी उठि बैठो अपना काम करो । इस मन मंजिल को तैं करके फिर खालि कमर आराम करो ॥ आशक तो नाम धराय चुके इस नाम को मत बदनाम करो । तुम रामसहाई राम जपो सब और खियालैं खाम करो ॥ २४ ॥ काफ़-कॉल किया था क्यों तुमने जो तुम को काम न करना था। क्यों पेट में पट्टा लिक्खा था जो दाम दिरम नहिं भरना था । फिर कफनी क्योंकर पहिनी थी जो जवितही ना मरना था। सब छोड़ के रामसहाय तुझे अब ध्यान धनी का धरना था ॥ छोटा काफ-करो सुगुल दिनरैन यही दिल अन्दर इश्क इलाही का। ईमान मुसल्लम मौला से मजहब छोडो गुमराही का ।। इस हत खत में बीज बो मत जोतो पैड़ा पाही का । सुख सोओ रामसहाय सदा दुख मेटो अावा नाही का ॥ २६ ॥ गाफ़-गिरह भरम की छूट गई तब जी जगदीश, न दूजा है । नेह नेमान रु ज्ञान गुसुल परतीति प्रेम का पूजा है ॥ नहिं नाप ताप नहिं और आप नहिं परगट है नहिं गूना है । श्रीरामसहाय दया सतगुरु का प्रेम पहेला बूझा है ॥ २७ ॥ लाम-लबालब जाम हुआ तब क्यों न होय यह छलक २ । खिलरही चांदनी चारि तरफ महबूब क जिलावा झलक २ ॥ असमान इश्क से घूम रहा अकसर जमीन है थलक थलक । दिल डुत्रि के रामसहाय देखि दरिया मुहीत हे हलक २ ॥२८॥ मीम-मस्त मजाख फारों का इसलाम कुफुर से न्यारा है । ह्यां दाल दुई को असर नहीं सब एक में एक पसारा है ॥ स्थावर जङ्गम औ जीव जन्तु नग भांति भांति गुलजारा है । आसक सहाय मन मुर्दो ने मजहब को मजहब मारा है ॥२२॥ नू-नूर जमीं असमान अग्नि वह नूर पौन औ पानी है । रवि चन्द नछत्रहिं नूर नूर सब माया नूर निसानी है ।। जवि नूर औ सीव नूर निज नूर ज्योति निर्बानी है । देखो सहाय सूरति समाय सब सृष्टि नूर से सानी है ॥ ३० ॥ वाव-वही वही सव वही वही वह वारपार भरपूर रहा । शिरमध्य समस्त मरेज सदां इस नूर में चकनाचूर रहा ॥ गुरसेन सहर से सूझि पड़ा बेबूझ बहुत दिन दूर रहा। पीवो सहाय सब मस्तोंने यह नगद नशा मंजूर रहा ।। ३१ ॥ हे-हरजाई हर चारतरफ हरि एक में हरि जो प्यारा है। ह्यां होस के होस हवास खता अरु अकिल ने किया किनारा है ।। चतुराई चौपट ज्ञानगुरू विज्ञान खड्ग चौधारा है । देखो सहाय सूरति समाय हर हाल में लाल हमारा है ॥३२॥ लामअलिफ-लाम में अलिफ मिला अरु अलिफ लाम में लीन मया। कौन दूसरा हरफ कहै जब बुन्द में सिन्धु समाय गया ।। है आदि सनातन रूप वही ताजा ताजे पर नित्त नया । सो सूझै रामसहाय तभी जब राम रूप की होय दया ॥ ३३ ॥ ये-याद रहा यह एक हरफ जो मूल मतालिब है अपना । पर पर कुरान के झगड़े में क्या मगन भुकाना श्री खपना ।। आशिक को ऐन इमान यही सामान सबी सब को सपना । राममहाय सुरामरूप वहि जापक जाप वही जपना ॥ ३४ ॥ धनी धन्य पीर रोशन जमीर जिन सांचा सबक पढ़ाया है। मोहिं जानि मुन्तदी बालबुद्धि सब हरफों में समझाया है । हो कई बार भवसागर में सोते से गोता खाया है । अब रामसहाय दया सतगुरु का ठीक ठिकाना पाया है ॥ ३५ ॥

इति श्री अलिफनामा समाप्तम् ।

कवित्त पावस ।

कंचन के खम्भ तामे डोलत ललित डांड़ी डारे मखतूल तूल मणिन खटोलना । सूही सारी सोहे सिर सुन्दरी नवोढ़न के गावती मला वारै कोकिल को बोलना ॥ जेवर जड़ाऊ ज्योति अङ्गन में डगमग कहै शिवनाथ कबि जाको कछु मोल ना । झाक झकि झूलन झुलावती चपलनैनी सावन में श्यामा श्याम झूलत हिंडोलना ॥१॥

सवैया।

चूनरी चोखी चुईसी परै रगचीर जरीन के पैन्हि उजेरे । गावै मलारन को चित चाय चलाय चितौनि के घाय घनेरे ॥ बैठी हिंडोरे कहै गुरदीन बिलोकि के के न मये चित रे । झूलती झूलन हारी अजौ जिय में हिय में अँखियान में मेरे ॥

कबित्त ।

लागे अब घावन धुकारै दै दै बारिधर चावन समेत कीन्हों छावन सरग है। छूट जलधारै तैसे चातृक पुकारे लागी बिरह दवारै लियो कानन को मग है ॥ ससकि सलोनो कहै नैन जल पूरि पूरि शिवनाथ श्याम बिन सूनो सब जग है। प्यारे मन भावन की सावन के प्रावन की औधि भई पावन की बावन को पग है ॥ ३॥

कजल कलित तन पलित बलित भीम तड़ित ललित हेमहारे सुभ पथ के । गरीन तरनि बरसत जलमध्य भूमि भूधरन मारे सवियोग योग गथ के ॥ ऐसे में न कीजिये पयान परदेश प्राणप्यारी यों कहत फरकत मोती नथ के । सावन सघन घन झूमत मतङ्ग अवनीप मनमथ के ॥ ४ ॥

धौरे धौरे धूमरे धुधारे धाये धराधर धरि के धरनि अब लागे जल छंडै ये। कहैं गुरुदीन तापै बोलत कल्पपी पापी डोलत समीर करें धीरज के खंड ये ॥ कहां जाउं कैसी करौ कामों कहौ सुनै कौन लावत न जीहा तापै पपिहा प्रचडै ये । अखिल ब्रह्मडै तम मंडै है उदंडै घन घुमडि घमंडै बिन प्यारे तड़ि तडै ये ॥ ५॥

जुगनू जमाती कधों बाती बारि खाती प्राण ढूंढत फिरत घाती मदन अराती है । झिल्ली मननाती मननाती है विरह भेरी कोकिला कुजाती मदमाती अनखाती है ॥ घटा घननाती सननाती पान शिवनाथ फनी फननाती ये लगत ताती जाती है। सावन की राती दुखदाती ना सोहाती मोर बोलै उतपाती इत पातिहू न आती है ।। ६॥

धारे मेघवारे बेसुमारे घनकारे परै जात न संभारे पैन धारे ज्यों दुधारे की । झिल्ली झनकारे बैन बोलै दुखदारे कान फोरत हमारे जीम चातकी गँवारे की ॥ सारे ब्रजवारे मन-मारे तन जारे अहो थकतु निहारे वाट यमुना किनारे की। बैजनाथ प्यारे बिन ब्याकुल बिचारे प्राण सुनते दुखारे धुनि बारिद नगारे की ॥ ७॥

बाजत नगारे मेघ ताल देत नदी नारे झींगुरन झांझ भेरी भेकन बजाई है। कोकिल अलापचारी नीलकण्ठ नृत्यकारी पौन बीनधारी चाटी चातक लगाई है ॥ मनिमाल जुगनू ममारख तिमिर थार चौमुख चिराग चारु चपला जनाई है। बालम बिदेस नये दुख को जनम भयो पावस हमारे ल्याई विरह बधाई है ॥ ८॥

कोकिल के गावन की धुरवान धावन की बिज्जु चमकावन की पावन की परसनि । मदन सतावन की पीरी तन छावन की अवधि बितावन की नैनन की तरसनि ॥ शिवनाथ चावन की चित्त ललचावन की उभी हंस कावन की बिरह की भरसनि । प्रीतम के प्रावन की हँसि उर लावन की सुधि सरसावनि की सावन की बरसनि ॥९॥

फुही फुही बूंदै झरै बीर बारिबाहन तें कुहू कुहू सुनि परै कूक कोकिलान की । ताही समै श्यामा श्याम झूलत हिंडोरे चढ़ि वारौं छबि कोटिन मै रतिपंचवान की ।। कुण्डल लकट सोहै भृकुटी मटक मोहै अटकी चटक पट पीत फहरान की । झूलति समै की सृधि भूलति न हूलति री उझकनि झुकनि झकोरनि भुजान की ॥ १० ॥

मोर को मुकुट शीशभाल खौरि केसरि की लोचन विशाल लखि मन उमहत है । मैन के से केश श्रुतिकुण्डल बखत बेस झलक कपोल लखि थिर ना रहत है ॥ कुलकानि धीरज मलाह मतवारे दाऊ मदन झकोर तन तीर ना गहत है । श्याम छबिसागर में नेह की लहर बीच लाज को जहान आज बूड्न चहत है ॥ ११ ॥

सवैया ।

ध्यान मै ब्रह्म लब ते लखै मय मानि हिये भवसिन्धु गंभीर को। मोहिं न आवत नाक नचाय कै रोकियो छोडिबो प्राण समीर को ।। कानन में मकराकृत कुण्डल खेलनहार कलिन्दी के तीर को । भावत मोहि वहै हिय में नन्दगाँव को छोहरो नन्द अहीर को।

आन न शम्भु लख्यो परिहै परिहै कहुँ दीठि जो सांवरो आनन । मान न बावरी लोग लगेंगे जगैगे अली उपहास अमानन ॥ प्रानन को तनि दैहै अरी करिहै पुनि केसढू खान न पान न । कानन २ ही फिरिहै जो कहूं मुरली-धुनि लागिहै कानन ॥१३॥

लाम के लेप लगाय थके औ थके सब सीखि के मंत्र सुनाय के। गारुडी हैकै थके सब लोग थके सब बासुकी सोहैं देवाय कै ॥ ऊधो सो कौन कहै रसखानि जो कानि न मानत येतो उपाय कै। कारे बिसारे को चाहै उतारो अरे विष बावरे राख लगाय के ॥

जात नहीं महिमा रघुनाथ जो सेवरै मानै न देवधुनी को। मोल घटै नहिं पांवरे पाय के जो कोऊ देति है फेंकि चुनी को ।। मैली परै महिमा न कछू जो हँसै कोऊ पातकी देखि मुनी को । ठाकुर कूर करै जो निरादर तो नहिं लागत दोष गुनी को ।।

पण्डित पण्डित सों गुनमाण्डत सायर सायर सों सुख माने । सन्तहिं सन्त भलन्त भले गुनवन्तन को गनवन्त बखाने । मूर को सूर सती को सती कहि दास यती को यती पहिचान । जाकर जासन हेत नहीं कहिये सो कहा त्यहि की गति जाने ।। हाहा करौ विनती परि पांय गहौ जनि मेरो दुकूल दुवार मे । देखती हैं ए गली में अली न चली कछु मेरो कहा घरबार में॥ नाथ जू कैकै कलंक हमै तन मीनिहैं त्यों अँसुवान की धार येहो मुरारी सम्हारि के काम करो जनि छूटै संयोग बिहार में ॥

कुण्डलिया।

थोरी जीवन जगत में आय रह्यो कलिकाल । तामहँ दुष्ट दरिद्र यह दाहत दीनदयाल ।। दाहत दीनदयाल रात दिन सोचत बीते । सो कप्त सहै कलेस पाइकै सुरतरु मीतै ।। करि पुकार हरदत्त अहो सरणागति तोरी । विरद करो सम्भार नाथ ज्यहि होत न थोरी ॥ १८ ॥

झूलना।

आशक होना सहल नही मरने से मुशकिल मानोगे। पल पल पर जीना मरना है तिस को क्योंकर पहिचानोगे। चीज चमत्कारी न चल तहँ हाय हमेशै ठानोगे । श्रीयुगल अनन्य शरण आशक रस छानत २ छानोगे ॥ मुमकान चपल चितवनि अमोल मृदुबोल लोल चित चाहै । पीतबसन बनमाल लटक छवि जाल चाल अवगाहै ॥ चारुचिबुक बरबिन्दु इन्दु मनमोहन अकथ कथा है । श्रीयुगल अनन्य शरण कुंडल कल डोलनि हिया हरा है ।।

दोहा ।

नाम रटन निज नीचप्रण अगुण अधन सत्कार ।

श्रीयुगल अनन्य शरण किये पये प्रभु दीदार ॥ २१ ॥

ज्ञान दोहावली दोहा।

माधो तारो दीन नर सुनो कुशल का देर ।

सब प्रभुता को पद गयो ढन्यो अरज पग नेर ॥ १ ॥

रन बन ब्याधि बिपत्तिमों बृथा डरै जनि कोय ।

जो रक्षक जननी-जठर सो हरि गयो न सोय ॥ २ ॥

मनुन विविध भेषन करत ब्याधि न छाड़त साथ ।

खग मृग बसत अरोग्य बन हरि अनाथ के नाथ ॥ ३॥

जो जाके बस में परै तासों कहा बसाय ।

ताको सुख दुख देत मों ईश्वर एक सहाय ॥ ४ ॥

बात बहत रवि तपत घन बरषत तरु फल हेतु ।

इच्छा ते ज्यहि ईश की करहु ताहिते हेतु ॥ ५ ॥

जाकी रक्षा जाहिविधि हरि तैसी मति देत ।

दै चपेट बड़ बालकहिं लघुहिं गोद सब लेत ॥ ६ ॥

हरिइच्छा कहुँ दोप गुन गुनो दोष कहुँ होय ।

अगिनिदाह जिमि सरपतहि जिमि जवास धन तोय ॥७॥

परत प्रतीति न ईश मों ऐमिहु गति लखि सूध ।

मलपूरित तन बीच सों जो बिलगावत दूध ॥ ८ ॥

स्वारथ अरु परमारथहुँ तनत न लागत लाज |

चोर होत हरि ओर उत इत निज करत अकाज ॥९॥

जेहिविधि जासु निबाह हरि दीन बन्धु तस कीन ।

जलचारन जलखग कियो इतर कुटिल करि दनि ॥ १० ॥

निज निज लायक लोकहित सकल कीन भगवान ।

दालि नान द्वैदल सकल रची एक दल आन॥११॥
वरषा बरषत आग मों तपत शिशिर जटिआय।
दैवहु की गति एक नहिं नर की काह बसाय॥१२॥
कहत धरम आगे करब काल न देखत कोय।
बचे कूप खनि घर जरत परत धार बनबोय॥१३॥

कालगति।

काल आय जैसो परै तैसी मति सब होय।
लागे फागुन मास ज्यों लान तजैं सब कोय॥१४॥
कालपाय कछु नहिं रहै कीन्हे कोटि उपाय।
पाक साह नित सींचिये तबहू जाय सुखाय॥१५॥
जनम मरण धन निधन मों काहू की न बसात।
होत जात सब काल बश जस तरुवर में पात॥१६॥
धन यौवन विभुता बिपति जानि परत है धीर।
समय साथही जात है जिमि भादों को नीर॥१७॥
कालपाय सुख होत है नहिं कछु किये उपाय।
कोकिल बिचरत बन सदा हरषत ऋतुपति पाश॥१८॥
गिरि समुद्र छिति देवता अवसर पाय नसात।
मनुज देंह जल फेन सम बृथा ताहि पछितात॥१९॥
धनपति नरपति देवपति स्वप्न समै जिमि होय।
झूठ होत जागे सकल जगसुख जानहु सोय॥२०॥
मंत्र यत्र भैषज किये काल नीति जो जात।
बड़े २ समरथ भये काह कोउ मरि जात॥२१॥

दानगति।

दान देत धन होत है संचित जात नसाय।
सरिता बहै भरी रहै थिर सर जात नसाय॥२२॥
एक दिहे बहु मिलत है दान लाभ को मूल।
मलिन पत्र दै तरु लहै नवपल्लव फल फूल॥२३॥
बलि दधीचि शिवि करन की कीरति सुनि सुनि कान।
तृण समान मन दान मों धन को काह प्रमान॥२४॥
दान देत धन घटत नहिं नहिं पावत अधिकात।
पश्चिम जल सूखै नहीं नहिं पूरब सरसात॥२५॥
खान दान तजि धन धरै परै हरै निजु तौन।
मधुमाखी आँखी लखी साखी भाखी कौन॥२६॥
निजहित परहित दान ते संचे युगल नसाय।
क्षणभंगुर तन धन धरत परत न खनहिं लखाय॥२७॥
मान सहित निज वित्तसम तुरत दान जिन दीन।
सेवा बिन तिनकौं कविन दाता वरणन कीन॥२८॥
मान बड़ो करि दान लघु तुरत देय जो कोय।
बिन सेवा उपकार ते उत्तम दाता सोय॥२९॥
बहुत दान अरु मान लघु बहुदिन मों जिन कीन।
मध्यम दाता ताहि को सकल कविन कहि दीन॥३०॥
थोर दान सन्मान लघु सेवा कछुक कराय।
करे अधम दाता तिन्है भाषत बुध समुदाय॥३१॥

कर्म्मगति।

कर्महेतु हरि तन दियो ताते कीजै काज।
दैव थापि आलस करै ताको होइ अकान॥३२॥
कैसो होय समर्थ कोउ बिनु उद्यम थकि जाय।
निकट असन बिनु कर चले कहु किमि सुख मों जाय॥३३॥
कीन्हें बिना उपाय कछु दैव कबहुँ नहिं देत।
जोति बीज बोवै नही किमि कर जामे खेत॥३४॥
कर्म करत फल होत है जो मन राखै धीर।
श्रम के खोदत कूप ज्यों थल मों प्रगटत नीर॥३५॥
झूठ होत जो कर्मफल यह विचारु मनमाहिं।
दुखी सुखी भल पोच सब एकरङ्ग कस नाहिं॥३६॥
आपु करै अपराध तो का पर सों बिरुझाहि।
जीमि कटै निज दन्त ते कोह करै कहु काहि॥३७॥

स्वभाव गति।

कैसो परै कुसङ्ग जो तजहि न सुजन सुभाय।
तीनि टेढ़ कोदण्ड ते तीर सधि गति जाय॥३८॥
सूध सूध ते सँग चलै साधु कुटिल ते नाहिं।
सदा वसहिं सर सर सँगै धनुष पड़त उड़ि जाहिं॥३९॥
सम रसाल तरु अरु सुजन खल बबूर इक बांट।
ताड़तहूं वै देहिं फल सेवतहूं वै काँट॥४०॥
वर अचूक सर सो हनै कहै न कोउ कटु बात।
यामें छन दुख होत है वामें नित अधिकात॥४१॥

अधन चहत शत धन उतो सहस सों लछि नृप सोय।
सो सुरेस सो विधि सो हरि सो हर तुषित न कोय॥४२॥
निज सुभाय छूटै नहीं कीन्हें कोटि उपाय।
स्वान पूंछ सीधी करै फेरि कुटिल ह्वै जाय॥४३॥
एक नखत दिन लगन कुल तिथि मों उपजे साच।
नहिं समान सब रूप गुण जिमि कर अङ्गुलि पांच॥४४॥
शिशिर दुःख दिन दूबरो सोइ ग्रीषम सरसात।
ताप करत चर अचर को बढ़े सबै इतरात॥४५॥
बड़ी निशा हिमि दुख करै सोइ ग्रीषम कृश होय।
ताप हरत है जगत को त्रिपति साधु सब कोय॥४६॥
बीना बानी नारि नर विद्या है हथियार।
पुरुष मिलै जैसो इन्है तैसी लहै असार॥४७॥
जौ न होय कछु बुद्धि तौ पढ़ब गुनब केहि काम।
पढो कीर मातहीन ज्यों लै टेरत निज नाम॥४८॥
आग भाग ते ऊख मों पोर पोर रस जोर।
सुजनन प्रीती नीचें मों गनब नीच ते ओर॥४९॥
को समरथ फिरि थिर करै प्रेम अनादर भङ्ग।
गजमुक्ता फूटो जुरे काह लाह के रङ्ग॥५०॥
सुजन सोन अति अवचटे टूटहिं जुरहिं तुरन्त।
खल माटी के घट सहन फूटहिं जुरहिं न अन्त॥५१॥
खल फल पाके दारुणी भीतर केर मलीन।
उपर खार अन्तर मधुर सुजन पनश कहि दीन॥५२॥

हेतु होत दूरहु निकट निकट दूर बिन हेतु।
लोचन लोचत निज चरन करन दीठि नहिं देतु॥५३॥
निरदोषी संकित सदा दोषी हिये न हानि।
बदन छपावति कुलबधू विश्वा चलति उतानि॥५४॥
जाहि परै जानै सोई प्रीति करत नित भीति।
ताप होत बिछुड़ेहु मिले इहै बडी अनरीति॥५५॥
खल जन बिनु कानहुँ परे अवगुण करैं बिचारि।
सर सरिता यद्यपि भरे काग पिअहिं घटवारि॥५६॥

नीतिगति।

कलह कण्डु मद द्यूत रति अशन शयन परनारि।
बैर प्रीति ये दश बढ़ै सेवा की अनुहारि॥५६॥
देश-अटन बुध मित्रता बारनारि सों प्रीति।
शास्त्रश्रवण नृप-सभागति पाँच चतुरता नीति॥५८॥
खाय खवावै देय कछु लेय कछुक लखि रीति।
गुप्त बात पूछैं कहैं षट लक्षण हैं प्रीति॥५९॥
काज लागि सुजनौ करहिं खलहू केर सुपास।
सीचत खार गुलाब के कुसुम बास की आस॥६०॥
खलजन के संग्रह बिना कहुँ अकाज ह्वै जाय।
जौ न कांट संचै करै खरौ खेत चरि जाय॥६१॥
निज करनी बिनु मनुज को वृथा जन्म तनरूप।
जिमि अजगल थन गज दशन स्वान पूछ शिशुभूप॥६२॥

शान्ति-वचन सुनि कुपित जन कोप करहिं अधिकाय।
अति तोपित घृत तेल ज्यों बारि परत जारिजाय॥६३॥
सुजन-बचन अरु गज-दशन निकरि फेरि पैठे न।
बार बार उगिलत गिलत कमठ कण्ठ शठ बैन॥६४॥
देवा मेवा सुजन-जन सेवा से फल देत।
लखत कन्द तरु मन्द नरु इन्है खने कछु लेत॥६५॥
अगिनि-दाह अति दुख नहीं नहिं दुख अति घनघाय।
गुंजा के सँग तोलिबो सो दुख सहो न जाय॥६६॥
काज सरे नहिं और को काह करै बलशील।
बिलगावत शिकता सिता मिले पिपील न पील॥६७॥
काह करें बहुरूप गुण जासों मन नहिं लीन।
राखै मधु घृत दूध मों जल बिनु मनि मलीन॥६८॥
देश मोह रुन अलस भय तिय सेवा सन्तोष।
सहनहि मिलैं महत्व जो ये न होहिं षट दोष॥६९॥
गुण अवगुण तस लखि परै जस जासो मन लीन।
कमल मुदित रवि तापहूं निराखि सुधाकर दीन॥७०॥
पुत्र चीन्हिये बृद्धई दुरदिन परे कलित्र।
काज परे सब को लखिय विपति चीन्हिये मित्र॥७१॥
एक एक अक्षर पढ़ै एक एक तजि देय।
आदिहि दोहा नाम कुल देश ग्राम लखि लेय॥७२॥
सम्बत् एक सहस सहित नौसै तीनि समेत।
रची ज्ञानदोहावली चैत पंचमी श्वेत॥७३॥

दोहा।

कागा सब तन खाइयो चुनि चुनि खैयो मास।
ये नैना जनि खाइयो पिया मिलन की आस॥१॥
अली मान ताज सेइये हिलि मिलि प्यारो कन्त।
सब जग मनमायो भयो हाकिम नया बसन्त॥२॥
बल्लम बल्ली प्रेम की तिल तिल चढे सभाय।
ज्वाल जाल ते नहिं जरै कपट लपट जरिजाय॥३॥
मीन काटि जल धोइये खाये अधिक पियास।
तुलसी ऐसी प्रीति है मुयहु मीत की आस॥४॥
तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सवहीं ते होय।
नेह निबाहन एक रस जानत बिरलै कोय॥५॥

 

इति कविवचनसुधा समाप्ता॥

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