कर्मभूमि/पहला भाग ५
५
अमरकान्त ने अपने जीवन में माता के स्नेह का सुख न जाना था। जब उसकी माता का अवसान हुआ, तब वह बहुत छोटा था। उस दूर अतीत की कुछ धुंधली-सी और इसलिए अत्यन्त मनोहर और सुखद स्मृतियां शेष थीं। उसका वेदनामय बालरुदन सुनकर जैसे उसकी माता ने रेणुका देवी के रूप में स्वर्ग से आकर उसे गोद में उठा लिया। बालक अपना रोना-धोना भूल गया और उस ममता-भरी गोद में मुंह छिपाकर दैवी सुख लूटने लगा। अमरकान्त नहीं-नहीं करता रहता और माता उसे पकड़कर उसके आगे मेवे और मिठाइयां रख देती। उससे इनकार न करते बनता। वह देखता, माता उसके लिए कभी कुछ पका रही है कभी कुछ और उसे खिलाकर कितनी प्रसन्न होती है, तो उसके हृदय में श्रद्धा की एक लहर-सी उठने लगती। वह कालेज से लौटकर सीधे रेणुका के पास जाता। वहाँ उसके लिए जलपान रखे रेणुका उसकी बाट जोहती रहती। प्रातः का नाश्ता भी वह वहीं करता इस मातृ-स्नेह से उसे तृप्ति ही न होती थी। छुट्टियों के दिन वह प्रायः दिन भर रेणुका ही के यहाँ रहता। उसके साथ कभी-कभी नैना भी चली जाती। वह खासकर पशु-पक्षियों की क्रीड़ा देखने जाती थी।
अमरकान्त के कोष में वह स्नेह आया, तो उसकी वह कृपणता जाती रही। सुखदा उसके समीप आने लगी। उसकी विलासिता से अब उसे उतना भय न रहा। रेणुका के साथ उसे लेकर वह सैर-तमाशे के लिए भी जाने लगा। रेणुका दसवें-पाँचवें उसे दस-पांच रुपये नजर दे देतीं। उसके सप्रेम आग्रह के सामने अमरकान्त की एक न चलती। उसके लिए नये-नये सूट बने, नये-नये जूते आये, मोटर साइकिल आयी, सजावट के सामान आये। पाँच ही छ: महीने में वह विलासिता का द्रोही, वह सरल जीवन का उपासक, अच्छा खासा रईसजादा बन बैठा, रईसजादों के भावों और विचारों से भरा हुआ; उतना ही निर्द्वन्द्व और स्वार्थी। उसकी जेब में दस-बीस रुपये हमेशा पड़े रहते। खुद खाता, मित्रों को खिलाता और एक की जगह दो खर्च करता। वह अध्ययनशीलता जाती रही। ताश और चौसर में ज्यादा आनन्द आता। हाँ, जलसों में उसे अब और अधिक उत्साह हो गया। वहाँ उसे कीर्ति-लाभ का अवसर मिलता था। बोलने की शक्ति उसमें पहले भी बुरी न थी। अभ्यास से और भी परिमार्जित हो गयी। दैनिक समाचार और सामयिक साहित्य से भी उसे रुचि थी, विशेषकर इसलिए कि रेणुका रोज़-रोज़ की खबर उससे पढ़वाकर सुनती थीं।
दैनिक समाचार-पत्रों के पढ़ने से अमरकान्त के राजनैतिक ज्ञान का विकास होने लगा। देशवासियों के साथ शासक-मण्डल की कोई अनीति देखकर उसका खून खौल उठता था। जो संस्थाएँ राष्ट्रीय उत्थान के लिए उद्योग कर रही थीं, उनसे उसे सहानुभूति हो गयी। वह अपने नगर की कांग्रेस कमेटी का मेम्बर बन गया और उसके कार्य-क्रम में भाग लेने लगा।
एक दिन कालेज के कुछ छात्र देहातों की आर्थिक दशा की जाँच-पड़ताल करने निकले। सलीम और अमर भी चले। अध्यापक डा॰ शान्तिकुमार उनके नेता बनाये गये। कई गाँवों की पड़ताल करने के बाद मंडली संध्या समय लौटने लगी, तो अमर ने कहा--मैंने कभी अनुमान न किया था कि हमारे कृषकों की दशा इतनी निराशाजनक है।
सलीम बोला--तालाब के किनारे वह जो चार-पाँच घर मल्लाहों के थे, उनमें तो लोहे के दो एक बरतनों के सिवा कुछ था ही नहीं। मैं समझता था देहातियों के पास अनाज को बखारें भरी होंगी; लेकिन यहाँ तो किसी घर में अनाज के मटके तक न थे।
शान्तिकुमार बोले--सभी किसान इतने गरीब नहीं होते। बड़े किसान के घर में बखार भी होती है; लेकिन ऐसे किसान गांव में दो-चार से ज्यादा नहीं होते।
अमरकान्त ने विरोध किया--मुझे तो इन गांवों में एक भी ऐसा किसान न मिला। और महाजन और अमले इन्हीं ग़रीबों को चूसते हैं? मैं कहता हूँ, उन लोगों को इन बेचारों पर दया भी नहीं आती!
शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा--दया और धर्म की बहुत दिनों परीक्षा हुई और यह दोनों हलके पड़े! अब तो न्याय परीक्षा का युग है।
शान्तिकुमार की अवस्था कोई ३५ वर्ष की थी। गोरे-चिट्टे रूपवान आदमी थे। वेश-भूषा अंग्रेजी थी, और पहली नजर में अंग्रेज ही मालूम होते थे क्योंकि उनकी आंखें नीली थीं और बाल भी भूरे थे। आक्सफोर्ड से डाक्टर की उपाधि प्राप्त कर लाये थे । विवाह के कट्टर विरोधी, स्वतन्त्रता-प्रेम के कट्टर भक्त, बहुत ही प्रसन्न-मुख, सहृदय, सेवाशील व्यक्ति थे। मजाक का कोई अवसर पाकर न चूकते थे। छात्रों से मित्र भाव रखते थे। राजनैतिक आन्दोलनों में खूब भाग लेते; पर गुप्त रूप से। हाँ मैदान में न आते। सामाजिक क्षेत्र में खूब गरजते थे।
अमरकान्त ने करुण स्वर में कहा--मुझे तो उस आदमी की सूरत नहीं भूलती, जो छ: महीने से बीमार पड़ा था और एक पैसे की दवा न ली थी। इस दशा में जमीदार ने लगान की डिग्री करा ली और जो कुछ घर में था, नीलाम करा लिया। बैल तक बिकवा लिये। ऐसे अन्यायी संसार की नियन्ता कोई चेतन शक्ति है, मुझे तो इसमें सन्देह हो रहा है। तुमने देखा नहीं सलीम, गरीब के बदन पर चिथड़े तक न थे। उसकी वृद्धा माता कितना फूट-फूटकर रोती थी।
सलीम की आंखों में आँसू थे। बोला--तुमने रुपये दिये, तो बुढ़िया कैसी तुम्हारे पैरों पर गिर पड़ी। मैं तो अलग मुंह फेर कर रो रहा था।
मण्डली यों ही बात-चीत करती चली जा रही थी। अब पक्की सड़क मिल गयी थी। दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे वृक्षों ने मार्ग को अँधेरा कर दिया था। सड़क के दाहने बायें, ऊख, अरहर आदि के खेत खड़े थे। थोड़ी-थोड़ी दूर पर दो, एक मजूर या राहगीर मिल जाते थे।
सहसा एक वृक्ष के नीचे दस-बारह स्त्री-पुरुष सशंकित भाव से दबके हुए दिखाई दिये। सब-के-सब सामनेवाले अरहर की खेत की ओर ताक रहे थे और आपस में कनफुसकियाँ कर रहे थे। अरहर के खेत की मेंड़ पर दो गोरे सैनिक, हाथ में बेंत लिये, अकड़े खड़े थे। छात्र-मण्डली को कुतूहल हुआ। सलीम ने पूछा--क्या माजरा है, तुम लोग क्यों जमा हो?
अचानक अरहर के खेत की ओर से किसी औरत का चीत्कार सुनाई पड़ा। छात्रवर्ग अपने डण्डे सँभाल कर खेत की तरफ लपका। परिस्थिति उनकी समझ में आ गयी थी।
एक गोरे सैनिक ने आँखें निकाल कर छड़ी दिखाते हुए कहा--भाग जाओ, नहीं हम ठोकर मारेगा!
इतना उसके मुँह से निकलना था, कि डा॰ शान्तिकुमार ने लपककर उसके मुँह पर धूँसा मारा। सैनिक के मुँह पर घूँसा पड़ा तो तिलमिला उठा, पर था घूँसेबाजी में मँजा हुआ। घूँसे का जबाव जो दिया तो डाक्टर साहब गिर पड़े। उसी वक्त सलीम ने अपनी हाकी स्टिक उस गोरे के सिर पर जमाई। वह चौंधिया गया, ज़मीन पर गिर पड़ा और जैसे मूर्छित हो गया। दूसरे सैनिक को अमर और एक दूसरे छात्र ने पीटना शुरू कर दिया था; पर वह इन दोनों युवकों पर भारी था। सलीम इधर मे फुरसत पाकर उस पर लपका। एक के मुकाबले में तीन हो गये। सलीम की स्टिक ने इस सैनिक को भी जमीन पर सुला दिया। इतने में अरहर के पौधों को चीरता हुआ तीसरा गोरा आ पहुँचा। डाक्टर शान्तिकुमार सँभलकर उस पर लपके ही थे कि उसने रिवालवर निकालकर दाग दिया। डाक्टर साहब जमीन पर गिर पड़े। अब मामला नाजुक था। तीनों छात्र डाक्टर साहब को सँभालने लगे। यह भय लगा कि वह दूसरी गोली न चला दे। सबके प्राण नहों में समाये हुए थे।
मजूर लोग अभी तक तमाशा देख रहे थे। मगर डाक्टर साहब को गिरते देख उनके खून में जोश आ गया। भय की भाँति साहस भी संक्रामक होता है। सब-के-सब अपनी लकड़ियाँ संभालकर गोरे पर दौड़े। गोरे ने रिवाल्वर दागी; पर निशाना खाली गया। इसके पहले कि वह तीसरी गोली चलाये उस पर डण्डों की वर्षा होने लगी और एक क्षण में वह भी आहत होकर गिर पड़ा।
खैरियत यह हुई, कि जख़्म डाक्टर साहब की जाँघ में था। सभी छात्र 'तत्काल धर्म' जानते थे। घाव का खून बन्द किया और पट्टी बाँध दी।
उसी वक़्त एक युवती खेत से निकली और मुँह छिपाये, लँगड़ाती, कपड़े सँभालती, एक तरफ चल पड़ी। अबला लज्जावश, किसी से कुछ कहे बिना सबकी नजरों से दूर निकल जाना चाहती थी। उसकी जिस अमूल्य वस्तु का अपहरण किया गया था, उसे कौन दिला सकता था? दुष्टों को मार डालो, इससे तुम्हारी न्याय-बुद्धि को सन्तोष होगा, उसकी तो जो चीज जानी थी वह गयी। वह अपना दुःख क्यों रोये, क्यों फ़रियाद करे, संसार की सहानुभूति उसके किस काम की है!
सलीम एक क्षण तक युवती की ओर ताकता रहा। फिर स्टिक सँभालकर उन तीनों को पीटने लगा। ऐसा जान पडता था कि उन्मत हो गया है!
डाक्टर साहब ने पुकारा--क्या करते हो सलीम! इससे क्या फायदा? यह इन्सानियत के खिलाफ़ है, कि गिरे हुओं पर हाथ उठाया जाय।
सलीम ने दम लेकर कहा--मैं एक शैतान को भी जिन्दा न छोड़ूँगा। मुझे फाँसी हो जाय, कोई ग़म नहीं। ऐसा सबक देना चाहिए, कि फिर किसी बदमाश को इसकी जुर्रत न हो।
फिर मजदूरों की तरफ़ देखकर बोला--तुम इतने आदमी खड़े ताकते रहे और तुमसे कुछ न हो सका! तुममें इतनी गैरत भी नहीं! अपनी बहू-बेटियों की आबरू की हिफ़ाज़त भी नहीं कर सकते? समझते होगे हमारी बहू-बेटी थोड़े ही है। इस देश में जितनी बेटियाँ है, सब तुम्हारी बेटियाँ हैं; जितनी बहुएँ हैं, सब तुम्हारी बहुएँ हैं, जितनी माताएँ हैं, सब तुम्हारी माताएँ हैं। तुम्हारी आँखों के सामने यह अनर्थ हुआ और तुम कायरों की तरह खड़े ताकते रहे। क्यों सब-के-सब जाकर मर नहीं गये!
सहसा उसे ख्याल आ गया, कि मैं आवेश में आकर इन गरीबों को फटकार बताने में अनधिकार-चेष्टा कर रहा हूँ। वह चुप हो गया और कुछ लज्जित भी हुआ।
समीप के एक गांव से बैलगाड़ी मँगाई गयी। शान्तिकुमार को लोगों ने उठाकर उस पर लेटा दिया और गाड़ी चलने को हुई कि डाक्टर साहब ने चौंककर पूछा--और उन तीनों आदमियों को क्या यहीं छोड़ जाओगे।
सलीम ने मस्तक सिकोड़ कर कहा--हम उनको लादकर ले जाने के जिम्मेदार नहीं हैं। मेरा तो जी चाहता है, उन्हें खोदकर दफन कर दूँ।
आखिर डाक्टर के बहुत समझाने के बाद सलीम राजी हुआ। तीनों गोरे भी गाड़ी पर लादे गये और गाड़ी चली। सब-के-सब मजूर अपराधियों की भाँति सिर झुकाये कुछ दूर तक गाड़ी के पीछे-पीछे चले। डाक्टर ने उनको बहुत धन्यवाद देकर विदा किया। ९ बजते-बजते समीप का रेलवे स्टेशन मिला। इन लोगों ने गोरों को तो वहीं पुलिस के चार्ज में छोड़ दिया और आप डाक्टर साहब के साथ गाड़ी पर बैठकर घर चले।
सलीम और डाक्टर साहब तो जरा देर में हँसने-बोलने लगे। इस संग्राम की चर्चा करते उनकी जबान न थकती थी। स्टेशन-मास्टर से कहा, गाडी में मुसाफिरों से कहा, रास्ते में जो मिलता उससे कहा। सलीम तो अपने साहस और शौर्य की खूब डींगें मारता था, मानो कोई किला जीत आया है और जनता को चाहिए कि उसे मुकुट पहनाये, उसकी गाड़ी खींचे, उसका जुलूस निकाले, किन्तु अमरकान्त चुपचाप डाक्टर साहब के पास बैठा हुआ था। आज के अनुभव ने उसके हृदय पर ऐसी चोट लगाई थी, जो कभी न भरेगी। वह मन-ही-मन इस घटना की व्याख्या कर रहा था। इन टके के सैनिकों की इतनी हिम्मत क्यों हुई? यह गोरे सिपाही इंगलैण्ड की निम्नतम श्रेणी के मनुष्य होते हैं। इनका इतना साहस कैसे हुआ? इसीलिए कि भारत पराधीन है। यह लोग जानते हैं, कि यहाँ के लोगों पर उनका आतंक छाया हुआ है। वह जो अनर्थ चाहें, करें। कोई चूँ नहीं कर सकता। यह आतंक दूर करना होगा। इस पराधीनता की जंजीर को तोडना होगा।
इस जंजीर को तोड़ने के लिए वह तरह-तरह के मंसूबे बाँधने लगा, जिसमें यौवन का उन्माद था, लड़कपन की उग्रता थी और थी कच्ची बुद्धि की बहक।