कर्मभूमि/पहला भाग ३
३
स्कूल से लौटकर अमरकान्त नियमानुसार अपनी छोटी कोठरी में जाकर चरखे पर बैठ गया। उस विशाल भवन में, जहाँ एक बारात ठहर सकती थी, उसने अपने लिए यही छोटी-सी कोठरी पसन्द की थी। इधर कई महीने में उसने दो घण्टे रोज सूत कातने की प्रतिज्ञा कर ली थी और पिता के विरोध करने पर भी उसे निभाये जाता था।
मकान था तो इतना बड़ा; मगर निवासियों की रक्षा के लिए उतना उपयुक्त न था, जितना धन की रक्षा के लिए। नीचे के तल्ले में कई बड़े बड़े कमरे थे जो गोदाम के लिए अनुकूल थे। हवा और प्रकाश का कहीं रास्ता नहीं। जिस रास्ते से हवा और प्रकाश आ सकता है, उसी रास्ते से चोर भी तो आ सकता है। चोर की शंका उसकी एक-एक ईंट से टपकती थी। ऊपर के दोनों तल्ले हवादार और खुले हुए थे। भोजन नीचे बनता था। सोना बैठना ऊपर होता था। सामने सड़क पर दो कमरे थे। एक में लालाजी बैठते थे, दूसरे में मुनीम। कमरों के आगे एक सायवान था, जिसमें गायें बँधती थीं। लालाजी पक्के गो भक्त थे। अमरकान्त सूत कातने में मग्न था, कि उसकी छोटी बहन नैना आकर बोली--क्या हुआ भैया, फीस जमा हुई या नहीं ? मेरे पास २०) हैं, यह ले लो। मैं कल और किसी से मांग लाऊँगी।
अमर ने चरखा चलाते हए कहा--आज ही तो फीस जमा करने की तारीख थी। नाम कट गया। अब रूपये लेकर क्या करूँगा।
नैना रूप-रंग में अपने भाई से इतनी मिलती थी, कि अमरकान्त उसकी साड़ी पहन लेता, तो यह बतलाना मुश्किल हो जाता, कि कौन यह है, कौन वह। हाँ, इतना अन्तर अवश्य था, कि भाई की दुर्बलता यहाँ सुकुमारता बनकर आकर्षक हो गयी थी।
अमर ने तो दिल्लगी की थी ; पर नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। बोली--तुमने कहा नहीं, नाम न काटो, मैं दो-एक दिन में दे दूँगा ?
अमर ने उसकी घबराहट का आनन्द उठाते हुए कहा--कहने को तो मैंने सब कुछ कहा; लेकिन सुनता कौन था।
नैना ने रोष के भाव से कहा--मैं तो तुम्हें अपने कड़े दे रही थी, क्यों नहीं लिये ?
अमर ने हँसकर पूछा--और जो दादा पूछते तो क्या होता?
'दादा से मैं बतलाती ही क्यों।'
अमर ने मुँह लम्बा करके कहा--चोरी से कोई काम नहीं करना चाहता नैना ! अब खुश हो जाओ, मैंने फीस जमा कर दी।
नैना को विश्वास न आया, बोली--फीस नहीं, वह जमा कर दी। तुम्हारे पास रुपये कहाँ थे ?
'नहीं नैना, सच कहता हूँ, जमा कर दी।'
'रुपये कहाँ थे ?'
'एक दोस्त से ले लिये।'
'तुमने माँगे कैसे ?'
'उसने आप-ही-आप दे दिये, मुझे मांगने न पड़े।'
'कोई बड़ा सज्जन आदमी होगा।'
'हाँ, है तो सज्जन नैना। जब फीस जमा होने लगी, तो मैं मारे शर्म के बाहर चला गया। न-जाने क्यों मुझे उस वक्त रोना आ गया। सोचता था, मैं ऐसा गया-बीता है, कि मेरे पास चालीस रुपये नहीं! वह मित्र जरा देर में मुझे बुलाने आया। मेरी आँखें लाल थीं। समझ गया। तुरन्त जाकर 'फीस जमा कर दी। तुमने कहाँ पाये ये बीस रुपये?'
'यह न बताऊँगी!'
नैना ने भाग जाना चाहा। बारह बरस की यह लज्जाशील बालिका एक साथ ही सरल भी थी और चतुर भी। उसे ठगना सहज था। उससे अपनी चिताओं को छिपाना कठिन था।
अमर ने लपक कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला——जब तक बताओगी नहीं मैं जाने न दूंगा। किसी से कहूँगा नहीं; सच कहता हूँ।
नैना झेंपती हुई बोली——दादा से लिये।
अमरकान्त ने बेदिली से कहा——तुमने उनसे नाहक मांगे नैना। जब उन्होंने मुझे इतनी निर्दयता से दुत्कार दिया, तो मैं नहीं चाहता कि उनसे एक पैसा भी मांगूँ। मैंने तो समझा था, तुम्हारे पास कहीं पड़े होंगे; अगर मैं जानता कि तुम भी दादा से ही माँगोगी, तो साफ़ कह देता मुझे रुपये की जरूरत नहीं। दादा क्या बोले ?
नैना सजल नेत्र होकर बोली——बोले तो नहीं। यही कहते रहे कि करना-धरना तो कुछ नहीं, रोज रुपये चाहिए; कभी फ़ीस, कभी किताब, कभी चंदा। फिर मुनीमजी से कहा बीस रुपये दे दो। बीस रुपये फिर देना।
अमर ने उत्तेजित होकर कहा——तुम रुपये लौटा देना, मुझे नहीं चाहिए।
नैना सिसक-सिसककर रोने लगी। अमरकान्त ने रूपये जमीन पर फेंक दिये थे और वह सारी कोठरी में बिखरे पड़े थे। दो में एक चुनने का नाम न लेता था। सहसा लाला समरकान्त आकर द्वार पर खड़े हो गये। नैना की सिसकियाँ बन्द हो गई और अमरकान्त तलवार की चोट खाने के लिये अपने मन को तैयार करने लगा। लालाजी दोहरे बदन के दीर्घकाय मनुष्य थे। सिर से पांव तक सेठ——वही खल्वाट मस्तक, वही फूले कपोल, वही निकली हुई तोंद। मुख पर संयम का तेज था जिसमें स्वार्थ की गहरी झलक मिली हुई थी। कठोर स्वर में बोले——चरखा चल रहा है ? इतनी देर में कितना सूत काता ? होगा दो-चार रुपये का ?
अमरकान्त ने गर्व से कहा——चरखा रुपये के लिए नहीं चलाया जाता।
'और किस लिए चलाया जाता है ?'
'वह आत्म-शुद्धि का एक साधन है।'
समरकान्त के घाव पर जैसे नमक पड़ गया। बोले---यह आज नयी बात मालूम हुई। तब तो तुम्हारे ऋषी होने में कोई सन्देह नहीं रहा ! मगर आत्म-शुद्धि के साधन के साथ कुछ घर-गृहस्थी का काम भी देखना होता है। दिन भर स्कूल में रहो, वहाँ से लौटो तो चरखे पर बैठो ; रात तुम्हारी स्त्री-पाठशाला खुले, सन्ध्या समय जलसे हों, तो फिर घर का धन्धा कौन करे। मैं बैल नहीं हूँ। तुम्हीं लोगों के लिए इस जंजाल में फँसा हुआ हूँ। अपने ऊपर लाद न ले जाऊँगा। तुम्हें कुछ तो मेरी मदद करनी चाहिए। बड़े नीतिवान बनते हो, क्या यही नीति है, कि बूढ़ा बाप मरा करे और जवान बेटा उसकी बात भी न पूछे !
अमरकान्त ने उद्दण्डता से कहा--मैं तो आपसे बार-बार कह चुका, आप मेरे लिए कुछ न करें। मुझे धन की जरूरत नहीं। आपकी भी वृद्धावस्था है। शान्तचित्त होकर भगवत्-भजन कीजिए।
समरकान्त तीखे शब्दों में बोले--धन न रहेगा लाला तो भीख मांगोगे, यों चैन से बैठकर चरखा न चलाओगे। यह तो न होगा, मेरी कुछ मदद करो; पुरुषार्थहीन मनुष्य की तरह कहने लगे, मुझे धन की जरूरत नहीं। कौन है जिसे धन की ज़रूरत नहीं ? साधु-सन्यासी तक पैसों पर प्राण देते हैं। धन बड़े पुरुषार्थ से मिलता है। जिसमें पुरुषार्थ नहीं, वह धन क्या कमायेगा? बड़े बड़े तो धन की उपेक्षा कर ही नहीं सकते, तुम किस खेत की मूली हो ?
अमर ने उसी वितण्डा भाव से कहा--संसार धन के लिए प्राण दे, मुझे धन की इच्छा नहीं। एक मजूर भी धर्म और आत्मा की रक्षा करते हुए जीवन का निर्वाह कर सकता है। कम-से-कम मैं अपने जीवन में इस की परीक्षा करना चाहता हूँ।
लालाजी को वाद विवाद का अवकाश न था। हार कर बोले--अच्छा बाबा, कर लो खूब जी भर कर परीक्षा; लेकिन रोज रोज रुपये के लिए मेरा सिर न खाया करो। मैं अपनी गाढ़ी कमाई तुम्हारे व्यसन के लिए नहीं लुटाना चाहता।
लालाजी चले गये। नैना कहीं एकान्त में जाकर खूब रोना चाहती थी पर हिल न सकती थी ; और अमरकान्त ऐसा विरक्त हो रहा था, मानों जीवन उसे भार हो रहा है।
उसी वक्त महरी ने ऊपर से आकर कहा--भैया तुम्हें बहूजी बुला रही हैं।
अमरकान्त ने बिगड़कर कहा--जा कह दे, फुरसत नहीं है। चली वहाँ से बहूजी बुला रही हैं!
लेकिन जब महरी लौटने लगी, तो उसने अपने तीखेपन पर लज्जित होकर कहा--मैंने तुम्हें कुछ नहीं कहा है सिल्लो। कह दो अभी आता हूँ। तुम्हारी रानी जी क्या कर रही हैं?
सिल्लो का पूरा नाम था कौशल्या। सीतला में पति, पुत्र और एक आंख जाती रही थी तब से विक्षिप्त सी हो गयी थी। रोने की बात पर हँसती, हँसने की बात पर रोती। घर के और सभी प्राणी, यहां तक कि नौकर-चाकर तक उसे डाँटते रहते थे। केवल अमरकान्त उसे मनुष्य समझता था। कुछ स्वस्थ होकर बोली--बैठी कुछ लिख रही हैं। लालाजी चीखते थे। इसी से तुम्हें बुला भेजा।
अमर जैसे गिर पड़ने के बाद गर्द झाड़ता हुआ, प्रसन्नमुख ऊपर चला। सुखदा अपने कमरे के द्वार पर खड़ी थी। बोली--तुम्हारे तो दर्शन ही दुर्लभ हो जाते हैं। स्कूल से आकर चरखा ले बैठते हो। क्यों नहीं मुझे घर भेज देते ? जब मेरी ज़रूरत समझना बुला भेजना। अबकी आये मुझे छः महीने हुए। मीयाद पूरी हो गई। अब तो रिहाई हो जानी चाहिए!
यह कहते हुए उसने एक तश्तरी में कुछ नमकीन और मिठाई लाकर मेज पर रख दी और अमर का हाथ पकड़ कमरे में ले जाकर कुर्सी पर बैठा दिया।
यह कमरा और सब कमरों से बड़ा, हवादार और सुसज्जित था। दरी का फ़र्श था, उस पर करीने से कई गद्देदार और सादी कुर्सियां लगी हई थीं। बीच में एक छोटी सी नक्शदार गोल मेज थी। शीशे की आलमारियों में सजिल्द पुस्तकें सजी हुई थीं। आलों पर तरह-तरह के खिलौने रखे हुए थे। एक कोने में मेज पर हारमोनियम रखा था। दीवारों पर धुरन्धर, रवि वर्मा और कई चित्रकारों की तस्वीरें शोभा दे रही थीं।
दो तीन पुराने चित्र भी थे। कमरे की सजावट से सुरुचि और सम्पन्नता का आभास होता था।
अमरकान्त का सुखदा से विवाह हुए दो साल हो चुके थे। सुखदा दो बार तो एक महीना रहकर चली गयी थी। अबकी उसे आये छः महीने हो गये थे ; मगर उनका स्नेह अभी तक ऊपर-ही-ऊपर था। गहराइयों में दोनों एक दूसरे से अलग अलग थे। सुखदा ने कभी अभाव न जाना था, जीवन की कठिनाइयाँ न सही थीं वह जाने-माने मार्ग को छोड़कर अनजान रास्ते पर पाँव रखते डरती थी। भोग विलास को वह जीवन की सबसे मूल्यवान वस्तु समझती थी और उसे हृदय से लगाये रहना चाहती थी। अमरकान्त का वह घर के काम काज की ओर खींचन का प्रयास करती थी। कभी समझाती थी, कभी रूठती थी, कभी बिगड़ती थी। सास के न रहने से वह एक प्रकार से घर की स्वामिनी हो गयी थी। बाहर के स्वामी लाला समरकान्त थे; पर भीतर का संचालन सुखदा ही के हाथों था। किन्तु अमरकान्त उसकी बातों को हँसो में टाल देता। उस पर अपना प्रभाव डालने की कभी चेष्टा न करता। उसकी विलासप्रियता मानों खेतों के हौवे की भाँति उसे डराती रहती थी। खेत में हरियाली थी, दाने थे; लेकिन वह हौवा निश्चल भाव से दोनों हाथ फैलाये खड़ा उसकी ओर घूरता रहता था। अपनी आशा और दुराशा, हार और जीत को वह सुखदा से बराई की भांति छिपाता था। कभी कभी उसे घर लौटने में देर हो जाती तो सुखदा व्यंग करने से बाज न आती थी--हाँ, यहाँ कौन अपना बैठा हुआ है ! बाहर के मजे घर में कहाँ ! और यह तिरस्कार, किसान की 'कडे कडे' की भांति, हौवे के भय को और भी उत्तेजित कर देता था। वह उसकी खुशामद करता, अपने सिद्धांतों को लम्बी-से-लम्बी रस्सी देता; पर सुखदा इसे उसकी दुर्बलता समझकर ठुकरा देती थी। वह पति को दया भाव से देखती थी, उसको त्यागमय प्रवृत्ति का अनादर न करती थी, पर इसका तथ्य न समझ सकती थी। वह अगर सहानुभूति की भिक्षा मांगता, उसके सहयोग के लिए हाथ फैलाता, तो शायद वह उसकी उपेक्षा न करती। पर अमरकान्त तो अपनी मुट्ठी बन्द करके अपनी मिठाई आप खाकर, उसे रुला देता था। निदान वह भी अपनी मुट्ठी बन्द कर लेती थी और अपनी मिठाई आप खाती थी। दोनों आपस में हँसते बोलते थे, साहित्य और इतिहास की चर्चा करते थे ; लेकिन जीवन के गूढ़ व्यापारों में पृथक् थे। दूध और पानी का मेल नहीं, रेत और पानी का मेल था, जो एक क्षण के लिए मिलकर पृथक् हो जाता था।
अमर ने इस शिकायत की कोमलता या तो समझी नहीं, या समझकर उसका रस न ले सका। लालाजी ने जो आघात किया था, अभी उसकी आत्मा उस वेदना से तड़प रही थी। बोला--मैं भी यही उचित समझता हूँ। अब मुझे पढ़ना छोड़कर जीविका की फ़िक्र करनी पड़ेगी।
सुखदा ने खीझकर कहा--हाँ, ज्यादा पढ़ लेने से सुनती हूँ, आदमी पागल हो जाता है।
अमर ने लड़ने के लिए यहाँ भी आस्तीनें चढ़ा लीं--तुम यह आक्षेप व्यर्थ कर रही हो। मैं पढ़ने से जी नहीं चुराता; लेकिन इस दशा में मेरा पढ़ना नहीं हो सकता। आज स्कूल में मुझे जितना लज्जित होना पड़ा, वह मैं ही जानता हूँ। अपनी आत्मा की हत्या करके पढ़ने से भूखा रहना कहीं अच्छा है।
सुखदा ने भी अपने अस्त्र सँभाले। बोली--मैं तो समझती हूँ, कि घड़ी-दो घड़ी दूकान पर बैठकर भी आदमी बहुत कुछ पढ़ सकता है। चरखे और जलसों में जो समय देते हो, वह दूकान पर दो, तो कोई बुराई न होगी। फिर जब तुम किसी से कुछ कहोगे नहीं, तो कोई तुम्हारे दिल की बातें कैसे समझ लेगा। मेरे पास इस वक्त भी एक हजार रुपये से कम नहीं। वह मेरे रूपये है, मैं उन्हें उड़ा सकती हूँ। तुमने मुझसे चर्चा तक न की। मैं बुरी सही तुम्हारी दुश्मन नहीं। आज लालाजी की बातें सुनकर मेरा रक्त खौल रहा था। ४०) के लिए इतना हंगामा ! तुम्हें जितनी जरूरत हो, मुझसे लो, मुझसे लेते तुम्हारे आत्म-सम्मान को चोट लगती हो, तो अम्मा से लो। वह अपने को धन्य समझेंगी। उन्हें इसका अरमान ही रह गया कि तुम उनसे कुछ माँगते। मैं तो कहती हूँ मुझे लेकर लखनऊ चले चलो और निश्चिन्त होकर पढ़ो। अम्मा तुम्हें इँगलैंड भेज देंगी। वहाँ से अच्छी डिग्री ला सकते हो।
सुखदा ने निष्कपट भाव से यह प्रस्ताव किया था। शायद पहली बार उसने पति से अपने दिल की बात कही; पर अमरकान्त को बुरा लगा।
बोला--मुझे डिग्री इतनी प्यारी नहीं है कि उसके लिए ससुराल की रोटियाँ तोड़ूँ। अगर मैं अपने परिश्रम से धनोपार्जन करके पढ़ सकूँगा, तो पढूँगा, नहीं कोई धन्धा देखूँगा। मैं अब तक व्यर्थ ही शिक्षा के मोह में पड़ा हुआ था। कालेज के बाहर भी अध्ययन-शील आदमी बहुत-कुछ सीख सकता है। मैं अभिमान नहीं करता, लेकिन साहित्य और इतिहास की जितनी पुस्तकें इन दो-तीन सालों में मैंने पढ़ी है शायद ही मेरे कालेज में किसी ने पढ़ी हों।
सुखदा ने इस अप्रिय विषय का अन्त करने के लिए कहा--अच्छा नाश्ता तो कर लो। आज तो तुम्हारी मीटिंग है। नौ बजे के पहले क्यों लौटने लगे। मैं तो टाकी में जाऊँगी। अगर तुम ले चलो, तो मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।
अमर ने रूखेपन से कहा--मुझे टाकी में जाने की फुरसत नहीं है। तुम जा सकती हो।
'फिल्मों से भी बहुत-कुछ लाभ उठाया जा सकता है
'तो मैं तुम्हें मना तो नहीं करता।'
'तुम क्यों नहीं चलते?'
'जो आदमी कुछ उपार्जन न करता हो, उसे सिनेमा देखने का कोई अधिकार नहीं। मैं उसी सम्पत्ति को अपनी समझता हूँ, जिसे मैंने अपने परिश्रम से कमाया हो।'
कई मिनट तक दोनों गुम बैठे रहे। जब अमर जलपान करके उठा, तो सुखदा ने सप्रेम आग्रह से कहा--कल से सन्ध्या समय दूकान पर बैठा करो। कठिनाइयों पर विजय पाना पुरुषार्थी मनुष्यों का काम है अवश्य; मगर कठिनाइयों की सृष्टि करना, अनायास पाँव में काँटे चुभाना कोई बुद्धिमानी नहीं है।
अमरकान्त इस उपदेश का आशय समझ गया ; पर कुछ बोला नहीं। विलासिनी संकटों से कितना डरती है ! यह चाहती है, मैं भी गरीबों का खून चूसूं, उनका गला काटूं; यह मुझसे न होगा।
सुखदा उसके दृष्टिकोण का समर्थन करके कदाचित् उसे जीत सकती थी। उधर से हटाने की चेष्टा करके वह उसके संकल्प को और भी दृढ़ कर रही थी। अमरकान्त उससे सहानुभूति करके उसे अपने अनुकूल बना सकता था। पर शुष्क त्याग का रूप दिखाकर उसे भयभीत कर रहा था।