कर्मभूमि
प्रेमचंद

हंस प्रकाशन, पृष्ठ ९० से – १०१ तक

 

१३

अमरकान्त का मन फिर घर से उचाट होने लगा। सकीना उसकी आँखों में बसी हुई थी। सकीना के ये शब्द उसके कानों में गूंज रहे थे--'...मेरे लिए दुनियाँ कुछ और हो गयी है। मैं अपने दिल में ऐसी ताक़त, ऐसी उमंग पाती हूँ...'इन शब्दों से उसकी पुरुष कल्पना को ऐसी आनन्दप्रद उत्तेजना मिलती थी, कि वह अपने को भूल जाता था। फिर दुकान से उसकी रुचि घटने लगी। रमणी की नम्रता और सलज्ज अनुरोध का स्वाद पा जाने के बाद सुखदा की प्रतिभा और गरिमा उसे बोझ-सी लगती थी। वहाँ हरे-भरे पत्तों में रूखी-सूखी सामग्री थी, यहाँ सोने-चाँदी के थालों में नाना व्यंजन सजे हुए थे। वहाँ सरल स्नेह था, यहाँ अमीरी का दिखावा था। वह सरल स्नेह का प्रसाद उसे अपनी ओर खींचता था। यह अमीरी ठाट अपनी ओर से हटाता था। बचपन में ही वह माता के स्नेह से वंचित हो गया था। जीवन के पन्द्रह साल उसने शुष्क शासन में काटे। कभी माँ डाँटती, कभी बाप बिगड़ता, केवल नैना की कोमलता उसके भग्न-हृदय पर फाहा रखती रहती थी। सुखदा भी आई, तो वही शासन और गरिमा लेकर, स्नेह का प्रसाद उसे यहाँ भी न मिला। वह चिरकाल की स्नेह-तृष्णा किसी प्यासे पक्षी की भांति, जो कई सरोवरों के सूखे तट से निराश लौट आया हो, स्नेह की यह शीतल छाया देखकर विश्राम और तृप्ति के लोभ से उसकी शरण में आई। यहाँ शीतल छाया ही न थी, जल भी था। पक्षी यहीं रम जाय, तो कोई आश्चर्य है !

उस दिन सकीना की घोर दरिद्रता देखकर वह आहत हो उठा था। वह विद्रोह जो कुछ दिनों से उसके मन में शान्त हो गया था, फिर दुने वेग से उठा।

वह धर्म के पीछे लाठी लेकर दौड़ने लगा। धन के सम्बन्ध का उसे बचपन से ही अनुभव होता आता था। धर्मबन्धन उससे कहीं कठोर, कहीं असह्य, कहीं निरर्थक था। धर्म का काम संसार में मेल और एकता

पैदा करना होना चाहिए। यहाँ धर्म ने विभिन्नता और द्वेष पैदा कर दिया है। क्यों खान-पान में, रस्म-रिवाज में धर्म अपनी टाँगें अड़ाता है ? मैं चोरी करूँ, खून करूँ, धोखा दूँ, धर्म मुझे अलग नहीं कर सकता। अछूत के हाथ से पानी पीलूँ, धर्म छु मन्तर हो गया। अच्छा धर्म है ! हम धर्म के बाहर किसी से आत्मा का सम्बन्ध भी नहीं कर सकते। आत्मा को भी धर्म ने बाँध रखा है, प्रेम को भी जकड़ रखा है ? यह धर्म नहीं है, धर्म का कलंक है।

अमरकान्त इसी उधेड़-बुन में पड़ा रहता। बुढ़िया हर महीने, और कभी-कभी महीने में दो-तीन बार, रूमालों की पोटलियाँ बनाकर लाती और अमर उसे मुँह-माँगे दाम देकर ले लेता। रेणुका उसको जेबखर्च के लिए जो रुपये देती, वह सब-के-सब रूमालों में जाते। सलीम का भी इस व्यवसाय में साझा था। उसके मित्रों में ऐसा कोई न था, जिसने एक-आध दर्जन रूमाल न लिये हों। सलीम के घर से सिलाई का काम भी मिल जाता। बुढ़िया का सुखदा और रेणका से भी परिचय हो गया था। चिकन की साड़ियाँ और चादरें बनाने का भी काम मिलने लगा; लेकिन उस दिन से अमर बुढ़िया के घर न गया। कई बार यह मजबूत इरादा करके चला पर आधे रास्ते से लौट आया।

विद्यालय में एक बार 'धर्म' पर विवाद हुआ। अमर ने उस अवसर पर जो भाषण किया, उसने सारे शहर में धूम मचा दी। वह अब क्रान्ति ही में देश का उद्धार समझता था--ऐसी क्रान्ति में, जो सर्वव्यापक हो, जो जीवन के मिथ्या आदर्शो का, झूठे सिद्धान्तों का, परिपाटियों का अन्त कर दे; जो एक नये युग की प्रर्वतक हो, एक नयी सृष्टि खड़ी कर दे; जो मिट्टी के असंख्य देवताओं को तोड़-फोड़कर चकनाचूर कर दे; जो मनुष्य को धन और धर्म के आधार पर टिकनेवाले राज्य के पंजे ले मुक्त कर दे। उसके एक एक अणु से 'क्रान्ति ! क्रांति !' की सदा निकलती रहती थी। लेकिन उदार हिन्दसमाज उस वक्त तक किसी से नहीं बोलता, जब तक उसके लोकाचार पर खुल्लम-खुल्ला आघात न हो, कोई क्रान्ति नहीं, क्रान्ति के बाबा का ही उपदेश क्यों न करें, उसे परवाह नहीं होती। लेकिन उपदेश की सीमा के बाहर व्यवहार क्षेत्र में किसी ने पाँव निकाला और समाज ने उसकी गरदन पकड़ी। अमर की क्रान्ति अभी तक व्याख्यानों और लेखों तक ही सीमित थी। डिग्री की परीक्षा समाप्त होते ही वह व्यवहार क्षेत्र में उतरना चाहता था। पर

कर्मभूमि
९१
 

अभी परीक्षा को एक महीने बाकी ही था कि एक ऐसी घटना हो गयी जिसने उसे मैदान में आने पर मजबूर कर दिया। यह सकीना की शादी थी।

एक दिन सन्ध्या समय अमरकान्त दूकान पर बैठा हुआ था, कि बुढ़िया सुखदा की चिकन की साड़ी लेकर आयी और अमर से बोली--बेटा, अल्ला के फजल से सकीना की शादी ठीक हो गयी है; आठवीं को निकाह हो जायगा। और तो मैंने सब सामान जमा कर लिया है। पर कुछ रुपयों से मदद करना।

अमर की नाड़ियों में जैसे रक्त न था। हकलाकर बोला--सकीना की शादी ! ऐसी क्या जल्दी थी?

क्या करती बेटा, गज़र तो नहीं होता, फिर जवान लड़की ! बदनामी भी तो है !'

'सकीना भी राजी है ?'

बुढ़िया ने सरल भाव से कहा--लड़कियाँ कहीं अपने मुंह से कुछ कहती हैं बेटा? वह तो नहीं-नहीं किये जाती है।

अमर ने गरजकर कहा--फिर भी तुम उसकी शादी किये देती हो?'

फिर सँभलकर बोला--रुपये के लिये दादा से कहो।

'तुम मेरी तरफ़ से सिफ़ारिश कर देना बेटा, कह तो मैं आप लूंगी।'

'मैं सिफ़ारिश करनेवाला कौन होता हूँ। दादा तुम्हें जितना जानते हैं, उतना मैं नहीं जानता।'

बुढ़िया को वहीं खड़ी छोड़कर, अमर बदहवास सलीम के पास पहुँचा। सलीम ने उसकी बौखलाई हुई सूरत देखकर पछा--खैर तो है ? बदहवास क्यों हो ?

अमर ने संयत होकर कहा--बदहवास तो नहीं हूँ। तुम खुद बदहवास होगे।

'अच्छा तो आओ, तुम्हें अपनी ताजी गजल' सुनाऊँ। ऐसे ऐसे शेर निकाले हैं, कि फड़क न जाओ तो मेरा जिम्मा।

अमरकान्त की गर्दन में जैसे फांसी पड़ गयी; पर कैसे कहे--मेरी इच्छा नहीं है। सलीम ने मतला पढ़ा--

बहला के सबेरा करते हैं इस दिल को उन्हीं की बातों में,

दिल जलता है अपना जिनकी तरह, बरसात की भीगी रातों में। अमर ने ऊपरी दिल से कहा--अच्छा शेर है।

सलीम हतोत्साह न हुआ। दूसरा शेर पढ़ा--

कुछ मेरी नज़र ने उठके कहा, कुछ उनकी नज़र ने झुक के कहा,

झगड़ा जो न बरसों में चुकता, तय हो गया बातों-बातों में।

अमर झूम उठा--खूब कहा है भई ! वाह-वाह ! लाओ कलम चूम लूँ।

सलीम ने तीसरा शेर सुनाया--

यह यास का सन्नाटा तो न था, जब आस लगाये सुनते थे,

माना कि था धोखा ही धोखा, उन मीठी-मीठी बातों में।

अमर ने कलेजा थाम लिया--गज़ब का दर्द है भई! दिल मसोस उठा।

एक क्षण के बाद सलीम ने छेड़ा--इधर एक महीने से सकीना ने कोई रूमाल नहीं भेजा क्या?

अमर ने गंभीर होकर कहा--तुम तो यार मज़ाक करते हो। उसकी शादी हो रही है। एक ही हप्ता और है।

'तो तुम दुलहिन की तरफ़ से बारात में जाना। मैं दूल्हे की तरफ़ से जाऊँगा।'

अमर ने आँखें निकालकर कहा--मेरे जीते-जी यह शादी नहीं हो सकती। मैं तुमसे कहता हूँ सलीम, मैं सकीना के दरवाजे पर जान दे दूँगा, सिर पटककर मर जाऊँगा।

सलीम ने घबड़ाकर पूछा--यह तुम कैसी बातें कर रहे हो भाई जान ? सकीना पर आशिक़ तो नहीं हो गये। क्या सचमुच मेरा गुमान सही था ?

अमर ने आँखों में आँसू भरकर कहा--मैं कुछ नहीं कह सकता, मेरी क्यों ऐसी हालत हो रही है सलीम ; पर जब से मैंने यह खबर सुनी है, मेरे जिगर में जैसे आरा-सा चल रहा है।

'आखिर तुम चाहते क्या हो? तुम उससे शादी तो कर नहीं सकते।'

'क्यों नहीं कर सकता ?'

'बिलकुल बच्चे न बन जाओ। जरा अक्ल से काम लो।'

'तुम्हारी यही तो मंशा है कि वह मुसलमान है, मैं हिंदू हूँ। मैं प्रेम के सामने मज़हब की हक़ीक़त नहीं समझता, कुछ भी नहीं।'

सलीम ने अविश्वास के भाव से कहा--तुम्हारे खयालात तक़रीरों में

सुन चुका हूँ, अखबारों में पढ़ चुका हूँ। ऐसे खयालात बहुत ऊँचे, बहुत पाकीज़ा, दुनिया में इन्क़लाब पैदा करने वाले हैं और किसनों ही ने इन्हें ज़ाहिर करके नामवरी हासिल की है लेकिन इल्मी बहस दूसरी चीज़ है, उस पर अमल करना दूसरी चीज़ है। बग़ावत पर इल्मी बहस कीजिये, लोग शौक से सुनेंगे। बग़ावत करने के लिए तलवार उठाइये और आप सारी सोसाइटी के दुश्मन हो जायेंगे। इल्मी बहस से किसी को चोट नहीं लगती। बग़ावत से गरदनें कटती हैं। मगर तुमने सकीना से भी पूछा, वह तुमसे शादी करने पर राजी है ?

अमर कूछ झिझका। इस तरफ उसने ध्यान ही न दिया था। उसने शायद दिल में समझ लिया, मेरे कहने की देर है, वह तो राजी ही है। उन शब्दों के बाद अब उसे कुछ पूछने को जरूरत न मालूम हुई।

'तुम्हें यकीन कैसे हुआ?'

'उसने ऐसी बातें की हैं, जिनका मतलब इसके सिवा और कुछ हो हो नहीं सकता।'

'तुमने उससे कहा--मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ?'

'उससे पूछने की मैं ज़रूरत नहीं समझता।'

'तो एक ऐसी बात को, जो तुमसे उसने एक हमदर्द के नाते कही थीं, तुमने शादी का वादा समझ लिया। वाहरी आपकी अक्ल ! मैं कहता हूँ तुम भंग तो नहीं खा गये हो या बहुत पढ़ने से तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है ? परी से ज्यादा हसीन बीबी, चांद-सा बच्चा और दुनिया को सारी नेमतों को आप तिलांजलि देने पर तैयार है, उस जुलाहे की नमकीन और शायद सलीकेदार छोकरी के लिये! तुमने इसे भी काई तकरीर या मजमून समझ रखा है ? सारे शहर में तहलका पड़ जायेगा जनाब, भोचाल आ जायगा, शहर ही में नहीं, सूबे भर में, बल्कि शुमाली हिन्दोस्तानभर में। आप है किस फेर में। जान से हाथ धोना पड़े तो ताज्जुब नहीं।'

अमरकान्त इन सारी बाधाओं को सोच चुका था। इनसे वह जरा भी विचलित न हुआ था। और अगर इसके लिये समाज दण्ड देता है, तो उसे परवाह नहीं। वह अपने हक के लिये मर जाना इससे कहीं अच्छा समझता है कि उसे छोड़कर कायरों की ज़िन्दगी काटे। समाज उसकी जिन्दगी को

तबाह करने का कोई हक नहीं रखता। बोला--मैं यह सब जानता हूँ सलीम, लेकिन मैं अपनी आत्मा को समाज का गुलाम नहीं बनाना चाहता। नतीजा जो कुछ भी हो उसके लिये तैयार हूँ। यह मुआमला मेरे और सकीना के दरमियान है। सोसाइटी को हमारे बीच में दखल देने का कोई हक नहीं।

सलीम ने सन्दिग्ध भाव से सिर हिलाकर कहा--सकीना कभी मंजूर न करेगी, अगर उसे तुमसे मुहब्बत है। हैं, अगर वह तुम्हारी मुहब्बत का तमाशा देखना चाहती है तो शायद मंजूर कर ले; मगर मैं पूछता हूँ, उसमें क्या खूबी है, जिसके लिए तुम खुद इतनी बड़ी कुर्बानी करने और कई जिन्दगियों को खाक में मिलाने पर आमादा हो ?

अमर को यह बात अप्रिय लगी। मुँह सिकोड़कर बोला--मैं कोई कुरबानी नहीं कर रहा हूँ और न किसी की जिन्दगी को खाक में मिला रहा हैं। मैं सिर्फ़ उस रास्ते पर जा रहा हूँ, जिधर मेरी आत्मा मुझे ले जा रही है। मैं किसी रिश्ते या दौलत को अपनी आत्मा के गले की जंजीर नहीं बना सकता। मैं उन आदमियों में नहीं हूँ, जो जिन्दगी को जिन्दगी समझते हैं। मैं ज़िन्दगी की आरजूओं को जिन्दगी समझता हूँ। मुझे जिन्दा रखने के लिए एक ऐसे दिल की जरूरत है, जिसमें आरजुएँ हों, दर्द हो, त्याग हो, सौदा हो, जो मेरे साथ रो सकता हो, मेरे साथ जल सकता हो। मैं महसूस करता हूँ, कि मेरी जिन्दगी पर रोज़-ब-रोज़ जंग लगता जा रहा है। इन चन्द सालों में मेरा कितना रूहानी ज़बाल हुआ, इसे मैं ही समझता हूँ। मैं जंजीरों में जकड़ा जा रहा हूँ। सकीना ही मुझे आजाद कर सकती है, उसी के साथ मैं रूहानी बलन्दियों पर उड़ सकता हूँ, उसी के साथ मैं अपने को पा सकता हूँ ! तुम कहते हो--पहले उससे पूछ लो। तुम्हारा खयाल है--वह कभी मंजूर न करेगी। मुझे यकीन है--मुहब्बत जैसी अनमोल चीज़ पाकर कोई उसे रद्द नहीं कर सकता।

सलीम ने पूछा----अगर वह कहे तुम मुसलमान हो जाओ?

'वह यह नहीं कह सकती।

'मान लो कहे।'

'तो मैं उसी वक्त एक मौलवी को बुलाकर, कलमा पढ़ लूंगा। मुझे इसलाम में ऐसी कोई बात नहीं नजर आती, जिसे मेरी आत्मा स्वीकार न
करती हो। धर्म-तत्व सब एक हैं। हजरत मुहम्मद को खुदा का रसूल मानने में मुझे कोई आपत्ति नहीं। जिस सेवा, त्याग, दया, आत्म-शुद्धि पर हिन्दू-धर्म की बुनियाद कायम है उसी पर इसलाम की बुनियाद भी कायम है। इसलाम मुझे बुद्ध और कृष्ण और राम की ताज़ीम करने से नहीं रोकता। मैं इस वक्त अपनी इच्छा से हिन्दू नहीं हूँ; बल्कि इसलिए कि हिन्दू घर में पैदा हुआ हूँ। तब भी मैं अपनी इच्छा से मुसलमान न हूँगा; बल्कि इसलिए कि सकीना की मरजी है। मेरा अपना ईमान यह है, कि मजहब आत्मा के लिए बन्धन है। मेरी अक्ल जिसे क़बूल करे, वही मेरा मजहब है बाकी सब खुराफात!' सलीम इस जवाब के लिए तैयार न था। इस जवाब ने उसे निश्शस्त्र कर दिया। ऐसे मनोद्गारों ने उसके अन्तःकरण को कभी स्पर्श न किया था। प्रेम को वह वासना मात्र समझता था। उस जरा-से उद्गार को इतना बृहद् रूप देना, उसके लिए इतनी कुरबानियाँ करना, सारी दुनिया में बदनाम होना और चारों ओर एक तहलका मचा देना, उसे पागलपन मालूम होता था।

उसने सिर हिलाकर कहा—सकीना कभी मन्जूर न करेगी।

अमर ने शान्त भाव से कहा तूम ऐसा क्यों समझते हो?

'इसलिए कि अगर उसे ज़रा भी अक्ल है, तो वह एक खानदान को कभी तबाह न करेगी।

इसके यह माने हैं, कि उसे मेरे खानदान की मुहब्बत मुझसे ज्यादा है। फिर मेरी समझ में नहीं आता कि मेरा खानदान क्यों तबाह हो जायगा। दादा को और सूखदा को दौलत मुझसे ज्यादा प्यारी है। बच्चे को तब भी मैं इसी तरह प्यार कर सकता हूँ। ज्यादा से ज्यादा इतना होगा कि मैं घर में न जाऊँगा और उनके घड़े मटके न छुऊँगा।'

सलीम ने पूछा—डाक्टर शान्तिकुमार से भी इसका जिक्र किया है?

अमर ने जैसे मित्र की मोटी अक्ल से हताश होकर कहा—नहीं मैंने उनसे जिक्र करने की जरूरत नहीं समझी। तुमसे भी सलाह लेने नहीं आया हैं; सिर्फ दिल का बोझ हलका करने के लिए। मेरा इरादा पक्का हो चुका है। अगर सकीना ने मायूस कर दिया, तो जिन्दगी का खातमा कर दूँगा; राजी हुई, तो हम दोनों चुपके से कहीं चले जायेंगे। किसी को खबर भी न होगी। दो-चार महीने बाद घरवालों को सूचना दे दूँगा। न कोई तहलका मचेगा, न कोई तूफ़ान आयेगा। यह है मेरा प्रोग्राम। मैं इसी वक्त उसके पास जाता हूँ; अगर उसने मन्जूर कर लिया, तो लौटकर फिर यहीं आऊँगा, और मायूस किया, तो मेरी सूरत न देखोगे।

यह कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ और तेजी से गोबर्धनसराय की तरफ़ चला। सलीम उसे रोकने का इरादा करके भी न रोक सका। शायद वह समझ गया था, कि इस वक्त इसके सर पर भूत सवार है, किसी की न सुनेगा।

माघ की रात। कड़ाके की सर्दी। आकाश पर धुआँ छाया हुआ था। अमरकान्त अपनी धुन में मस्त चला जाता था। सकीना पर क्रोध आने लगा। मुझे पत्र तक न लिखा। एक कार्ड भी न डाला। फिर उसे एक विचित्र भय उत्पन्न हुआ, सकीना कहीं बुरा न मान जाय। उसके शब्दों का आशय यह तो नहीं था कि वह उसके साथ कहीं जाने पर तैयार है। संभव है, उसकी रज़ामन्दी से बुढ़िया ने विवाह ठीक किया हो। संभव है, उस आदमी की उसके यहाँ आमद-रफ्त भी हो। वह इस समय वहाँ बैठा न हो। अगर ऐसा हुआ, तो अमर वहाँ से चुपचाप चला आयेगा। वह बात करती होगी तो उसके सामने उसे और भी संकोच होगा। वह सकीना से एकान्त वार्तालाप का अवसर चाहता था।

सकीना के द्वार पर पहुँचा, तो उसका दिल धड़क रहा था। उसने एक क्षण कान लगाकर सुना। किसी की आवाज़ सुनाई दी। आँगन में प्रकाश था। शायद सकीना अकेली है। मुँह मांगी मुराद मिली। आहिस्ता से जंजीर खटखटाई। सकीना ने पूछकर तुरन्त द्वार खोल दिया और बोली—अम्मा तो आप ही के यहाँ गई हुई है।

अमर ने खड़े-खड़े जवाब दिया—हाँ, मुझसे मिली थीं, और उन्होंने जो खबर सुनाई, उसने मुझे दीवाना बना रखा है। अभी तक मैंने अपने दिल का राज तुमसे छिपाये रखा था सकीना, और सोचा था, कि उसे कुछ दिन और छिपाये रहूँगा, लेकिन इस खबर ने मुझे मजबूर कर दिया है कि तुमसे वह राज कहूँ। तुम सुनकर जो फ़ैसला करोगी, उसी पर मेरी जिन्दगी का दारोमदार है। तुम्हारे पैरों पर पड़ा हुआ हूँ, चाहे ठुकरा दो या उठाकर सीने से
लगा लो। कह नहीं सकता यह आग मेरे दिल में क्यों कर लगी; लेकिन जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा, उसी दिन से एक चिनगारी सी अन्दर पैठ गयी और अब वह एक शोला बन गयी हैं। और अगर उसे जल्द बुझाया न गया, तो मुझे जलाकर खाक कर देगी। मैंने बहुत ज़ब्त किया है सकीना, घुट-घुटकर रह गया हूँ; मगर तुमने मना कर दिया था, आने का हौसला न हुआ। तुम्हारे क़दमों पर मैं अपना सब कुछ कुरबान कर चुका हूँ। वह घर मेरे लिए जेलखाने से बदतर है। मेरी हसीन बीबी मुझे संगमरमर की मूरत-सी लगती है, जिसमें दिल नहीं, दर्द नहीं। तुम्हें पाकर मैं सब कुछ पा जाऊँगा।

सकीना जैसे घबरा गयी। जहाँ उसने एक चुटकी आटे का सवाल किया था, वहाँ दाता ने ज्योनार का एक भरा थाल लेकर उसके सामने रख दिया। उसके छोटे-से पात्र में इतनी जगह कहाँ है? उसकी समझ में नहीं आता, कि उस विभूति को कैसे समेटे? आँचल और दामन सब कुछ भर जाने पर भी तो वह उसे समेट न सकेगी। आँखें सजल हो गयीं, हृदय उछलने लगा। सिर झुकाकर संकोच-भरे स्वर में बोली--बाबूजी, खुदा जानता है, मेरे दिल में तुम्हारी कितनी इज्जत और कितनी मुहब्बत है। मैं तो तुम्हारी एक निगाह पर कुरबान हो जाती। तुमने तो भिखारिन को जैसे तीनों लोक का राज्य दे दिया, लेकिन भिखारिन राज लेकर क्या करेगी। उसे तो टुकड़ा चाहिए। मुझे तुमने इस लायक़ समझा, यही मेरे लिये बहुत है। मैं अपने को इस लायक नहीं समझती। सोचो मैं कौन हूँ? एक ग़रीब मुसलमान औरत जो मजदुरी करके अपनी जिन्दगी बसर करती है। मुझमें न वह नफ़ासत है, न वह सलीका; न वह इल्म। मैं सुखदा देवी के क़दमों की बराबरी भी नहीं कर सकती; मेंढकी उड़कर ऊँचे दरख्त पर तो नहीं जा सकती। मेरे कारण आपकी रुसवाई हो, उसके पहले मैं जान दे दूँगी। मैं आपकी जिन्दगी में दाग न लगाऊँगी।

ऐसे अवसर पर हमारे विचार कुछ कवितामय हो जाते हैं। प्रेम की गहराई कविता की वस्तु है और साधारण बोल-चाल में व्यक्त नहीं हो सकती। सकीना जरा दम लेकर बोली--तुमने एक यतीम, ग़रीब लड़की को खाक से उठाकर आसमान पर पहुँचाया, अपने दिल में जगह दी, तो मैं भी जब तक जिऊँगी इस मुहब्बत के चिराग को अपने दिल के खुन से रोशन रखूँगी।

९८
कर्मभूमि
 
अमर ने ठंडी साँस खींचकर कहा--इस खयाल से मुझे तस्कीन न होगी सकीना! वह चिराग़ हवा के झोंके से बुझ जायगा और वहाँ दूसरा चिराग़ रोशन होगा। फिर तुम मुझे कब याद करोगी। यह मैं नहीं देख सकता। तुम इस खयाल को दिल से निकाल डालो कि मैं कोई बहुत बड़ा आदमी हूँ और तुम बिलकुल नाचीज हो। मैं अपना सब कुछ तुम्हारे क़दमों पर निसार कर चुका और अब मैं तुम्हारे पुजारी के सिवा और कुछ नहीं। बेशक सुखदा तुमसे ज्यादा हसीन है; लेकिन तुममें कुछ बात तो है, जिसने मुझे उधर से हटाकर तुम्हारे क़दमों पर गिरा दिया। तुम किसी गैर की हो जाओ, यह मैं नहीं सह सकता। जिस दिन यह नौबत आयेगी, तुम सुन लोगी, कि अमर इस दुनिया में नहीं है। अगर तुम्हें मेरी वफ़ा के सबूत की जरूरत हो, तो उसके लिए खून की यह बूँदें हाज़िर हैं।

यह कहते हुए उसने जेब से छुरी निकाल ली। सकीना ने झपटकर छुरी उसके हाथ से छीन ली और मीठी झिड़की के साथ बोली--सबूत की ज़रूरत उन्हें होती है, जिन्हें यक़ीन न हो, जो कुछ बदले में चाहते हों। मैं तो सिर्फ तुम्हारी पूजा करना चाहती हूँ। देवता मुँह से कुछ नहीं बोलता, तो क्या, पुजारी के दिल में उसकी भक्ति कुछ कम होती है? मुहब्बत खुद अपना इनाम है। नहीं जानती ज़िन्दगी किस तरफ जायगी, लेकिन जो कुछ भी हो, जिस्म चाहे किसी का हो जाय, यह दिल हमेशा तुम्हारा रहेगा। इस मुहब्बत को ग़रज से पाक रखना चाहती हूँ। सिर्फ यह यक़ीन कि मैं तुम्हारी हूँ, मेरे लिए काफी है। मैं तुमसे सच कहती हूँ, प्यारे, इस यक़ीन ने मेरे दिल को इतना मज़बूत कर दिया है, कि वह बड़ी-से-बड़ी मुसीबत भी हँसकर झेल सकता है। मैंने तुम्हें यहाँ आने से रोका था। तुम्हारी बदनामी के सिवा, मुझे अपनी बदनामी का भी खौफ़ था; पर अब मुझे जरा भी खौफ़ नहीं है। मैं अपनी ही तरफ़ से बेफ़िक्र नहीं हूँ, तुम्हारी तरफ से भी बेफ़िक्र हूँ। मेरी जान रहते कोई तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता।

अमर की इच्छा हुई कि सकीना को गले लगाकर प्रेम से छक जाय, पर सकीना के ऊँचे प्रेमादर्श ने उसे शान्त कर दिया। बोला--लेकिन तुम्हारी शादी तो होने जा रही है।

'मैं अब इन्कार कर दूँगी!'

कर्मभूमि
९९
 
'बुढ़िया मान जायगी ?'

'मैं कह दूँगी--अगर तुमने मेरी शादी का नाम भी लिया, तो मैं जहर खा लूंँगी।'

'क्यों न इसी वक्त हम और तुम कहीं चले जायें ?'

'नहीं, वह जाहिरी मुहब्बत है। अस्ली मुहब्बत वह है, जिसकी जुदाई में भी विलास है, जहाँ जुदाई है ही नहीं, जो अपने प्यारे से एक हजार कोस पर होकर भी अपने को उसके गले से मिला हुआ देखती हैं।'

सहसा पठानिन ने द्वार खोला। अमर ने बात बनायी--मैंने तो समझा था, तुम कब की आ गयी होगी। बीच में कहाँ रह गयीं ?

बुढ़िया ने खट्टे मन से कहा--तुमने तो आज ऐसा रूखा जबाब दिया कि मैं रो पड़ी। तुम्हारा ही तो मुझे भरोसा था और तुम्हीं ने मुझे ऐसा जवाब दिया; पर अल्लाह का फ़ज़ल है, बहूजी ने मुझसे वादा किया--जितने रुपये चाहना ले जाना। वहीं देर हो गयी। तुम मुझसे किसी बात पर नाराज़ तो नहीं हो बेटा ?

अमर ने उसकी दिलजोई की--नहीं अम्मा, आपसे भला क्या नाराज़ होता। उस वक्त दादा से एक बात पर झक-झक हो गयी थी; उसी का खुमार था। में वाद को खुद शर्मिन्दा हुआ और तुमसे मुआफ़ी मांगने दौड़ा। मेरी खता मुआफ़ करती हो?

बुढ़िया रोकर बोली--बेटा, तुम्हारे टुकड़ों पर तो जिन्दगी कटी, तुमसे नाराज़ होकर खुदा को क्या मुँह दिखाऊँगी! इस खाल में तुम्हारे पांव की जूतियां बनें, तो भी दरेग न करूँ।

'बस मुझे तस्कीन हो गयी अम्मा। इसीलिए आया था।'

अमर द्वार पर पहुँचा, तो सकीना ने द्वार बन्द करते हुए कहा--कल जरूर आना।

अमर पर एक गैलन का नशा चढ़ गया--जरूर आऊँगा।

'मैं तुम्हारी राह देखती रहूँगी!'

'कोई चीज़ तुम्हारी नजर करूँ, तो नाराज़ तो न होगी?'

'दिल से बढ़कर भी कोई नज़र हो सकती है?'

'नज़र के साथ कुछ शीरीनी होनी ज़रूरी है।' 'तुम जो कुछ दो वह सिर और आंखों पर।'

अमर इस तरह अकड़ता हुआ जा रहा था, गोया दुनिया की बादशाही पा गया है।

सकीना ने द्वार बन्द करके दादी से कहा--तुम नाहक दौड़धूप कर रही हो अम्मा। मैं शादी न करूँगी।

'तो क्या यों ही बैठी रहोगी?'

'हां जब मेरी मर्जी होगी, तब कर लूँगी।'

'तो क्या मैं हमेशा बैठी रहुँगी?'

'जब तक मेरी शादी न हो जायगी, आप बैठी रहेंगी !'

'हँसी मत कर! मैं सब इन्तजाम कर चुकी।'

'नहीं अम्मा, मैं शादी न करूँगी और मुझे दिक करोगी तो जहर खा लूँगी। शादी के खयाल से मेरी रूह फना हो जाती है !'

'तुझे क्या हो गया सकीना ?'

'मैं शादी नहीं करना चाहती, बस। जब तक कोई ऐसा आदमी न हो, जिसके साथ मुझे आराम से ज़िन्दगी बसर होने का इत्मीनान हो, मैं यह दर्द-सर नहीं लेना चाहती। तुम मुझे ऐसे घर में डालने जा रही हो, जहाँ जिन्दगी तल्ख हो जायगी। शादी का मन्शा यह नहीं है, कि आदमी रो-रोकर दिन काटे।

पठानिन ने अंगीठी के सामने बैठकर सिर पर हाथ रख लिया और सोचने लगी--लड़की कितनी बेशर्म है।

सकीना बाजरे की रोटियां मसूर की दाल के साथ खाकर, टूटी खाट पर लेटी और पुराने फटे हुए लिहाफ़ में सर्दी के मारे पांव सिकोड़ लिये पर उसका हृदय आनन्द से परिपूर्ण था। आज उसे जो विभूति मिली थी, उसके सामने संसार की संपदा तुच्छ थी, नगण्य थी।