हंस प्रकाशन, पृष्ठ १९४ से – १९९ तक

 

अमरकान्त का पत्र लिये हुए नैना अन्दर आयी, तो सुखदा ने पूछा--किसका पत्र है? नैना ने खत पाते ही पढ़ डाला था। बोली--भैया का।

सुखदा ने पूछा--अच्छा! उनका खत है ? कहाँ हैं ?

'हरिद्वार के पास किसी गाँव में हैं।'

आज पाँच महीनों से दोनों में अमरकान्त की चर्चा न हई थी। मानों वह कोई घाव था, जिसको छूते दोनों ही के दिल काँपते थे। सुखदा ने फिर कुछ न पूछा। बच्चे के लिए फ्राक सी रही थी। फिर सीने लगी।

नैना पत्र का जवाब लिखने लगी। इसी वक्त वह जवाब भेज देगी। आज पाँच महीने में आपको मेरी सुधि आई है। जाने क्या-क्या लिखना चाहती थी। कई घंटों के बाद वह खत तैयार हुआ, जो हम पहले ही देख चुके हैं। खत लेकर वह भाभी को दिखाने गयी। सूखदा ने देखने की ज़रूरत न समझी।

नैना ने हताश होकर पूछा--तुम्हारी तरफ़ से भी कुछ लिख दूँ ?

'नहीं कुछ नहीं।'

'तुम्हीं अपने हाथ से लिख दो !'

'मुझे कुछ नहीं लिखना है।'

नैना रुआँसी होकर चली गयी। खत डाक में भेज दिया गया।

सुखदा को अमर के नाम से भी चिढ़ है। उसके कमरे में अमर की एक तसवीर थी, उसे उसने तोड़कर फेंक दिया था। अब उसके पास अमर की याद दिलानेवाली कोई चीज न थी। यहाँ तक कि बालक से भी उसका जी हट गया था। वह अब अधिकतर नैना के पास रहता था। स्नेह के बदले वह अब उस पर दया करती थी; पर इस पराजय ने उसे हताश नहीं किया, उसका आत्माभिमान कई गुना बढ़ गया है। आत्मनिर्भर भी अब कहीं ज्यादा हो गयी है। वह अब किसी की अपेक्षा नहीं करना चाहती। स्नेह के दबाव के सिवा और किसी दबाव से उसका मन विद्रोह करने लगता है। उसकी विलासिता मानो मान के वन में खो गयी है !

लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि सकीना से उसे लेशमात्र भी द्वेष नहीं है। वह उसे भी अपनी ही तरह, बल्कि अपने से अधिक दुःखी समझती है। उसकी कितनी बदनामी हुई, और अब बेचारी उस निर्दयी के नाम को रो रही है। वह सारा उन्माद जाता रहा। ऐसे छिछोरों का एतबार ही क्या !

वहाँ कोई दूसरा शिकार फाँस लिया होगा। उससे मिलने की उसे बड़ी इच्छा थी, पर सोच कर रह जाती थी।

एक दिन पठानिन से मालूम हुआ कि सकीना बहुत बीमार है। उस दिन सुखदा ने उससे मिलने का निश्चय कर लिया। नैना को भी साथ ले लिया। पठानिन ने रास्ते में कहा--मेरे सामने तो उसका मुँह ही बन्द हो जायगा। मुझसे तो तभी से बोल-चाल नहीं है। मैं तुम्हें घर दिखाकर कहीं चली जाऊँगी। ऐसी अच्छी शादी हो रही थी, इसने मंजूर ही न किया। मैं भी चुप हूँ, देखूँ कब तक उसके नाम को बैठी रहती है। मेरे जीते-जी तो लाला घर में क़दम रखने न पायेंगे। हाँ, पीछे की नहीं कह सकती।

सुखदा ने छेड़ा--किसी दिन उनका खत आ जाय और सकीना चली जाय, तो क्या करोगी?

बुढिया आँखें निकालकर बोली--मजाल है कि इस तरह चली जाय। खून पी जाऊँ।

सुखदा ने फिर छेड़ा--जब वह मुसलमान होने को कहते हैं, तब तुम्हें क्या इन्कार है?

पठानिन ने कानों पर हाथ रखकर कहा--अरे बेटा! जिसका जिन्दगी भर नमक खाया, उसका घर उजाड़कर अपना घर बसाऊँ! यह शरीफ़ों का काम नहीं है। मेरी तो समझ ही में नहीं आता, इस छोकरी में क्या देखकर भैया रीझ पड़े।

अपना घर दिखाकर पठानिन तो पड़ोस के एक घर में चली गयी, दोनों युवतियों ने सकीना के द्वार की कुंडी खटखटाई। सकीना ने उठकर द्वार खोल दिया। दोनों को देखकर वह घबड़ा-सी गयी। जैसे कहीं भागना चाहती है। कहाँ बैठाये, क्या सत्कार करे !

सुखदा ने कहा--तुम परेशान न हो बहन, हम इस खाट पर बैठ जाते हैं। तुम तो जैसे घुलती जाती हो। एक वेवफ़ा मर्द के चकमे में पड़कर क्या जान दे दोगी?

सकीना का पीला चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसे ऐसा जान पड़ा कि सुखदा मुझसे जवाब तलब कर रही है--तुमने मेरा बना-बनाया घर क्यों उजाड़ दिया ? इसका सकीना के पास कोई जवाब न था। वह कांड कुछ इस

आकस्मिक रूप से हुआ कि वह स्वयं कुछ न समझ सकी। पहले बादल का एक टुकड़ा आकाश के एक कोने में दिखाई दिया। देखते-देखते सारा आकाश मेघाच्छन्न हो गया और ऐसे ज़ोर की आँधी चली कि वह खुद उसमें उड़ गयी। वह क्या बताये, कैसे क्या हुआ। बादल के उस टुकड़े को देखकर कौन कह सकता था, आँधी आ रही है।

उसने सिर झुकाकर कहा--औरत की ज़िन्दगी और है ही किसलिए बहनजी? वह अपने दिल से लाचार है, जिससे वफ़ा की उम्मीद करती है, वही दग़ा करता है। उसका क्या अख्तियार, लेकिन बेवफ़ाओं से मुहब्बत न हो, तो मुहब्बत में मज़ा ही क्या रहे। शिकवा-शिकायत, रोना-धोना, बेताबी और बेकारी यही तो मुहब्बत के मजे हैं, फिर मैं तो वफ़ा की उम्मीद भी नहीं करती थी। मैं उस वक्त भी इतना जानती थी कि यह आँधी दो-चार घड़ी की मेहमान है, लेकिन मेरी तस्कीन के लिए तो इतना ही काफी था कि जिस आदमी की मैं दिल में सबसे ज्यादा इज्जत करने लगी थी, उसने मुझे इस लायक तो समझा। मैं इस काग़ज़ की नाव पर बैठकर भी सागर को पार कर दूँगी।

सुखदा ने देखा, इस युवती का हृदय कितना निष्कपट है। कुछ निराश होकर बोली--यह तो मरदों के हथकण्डे हैं। पहले तो देवता बन जायेंगे, जैसे सारी शराफ़त इन्हीं पर खतम है, फिर तोतों की तरह आँखें फेर लेंगे।

सकीना ने ढिठाई के साथ कहा--बहन, बनने से कोई देवता नहीं हो जाता। आपकी उम्र चाहे साल-दो-साल मुझसे ज्यादा हो; लेकिन मैं इस मुआमले में आपसे ज्यादा तजरबा रखती हूँ। यह मैं घमण्ड से नहीं कहती, शर्त से कहती हूँ। खुदा न करे, ग़रीब की लड़की हसीन हो। ग़रीबी में हुस्न बला है। वहाँ बड़ों का तो कहना ही क्या, छोटों की रसाई भी आसानी से हो जाती है। अम्मा बड़ी पारसा हैं, मुझे देवी समझती होंगी, किसी जवान को दरवाजे पर खड़ा नहीं होने देतीं, लेकिन इस वक्त बात आ पड़ी है, तो कहना पड़ता है कि मुझे मरदों को देखनें और परखने के काफ़ी मौके मिले हैं। सभी ने मुझे दिल बहलाव की चीज़ समझा और मेरी ग़रीबी से अपना मतलब निकालना चाहा। अगर किसी ने मुझे इज्जत की निगाह से देखा तो वह बाबूजी थे। मैं खुदा को गवाह करके कहती हूँ कि उन्होंने मुझे एक बार भी ऐसी निगाहों से

नहीं देखा और न एक कलमा भी ऐसा मुँह से निकला, जिससे छिछोरपन की बू आई हो। उन्होंने मुझे निकाह की दावत दी! मैंने उसे मंजूर कर लिया। जब तक वह खुद उस दावत को रद्द न कर दें, मैं उनकी पाबन्द हूँ, चाहे मुझे उम्र भर यों ही रहना पड़े। चार-पाँच बार की मुख्तसर मुलाक़ातों से मुझे उन पर इतना एतबार हो गया है कि मैं उम्र भर उनके नाम पर बैठी रह सकती हूँ। मैं अब पछताती हूँ, कि क्यों न उनके साथ चली गयी। मेरे रहने से उन्हें कुछ तो आराम होता! कुछ तो उनकी खिदमत कर सकती। इसका तो मुझे यक़ीन है कि उन पर रंग-रूप का जादू नहीं चल सकता। हूर भी आ जाय, तो उसकी तरफ़ आँखें उठाकर न देखेंगे, लेकिन खिदमत और मुहब्बत का जादू उन पर बड़ी आसानी से चल सकता है। यही खौफ़ है। मैं आपसे सच्चे दिल से कहती हूँ बहन, मेरे लिए इससे बड़ी खुशी की बात नहीं हो सकती कि आप और वह फिर मिल जायँ, आपस का मनमुटाव दूर हो जाय। मैं उस हालत में और भी खुश रहूँगी। मैं उनके साथ न गयी, इसका यही सबब था; लेकिन बुरा न मानो, तो एक बात कहूँ--

वह चुप होकर सुखादा के उत्तर का इंतजार करने लगी। सुखदा ने आश्वासन दिया-- तुम जितनी साफ़-दिली से बातें कर रही हो, उससे अब मुझे तुम्हारी कोई बात भी बुरी न मालूम होगी। शौक़ से कहो।

सकीना ने धन्यवाद देते हुए कहा--अब तो उनका पता मालूम हो गया है, आप एक बार उनके पास चली जायँ। वह खिदमत के ग़ुलाम हैं और खिदमत से ही आप उन्हें अपना सकती हैं।

सुखदा ने पूछा--बस, या और कुछ?

'बस, और मैं आपको क्या समझाऊँ, आप मुझसे कहीं ज्यादा समझदार है।'

'उन्होंने मेरे साथ विश्वासघात किया है। मैं ऐसे कमीने आदमी की खुशामद नहीं कर सकती। अगर आज मैं किसी मर्द के साथ भाग जाऊँ, तो तुम समझती हो, वह मुझे मनाने जायँगे? वह शायद मेरी गरदन काटने जायँ। मैं औरत हूँ, और औरत का दिल इतना कड़ा नहीं होता; लेकिन उनकी खुशामद तो मैं मरते दम तक नहीं कर सकती।'

यह कहती हुई सुखदा उठ खड़ी हुई। सकीना दिल में पछताई कि क्यों

ज़रूरत से ज्यादा बहनापा जताकर उसने सूखदा को नाराज कर दिया। द्वार तक मुआफ़ी माँगती हुई आई।

दोनों ताँगे पर बैठीं, तो नैना ने कहा--तुम्हें क्रोध बहुत जल्द आ जाता है भाभी!

सुखदा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा--तुम तो ऐसा कहोगी ही, अपने भाई की बहन हो न ! संसार में ऐसी कौन औरत है, जो ऐसे पति को मनाने जायगी? हाँ, शायद सकीना चली जाती; इसलिए कि उसे आशातीत वस्तु मिल गयी है।

एक क्षण के बाद फिर बोली--मैं इससे सहानुभूति करने आयी थी; पर यहाँ से परास्त होकर जा रही हूँ। इसके विश्वास ने मुझे परास्त कर दिया। इस छोकरी में वह सभी गुण हैं, जो पुरुषों को आकृष्ट करते हैं। ऐसी ही स्त्रियाँ पुरुषों के हृदय पर राज्य करती है। मेरे हृदय में कभी इतनी श्रद्धा न हुई। मैंने उनसे हँसकर बोलने, हास-परिहास करने और अपने रूप और यौवन के प्रदर्शन में ही अपने कर्तव्य का अन्त समझ लिया, न कभी प्रेम किया, न प्रेम पाया। मैंने बरसों में जो कुछ न पाया, वह इसने घंटों में पा लिया। आज मुझे कुछ-कुछ ज्ञात हुआ कि मुझमें क्या त्रुटियाँ हैं। इस छोकरी ने मेरी आँखें खोल दी।