कर्मभूमि/तीसरा भाग १०
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सुखदा सेठ धनीराम के घर पहुँची, तो नौ बज रहे थे। बड़ा विशाल, आसमान से बातें करनेवाला भवन था, जिसके द्वार पर एक तेज बिजली की बत्ती जल रही थी और दो दरबान खड़े थे। सुखदा को देखते ही भीतर-बाहर हलचल मच गयी। लाला मनीराम घर से निकल आये और उसे अन्दर ले गये। दूसरी मंजिल पर सजा हआ मलाक़ाती कमरा था। सुखदा वहाँ बैठायी गयी। घर की स्त्रियाँ इधर-उधर परदों से उसे झाँक रही थीं; कमरे में आने का साहस न कर सकती थीं।
सुखदा ने एक कोच पर बैठकर पूछा--सब कुशल-मंगल है?
मनीराम ने एक सिगार सुलगाकर धुआँ उड़ाते हुए कहा--आपने शायद पेपर नहीं देखा। पापा को दो दिन से ज्वर आ रहा है। मैंने तो कलकत्ता से मि० लैंसेट को बुला लिया है। यहाँ किसी पर मुझे विश्वास
नहीं। मैंने पेपर में तो दे दिया था। बूढ़े हुए, कहता हूँ आप शान्त होकर बैठिए, और वह चाहते भी हैं, पर यहाँ जब कोई बैठने भी दे। गवर्नर प्रयाग आये थे। उनके यहाँ से खास उनके प्राइवेट सेक्रेटरी का निमन्त्रण आ पहुँचा। लांज़िम हो गया। इस शहर में और किसी के नाम निमन्त्रण नहीं आया। इतने बड़े सम्मान को कैसे ठुकरा दिया जाता। वहीं सरदी खा गये। सम्मान ही तो आदमी की जिन्दगी में एक चीज है, यों तो अपना-अपना पेट सभी पालते हैं। अब यह समझिए, कि सुबह से शाम तक शहर के रईसों का तांता लगा रहता है। सबेरे डिप्टी कमिश्नर और उनकी मेम साहब आई थीं। कमिश्नर ने भी हमदर्दी का तार भेजा है। दो-चार दिन की बीमारी कोई बात नहीं, यह सम्मान तो प्राप्त हुआ! सारा दिन अफ़सरों की खातिरदारी में कट रहा है।
नौकर पान-इलायची की तश्तरी रख गया। मनीराम ने सुखदा के सामने तश्तरी रख दी। फिर बोले--मेरे घर में ऐसी औरत की जरूरत थी, जो सोसाइटी का आचार-व्यवहार जानती हो और लेडियों का स्वागत-सत्कार कर सके। इस शादी से तो वह बात पूरी हुई नहीं। मुझे मजबूर होकर दूसरा विवाह करना पड़ेगा। पुराने विचार की स्त्रियों की तो हमारे यहाँ यों भी कमी न थी; पर वह लेडियों का सेवा-सत्कार तो नहीं कर सकतीं। लेडियों के सामने तो उन्हें ला ही नहीं सकते। ऐसी फूहड़, गँवार औरतों को उनके सामने लाकर अपना अपमान कौन कराये।
सुखदा ने मुसकराकर कहा--तो किसी लेडी से आपने क्यों न विवाह किया?
मनीराम निस्संकोच भाव से बोला--धोखा हुआ और क्या। हम लोगों को क्या मालूम था कि ऐसे शिक्षित परिवार में लड़कियाँ ऐसी फूहड़ होंगी। अम्मा, बहनें और आस-पास की स्त्रियाँ तो नयी बहु से बहुत संतुष्ट हैं। वह व्रत रखती है, पूजा करती है, सिन्दूर का टीका लगाती है, लेकिन मुझे तो संसार में कुछ काम, कुछ नाम करना है। मुझे पूजा-पाठवाली औरतों की जरूरत नहीं; पर अब तो विवाह हो ही गया, यह तो टूट नहीं सकता। मजबूर होकर दूसरा विवाह करना पड़ेगा। अब यहाँ दो-चार लेडियाँ
'रोज ही आया चाहें, उनका सत्कार न किया जाय तो काम नहीं चलता। सब समझती होंगी, यह लोग कितने मूर्ख हैं।
सूखदा को इस इक्कीस वर्षवाले युवक की इस निस्संकोच' सांसारिकता पर घृणा हो रही थी। उसकी स्वार्थ-सेवा ने जैसे उसकी सारी कोमल भावनाओं को कुचल डाला था, यहाँ तक कि वह हास्यास्सद हो गयी थी।
इस काम के लिए आपको थोड़े-से वेतन में किरानियों की स्त्रियाँ मिल जायेंगी, जो लेडियों के साथ साहबों का भी सत्कार करेंगी।'
'आप इन व्यापार-सम्बन्धी समस्याओं को नहीं समझ सकतीं। बड़ेबड़े मिलों के एजेन्ट आते हैं। अगर मेरी स्त्री उनसे बातचीत कर सकती, तो कुछ न कुछ कमीशन रेट बढ़ जाता। यह काम तो कुछ औरत ही कर सकती हैं।'
'मैं तो कभी न करूं। चाहे सारा कारोबार जहन्नुम में मिल जाय।'
'विवाह का अर्थ जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह यही है कि स्त्री पुरुष की महगामिनी है। अंग्रेजों के यहाँ बराबर स्त्रियाँ सहयोग देती हैं।'
'आप सहगामिनी का अर्थ नहीं समझते।'
मनीराम मुँहफट था। उसके मुसाहिब इसे साफगोई कहते थे। उसका विनोद भी गाली से शुरू होता था और गाली तो गाली थी ही। बोला--
कम से कम आपको इस विषय में मुझे उपदेश करने का अधिकार नहीं। आपने इस शब्द का अर्थ समझा होता, तो इस वक्त आप अपने पति से अलग न होतीं और न वह गली-कूचों की हवा खाते होते।'
सुखदा का मुख-मंडल लज्जा और क्रोध से आरक्त हो उठा। उसने कुरसी से उठकर कठोर स्वर में कहा- मेरे विषय में आपको टीका करने का कोई अधिकार नहीं है, लाला मनीराम! ज़रा भी अधिकार नहीं है। आप अंग्रेजी सभ्यता के बड़े भक्त बनते हैं। क्या आप समझते हैं कि अंग्रेजी पहनावा और सिगार ही उस सभ्यता के मुख्य अंग है? उसका प्रधान अंग है महिलाओं का आदर और सम्मान। वह अभी आपको सीखना बाकी है। कोई कुलीन स्त्री इस तरह आत्म-सम्मान खोना स्वीकार न करेगी।
उसका गर्जन सुनकर सारा घर थर्रा उठा और मनीराम तो जैसे
ज़बान बन्द हो गयी। नैना अपने कमरे में बैठी हुई आवज का इन्तजार कर रही थी, उसकी गरज सुनकर समझ गयी कि कोई न कोई बात हो गयी। दौड़ी हुई आकर बड़े कमरे के द्वार पर खड़ी हो गयी।
'मैं तुम्हारी राह देख रही थी भाभी, तुम यहाँ कैमे बैठ गयीं?'
सुखदा ने उसकी ओर ध्यान न देकर उसी रोष में कहा---धन कमाना अच्छी बात है; पर इज्जत बेचकर नहीं। और विवाह का उद्देश्य वह नहीं है जो आप समझते हैं। मुझे आज मालूम हुआ कि स्वार्थ में पड़कर आदमी का कहाँ तक पतन हो सकता है।
नैना ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे उठाती हुई बोली-अरे, तो यहाँ से उठोगी भी।
सुखदा और उत्तेजित होकर बोली--में क्यों अपने स्वामी के साथ नहीं गयी? इसलिए कि वह जितने त्यागी हैं, मैं उतना त्याग नहीं कर सकती थी। आपको अपना व्यवसाय और धन अपनी पत्नी के आत्मसम्मान से प्यारा है। उन्होंने दोनों ही को लात मार दी। आपने गलीकूचों की जो बात कही, इसका 'अगर वही अर्थ है जो मैं समझती हूँ, तो वह मिथ्या कलंक है। आप अपने रुपये कमाते जाइए; आपका उस महान आत्मा पर छींटे उड़ाना छोटे मुंह बड़ी बात है।
सुखदा लोहार की एक को सोनार की सौ से बराबर करने की असफल चेष्टा कर रही थी। वह एक वाक्य उसके हृदय में जितना चुभा, वैसा पैना कोई वाक्य वह न निकाल सकी।
नैना के मुंह से निकला--भाभी, तुम किसके मुंह लग रही हो?
मनीराम क्रोध से मुट्ठी बाँधकर बोला--में अपने ही घर में अपना यह अपमान नहीं सह सकता।
नैना ने भावज के सामने हाथ जोड़कर कहा--भाभी, मुझ पर दया करो। ईश्वर के लिए यहाँ से चलो।
सुखदा ने पूछा--कहाँ हैं सेटजी, ज़रा मझे उनसे दो-दो बातें करनी हैं।
मनीराम ने कहा—आप इस वक्त उनसे नहीं मिल सकतीं। उनकी तबीअत ठीक नहीं है और ऐसी बातें सुनना बह पसन्द न करेंगे।
'अच्छी बात है, न जाऊँगी। नैना देवी, कुछ मालूम है तुम्हें, तुम्हारी एक अंग्रेजी सौत आनेवाली है बहुत जल्द।'
'अच्छा ही है, घर में आदमियों का आना किसे बुरा लगता है। एक दो जितनी चाहें आयें, मेरा क्या बिगड़ता है।'
मनीराम इस परिहास पर आपे से बाहर हो गया। सुखदा नैना के साथ चली, तो सामने आकर बोला-आप मेरे घर में नहीं जा सकतीं!
सुखदा रुककर बोली--अच्छी बात है जाती हूँ, मगर याद रखिएगा, इस अपमान का नतीजा आप के हक में अच्छा न होगा।
नैना पैर पड़ती रही; पर सुखदा झल्लाई हुई बाहर निकल गयी।
एक क्षण में घर की सारी औरतें और बच्चे जमा हो गये और सुखदा पर आलोचनाएँ होने लगीं। किसी ने कहा--इसकी आँख का पानी मर गया। किसी ने कहा-ऐसी न होती, तो खसम छोड़कर क्यों चला जाता। नैना सिर झुकाये सुनती रही। उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी--तेरे सामने यह अनर्थ हो रहा है, और तू बैठी सुन रही है। लेकिन उस समय जबान खोलना कहर हो जाता। वह लाला समरकान्त की बेटी है, इस अपराध को उसकी निष्कपट सेवा भी न मिटा सकी थी। वाल्मीकीय रामायण की कथा के अवसर पर समरकान्त ने लाला धनीराम का मस्तक नीचा करके इस वैमनस्य का बीज बोया था। उसके पहले दोनों सेठों में मित्र-भाव था। उस दिन से द्वेष उत्पन्न हुआ। समरकान्त का मस्तक नीचा करने ही के लिए धनीराम ने यह विवाह स्वीकार किया। विवाह के बाद उनकी द्वेषज्वाला ठण्डी हो गयी थी। मनीराम ने मेज पर पैर रखकर इस भाव से कहा, मानो सुखदा को कुछ नहीं समझता---में इस औरत को क्या जवाब देता। कोई मर्द होता, तो उसे बताता। लाला समरकान्त ने जुआ खेलकर धन कमाया है। उसी पाप का फल भोग रहे हैं। यह मुझसे बातें करने चली हैं। इनकी माता हैं, उन्हें उस शोहदे शांतिकुमार ने बेवकूफ़ बनाकर सारी जायदाद लिखा ली। अब टके-टके को मुहताज हो रही है। समरकान्त का भी यही हाल होनेवाला है।और यह देवी देश का उपकार करने चली है। अपना परुष तो मारा-मारा फिरता है और आप देश का उद्धार कर रही है। अछूतों को मन्दिर क्या
खुलवा दिया, अब किसी को कुछ समझती ही नहीं। अब म्युनिसिपैलटी से जमीन के लिए लड़ रही है। ऐसा गच्चा खायँगी कि याद करेंगी। मैंने इस दो साल में जितना कारोबार बढ़ाया है, लाला समरकान्त सात जन्म में नहीं बढ़ा सकते।
मनीराम का सारे घर पर आधिपत्य था। वह धन कमा सकता था, इसलिए उसके आचार-व्यवहार को पसन्द न करने पर भी घर उसका गुलाम था। उसी ने तो काग़ज़ और चीनी की एजेंसी खोली थी। लाला धनीराम घी का काम करते थे और घी के व्यापारी बहुत थे। लाभ कम होता था। काग़ज़ और चीनी का वह अकेला एजेंट था। नफा का क्या ठिकाना! इस सफलता से उसका सिर फिर गया था। किसी को न गिनता था, अगर कुछ आदर करता था, तो लाला धनीराम का। उन्हीं से कुछ दबता भी था।
यहाँ लोग बात कर ही रहे थे कि लाला धनीराम खाँसते, लाठी टेकते हुए आकर बैठ गये।
मनीराम ने तुरन्त पंखा बन्द करते हुए कहा--आपने क्यों कष्ट किया बाबूजी? मुझे बुला लेते। डाक्टर साहब ने आपको चलने-फिरने को मना किया था।
लाला धनीराम ने पूछा-क्या आज लाला समरकान्त की बह आयी थी?
मनीराम कुछ डर गया- जी हाँ, अभी-अभी चली गयीं।
धनीराम ने आँखें निकालकर कहा--तो तुमने अभी से मुझे मरा समझ लिया। मुझे खबर तक न दी।
'मैं तो रोक रहा था; पर बह झल्लाई हुई चली गयीं।'
'तुम अपनी बात चीत से उसे अप्रसन्न कर दिया होगा, नहीं वह मझसे मिले बिना न जाती।'
'मैंने तो केवल यही कहा था कि उनकी तबीयत अच्छी नहीं है।'
'तो तुम समझते हो, जिसकी तबीयत अच्छी न हो, उसे एकान्त में मरने देना चाहिए? आदमी एकान्त में मरना भी नहीं चाहता। उसकी हार्दिक इच्छा होती है कि कोई संकट पड़ने पर उसके सगे सम्बन्धी आकर उसे घेर लें।' लाला धनीराम को खाँसी आ गयी। जरा देर के बाद वह फिर बोले-- मैं कहता हूँ, तुम कुछ सिङी तो नहीं हो गये हो? व्यवसाय में सफलता पा जाने ही से किसी का जीवन सफल नहीं हो जाता। समझ गये? सफल मनुष्य वह है, जो दूसरों से अपना काम भी निकाले और उन पर एहसान भी रखे। शेखी मारना सफलता की दलील नहीं, ओछेपन की दलील है। वह मेरे पास आती, तो यहाँ से प्रसन्न होकर जाती और उसकी सहायता बड़े काम की वस्तु है। नगर में उसका कितना सम्मान है, शायद तुम्हें इसकी खबर नहीं। वह अगर तुम्हें नुकसान पहुँचाना चाहे, तो एक दिन में तबाह कर सकती है। और वह तुम्हें तबाह करके छोड़ेगी। मेरी बात गिरह बाँध लो। वह एक ही जिद्दीन औरत है। जिसने पति की परवाह न की, अपने प्राणों की परवाह न की... न जाने तुम्हें कब अक्ल आयी।
लाला धनीराम को खाँसी का दौरा आ गया। मनीराम ने दौड़कर उन्हें संँभाला और उनकी पीठ सहलाने लगा। एक मिनट के बाद लालाजी को साँस आई।
मनीराम ने चिन्तित स्वर में कहा-इस डाक्टर की दवा से आपको कोई फायदा नहीं हो रहा है। कविराज को क्यों न बुला लिया जाय। में उन्हें तार दिये देता हूँ।
धनीराम ने लम्बी साँस खींचकर कहा-अच्छा तो हूँगा बेटा, मैं किसी साधु की चुटकी भर राख ही से। हाँ, यह तमाशा चाहे करलो, और यह तमाशा बुरा नहीं रहा। थोड़े-से रुपये ऐसे तमाशों में खर्च कर देने का में विरोध नहीं करता; लेकिन इस वक्त के लिए इतना बहुत है। कल डाक्टर साहब से कह दूंँगा, मुझे बहुत फायदा है, आप तशरीफ़ ले जाँय।
मनीराम ने डरते-डरते पूछा--कहिए तो मैं सुखदा देवी के पास जाऊँ?
धनीराम ने गर्व से कहा-नहीं, में तुम्हारा अपमान करना नहीं चाहता। जरा मुझे देखना है कि उसकी आत्मा कितनी उदार है। मैंने कितनी ही बार हानियां उठायीं; पर किसी के सामने नीचा नहीं बना। समरकान्त को मैंने देखा। वह लाख बुरा हो पर दिल का साफ़ है। दया और धर्म को कभी नहीं छोड़ता। अब उसकी बहू की परीक्षा लेनी है। यह कहकर उन्होंने लकड़ी उठाई और धीरे-धीरे अपने कमरे की तरफ़ चले। मनीराम उन्हें दोनों हाथों से संँभाले हुए था।