हंस प्रकाशन, पृष्ठ २९० से – २९५ तक

 

इस इलाके के जमींदार एक महन्तजी थे। कारकुन और मुख्तार उन्हीं के चेले-चापड़ थे। इसलिए लगान बराबर वसूल होता जाता था। ठाकुरद्वारे में कोई-न-कोई उत्सव होता ही रहता था। कभी ठाकुरजी का जन्म

है, कभी ब्याह है, कभी यज्ञोपवीत है, कभी झूला है, कभी जल-विहार है। असामियों को इन अवसरों पर बेगार देनी पड़ती थी, भेंट-न्योछावर, पूजा-चढ़ावा आदि नामों से दस्तूरी चुकानी पड़ती थी; लेकिन धर्म के मुआमले में कौन मुंह खोलता। धर्म-संकट सबसे बड़ा संकट है। फिर इलाके के काश्तकार सभी नीच जातियों के लोग थे। गाँव पीछे दो-चार घर ब्राह्मण-क्षत्रियों के थे भी, तो उनकी सहानुभूति असामियों की ओर न होकर महन्तजी की ओर थी। किसी-न-किसी रूप में वे सभी महन्तजी के सेवक थे। असामियों को उन्हें भी प्रसन्न रखना पड़ता था। बेचारे एक तो ग़रीब, ऋण के बोझ से लदे हुए, दूसरे मूर्ख, न क़ायदा जानें, न क़ानून। महन्तजी जितना चाहें इज़ाफ़ा करें, जब चाहें बेदखल करें, किसी में बोलने का साहस न था। अकसर खेतों का लगान इतना बढ़ जाता था कि सारी उपज लगान के बराबर भी न पहुँचती थी; किन्तु लोग भाग्य को रोकर, भूखे-नंगे रहकर, कुत्तों की मौत मरकर, खेत जोतते जाते थे। करें क्या? कितनों ही ने जाकर शहरों में नौकरी कर ली थी। कितने ही मजदूरी करने लगे थे। फिर भी असामियों की कमी न थी। कृषि-प्रधान देश में खेती केवल जीविका का साधन नहीं है, सम्मान की वस्तु भी है। गृहस्थ कहलाना गर्व की बात है। किसान गृहस्थी में अपना सर्वस्व खोकर विदेश जाता है, वहाँ से धन कमाकर लाता है और फिर गृहस्थी करता है। मान-प्रतिष्ठा का मोह औरों की भाँति उसे भी घेरे रहता है। वह गृहस्थ रहकर जीना और गृहस्थी ही में मरना भी चाहता है। उसका बाल-बाल कर्ज से बँधा हो, लेकिन द्वार पर दो-चार बैल बाँधकर वह अपने को धन्य समझता है। उसे साल में ३६० दिन आधे पेट खाकर रहना पड़े, पुआल में घुसकर रातें काटनी पड़ें, बेबसी से जीना और बेबसी से मरना पड़े, कोई चिन्ता नहीं, वह गृहस्थ तो है। यह गर्व उसकी सारी दुर्गत की पुरौती कर देता है।

लेकिन इस साल अनायास ही जिन्सों का भाव गिर गया। इतना गिर गया, जितना चालीस साल पहले था। जब भाव तेज़ था, किसान अपनी उपज बेच-बाचकर लगान दे देता था; लेकिन जब दो और तीन की जिन्स एक में बिके, तो किसान क्या करे। कहाँ से लगान दे, कहाँ से दस्तूरियाँ दे, कहाँ से कर्ज चुकाये। विकट समस्या आ खड़ी हुई; और यह दशा

कुछ इसी इलाके की न थी। सारे प्रान्त, सारे देश, यहाँ तक कि सारे संसार में यही मंदी थी। चार सेर का गुड़ कोई दस सेर में भी नहीं पूछता। आठ सेर का गेहूँ डेढ़ रुपये मन में भी मंहगा है। ३०) मन का कपास १०) रुपये में जाता है, १६) मन का सन ४) में। किसानों ने एक-एक दाना बेच डाला, भूसे का एक तिनका भी न रखा; लेकिन यह सब-कुछ करने पर भी चौथाई लगान से ज्यादा न अदा कर सके। और ठाकद्वारे में वही उत्सव थे, वही जलविहार थे। नतीजा यह हुआ कि हलके में हाहाकार मच गया। इधर कुछ दिनों से स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त के उद्योग से इलाके में विद्या का कुछ प्रचार हो रहा था और कई गाँवों में लोगों ने दस्तूरी देना बन्द कर दिया था। महन्तजी के प्यादे और कारकुन पहले ही से जले बैठे थे। यों तो दाल न गलती थी। बक़ाया लगान ने उन्हें अपने दिल का गुबार निकालने का मौका दे दिया।

एक दिन गंगा-तट पर इस समस्या पर विचार करने के लिए एक पंचायत हुई। सारे इलाके के स्त्री-पुरुष जमा हए, मानो किसी पर्व का स्नान करने आये हों। स्वामी आत्मानन्द सभापति चुने गये।

पहले भोला चौधरी खड़े हुए। वह पहले किसी अफ़सर के कोचवान थे। अब नये साल से फिर खेती करने लगे थे। लम्बी नाक, काला रंग, बड़ी-बड़ी मूछे और बड़ी-सी पगड़ी। मुंह पगड़ी में छिप गया था। बोले—पंचो, हमारे ऊपर जो लगान बँधा हुआ है, वह तेजी के समय का है। इस मंदी में वह लगान देना हमारे काबू से बाहर है। अबकी अगर बैल-बधिया बेचकर दे भी दें, तो आगे क्या करेंगे। बस, हमें इस बात का तसफ़िया करना है। मेरी गुजारस तो यही है कि हम सब मिलकर महन्त महाराज के पास चलें और उनसे अरज-मारूज करें। अगर वह न सुनें, तो हाकिम जिला के पास चलना चाहिए। मैं औरों की नहीं कहता। मैं गंगा माता की कसम खाके कहता हूँ कि मेरे घर में छटाँक भर भी अन्न नहीं है, और जब मेरा यह हाल है, तो और सभों का भी यही हाल होगा। उधर महन्तजी के यहाँ वही बहार है। अभी परसों एक हजार साधुओं को आम की पगंत दी गई है। बनारस और लखनऊ से कई डिब्बे आमों के आये हैं। आज सुनते हैं फिर मलाई की पंगत है। हम भूखों मरते हैं, वहाँ मलाई उड़ती

है। उस पर हमारा रक्त चूसा जा रहा है। बस, यही मुझे पंचों से कहना है।

गूदड़ ने धँसी हुई आँखें फाड़कर कहा--महन्तजी हमारे मालिक है, आनन्ददाता हैं, महात्मा हैं। हमारा दुख सुनकर ज़रूर उन्हें हमारे ऊपर दया आयेगी; इसलिए हमें भोला चौधरी की सलाह मंजूर करनी चाहिए। अमर भैया हमारी ओर से बातचीत करेंगे। हम और कुछ नहीं चाहते। बस, हमें और हमारे बाल-बच्चों को आध-आध सेर रोजीना के हिसाब से दिया जाय। उपज जो कुछ हो, वह सब महन्तजी ले जायें। हम घी-दूध नहीं माँगते, दूध-मलाई नहीं माँगते। खाली आध सेर मोटा अनाज माँगते हैं। इतना भी न मिलेगा, तो हम खेती न करेंगे। मजूरी और बीज किसके घर से लायँगे। हम खेत छोड़ देंगे, इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है।

सलोनी ने हाथ चमकाकर कहा--खेत क्यों छोड़ें? बाप-दादों की निसानी है। उसे नहीं छोड़ सकते। खेत पर परान दे दूंगी। एक था, तब दो हुए, तब तक चार हुए, अब क्या धरती सोना उगलेगी?

अलगू कोरी बिज्जू सी आँखें निकाल कर बोला--भैया, मैं तो बात बेलाग कहता हूँ, महन्त के पास चलने से कुछ न होगा। राजा ठाकुर हैं! कहीं क्रोध आ गया, तो पिटवाने लगेंगे। हाकिम के पास चलना चाहिए। गोरों में फिर भी दया है।

आत्मानन्द ने सभों का विरोध किया--मैं कहता हूँ, किसी के पास जाने से कुछ नहीं होगा। तुम्हारी थाली की रोटी तुमसे कहे कि मुझे न खाओ, तो तुम मानोगे?

चारों तरफ से आवाजें आई--कभी नहीं मान सकते।

'तो तुम जिनकी थाली की रोटियाँ हो, वह कैसे मान सकता है?'

बहुत-सी आवाज़ों ने समर्थन किया--कभी नहीं मान सकते।

'महन्त को उत्सव मनाने को रुपये चाहिये। हाकिमों को बड़ी-बड़ी तलब चाहिए। उनकी तलब में कमी नहीं हो सकती। वे अपनी शान नहीं छोड़ सकते। तुम मरो या जियो, उनकी बला से। वह तुम्हें क्यों छोड़ने लगे।

बहुत सी आवाजों ने हामी भरी--कभी नहीं छोड़ सकते। अमरकान्त स्वामी जी के पीछे बैठा हुआ था। स्वामीजी का यह रुख देखकर घबड़ाया, लेकिन सभापति को कैसे रोके? यह तो वह जानता था यह गर्म मिज़ाज का आदमी है, लेकिन इतनी जल्द इतना गर्म हो जायगा इसकी उसे आशा न थी। आख़िर यह महाशय चाहते क्या हैं?

आत्मानन्द गरजकर बोले--तो अब तुम्हारे लिए कौन-सा मार्ग है? अगर मुझसे पूछते हो, और तुम लोग परन करो कि उसे मानोगे, तो में बता सकता हूँ, नहीं तुम्हारी इच्छा।

बहत आवाज़ आई--ज़रूर बतलाइए स्वामीजी, बतलाइए।

जनता चारों ओर से खिसककर और समीप आ गयी। स्वामीजी उनके हृदय को स्पर्श कर रहे हैं, यह उनके चेहरे से झलक रहा था। जनरुचि सदैव उग्र की ओर होती है।

आत्मानन्द बोले--तो आओ, आज हम सब चलकर महन्तजी का मकान और ठाकुरद्वारा घेर लें और जब तक वह लगान बिलकुल न छोड़ दें, कोई उत्सव न होने दें।

बहुत-सी आवाजें आई--हम लोग तैयार है!

'खूब समझ लो कि वहाँ तुम पान-फूल से पूजे न जाओगे।'

'कुछ परवाह नहीं। मर तो रहे हैं। सिसक-सिसककर क्यों मरें।'

'तो इसी वक्त चलो। हम दिखा दें कि...'

सहसा अमर ने खड़े होकर प्रदीप्त नेत्रों से कहा--ठहरो!

समूह में सन्नाटा छा गया। जो जहाँ था, वहीं रह गया।

अमर ने छाती ठोंककर कहा--जिस रास्ते पर तुम जा रहे हो, वह उद्धार का रास्ता नहीं है--सर्वनाश का रास्ता है। तुम्हारा बैल अगर बीमार पड़ जाय, तो तुम उसे जोतोगे?

किसी तरफ़ से आवाज न आई।

'तुम पहले उसकी दवा करोगे, और जब तक वह अच्छा न हो जायगा, उसे न जोतोगे, क्योंकि तुम बैल को मारना नहीं चाहते। उसके मरने से तुम्हारे खेत परती पड़ जायेंगे।'

गूदड़ बोले--बहुत ठीक कहते हो भैया। 'घर में आग लगने पर हमारा क्या धर्म है? क्या हम आग को फैलने दें और घर की बची-बचाई चीजे भी लाकर उसमें डाल दें?'

गुदड़ ने कहा--कभी नहीं। कभी नहीं।

क्यों? इसीलिए कि हम घर को जलाना नहीं, बनाना चाहते हैं। हमें उस घर में रहना है। उसी में जीना है। वह विपत्ति कुछ हमारे ही ऊपर नहीं पड़ी है। सारे देश में यही हाहाकार मचा हुआ है। हमारे नेता इस प्रश्न को हल करने की चेष्टा कर रहे हैं। उन्हीं के साथ हमें भी चलना है।'

उसने एक लम्बा भाषण किया, पर वही जनता जो उसका भाषण सुनकर मस्त हो जाती थी, आज उदासीन बैठी थी। उसका सम्मान सभी करते थे, इसीलिए कोई उधम न हुआ, कोई बमचख न मचा, पर जनता पर कोई असर न हुआ। आत्मानन्द इस समय जनता का नायक बना हुआ था।

सभा बिना कुछ निश्चय किये उठ गयी, लेकिन बहुमत किस तरफ़ है, यह किसी से छिपा न था।