कबीर ग्रंथावली/(१) गुरुदेव कौ अंग

लखनऊ: प्रकाशन केन्द्र, पृष्ठ ६५ से – ८३ तक

 

 

गुरुदेव को अंग

सतगुरु सवाँन को सगा, सोधी सई न दाति।
हरिजी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति॥१॥

सन्दर्भ—सतगुरु का व्यक्तित्व अद्वितीय असाधारण, समादरणीय और अत्यन्त कल्याणकारी है। वह मुक्ति और भक्ति का भण्डार है। वह हरिजी और हरिजन से भी श्रेष्ठ है।

भावार्थ—सतगुरु के समान कौन सा है, कौन अपना है। उसके समान कोई भी शोधक नहीं है। वह अमोघ, अजस्त्रदाता है। हरिजी अर्थात् भगवान की सदृश कौन हितैषी है और हरिजन अर्थात् वैष्णवजन के समान कोई जाति नहीं है, उसके समान कोई कुलीन नहीं है।

शब्दार्थ— सवाँन = समान, बराबर। को = कौन। सगा = स्वक् = अपना, अभिन्न। सोधी = शोधी—संशोधन करने वाला, शोधक। सईं = समान। दाति = दातृ—दाता, दानी। हितू—हितैषी।

बलिहारी गुरु आपणैं, द्यौं हाड़ी कै वार।
जिनि मानिप तैं देवता, करत न लागी वार॥२॥

सन्दर्भ—सतगुरु में दिव्य शक्ति है। उन्होंने हाड़ी के सदृश इस तुच्छ, हीन शरीर को दिव्यता प्रदान की। उनके प्रसाद से यह शरीर अब सार्थक हो गया।

भावार्थ—सतगुरु के श्री चरणों पर मैं अपने इस शरीर को अधम पचतत्वों से विनिर्मित शरीर को जो हाटी के सदृश निःसार है—शतशः बार न्यौछावर करता हुँ। सतगुरु को मुझ दोषों से अभिशप्त वासनाओं से ग्रस्त अधर्म प्राणी को दिव्यता प्रदान करने में बिलम्ब न लगा। यही उनकी महत्ता है।

शब्दार्थ—बलिहारी = न्यौछावर। आपसौ = अपने, मेरे। द्यौं = दूर कर दूँ। हाड़ी—मृतिका पात्र। कै = कितनी। कै बार=कितनी बार। जिनि = जिन—जिन्हें। मानिष = मानुष = मनुष्य। नै = ने। वार = विलम्ब।

सतगुरु की महिमा अनँत अनँत उपकार।
लोचन अनँत उघाड़िया अनँत दिखावण्हआर॥३॥

संदर्भ—सतगुरु दिव्यशक्ति से सम्पन्न है। उनकी महत्ता, महिमा अनिर्वचनीय है। उन्होंने अनन्त कृपा करके शिष्य को अपरिमेय शक्ति प्रदान की।

भावार्थ—सतगुरु की महिमा अनन्त है। उनकी महत्ता का वर्णन नहीं हो सकता है। उन्होंने शिष्य के प्रति अनन्त उपकार किए हैं। उन्हीं की असीम कृपा से अनन्त अर्थात-ज्ञान के चक्षु उद्घाटित होगा। उनकी असीम कृपा से अनंत, निराकार निर्विकार ब्रह्म के दर्शन हो गए।

शब्दार्थ—अनंत = अनन्त, असीम। उपगार = उपकार। लोचन = नयन। उघाड़िया = उघाड़, उद्घाटित किया। दिखावण्हार = दिखावनहार = दिखाने वाला।

राम नाम कै पटंतरै देबै कौं कुछ नाँहि।
क्या ले गुरु संतोषिए, हौस रही मन माँहि॥४॥

संदर्भ—शिष्य के मन में असीम कृतज्ञता की भाव है। वह सतगुरु के प्रति प्रतिदान की इच्छा रखता है, पर गुरुदेव के प्रति क्या समर्पित किया जाय यह संकल्प विकल्प मन में साकार रहता है। उसकी अभिलाषा अपूर्ण ही रह गई।

भावार्थ—सतगुरु ने 'रामनाम' जैसी दिव्य वस्तु का दान शिष्य को दिया। शिष्य के पास प्रतिदान के लिए कोई भी उपयुक्त पदार्थ नहीं है। शिष्य के मन में हौसला, अभिलाषा, आकांक्षा अपूर्ण एवं बलवती बनी हुई है कि सतगुरु के महान् व्यक्तित्व की अनुकूल कौन-सी वस्तु प्रतिदान में दी जाय।

शब्दार्थ—पटंतरै—समान, बराबर। देवै—देने योग्य। कौ—को। ले—दे, देकर। सन्तोषिए—प्रसन्न कीजिए। हौसं = हौसला—इच्छा, आकांक्षा। मनमाँहि मन में।

सतगुर के सदकै करूँ दिल अपणीं का साछ।
कलियुग हम स्यूँ लड़ि पड़या मुहकम मेरा बाछ॥५॥

संदर्भ— सतगुरु सर्वथा प्रशंसनीय है, वंदनीय है। उसकी महती कृपा से शिष्य कलियुग से पराभूत होने से बच गया।

भावार्थ—अपने हृदय की समस्त सत्यता को साक्षी करके, पूर्ण मनोयोग से मैं सद्गुरु के चरणों में अपने को न्यौछावर करता हूँ। कलियुग ने पूर्ण शक्ति के साथ मेरे प्रति आक्रमण किया परन्तु मेरी बाधाएँ बलशालिनी थी। अतः मैं सद्गुरु की कृपा से भवसागर उत्तीर्ण हो गया।

शब्दार्थ—सदकै = सिर का—बलि जाऊँ, न्यौछावर जाऊ। दिल = हृदय। स्यूँ = से। पड़या = पड़ा। मुहकम = प्रवल, बलशाली। बाछ = वाँछा, अभिलाषा।  

सतगुरु लई कमांण करि, बांहण लागा तीर॥
एक जु बाह्या प्रीति सूँ, भीतरि रह्या शरीर॥६॥

सन्दर्भ—सतगुरु सच्चा सूरमा है। वह शब्दबाण मारने मे अत्यन्त् निपुण है उसने ऐसा शब्द-बाण मारा कि शिष्य का मर्म आहत हो गया और वह तत्व से पूर्णतया परिचित हो गया।

भावार्थ—सतगुरु ने हाथ में धनुष ग्रहण करके तीर बहाना (दया फेंकना) प्रारम्भ किया। एक तीर जो उसने बड़े प्रेम से मेरे प्रति संधान किया, वह मेरे शरीर में घर कर गया।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कवि ने सतगुरु को सूरमा के रूप मे व्यक्त किया है, जो तीर संधान करने में अत्यन्त कुशल है वह अनवरत रूप से शिष्य के प्रति जो शब्द-बाण को लक्ष्य करता रहा है। परन्तु एक शब्द-बाण उसने बडे़ हित और प्रेम से संधान किया। इस बाण से शिष्य का मर्म आहत हो गया और वह ब्रह्ममय हो गया।

शब्दार्थ—लई-ली, ग्रहण की। करि=कर–हाथ। बाहण=बहाने अर्थात्‌-फेंकने लगा। बाह्या=बहाया, फेंका। सरीर—शरीर।

सतगुरु साँचा सूरिवाँ, सबद जु बाह्या एक।
लागत ही मैं मिल गया, पड्या कलेजै छेक॥७॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में सतगुरु की एक और विशेषता का उल्लेख किया है। वह सच्चा सूरमा है। उसक लक्ष्य अचूक और अत्यन्त प्रभावशाली है। उसका बाण शब्द-बाण है। शब्द-बाण ने शिष्य के मर्म को आहत कर दिया है।

भावार्थ—सतगुरु सच्चा शूरवीर है। उसने मेरे प्रति एक ऐसे शब्द-बाण का अनुसंधान किया, किसके प्रभाव से मेरा मर्म आहत हो गया और मैं मेरा खोया हुआ अपनत्व मुझे सम्प्राप्त हो गया।

विशेष—शब्द बाण के लगते ही मेरा खोया हुआ अपनत्व प्राप्त हो गया। तात्पर्य है कि मैं जो माया के आकर्षक स्वरुप को देखकर आत्म विस्मृत हो गया था, सतगुरु के शब्द बाण के लगते ही पुनः आपने खोये हुए रूप को प्राप्त हो गया। मैं माया से आवृत्त होने के कारण अपने निर्विकार एवं निराकार स्वरुप को बिसर गया था पर सतगुरु को ऊपर से ज्ञान प्राप्त हुआ और मैं पुनः अपने मौलिक रूप में परिवर्तित हो गया। पड्या कलेजे छेक से तात्पर्य है कलेजा (पर मर्म) आहत हो गया शब्दार्थ-साचा=सच्चा।सूरिर्वा=शूरमा।सवद=शब्द वायह =वहाया,फॅका । लगते। पडयाा=पडा-हुआ। छेक प्रभाव डालना।

 
सतगुरु मारया बाण भरि धरि करिसूधी मूठि।
श्रंगि उघाडै लागिया,गई दवा सूँ फूटि़॥८॥

संदर्भ-- प्रस्तुत साखी मे कवि ने विगत साखो के भाव को अधिक विस्तार के साथ व्यक्त किया है। विगत साखी मे कवि ने सतगुरु के शूरत्व तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व का उल्लेख किया है़। यहाँ उसी भाव का विश्नेषण करते हुए कबीर ने शब्द वाण के तीत्र्व एवं व्यापक प्रभाव को अंकित किया है़।

भावार्थ-- सतगुरु ने शक्तिभर शिष्य को लक्ष्य करके वाण मारा। फलता शिष्य के शरीर मे दावाग्नि भी प्ररफुटित हो गई और शिष्य के अगो को उदघाटित करने लगा।

विशेष--(१) मार्या वाण भरि से तात्पयं यह है कि सतगुरु ने पूर्ण्शक्ति के साथ वाण मारा। (२) घरि--मूठि-ल साघन करके। (३) अगि- लागिया सातगुरु के शऱीर वाणो ने शिषय के अगो को ‌उदघाटित कर दिया। अर्थात शब्द वारगा ने ममं को आहन कर दिय। (४) गई-फूटि-शब्द वाण के फलतः ज्ञान कि अग्नि दावाग्नि से फैल गई औऱ उसने व्यक्तित्व के असर तत्वो की विनष्ट कर दिया।

शब्दार्थ'-भरी पुरी शक्ति के साथ। सूघी= सूघे। दवा=दावाग्नि।

 
हँसै न बोलै उन्मनी चंचल मेहल्या मारि।
कहै कबीर भीतरि भिद्य,सतगुरु कै हथियारि॥८॥

संदर्भ-- सतगुरु ने पूरी शक्ति के साथ शब्द-वाण को शिष्य के प्रति मारा अौर फलतः प्रम या जान को अग्नि शिष्य के सम्पूर्ण शऱीर मे प्रस्फुतटित हो गई। प्रस्तुत साखी मे कवि ने शब्द वर्ण के प्रभाव को स्पप्ट एवं अधिक विस्तार के साथ प्रकट किया है। शब्द वाण का प्रभाव यह पडा, कि शिष्य उन्मन अवस्या मे प्रविष्ट हो गया और उसका चचल मन पगु या गति-विहीन हो गया।

भवार्थ--शब्द वाण रुपी सतगुरु के हथियार ने शिष्य के अन्तस य मर्म को गई कर दिया। अब वह् हपं-विपाद की मानव से परै होकर संसार से उन्म या उटामीन हो गया और उसका चचंल मन प्रवान्त हो गया।

विशेष-- (१)"हसे न बोले" शिष्य शब्द वाण लगते ही शिष्य संसारिक भवनाओ और प्रतिक्रियाओ से ऊपर उठ गया। वह बोतराग य समार की यतर्थ स्यिति को भली प्रकार समान गया और वह संसार से विमुक्त हो उठा, (२) 'उनमनी' से तात्पर्य है उदामिन। (३) 'चचंल' शब्द का प्रयोग संत साहित्य् में में मन के लिये प्रयुक्त हुआ है। (४) 'मेल्ह्या' का अर्थ है फेंका। शब्द वाण फेंका और शिष्य के मन को गति विहीन कर दिया। (५) 'भीतर' से तात्पर्य है 'हृदय' अन्तस या मर्म। (६) हथियार—शब्द वाण।

शब्दार्थ—भिद्या—भिदा = भेदा = भेद गया। उनमनी = उन्मनी।

गूंगा हुवा बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ मैं पंगुल भया, सतगुर मार्या बाण॥१०॥

सन्दर्भ—"सतगुरु कै हथियारि" कुछ ऐसा "भीतर भिद्या" कि शिष्य का चंचल मन तो पंगु हो ही गया, साथ ही वह उस अवस्था को भी पहुँच गया जिसे "उनमनी" कहा गया है। इतना ही नहीं इस "हथियारि" का ऐसा अद्भुत एवं अकथनीय प्रभाव पड़ा है कि शिष्य की इन्द्रियाँ भी निश्चेष्ट एवं चेतना विहीन हो गई है।

भावार्थ—सतगुरु ने ऐसा शब्द वाण मारा है कि शिष्य गूंगा, बावला बधिर एव पंगू हो गया।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कवि ने रहस्यवादी की उस स्थिति का वर्णन किया है, जिसमें उसकी विभिन्न इन्द्रियों सर्व कार्य को विसर जाती हैं और वे निश्चेष्ट हो जाती है। ज्ञान की ज्योति सम्प्राप्त हो जाने पर, ब्रह्म की अनुभूति परिपूरित हो जाने पर साधक की इन्द्रियाँ लौकिक आनन्द तथा सांसारिक सुखों की ओर से विमुख हो जाती हैं। इस उच्चतम स्थिति पर पहुँचने के अनन्तर उसकी वाक् शक्ति या अभिव्यंजना शक्ति मौन हो गयी, उसकी कर्णेन्द्रिय शब्द ग्रहण की प्रक्रिया को भूल गई और उसे पग पंगुल हो गए। अब वह बावला-सा प्रतीत होने लगा। उसकी मनःस्थिति कुछ ऐसी हो गई कि वह जीवन और संसार से उदासीन ही नहीं पूर्णतया विमुख हो गया। संसार जिसे सुख, जिसे वैभव तथा जिसे महत्व करता है, यह उसे निःसार प्रतीत होने और उनके इस दृष्टिकोण को देख कर सांसारिक उसे बावला समझने लगा। वस्तुतः वही ज्ञानी और तत्व वेत्ता है।

शब्दार्थ—हुआ = हुवा। पंगुल = पंगु—गतिविहीन।

पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥११॥

सन्दर्भ—लोकानुमोदित मार्ग पर चलते हुए सांसारिकों का अनुसरण करना जीवन का लक्ष्य था। परन्तु सतगुरु की महती कृपा हुई। उसने मात्र दीपक हाथ में दिया और उचित मार्ग या नरवाण का मार्ग उपलब्ध हो गया।

भावार्थ—शिष्य लोकानुमोदित मार्ग का अन्य अनुसरण करता हुआ जा रहा था। परन्तु आगे सतगुरु के दर्शन हुए। उन्होंने ज्ञान का दीपक हाथ दिया।

विशेष—सतगुरु की महान अनुकम्पा इसलिए हो कि उसने अन्धानुकरण और लोक वेद प्रतिपादित मार्ग को निःसार बताया और ज्ञान के दीपक के जीवन के मार्ग को परिष्कृत एवं अलौकित किया।

शब्दार्थ—पीछैं = अनुकरण। साथि = साथ। मिल्या = मिला। दीया = दिया, प्रदान किया।

दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया विसाहुणां बहुरि न आँवौ हट्ट॥१२॥

सन्दर्भ—सतगुरु की कृपा से न केवल अंधानुकरण से ही उन्मुक्ति प्राप्त हुई और न केवल अज्ञान से अवकाश मिला। वरन् ज्ञान का ऐसा दीपक मिला जो अक्षय और अनन्त हो सतगुरु ने जो ज्ञान का दीपक प्रदान किया, उसमें अक्षय तेल, अघट्ट वाती और अनन्त प्रकाश भी था।

भावार्थ—सतगुरु ने प्रेमरूपी तैल से संयुक्त दीपक प्रदान किया, जो न घटने वाली वाती सम्पन्न था। दीपक के प्रकाश में शिष्य ने संसार रूपी बाजार में क्रय-विक्रय पूर्णं किया। अब इस संसार रूपी बाजार में पुनः नहीं आगमन होगा।

विशेष—प्रस्तुत साखी में ज्ञान के दीपक में प्रेम का तैल तथा अघट वाती वा उल्लेख किया है। क्रय-विक्रय प्रकाश में किया जाता है। संसार रूपी हाट में अज्ञान का अंधकार, माया का तम चारों ओर प्रसारित है। उस तम या अंधकार के कारण सुकृत का क्रय-विक्रय सम्भावित नहीं था। अब अघट वाती तथा अक्षय तेल युक्त ज्ञान का दीपक प्राप्त हो गया है। अब सुकृत तथा पुण्य का क्रम कर है। अतः जीवन्मुक्त होकर साधक अब पुनर्जन्म के क्रम में नहीं पड़ेगा।

शब्दार्थ—दीया = दिया = प्रदान किया। अघट्ट = अघट = न कम होने वाली। विसाहुणां = क्रय-विक्रय, खरीदारी। आवौं = आवो = आऊं = आना होगा। हट्ट = हट = हाट = बाजार। = अक्षय तेल लिया गया

ग्यान प्रकारया गुर मिल्या, सो जिनि वीसरि जाइ।
जब गोविन्द कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ॥१३॥

सन्दर्भ—ज्ञान से सुशोभित एवं समलकृत गुरु की प्राप्ति एवं दर्शन बड़े भाग्य से होते है। ऐसे महान के दर्शन के भी ईश्वर की प्रेरणा और अनुकप का फल है। इस प्रकार का असाधारण, अद्भुत और अद्वितीय व्यतित्व अविस्मरणीय है।

भावार्थ—गोविन्द की कृपा से मुझे ग्यान के आलोकित या प्रकाशित गुरु मिला। ऐसा सतगुरु अविस्मरणीय है।

विशेष—कबीर का यदि यह विश्वास है कि "गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाँय। बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय," "तो वही कबीर यह भी रखते हैं कि" "जब गोविन्द कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ। कबीर को इस बात की प्रसन्नता है कि उसका गुरु ग्यान से पूर्ण और ईश्वर की कृपा से प्राप्त हुआ है।

शब्दार्थ—प्रकास्या = प्रकासा = प्रकाशा = प्रकाशित। गुर = गुरु। मिल्या = मिला। जिनि = जिन। मत = नहीं। बीसरि = बीसरा = बिसरा = भूला। मिलिया = मिला।

कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटै लूण।
'जाति पाँति कुल सब मिटे, नाँव धरौगे कौंण॥१४॥

संदर्भ—ज्ञान के आलोक से प्रकाशित गुरु मिला। वह गुरु न केवल ज्ञान से सम्पन्न है, वरन् वह गौरव से मुक्त तथा महानात्मा भी है। गुरु के महान व्यक्तित्व से शिष्य अभिभूत हो गया और उसी में समा गया। ज्ञान से आलोकित गुरु के प्रभाव से शिष्य भी ज्ञान सम्पन्न हो गया और उसका जाति, वर्ण, कुल की सब भावना विलीन हो गई। वह शुद्धात्मा के रूप में विचरण करने लगा।

भावार्थ—कबीर कहते हैं गौरवमय तथा गम्भीर गुरु मिला। गुरु ने अपने व्यक्तित्व में मुझे एकाकर लिया। मैं उससे मिलकर उसी प्रकार अभिन्न हो गया, यथा आटा एवं नमक मिलकर अभिन्न हो जाता है। इस प्रकार सतगुरु के व्यक्तित्व में एकाकार हो जाने की अनन्तर जाति, कुल और नाम की सकरी सीमाएँ विनष्ट हो गई और मैं विशुद्धात्मा हो गयी। ऐसी शुद्धात्मा का क्या नामकरण होगा?

विशेष—आटै-लूण मे तात्पर्य है यथा आटा में मिलकर नमक एकाकार हो जाता है। उसी प्रकार सतगुरु की महानात्मा से मिलकर शिष्य की आत्मा एकाकार हो गई। (२) "गुरगरवा" से तात्पर्य है कि ज्ञान के गौरव मे पूर्ण और गम्भीर (३) जाति... कौंण से तात्पर्य है सांसारिक एवं सामाजिक मान्यताएँ एवं प्रतिबिम्ब एवं विनष्ट हो गये। शिष्य शुद्धात्मा हो गया। (४) नाव... कौंण से तात्पर्य है कि अब शिष्य अनाम, अजात, अवर्ण और अभेद हो गया।

शब्दार्थ—लूण = लीन-नमक। गरवा गरजा—गम्भीर। ताष = नाम। कौंण = कौन।  

जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधै अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत॥१५॥

संदर्भ—सतगुरु के ज्ञान से प्रकाशित होकर शिष्य विशुद्धात्मा हो गया। वह इनाम और अजात हो गया। परन्तु जिसका गुरु अन्धा है और चेला भी खरा निरंध है। ऐसे गुरु और शिष्य दोनों ही अन्धे प्राणियों के सदृश विनाश के कुएँ में गिरते हैं।

भावार्थ—जिस शिष्य का गुरु अन्धा और चेला स्वतः अन्धा है वे दोनों एक दूसरे को ठेलते-ठेलते कुएँ पड़ते हैं।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कबीर के अज्ञानी गुरु एवं शिष्य की दुर्दशा का उल्लेख किया है। दोनों अज्ञान के कारण एक दूसरे को ठेलते हुए विनाश के कूप में विनष्ट हो जाते हैं।

शब्दार्थ— अवला = अंधा—अज्ञान के अन्धकार से ग्रस्त। खरा = पूर्णतया। निरव = निरा = निरा अन्धा। ठेलिया = ठेलते हुए। दून्यूँ = दोनों। कूप = माया का कूप या विनाश का कूप। पडत = गिरता है।

नां गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेला डाव।
दून्यूं बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव॥१६॥

सन्दर्भ—ज्ञानी सतगुरु के न मिलने के कारण बड़ा अहित हुआ। शिष्य माया, मोह, लालच और अन्य सजातीय कुप्रवृत्तियों से पराजित हो गया, जो अज्ञानी गुरु प्राप्त हुआ उसने शिष्य को ऐसा मार्ग प्रदर्शित किया, जिसके कारण गुरु और शिष्य अपने अज्ञान के कारण भवसागर में डूब गए।

भावार्थ—न सत् गुरु मिला, न शिष्य को सत् दीक्षा प्राप्त हुई। लोभ या लालच ने दोनों के प्रति दाँव खेलता रहा। पत्थर की नाव में बैठकर (भवसागर को उत्तीर्ण करने के अभिलाषी) दोनों भवसागर में डूब गए।

विशेष—पहले की साखियों में कवि ने सतगुरु के प्रसाद से प्राप्त ज्ञानलोक का उल्लेख किया है। अब यहाँ पर उसने झूठे गुरु के दर्शन से जो अहित होता है, उसका उल्लेख कर दिया है। अज्ञान से अभिशप्त गुरु के कारण शिष्य तो विनष्ट हुआ हो, गुरु भी भवसागर के मध्य में डूब कर विनष्ट हो गया। (२) दून्यूं... मैं—से तात्पर्य है कि दोनों मंझवार में डूब गए। (३) चढ़ि...नाव = से तात्पर्य है माया, लालच या मोह की नौका।

शब्दार्थ—मिल्या = मिला। सिष = शिष्य। भया = हुआ। डाव = दाँव। दून्यू = दोनों। धार = मझधार। पाथर = पत्थर। नाव = नौका।

चौसठ दीवा जोइ करि, चौदह चंदा मांहि।
तिहिं घरि किसकौ चानिणौ, जिहि घरि गोविन्द नाहिं॥१७॥

सन्दर्भ—सतगुरु के प्रसाद से ज्ञान के प्रकाश से शिष्य आलोकित हो गया। जो गुरु स्वतः ज्ञानालोक से आलोकित है वह शिष्य के व्यक्तित्व से भी वासनाओं के तामसिक अन्धकार को दूर कर सकता है। सतगुरु ने शिष्य के व्यक्तित्व को ब्रह्म के प्रकाश से प्रकाशित कर दिया है। जो ब्रह्म के प्रकाश से आलोकित नहीं है, उनके व्यक्तित्व को कौन सुशोभित कर सकता है।

भावार्थ—जिस घर में गोविन्द का निवास नही है, वह घर चौसठ कलाओं और चन्द्रमा की चौदह राशियों से आलोकित होने पर भी, अन्धकार ग्रस्त ही रहेगा।

विशेष—प्रस्तुत साखी में दो बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। प्रथम ब्रह्म के ज्ञान का प्रकाश चौसठ कलाओं और चन्द्र की चौदह कलाओं के समन्वित प्रकाश से भी अधिक है। द्वितीय, यह कि हृदय मन्दिर ब्रह्मानुभूति के अभाव में शून्य और अन्धकार से ओत-प्रोत रह जायगा। (२) चौसठि दीवा से तात्पर्य है चौसठ कलाएँ जो अज्ञान के अन्धकार को दूर करती हैं। (३) चौदह चन्दा—चन्द्रमा की १४ कलाएँ जो अन्धकार को नष्ट करती है। (४) घर से तात्पर्य है = शरीर।

शब्दार्थ—चन्दा = चन्द्रमा। चानिणौं = प्रकाश।

निस अँधियारी कारणौं, चौरासी लख चन्द।
अति आतुर ऊदै किया, तऊ दिष्टि नहि मन्द॥१८॥

सन्दर्भ—विगत साखी में कवि ने कहा है कि "तिहि और किसको वाणियों जिहि घरि गोविन्द नाहि"। उसी भाव को विकसित करते हुए यहाँ कबीर ने कहा है कि अज्ञान निशा को दूर करने के लिए अत्यन्त आतुरता के साथ यदि ८४ लाख चन्द्र को उदित करने का आयोजन किया जाय तो यह दूर नहीं होगा, यदि दृष्टि माया के कारण मलीन है।

भावार्थ—रात्रि के अन्धकार को दूर करने के लिए यदि अत्यन्त आतुरता के साथ ८४ लाख चन्द्र को उदित किया जाय तो भी अन्धकार दूर नहीं होगा, यदि दृष्टि मलिन है।

विशेष—यदि दृष्टि मन्द है, या मलीन है तो एक साथ ८४ लाख चन्द्र का प्रकाश भी नहीं दृष्टिगत होगा। चन्द्र और द्वेषों के मध्य में विकारों का पर्दा पड़ा है। इसी प्रकार ब्रह्मानुभूति की शक्ति के बिना दृष्टि निर्मल नहीं होगी। (२) निस...कारणौं—रात्रि के अन्धकार के कारण या रात्रि के अन्धकार को दूर करने के लिए। (३) अति आतुर...किया = अत्यन्त आतुरता के साथ अथवा अत्यन्त तीव्रता के साथ चन्द्रमा उदय किया या आयोजित किया। (४) तऊ...मन्द = फिर भी दृष्टि नही है। दृष्टि मन्द ही रहेगी।

शब्दार्थ—ऊदै = उदय। दिष्टि—दृष्टि।

भली भई जु गुर मिल्या, नहीं वर होती हांणि।
दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ पड़ता पूरी जाणि॥१९॥

सन्दर्भ—सतगुरु को महिमा अनन्त है। उसने "अनन्त किया उपगार" तथा "लोचन अनन्त उवाडिया अनन्त दिखावरणहार"। तथा "सतगुरु सर्वांन को सगा सोधी सई न दाति।" उसके शब्दवाण "लागत ही मैं मिलि गया पड्या कलेजे छेद"। ऐसे बहुगुणी सतगुरु के न मिलने से बड़ा अहित होता। उसके अभाव में शिष्य की दृष्टि माया रूपी पतंग पर अवश्य पड़ती। और वह आवागमन के क्रम में सदैव के लिए बंध जाता।

भावार्थ—अच्छा ही हुआ जो गुरु के दर्शन हो गए नहीं तो बड़ी हानि होती। पतंग रूपी मेरी दृष्टि माया रूपी दीपक पर अवश्य पड़ती और इस प्रकार हर प्रकार से हानि की सम्भावना थी।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कबीर ने "दीपक दिष्टि पतंग" की सुन्दर कल्पना की है। माया दीपक है और मन या दृष्टि पतंग है। यहाँ पर कवि की अप्रस्तुत योजना औचित्य तथा यथार्थपूर्ण है।

शब्दार्थ—भली अच्छा, कल्याणकारी। भई = हुई, हुआ। तर = तो। हांणि = हानि = नुकसान। दिष्टि = दृष्टि। ज्यूं ज्यों। जाणि = जानि = जान।

माया दीपक नर पतंग, भ्रमि-भ्रमि इवैं पडन्त।
कहै कबीर गुर ग्यान थैं, एक आध उतरन्त॥२०॥

सन्दर्भ—पूर्वं साखी में प्रयुक्त अप्रस्तुत योजना "दीपक दिष्टि पतंग ज्यूँ" को और भी विस्तार तथा स्पष्टता के साथ व्यक्त करते हुए कवि ने गुरु के ज्ञान के समक्ष पुनः श्रद्धा, आस्था तथा विश्वास प्रकट करते हुए अप्रत्यक्ष रूप से गुरु की महत्ता का वर्णन किए हैं।

भावार्थ—माया रूपी दीपक पर नर (रूपी) पतंग, मंडरा-मंडरा कर गिरता है। परन्तु कबीर का मत है कि गुरु के ज्ञान से (इस विनाश से) एक आध उतर जाता है या उद्धार भी प्राप्त करता है।

विशेष—माया के आकर्षक स्वरूप पर मानव उसी प्रकार भ्रम के कारण, या अज्ञान के कारण मडला-मडला कर गिरता है, यथा दीप-शिखा पर पतंग आकर्षित होकर प्राण अर्पित कर देते हैं। (२) "एक आध" से तात्पर्यं विरले। (३) प्रस्तुत साखी में अप्रत्यक्ष रूप से सतगुरु की सामर्थ्य की प्रशंसा की गई है। वह सर्वथा स्तुत्य और बंदनीय है।

शब्दार्थ—पडंत = पड़ते हैं। उबरंत = उबरते हैं।

सतगुर बपुरा क्या करै, जे सिपही मांहै चूक।
भावै त्यूं प्रमोधि ले, ज्यूं बँसि बजाई फूंक॥२१॥

सन्दर्भ—यदि शिष्य माया में अनुरक्त है, या दोषपूर्ण हो तो सतगुरु का क्या दोष। सतगुरु की शिक्षा का कोई भी प्रभाव शिष्य पर नहीं दृष्टिगत होगा यदि वह दोषयुक्त हो। परन्तु निपुर्ण या साधना में सिद्ध सतगुरु दोषों से अभिशप्त शिष्य को भी प्रबुद्ध कर लेता है। तथा कुशल वाद्यकार छिद्रों से युक्त वासुरी के माध्यम् से सुन्दर एव मनोहर राग प्रस्फुटित करता है।

भावार्थ—सतगुरु बेचारा क्या करे, यदि शिष्य ही दोष या त्रुटि पूर्ण है। (कुशल) सतगुरु उसी प्रकार से शिष्य को प्रबुद्ध कर लेता है। यथा कुशल बजाने वाला (बहु छिद्रों वाली) बांसुरी को बजा लेता है।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कवि ने युक्ति संगत बात का उल्लेख किया है। समर्थ सतगुरु शिष्य को वैसे ही उचित मार्ग पर ले आता है। यथा बासुरी बजाने वाला, बहुछिद्र सम्पन्न होने पर भी बासुरी को बजा लेना है।

शब्दार्थ—बपुरा = बेचारा। सिपाही = शिष्य ही। माहै = में है। प्रमोधि = प्रवोध।

संसै खाया सक्ल जुग, संसा किनहूँ न खद्ध।
जै वेधे गुरु अप्पिरां, तिनि संसा चुणि-चुणि खद्ध॥२२॥

सन्दर्भ—सतगुरु के शब्दों में अद्भुत शक्ति एवं अद्भुत प्रभाव है। उस महानात्मा के शब्दवाणी ने शिष्य में जिन अद्वितीय शक्तियों को समुत्पन्न कर दिया है, उनका उल्लेख पीछे साखियों में हो चुका है। संशय ने समस्त संसार को नष्ट कर दिया है। पर जो सतगुरु के शब्दवाणी से आहत हो चुके हैं, उन्होंने संशय को भी नष्ट करके मृत्यु पर विजय प्राप्त कर ली है।

भावार्थ—संशय ने समस्त जगत को खा डाला। पर संशय को कोई न (खा सका या) नष्ट कर सका। परन्तु जिन्हें गुरु के अक्षरों (शब्द वाणी) ने बेधा (या आहत किया) है, उन्होंने ही संशय को चुन-चुन कर (खा डाला या) नष्ट कर डाला।

विशेष—गीता में भगवान् कृष्ण का उपदेश है "संशयात्मा विनश्यति।" जो संशय, भ्रम, आशंका से परिपीड़ित हैं, वे नाश को प्राप्त होते हैं। (२) गुरु की वाणी में या शब्द वाणी में वह सामर्थ्य है कि शिष्य के समस्त संशय विनष्ट हो जाते हैं।

शब्दार्थ—खद्ध = खाया। जे = जिन्हें। वेधै = बेधा है, या आहत किया है। चुणि = चुनि। ससा = संशय।

चेतनि चौकी बैसि करि, सतगुर दीन्हांँ धीर।
निरभै होइ निसंक भजि, केवल कहै कबीर॥२३॥

संदर्भ—सतगुरु ने शिष्य के अनन्त लोचन ही नहीं उदघाटित किया, वरन् उसे धैर्य का वरदान भी दिया। साथ ही सतगुरु ने निःशक होकर ईश्वराराधना करने का भी उपदेश दिया।

भावार्थ—चैतन्य चौकी पर आसीन होकर सतगुरु ने धैर्य धारण करने का उपदेश दिया। धैर्य के साथ ही सतगुरु ने निर्भर एवं निःशक होकर ईश्वर क आराधना का उपदेश दिया।

विशेष—"चैतन्य चौकी" पर बैठकर से तात्पर्य है ज्ञान की चौकी या ज्ञान के आसन पर बैठकर। (२) चेतनि... धीर—ज्ञान के उच्च आसन पर बैठकर सत्गुरु ने शिष्य को धैर्य का धारण करने का आशीर्वाद दिया। (३) "निरभै होइ निसक भजि" से तात्पर्य है निर्भय और शंका रहित होकर आराधना कर। (४) "भजि" से तात्पर्य है 'जप।' यहाँ यह शब्द आदेशात्मक रूप में प्रयुक्त हुआ है। (५) "केवल" का तात्पर्य है अद्वैत ब्रह्म 'केवल' शब्द का प्रयोग संतों ने ब्रह्म अद्वैत अर्थ में किया है।

शब्दार्थ—चेतनि = चेतन = चैतन्य। वैसि = बैठि। धीर = धैर्य। निरभै = निर्भय। निसंक = निःषक। होइन होकर। भजि = भज। करि = कर।

सतगुर मिल्यात का भया, जे मनि पाड़ी भोल।
पामि विनंठा कप्पढा, क्या करै विचारी चोल॥२४॥

संदर्भ—कबीर ने प्रस्तुत साखी का भाव "सतगुर कौ अंग" की २१ वीं साखी में व्यक्त करते हुए कहा है "सतगुर बपुरा क्या करे, जे सिपाही मँहि चूक।" इसी भाव को किंचित अधिक विस्तार साथ व्यक्त करते हुए कवि ने सुन्दर अप्रस्तुत, योजना की आयोजना की है।

भावार्थ—यदि मन ही भूलों से भरा है तो, सतगुरु का मिलना और न मिलना समान है। यदि पास में विनष्ट या फटा। कपड़ा है, तो उसके आधार पर तैयार किया हुआ अधीवस्त्र की क्या उपयोगिता होगी।

विशेष—प्रस्तुत साखी में शुलभ एवं सरल अप्रस्तुत योजना के माध्यम से कबीर ने यह कहा है कि यदि शिष्य का मन माया में ही अनुरक्त है तो सतगुरु बेचारे का क्या दोष। फटे हुए कपड़े से शरीर नहीं ढका जाता है। यदि इतना होने पर भी कोई फटे हुए वस्त्र से चोल या चोली मिले और उससे शरीर आवृत नहीं सकते, कपड़े का क्या दोष।

शब्दार्थ—त = सो। का = क्या। भवा = हुआ। जो = यदि। पाडी = पारी या आच्छादित। भोल = भ्रम। पासि = पास अधिकार में। विनठा = विनष्ठ। कप्पड़ा = कपड़ा। चोल = चोली।

बूड़े थे परि ऊबरे, गुर की लहरि चमंकि।
भेरा देख्या जरजरा, (तब) ऊतरि पड़े फरकि॥२५॥

संदर्भ—गुरुदेव को अंग की २० वीं साखी में कबीर ने गुरु को अद्वितीय शक्ति का उल्लेख किया है, जिसकी कृपा से एक आध शिष्य का उद्धार होता है। कबीर ने उक्त साखी में कहा है "कहै कबीर गुर ग्यान थै एक आध उबंरत।" यहाँ पर कबीर ने पुनः उमी आशय को अभिनव अप्रस्तुत योजना द्वारा नये कदम में व्यक्त किया है।

भावार्थ—हम भव सागर में मग्न थे। पर गुरु की (कृपा की) लहर चमक देखकर मेरा उद्धार हो गया। सतगुरु की कृपा प्राप्त होते ही मैंने जर्जर बेडा का परित्याग कर दिया और उस पर से फड़क कर उतर पड़ा।

विशेष—गुरु की कृपा अगाध और असीम है तथा सागर। सागर की अत्तरङ्ग लहरों में प्रवल शक्ति होती है। उसी प्रकार सागर में अद्भुत शक्ति है।वह शिष्य का उद्धार करने में सशक्त है। (२) "बूड़े थे परि ऊबरे" तात्पर्य है भव सागर में डूबे हुए थे पर उद्धार हो गये। (३) "लहरि" से तात्पर्य 'कृपा की लहर।' (४) "चमंकि" चमक या प्रकाश। गुरु की कृपा की ज्योति प्रकाशित हुई या प्रकाशित हुई और अपने अज्ञान के अन्धकार में मग्न शिष्य का उद्धार किया। (५) मेरा से तात्पर्य है "बेढा।" यहाँ बेडा से तात्पर्य है लोक वेदानुमोदित मार्ग, या माया वेडा। (६) 'जरजरा'—से तात्पर्य है जर्जर, क्षीण, विनाशशील मग्न प्राय (७) "फरकि" से तात्पर्य है फड़क कर, या फांव कर।

शब्दार्थ— परि = पर, परन्तु। ऊबरै = उबरे, उद्धार हुआ। मेरा = बेड़ा जरज़रा = जर्जर। ऊतरि = उतर।

गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहु आकार।
आपा मेट जीवत मरै, तौ पावै करतार॥२६॥

सौंदर्भ—गुरु और गोविन्द एक हैं, अभिन्न हैं। गुरु और गोविन्द से भिन्न जो कुछ है वह माया या भ्रम है। प्रेम रस पान करना सरल नहीं है। अहं के जीवित रहते ब्रह्मानुभूति असम्भव है। प्रेम के मार्ग में अहं सबसे बड़ा बाधक है। कबीर ने सच कहा है "पीया चाहै प्रेम रस राखा चाहै मान। एक म्यान में दो खड़ग देखा सुना न कान।"

भावार्थ—गुरु और गोविन्द में अन्तर नहीं है। दोनों एक हैं। उनसे जो कुछ भी भिन्न है वह आकार या माया है। यदि जीते-जी (जीवित रहते हुए) अन्त का (मानव) परित्याग कर देते हैं, ब्रह्मानुभूति से सम्भावित है।

विशेष—प्रस्तुत साखी में कबीर ने दो भावों की अभिव्यक्ति की है। प्रथम यह कि सतगुरु और ब्रह्म अभिन्न है। सन्त, साहित्य में यह भाव अनेक बार बड़े उत्साह के साथ व्यक्त किए जाते हैं। द्वितीय भाव यह है कि अहं ब्रह्मानुभूति = या आत्मानुभूति में बाधक होती है। प्रेम एवं ब्रह्माराधना के मार्ग में अहं विनाशकारी। कबीर ने बारम्बार कहा है "यहु तौ घर है प्रेम का खाला का घर नांहि। सीस उतारै भुंई धरै पैठे घर माहिं।

शब्दार्थ— दूजा = दूसरा, द्वैत। आकार = माया। आपा = अंह। करतार =ब्रह्म।

कबीर सतगुर नां मिल्याँ, रही अधूरी सीप।
स्वाँग जती का परि करि, घरि घरि मांगैं भीष॥२७॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में अपने युग की दुर्व्यवस्था और कुप्रवृत्तियों के प्रति कवि की प्रतिक्रिया अंकित की गई है। संत-साहित्य में तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के प्रति चेतना के दर्शन होते हैं। यहाँ पर उन स्वांग भरने वालों की ओर संकेत किया गया है जो यती के भेष को धारण कर भिक्षार्जन में प्रवृत्त है।

भावार्थ—कबीर दास कहते हैं कि (शिष्य को) सद्गुरु न प्राप्त हुआ और दीक्षा या शिक्षा अपूर्णं रही। यती का वेष धारण करके (अधूरी शिक्षा प्राप्त शिष्य) भिक्षार्जन करते फिरते हैं।

विशेष—अनुभव एवं ज्ञान से शून्य गुरु जो शिक्षा देता है, वह अपूर्ण या अधूरी शिक्षा हो अपूर्ण ज्ञान, नीतिकारों ने विनाशकारी माना है। (२) कबीर ने वेश को स्वांग या तमाशा माना है।

शब्दार्थ—स्वांग = तमाशा। जती = यती। परि = पहन। घरि= घर। भीष = भीख = भिक्षा। सीष = सीख = शिक्षा।

सतगुर साँचा सूरिवाँ, तातैं लोहिं लुहार।
कसणी दे कंचन किया, ताइ लिया ततसार॥२८॥

सन्दर्भ—कृत्रिम या असंगत गुरु मिलने का प्रतिफल होता है, "अधै अघा ठेलिया, दून्यूं कूप पडत" तथा "दून्यू बूड़े घार मैं चढ़ि पाथर की नाव।" सतगुर सम्पर्क में आने का क्या प्रभाव होता है। इसका उल्लेख कबीर ने प्रस्तुत "अंग" की साखी ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३ आदि अकित किया है। यहाँ पर पुन कबीर ने सतगुरु की वन्दना करते हुए उसे तत्व एवं सार का शोधक माना है।

भावार्थ—सतगुर सच्चा शूरमा है। यथा लुहार लोहे को दग्ध करके शुद्ध करता है उसी प्रकार साधना की अग्नि में तप्त करके शिष्य को शुद्ध कर लिया है। शिष्य की साधना की कसौटी में कस कर कंचनवत् बना लिया है और सार तत्व को सम्प्राप्त कर लिया है।

विशेष— प्रस्तुत साखी में साधना की अग्नि में शिष्य को निर्मल कर लेने का उल्लेख है। माया के असार तत्व साधना की कसौटी से हो दूर किए जा सकते हैं।

शब्दार्थ—साँचा = सच्चा सूरियाँ = सूरमा = शूरमा। ताते = तात = त्प्त कमणी = कमनी = कसौटी में कसने की प्रक्रिया। तत = तत्व ५.५.६२.

थापणि पाई विति भई, सतगुर दीन्हीं धीर।
कबीर हीरा-बण्जिया, मानसरोवर तीर॥२९॥

सन्दर्भ—प्रस्तुत साखी में कवि ने "सतगुर कौ अंग" की साखी २३ तथा १२ का भाव किंचित परिवर्तन के साथ किया गया है। सतगुरु ने धैर्य एवं निर्भय कता का आशीर्वाद दिया और फलतः कबीर ने बहुमूल्य पदार्थों का वाणिज्य किया। यह वाणिज्य हीरे का था।

भावार्थ—गुरु से दीक्षा समाप्त हुई और धैर्य का वरदान मिला। कबीर ने मानसरोवर के तट पर हीरा का वाणिज्य किया।

विशेष—यहाँ साधना की उन तीन अवस्थाओं का कबीर ने उल्लेख किया है जिसका कवि स्वतः ने अनुभव किया था। थापरिण या स्थापना से अनन्तर धैर्य और तदनन्तर साधक द्वारा हीरा का वाणिज्य। (२) स्थापना या दीक्षा के अनन्तर ही शिष्य को सतगुरु से धैर्य धारण की साधना-पथ पर अग्रसर होने का आशीर्वाद मिला। फलतः साधना में रत रह कर कबीर ने मानसरोवर के तट पर हीरा रूपी हरि का वाणिज्य। (६) थापणि... भई-दीक्षा के अनन्तर थिति मिली।

शब्दार्थ—थापणि = स्थापना। थिति = स्थिरिता। धीर-धैर्य। वणजिया-वाणिज्य किया। तीर-तट।

निश्चल निधि मिलाइ तत, सतगुर साहस घीर।
निपजी मैं साझी घणां, बाँटे नहीं कबीर॥३०॥

संदर्भ—सतगुरु के अमोघ दान के फलतः जीवन में सब कुछ सब प्राप्य उपलब्ध हो गया। दुर्लभ ब्रह्मानुभूति प्राप्त हो गई। भवसागर में भटकती हुई जीवन नौका को लक्ष्य एवं गंतव्य प्राप्त हो गया ब्रह्मा की अनुभूति का आनन्द अविभाज्य एव अभिव्यक्ति से परे हैं या असम्प्रेषणीय है।

भावार्थ—सतगुरु द्वारा प्राप्त साहस एव धैर्य के फलतः अमर निधिरूप सार तत्व समाप्त हो गया। परमतत्व के साक्षात्कार से समुत्पन्न आनन्द को बांटने के लिये सभी समुत्सुक है पर कबीर उसे सम्प्रेषित नहीं कर पाता है।

विशेष—विगत साखी में कबीर ने हरि के लिए "हीरा" शब्द का प्रयोग किया है और इस साखी में "निहचल निधि" का प्रयोगब्रह्म तत्व के अर्थ में किया है। लौकिक जीवन में हीरा या निधि माया का प्रतीक है। प्रश्न होता है कि कबीर ने माया की इतनी भर्त्सना की है फिर भी माया के प्रतीकों को ब्रह्म तत्व के लिए क्यों प्रयोग किया है बात यह है कि सांसारिक जीवन में हीरा बहुमूल्य वस्तु मानी गई है। उसी प्रकार ब्रह्म साधनात्मक जीवन में बहुमूल्य उपलब्धि है हरि रूपी निधि और हीरा साधनात्मक जीवन में उसी प्रकार बहुमूल्य है यथा लौकिक जीवन के माया के प्रतीक धन या हीरा। (२) तन = तत्व-ब्रह्म तत्व। (३) निपजी ...कबी—ब्रह्मानुभूति का आनन्द यविभाजनीय है असम्प्रेणीय है। वह आनन्द स्वतः अर्जित किया जाता है, उधार में नहीं प्राप्त होता है। शब्दार्थ--निहचल = निश्चल । तत = तत्व । निपजी = उपजी । थणा = धना-धनीभूत ।

चौपडि मांड़ी चौहटै, अरध उरध बाजार ।
कहै कबीरा रामजन, खोलौ संत विचार ॥३२॥

संदर्भ--कबीर ने प्रस्तुत अग की साखी १२ एव्ं १६ मे वाणिज्य का उल्लेख किया है । अब प्रस्तुत साखी एवं आगामी साखी मे चौपड़ एवं पासा के खेल का उल्लेख किया । आध्यात्मिक जगत मे चौपड का भिन्न अर्थ होना है ।

भावार्थ--चौराहे पर चौपड़ सुशोभित है । ऊपर नीचे बाजार लगा हुआ कबीर कहते हैं कि सतजन । विवेक पुर्वक इम चौपड के खेल को खेलो ।

विशेष--अरध बाजार ऊपर नीचे चक्रो का बाजारा बिछा हुआ ही शरीर मे पटचक्र है । मूलाचार प्रथम और सहखार अतिप चक्र है ध्यान रुपी मोहरें या गोटो से साधक खेल रहा है प्रत्येक चक्र पर ध्यान केन्द्रिन करके पुन: आगे बढ़ता है । (२) चौपडि... चोहट शरीर रूपी चौरहे पर चौपड बिछी है । खेलौ सत विचार से तात्पर्य है कि सतो ध्यान पूर्वक इस खेल को खोलो ।

शब्दार्थ--माँडी = मडित । चौहटे = चौराहे । अरध अरध = ऊपर-नीचे ।

पासा पकड़या प्रेम का, सारी किया सरीर ।
सतगुर दाव घताइया, खेलै दास कबीर ॥३२॥

संदर्भ--"चौपडि माँडी चौहटै अरध अरध बाजार।" ऐसे बाजार मे काबीर राम जन से उपदेश देते हुए कहते हैं "शेलौ संत विचार"। शरीर रूपी चौपड मे प्रेम का पाना फेंकने क रूपक कबीर ने यहाँ पर बड़ी स्पष्टता के साथ व्यक्त किया है । विगत साखी मे कबीर ने इस खेल को खेलने के लिए सहजन के विवेक पर विश्वास रखे हैं। यहाँ सतगुरु के निदॅशन के अनुमार दाय चलने का आदेश कबीर ने बताया है ।

भावार्थ--शरीर को चौपड पर प्रेम का पाना पकड़ कर, सतगुरु के आदेशानुसार कबीर दाव चल रहा है ।

विशेष--प्रेम का पासा और शरीर का चौपड यही ही यथार्थ और युमिसगत अप्रस्तुत योजना । शरीर के चौपड पर प्रेम के पासे का खेल स्वाभाविक और लौचित्यपूर्ण है। प्रेम के इस खेल मे दाव बचाने वाला या निर्देशन देने वाला सतगुरु ही कुशल गुरु के निर्देशन समप्राप्त हो जाने के कारण शिष्य के लिए परामद का कोइ अवसर नहीं है ।   "खेलै दास कबीर" मे आत्मविश्वास दृढ़ता तथा सतगुरु पर आस्था का भाव प्रतिबिम्बित होता है ।

शब्दार्थ–सारी = चौग्ड । सरीर = शरीर । दाव = दाव, चाल । बताइया = बता रहा है।

सतगुरु हम सूँ रीझि करि, एक कह्या प्रसंग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भीजि गया सब अंग ॥३३॥

सन्दर्भ–प्रस्तुत प्रसंग में कबीर ने अनेक बार कहा है कि "सतगुरु मार्या बाण भरि," 'सतगुरु साचा मरिवो, सबद जु बाह्य एक"। "लागत ही मैं मिट गया, पड़या कलेजे छ़ेक" तथा "सतगुरु लई कमांण कहि, बाहण लागा तीर। एक जु बाह्या प्रीति सूं भीतरि रह्या सरीर।" एक शब्द बाण से आहत होने के अनन्तर, अब कबीर का अन्तर प्रेम के बादल से भीग जाने का वर्णन है। यहाँ सतगुरु ने एक प्रसंग कहा है और वहाँ एक कमांन के चलने का उल्लेख है। दोनों का फल एक ही है। परन्तु प्रभाव दोनों का दिव्य, असाधारण और ब्रह्यानुभूति है।

भावार्थ–सतगुरु ने हमसे प्रसन्न होकर एक प्रसंग कहा। फलतः प्रेम का बादल बरसा और सब अंग आर्द्र हो गए।

विशेष–सतगुरु ने शिष्य की योग्यता, सच्चाई और लगन देखकर उसके उपर्युक्त प्रेम का एक प्रसंग प्रस्तुत किया। यह प्रेम का प्रसंग ब्रह्यानुभूति का प्रसंग था। प्रेम का यह प्रसंग इतना प्रभावशाली था कि शिष्य के समस्त अंग उसी से आर्द्र हो गये। इसी भाव से प्रेरित होकर कबीर ने अन्यत्र कहा है कि "लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल। लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।" यहाँ भी प्रेम का अनुराग के रंग में समस्त अंगों के भीग जाने का वर्णन है।

शब्दार्थ–रीझि = प्रसन्न । बरस्या = बरसा । भीजि = भीगि = भीग।

कबीर बादल प्रेम का, हम परि बरष्या आइ ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ ॥३४॥

सन्दर्भ–प्रस्तुत साखी मे कबीर ने पुनः प्रेम के बादल की वर्षा और उसके व्यापक प्रभाव का वर्णन किया है।

भावार्थ–कबीर कहते है कि प्रेम का बादल हम पर आकर बरसा । फलतः अलस और आत्मा उसके प्रभाव से भीग गया और बनराय हरा हो गया।

विशेष–अतम माया के आकर्षक आवरण तथा पंच विकारो (काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ) मे अनुरक था। परन्तु यहा प्रेम के जल या सतगुरु के उपदेश जल मे वह भीगकर विशुद्ध हो गया । (२) आत्मा, असार, अशुभ और अपवित्र तत्वो से परिवेष्ठित थी । प्रेम के जल से धुल कर वह स्वच्छ हो गई । (३) शरीर रूपी यह चनराय प्रेम के जल से सिंचित होकर हरा-भरा हो गया । (४)"अंतरि भीगो आत्मा" तात्पर्य है अतस (या मन) तथा आत्मा दोनो प्रेम के बादल से आर्द्र हो गये ।

शब्दार्थ—परि = पर । बरष्या = बरसा । अंतरि = अंतर । भई = हुई । चनराइ = चनराय ।

पूरे सूँ परचा भया, सब दुःख मेल्या दूरि ।
निर्मल कीन्ही आत्मा, ताथै सदा हजूर ॥३५॥

सन्दर्भ—सतगुरु की कृपा से, उसके आशीर्वाद से पूर्ण ब्रह्म से परिचय प्राप्त हो गया और भव सागर के समस्त ताप दूर हो गए । सर्वत्मा से मिल कर यह आत्मा विशुद्ध हो गई ।

भावार्थ—पूर्ण ब्रह्य से परिचय हुआ और सब दुःख दूर हो गये । आत्मा निर्मल हो गई और प्रभु ( या ब्रह्म ) से संलग्न हो गई ।

विशेष—(१) उपनिषदो मे ब्रह्म को पूर्ण अभिव्यक्त करते हुए कहा गया है "पूर्णमदः पूर्णमिदः पूर्णविपूर्ण मुदच्चते । पूर्णस्य् पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।" उपनिषदो के उसी पूर्ण भाव को कबिर ने यहाँ ग्रहण करके उस ईश्वर को "पूरा" कहा है । "एक सद्विप्रा बहुषा बदन्ति ।" उस पूर्ण ब्रह्म से परिचय हो जाने के अनन्तर समस्त दुःख दूर हो गये । निर्गुण, निराकार, निर्विकार ब्रह्य से साक्षात्कार होते ही आत्मा विशुद्ध हो गई । मलीन दारी काम क्रोधादि मे अनुरक्त शरीर मलीन हो गया था, सो अब पवित्र हो गई ।

शब्दार्थ—सूं = से । परचा= परिचय । मेला = फैका । दूरि = दूर । हजूरि = हुजूर = स्वमी ।