कपालकुण्डला
बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, अनुवादक Not mentioned, tr. published in 1900.

वाराणसी: हिन्दी प्रचारक पुस्तकालय, पृष्ठ १० से – १३ तक

 

:३:

विजनमें

“Like a veil,
Which, if withdrawn, would but disclose frown,
Of one whose hate is masked but to assail;
Thus to their hopeless eyes the night was shown,
And grimly darkend o'er the face pale.”
—Don Juan

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जिस जगह नवकुमारको त्यागकर यात्री लोग लौट गये, आजकल उसके समीप ही दौलतपुर और दरियापुर नामके दो छोटे-छोटे गाँव दिखाई पड़ते हैं। किन्तु जिस समयके वर्णनमें हम प्रवृत्त हुए हैं, उस समय वहाँ मनुष्योंकी बस्तीके कोई भी चिन्ह नहीं थे। वहाँ केवल जंगल ही जंगल थे। किन्तु बंगालके सूबेमें हर जगह अधिकांश भूमि जैसी उपजसे भरी रहती है, यहाँ वह बात नहीं है। रसूलपुर के मुहानेसे लेकर स्वर्णरेखातक विस्तृत कई योजनकी राह बालूके बड़े-बड़े ढूहोंमें वर्तमान है। थोड़ा और ऊँचा होते ही अनायास बालुकामय ढूह पहाड़ी कही जा सकती थी। आजकल वहाँके लोग उसे 'बालियाड़ी' कहते हैं। इन बालियाड़ियोंकी उच्च धवल शिखरमालाएँ मध्यान्ह सूर्यकिरणमें अपूर्व शोभा पाती हैं। उनपर ऊँचे पेड़ पैदा नहीं होते। ढूह के तल भाग में सामान्य वन जैसा दृश्य दिखाई पड़ता है, किन्तु मध्य भाग या शिखरपर प्रायः धवल शोभा ही व्याप्त रहती है। निम्न भागमें भी कंटीली झाड़ी, भाऊ और वन-पुष्पके ही छोटे-छोटे पेड़ दिखाई पड़ते हैं।

ऐसे ही नीरस जंगलमें साथियों द्वारा नवकुमार अकेले परित्यक्त हुए। पहले लकड़ीका बोझ लेकर जब वे नदी किनारे आये तो उन्हें नाव दिखायी न दी। अवश्य ही उस समय उनके मनमें डर पैदा हुआ किन्तु सहसा उन्होंने विश्वास न किया कि उनके साथी उन्हें इस प्रकार छोड़कर चले गये होंगे। उन्होंने विचार किया कि ज्वारका जल बढ़ जानेके कारण उन लोगोंने अपनी नाव कहीं किनारे दूसरी जगह लगा रखी होगी। शीघ्र ही वे लोग खोज लेंगें और नावपर चढ़ा लेंगे। आशासे वह बहुत देरतक किनारे खड़े रहे। लेकिन नाव न आई। नावका कोई आरोही भी दिखाई न दिया। नवकुमार भूख से व्याकुल होने लगे। प्रतीक्षा न कर अब नवकुमार नदी के किनारे-किनारे नावकी खोज करने लगे, लेकिन कहीं भी नावका कोई निशान भी दिखाई न दिया, अतः लौटकर फिर अपनी पहली जगह पर आ गये। फिर भी, नावको वहाँ पहुँची न देखकर उन्होंने विचार किया कि ज्वारके वेगसे मालूम होता है नाव आगे निकल गयी है, अतः अब प्रतिकूल धारापर नाव पलटानेमें जान पड़ता है, साथियों को विलम्ब लग रहा है। लेकिन धीरे-धीरे ज्वारका वेग भी शान्त हो गया। अतः उन्हें आशा हुई कि साथी लोग भाटेमें अवश्य लौटेंगे, किन्तु धीरे-धीरे भाटेका वेग दोबारा बढ़ा, फिर घटने लगा और उसके साथ ही सूर्यास्त हो गया। यदि भाटेमें नावको वापस होना होता, तो अबतक वह कभीकी आ गई होती?

अब नवकुमारको विश्वास हो गया कि या तो ज्वार-वेगमें नाव उलटकर डूब गयी है, अथवा साथियोंने ही मुझे छोड़ दिया है।

पर्वतके नीचेसे चलनेवाले व्यक्तिके ऊपर जैसे शिखर आ पड़े और वह पिस जाय, वैसे ही इस सिद्धान्तके हृदयमें पैदा होते ही नवकुमारका हृदय पिस गया।

इस समय नवकुमारके हृदयकी जो अवस्था थी, उसका वर्णन करना बहुत कठिन है। साथी लोग भी प्राणसे हाथ धो बैठे होंगे, इस सन्देहने भी उन्हें चिन्तान्वित किया, किन्तु शीघ्र ही अपनी विषम अवस्थामें उसकी समालोचनाने—उस शोकको भुला दिया। विशेषतः जब उनके मनमें हुआ कि जान पड़ता है कि उनके साथियोंने उन्हें छोड़ दिया है, तो हृदयके क्रोधसे और भी शीघ्र उनके हृदयकी चिन्ता दूर हो गयी।

नवकुमारने देखा कि आस-पास न तो कोई गाँव है, न आश्रय है, न लोग—और न बस्ती है, न भोजनकी कोई वस्तु, न पीने को पानी ही क्योंकि नदीका पानी सागरजलकी तरह खारा है; साथ ही भूख-प्याससे हृदय विदीर्ण हुआ जाता है। भीषण समय है और उसके निवारणका भी कोई उपाय नहीं है। कपड़े भी नहीं हैं। क्या इसी बर्फीली हवामें खुले आकाशके नीचे बिना किसी छायाके रहना पड़ेगा? हो सकता है, रातमें शेर-भालू फाड़ खायें! आज बचे ही रह गये तो कल यही हो सकता है। प्राणनाश ही निश्चित है।

मनकी भयानक चञ्चलताके कारण नवकुमार बहुत देरतक एक जगहपर रुक नहीं सके। वह नदी तटसे ऊपर चढ़कर आये और इधर-उधर भटकने लगे। क्रमशः अन्धकार बढ़ने लगा। सिरपर आकाशमें नक्षत्र ठीक उसी तरह लगने लगे, जैसे नवकुमारके अपने गाँबमें उगा करते थे। उस अन्धकारमें चारों तरफ सन्नाटा, भयानक, गहरा सन्नाटा? आकाश, वन, नदी, समुद्र सब तरफ भयावह सन्नाटा—केवल बीच-बीचमें
गर्जन और अन्य पशु-पक्षियोंका भीषण रव सुनाई पड़ जाता था। फिर भी उसी भीषण अन्धकार और सन्नाटेमें नवकुमार इधर-उधर घूम रहे थे। कभी नदीके चारों तरफ घूमते, कभी उपत्यकामें, कभी अधित्यकामें और कभी स्तूपके शिखरपर चले जाते थे। मनकी चंचलता उन्हें एक जगह स्थिर नहीं रहने देती थी। इस तरह घूमते हुए हर पदपर हिंस्र पशुका भय था, लेकिन वही डर तो एक जगह खड़े रहनेपर भी था।

इस तरह घूमते-घूमते नवकुमार थक गये। दिन भरके थके थे; अतः और भी शीघ्र अवसन्नता आयी। अन्तमें एक जगह बालियाड़ीके सहारे पीठपर ढासन लेकर बैठ गए। घरकी सुख-शय्या याद आ गयी।

जब शारीरिक और मानसिक चिन्ताएँ एक साथ आ जाती हैं और अस्थिर कर देती हैं, तो उस समय कभी-कभी नींद भी आ जाती है। नवकुमार चिन्तामग्न अवस्थामें निद्रित होने लगे। मालूम होता है, यदि प्रकृतिने ऐसा नियम न बनाया होता, तो मारे चिन्ताके आदमीकी मौत हो जाती।




  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    —Like a veil
    Which, if withdrawn, would but disclose the frown
    Of one who hates us, so the night was shown
    And grimly darkled o’er their faces pale
    And hopeless eyes.
    Don Juan.