कपालकुण्डला/द्वितीय खण्ड/५
:५:
स्वदेशमें
शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्तात्
कर्णे लीलं कथयितुमभू-द्दीननस्पर्श लोभात्।
—मेघदूत
नवकुमार कपालकुण्डलाको लिये हुए स्वदेश पहुँचे, नवकुमार पितृहीन थे; घरमें विधवा माता थी और दो बहनें थीं। बड़ी विधवा थी, जिससे पाठक लोग परिचित न हो सकेंगे; दूसरी श्यामासुन्दरी सधवा होकर भी विधवा है, क्योंकि वह कुलीन की स्त्री है। वह दो-एक बार हम लोगोंको दर्शन देगी।
दूसरी अवस्थामें यदि नवकुमार इस तरह अज्ञातकुलशीला तपस्विनी को विवाह कर घर लाये होते, तो उनके आत्मीय-स्वजन कहाँ तक सन्तुष्ट होते, यह बताना कठिन है। किन्तु वास्तवमें उन्हें इस विषयमें कोई क्लेश उठाना न पड़ा। सभी लोग उनके वापस पहुँचनेमें हताश हो चुके थे। सहयात्रियोंने लौटकर बात उड़ा दी थी कि नवकुमारको शेरने मार डाला। पाठक सोच सकते हैं, इन सत्यवादियोंने आत्मविश्वासके बलपर ही यदि ऐसा कहा होगा, तो यह ठगकी कल्पनाशक्तिका अपमान करना होगा। लौटकर वापस आनेवाले कितने ही यात्रियोंने तो यहाँतक कह दिया था कि नवकुमारको व्याघ्र द्वारा आक्रान्त होते उन्होंने अपनी अाँखों देखा है। कभी-कभी तो उस शेरको लेकर आपसमें तर्क-वितर्क हुये। कोई कहता,—“वह आठ हाथ लम्बा रहा होगा।” दूसरेने कहा,—“नहीं-नहीं, वह पूरा चौदह हाथ लम्बा था।” इसपर पूर्व परिचित यात्रीने कहा था—“जो भी हो, मैं तो बाल-बाल बच गया था। बाघने पहले मेरा पीछा किया था, लेकिन मैं भाग गया, बड़ी चालाकीसे भागा, किन्तु क्या कहें, नवकुमार बेचारा भाग न सका। वह साहसी न था, यदि भागता तो शायद मेरी तरह वह भी बच जाता।”
जब यह सब गल्प नवकुमारकी माताके कानों में पहुँची तो घरमें वह क्रन्दनका कुहराम मचा, कि कई दिनोंतक शान्त न हुआ। एकमात्र पुत्रकी मृत्युकी खबरसे माता मृत प्राय हो गयी। ऐसे समय जब नवकुमार सस्त्री घर वापस लौटे, ता कौन पूछे कि वह किस जातिकी है और किसकी कन्या है? मारे प्रसन्नताके सब मत्त थे।
नवकुमारकी माताने बड़े आदर के साथ बहूको घर में बैठाया। जब नवकुमारने देखा कि घरवालोंने कपालकुण्डलाको सादर ग्रहण कर लिया, तो उनके हृदयमें अपार आनन्द प्राप्त हुआ। यद्यपि उनके हृदयमें कपालकुण्डला का निवास हो रहा था, फिर भी घरमें कहीं अनादर न हो, इस भयसे अबतक उन्होंने विशेष प्रणय लक्षण दिखाया न था। यही कारण था कि उस समय वह अकस्मात् कपालकुण्डलाके पाणिग्रहणके प्रश्नपर सम्मत न हुये थे। यही कारण था कि राहमें गृहपर न आनेतक नवकुमारने प्रणयसम्भाषण न किया था। उन्होंने अबतक प्रयण-सागर में अनुरागकी वायुको हिलोरें लेने न दिया। लेकिन वह आशंका दूर हो गयी। वेगसे बहनेवाली जलराशिको जिस प्रकार बाँधसे बाँध दिया जाये और बाँध टूटनेपर जलका उच्छ्वास उछल पड़े, वही दशा नवकुमार की हुई।
यह प्रेमका आविर्भाव केवल बातोंमें नहीं होता था; लेकिन कपालकुण्डलाको देखते ही सजल-लोचन ही, अनिमेष लोचनसे देखते रह जाते हैं, उससे ही प्रकट होता है; जिस प्रकार निष्प्रयोजन हो, प्रयोजनकी कल्पना कर वह कपालकुण्डलाके पास आते, इससे प्रकट होता है; बिना प्रसंगके जिस प्रकार बातों में कपालकुण्डला का प्रसंग उत्थापित करते, उससे प्रकट होता है। यहाँ तक कि उनकी प्रकृति भी बदलने लगी। जहाँ चंचलता थी, वहाँ गम्भीरता आने लगी; जहाँ अनमने रहते थे, वहाँ वह हर समय प्रसन्न रहने लगे। नवकुमारका चेहरा सदा प्रसन्नतासे खिला रहने लगा। हृदयके स्नेहका आधार हो जानेके कारण हर एकके प्रति स्नेहका बर्ताव होने लगा। विरक्तिकर लोगोंके प्रति भी स्नेहका बर्ताव होने लगा। मनुष्यमात्र प्रेमपात्र हो गया। पृथ्वी मानो सत्कर्मसाधनके लिये ही है, नवकुमारके चरित्रसे यही परिलक्षित होने लगा। समूचा संसार सुन्दर दिखाई देने लगा। सच्चा प्रणय कर्कशको भी मधुर बना देता है, असत्यको सत्य, पापीको पुण्यात्मा और अन्धकारको आलोकमय बना देता है।
और कपालकुण्डला; उसका क्या भाव था? चलो, पाठक! एक बार उसका भी दर्शन करें।
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- ↑ अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:
शब्दाख्येयं यदपि किल ते यः सखीनां पुरस्तात्
कर्णे लोलः कथयितुमभूदाननस्पर्शलोभात्।
मेघदूत