कपालकुण्डला/द्वितीय खण्ड/३

[ ४९ ]

:३:

सुन्दरी-संदर्शन

“धरो देवि मोहन मूरति
देह आज्ञा, सजाई वरवधु आनि
नामा आभरण।”
—मेघनाद वध

[१]

नचकुमारने गृहस्वामिनीको बुलाकर दूसरा दीपक लाने के लिए कहा। दूसरा दीपक लाये जानेके पहले नवकुमारने उस सुन्दरीको एक दीर्घ निश्वास लेते सुना। दीपक लाये जाने के थोड़ी देर बाद ही वहाँ एक नौकर वेशमें मुसलमान उपस्थित हुआ। विदेशिनीने उसे देखकर कहा—“यह क्या, तुम लोगोंको इतनी देर क्यों हुई? और सब कहाँ हैं?”

नौकरने कहा—“पालकी ढोनेवाले सब मतवाले हो रहे थे। उन सबको बटोरकर ले आनेमें हमलोग पालकीसे बहुत ही पीछे छूट गये। इसके बाद टूटी पालकी और आपको न देखकर हमलोग पागलसे हो गये। अभी कितने ही उसी जगह हैं। कितने दूसरी तरफ आपकी खोजमें गये हैं। मैं खोजनेके लिए इधर आया।”

मोतीने कहा—“उन सबको ले आओ।”

[ ५० ]नौकर सलाम कर चला गया। विदेशिनी कुछ समय तक ठुड्ढीपर हाथ रखे बैठी रही।

नवकुमारने विदा होना चाहा। इसके बाद मोती बीबीने स्वप्नोत्थिताकी तरह एकाएक खड़ी होकर पूछा—“आप कहाँ रहेंगे?”

नव०—यहीं बगलके कमरेमें।

मोती०—आपके कमरेके सामने एक पालकी रखी थी। क्या आपके साथ कोई है?”

“मेरी स्त्री मेरे पास है।”

मोती बीबीने फिर व्यङ्गका अवकाश पाया। बोली—“क्या वही अद्वितीय रूपवती है?”

नव०—देखनेसे स्वयं समझ सकेंगी।

मोती०—क्या मुलाकात हो सकेगी?

नव०—(विचारकर) हर्ज क्या है?

मोती०—तो कृपा कीजिए न! अद्वितीय रूपवतीको देखनेकी बड़ी इच्छा होरही है। आगरे जाकर मैं कहना चाहती हूँ। लेकिन अभी नहीं—अभी आप जायँ। थोड़ी देर बाद मैं खबर दूँगी।

नवकुमार चले गये। थोड़ी देर बाद बहुतेरे आदमी, दासदासी और वाहक सन्दूक आदि लेकर उपस्थित हुए। एक पालकी भी आयी। उसमें एक दासी थी। इसके बाद नवकुमारके पास खबर आई—“बीबी आपको याद करती हैं।”

नवकुमार मोती बीबीके पास फिर वापस आए। देखा, इस बार दूसरा ही रूपान्तर है। मोती बीबीने पूर्व पोशाक बदलकर स्वर्णमुक्तादि शोभित कासकार्ययुक्त वेश-भूषा की है। सूनी देह अलंकारोंसे सज गयी है। जिस जगह जो पहना जाता है—कानोंमें, कबरीमें, कपालमें, आँखोंकी बगलमें, कण्ठमें, हृदयपर बाहू आदि सब जगह सोनेके आभूषणोंमें हीरकादि [ ५१ ]रत्न झलक रहे थे। नवकुमारकी अाँखें नाच उठीं। अधिकांश स्त्रियाँ अधिक आभूषण पहन लेने पर श्री हीन हो जाती हैं—अनेक सजाई गयी पुतलीकी तरह दिखाई पड़ने लगती हैं। लेकिन मोती बीबीमें श्रीहीनता नहीं आयी थी। प्रभूत नक्षत्रमाला-भूषित आकाशकी तरह उसकी देहपर अलंकार शोभा दे रहे थे। शरीरकी माधुरी पर वह अलंकार मिलकर अद्भुत छटा दिखा रहे थे। शरीरका सौन्दर्य और बढ़ गया था। मोती बीबीने नवकुमारसे कहा—“महाशय! चलिए आपकी पत्नी के साथ परिचय प्राप्त कर आयें।” नवकुमार ने कहा—“इसके लिए अलंकार पहननेकी तो कोई जरूरत थी नहीं। मेरे परिवारमें तो गहना है नहीं।”

मोती बीबी—गहनोंको दिखाने के लिये ही पहन लिया है। आप नहीं जानते, स्त्रियों के पास गहने रहें और न दिखायें, यह हो नहीं सकता। यह स्त्री-प्रकृति है। खैर चलिये चलें।

नवकुमार मोती बीबी को साथ लेकर चले। जो दासी पालकी पर आयी थी, वह भी साथ चली। इसका नाम पेशमन् है।

कपालकुण्ला दुकान जैसे कमरेकी मिट्टीके फर्शपर बैठी थी। एक धीमी रोशनीका दीपक जल रहा था। आबद्ध निबिड़ केशराशि पीछेके हिस्सेमें अन्धकार किए हुई थी। मोती बीबीने पहले उन्हें जब देखा, तो होठके किनारेकी ओर आँखोंमें कुछ हँसीकी रेखा दिखाई दी। अच्छी तरह देखनेके लिए वह दीपक उठाकर कपाल कुण्डलाके चेहरेके पास ले आई।

लेकिन देखते ही फिर हँसी उड़नछू हो गयी। मोती बीबीका चेहरा गम्भीर हो गया। वह अनिमेष लोचन से सौन्दर्य देखती रह गयी। कोई कुछ न बोला। मोती मुग्ध थी—कपालकुण्डला कुछ विस्मित थी।

थोड़ी देर बाद मोती बीबी अपने शरीरसे गहने उतारने [ ५२ ]लगी। इस तरह अपने शरीर से गहने उतारकर वह एक-एक करके कपालकुण्डलाको पहनाने लगी। कपालकुण्डला कुछ न बोली। नवकुमार कहने लगे—“यह क्या करती हैं?” मोती बीबीने इसका कोई जवाब नहीं दिया।

अलंकार-सज्जा समाप्त कर और अच्छी तरह निरखकर मोती बीबीने कहा—“आपने सच कहा था। ऐसे फूल राजोद्यान में भी नहीं खिलते। दुःख यही है कि इस रूपराशिको राजधानीमें न दिखा सकी। यह गहने इसी शरीरके उपयुक्त हैं। इसीलिए मैंने पहना दिए हैं। आप भी इन्हें देखकर कभी-कभी मुखरा विदेशिनीको याद किया करेंगे।”

नवकुमारने चमत्कृत होकर कहा—“यह क्या? यह सब बहुमूल्य अलंकार हैं, मैं इन्हें क्यों लूँ?”

मोती ने कहा—“ईश्वर की कृपा से मेरे पास बहुत हैं। मैं निराभरण न हूँगी। इन्हें पहनाकर यदि सुखी होती हूँ, तो उसमें व्याघात क्यों उपस्थित करते हैं?”

यह कहती हुई मोती बीबी दासीके साथ वापस चली गई। अकेलेमें पहुँचनेपर पेशमनने मोती बीबीसे पूछा—“बीबी यह शख्स कौन है?”

यवनबालाने उत्तर दिया—“मेरा खसम।”

 


  1. अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:

    “धरो देवि मोहन मूरति।
    देह आज्ञा, सजाई ओ वरवपु आनि
    नाना आभरण!”
    मेघनादवध