कपालकुण्डला/तृतीय खण्ड/५
:५:
अपने महलमें
“जनम अवधि हम रूप निहारलु नयन न तिरपित भयल।
सोई मधुर बोल क्षुतहोहि सुनन श्रुतिपथ परसन गयल।
कत मधुयामिनी रयसे गोंयाइनु न बुझनु कैछन न कयल।
लाख-लाख दुरा हिये-हिये रखिनु तबू हिया जुड़ायन गयल।
यत-यत रसिक जन रसे अनुगमन अनुयत काहू न पेख।
विद्यापति कहे प्राण जुड़ाइतें लाखे ना मिलल एक॥”
लुत्फुन्निसाने अपने महलमें पहुँच कर पेशमनको बुलाया और प्रसन्न हृदयसे अपनी पोशाक बदली। स्वर्णमुक्तादि खचित वस्त्र उतारकर पेशमन से कहा—“यह पोशाक तुम ले लो।”
सुनकर पेशमन कुछ विस्मयमें आई। पोशाक बहुत ही बेश-कीमती और हालहीमें तैयार हुई थी। बोली—“पोशाक मुझे क्यों देती हो! आज क्या खबर है?”
लुत्फुन्निसा बोली—“शुभ सम्वाद है।”
पे०—“यह तो मैं भी समझ रही हूँ। क्या मेहरुन्निसाका भय दूर हो गया?”
लु०—“दूर हो गया। अब उस बारेमें कोई चिन्ता नहीं है।”
पेशमनने खूब खुशी जाहिर कर कहा—“तो अब मैं वेगमकी दासी हुई?”
लु०—“तुम अगर बेगमकी दासी होना चाहती हो, तो मैं मेहरुन्निसासे सिफारिश कर दूँगी।”
पे०—“हैं यह क्या? आपने ही तो कहा कि मेहरुन्निसाके अब बादशाहकी बेगम होनेकी कोई सम्भावना नहीं है।”
लु०—“मैंने यह बात तो नहीं कही। मैंने कहा था कि इस विषयमें अब मुझे कोई चिन्ता नहीं।”
पे०—“चिन्ता क्यों नहीं है? यदि आप आगरेकी एकमात्र अधीश्वरी न हुई तो सब व्यर्थ है।”
लु०—“आगरासे अब कोई सम्बन्ध न रखूँगी।”
पे०—“हैं! मेरी समझमें कुछ आता ही नहीं। तो वह शुभ संवाद क्या है, समझाकर बताइये न?”
लु०—“शुभ संवाद यही है कि इस जीवनमें आगरेको छोड़कर अब मैं चली।”
पे०—“कहाँ जायँगी?”
लु०—“बंगालमें जाकर रहूँगी। हो सका तो किसी भले आदमीके घर की गृहिणी बनकर रहूँगी।”
पे०—“यह व्यङ्ग नया जरूर है, लेकिन सुनकर कलेजा काँप उठता है।”
लु०—“व्यंग नहीं करती, मैं सचमुच आगरा छोड़कर जा रही हूँ। बादशाहसे बिदा ले आयी हूँ।”
पे०—“यह कुप्रवृत्ति आपकी क्यों हुई?”
लु०—“यह कुप्रवृत्ति नहीं है। बहुत दिनों तक आगरेमें रही, क्या नतीजा हुआ? बचपनसे ही सुखकी बड़ी प्यास थी। उसी प्यासको बुझानेके लिए बंगालसे यहाँ तक आई। इस रत्नको खरीदनेके लिए कौन-सा मूल्य मैंने नहीं चुकाया? कौन-सा दुष्कर्म मैंने नहीं किया? और जिस उद्देश्यके लिए यह सब किया, उसमें मैं क्या नहीं पा सकी? ऐश्वर्य, सम्पदा, धन, गौरव, प्रतिष्ठा सबका तो छककर मजा लिया, लेकिन इतना पाकर भी क्या हुआ? आज यहाँ बैठकर हर दिनको गिनकर कह सकती हूँ कि एक दिनके लिए, एक क्षणके लिए भी सुखी न हो सकी। कभी परितृप्त न हुई। सिर्फ प्यास दिन-पर-दिन बढ़ती जाती है। चेष्टा करूँ, तो और भी सम्पदा, और भी ऐश्वर्य लाभ कर सकती हूँ, लेकिन किसलिए? इन सबमें सुख होता तो क्यों एक दिनके लिए भी सुखी न होती? यह सुखकी इच्छा पहाड़ी नदीकी तरह है—पहले एक निर्मल पतली धार जंगलसे बाहर होती है, अपने गर्भमें आप ही छिपी रहती है, कोई जानता भी नहीं, अपने ही कल-कल करती है, कोई सुनता भी नहीं, क्रमशः जितना आगे बढ़ती है, उतनी ही बढ़ती है—लेकिन उतनी ही पंकिल होती हैं। केवल इतना ही नहीं कभी वायुका झकोरा पा लहरें मारती है—उसमें हिंस्र जीवोंका निवास हो जाता है। जब शरीर और बढ़ता हैं, तो कीचड़ और भी मिलता है—जल गंदला होता है, खारा हो जाता है; असंख्य ऊसर और रेत उसके हृदयमें समा जाता है; वेग मंद पड़ जाता है। इसके बाद वह वृहत् रूप—गंदा रूप—सागरमें जाकर क्यों विलीन हो जाता है, कौन बता सकता है?”
पे०—“मैं यह सब तो कुछ भी नहीं समझ पाती। लेकिन यह सब तुम्हें अच्छा क्यों नहीं मालूम पड़ता?”
लु०—“क्यों अच्छा नहीं मालूम पड़ता, यह इतने दिनोंके बाद अब समझ सकी हूँ। तीन वर्षों तक शाही महलकी छायामें बैठकर जो सुख प्राप्त नहीं हुआ, उड़ीसासे लौटनेके समय बादमें एक रातमें वह सुख मिला। इसीसे समझी!”
पे०—“क्या समझी?”
लु०—“मैं इतने दिनोंतक हिन्दुओंकी देव-मूर्तिकी तरह रही। नाना स्वर्ण और रत्न आदिसे लदी हुई, भीतरसे पत्थर। इन्द्रियसुखकी खोजमें आगके बीच घूमती रही, लेकिन अग्निका स्पर्श कभी नहीं किया। अब एक बार देखना है, शायद पत्थरके अन्दरसे कोई रक्तवाही शिरा हृदयमें मिल जाये।”
पे०—“यह भी तो समझमें नहीं आता।”
लु०—“मैंने इस आगरेमें कभी किसीसे प्रेम किया है?”
पे०—(धीरेसे) “किसीसे भी नहीं।”
लु०—“तो फिर मैं पत्थर नहीं हूँ, तो क्या हूँ?”
पे०—“तो अब प्रेम करनेकी इच्छा है, तो क्यों नहीं करती?”
लु०—“हृदय ही तो है। इसलिए आगरा छोड़ कर जा रही हूँ।”
पे०—इसकी जरूरत ही क्या है? आगरेमें क्या आदमी नहीं हैं, जो दूसरे देशमें जाओगी? अब जो तुमसे प्रेम कर रहे हैं, उन्हें तुम भी प्रेम क्यों नहीं करतीं? रूपमें, धनमें, ऐश्वर्यमें, चाहे जिसमें कहें, इस समय दिल्लीश्वरसे बढ़ कर पृथ्वीपर कौन है!
लु०—“आकाशमें चन्द्र-सूर्यके रहते जल अधोगामी क्यों होता है?”
पे०—“मैं ही पूछती हूँ क्यों?”
लु०—“ललाट लिखन—भाग्य!”
लुत्फुन्निसाने सारी बातें खुल कर न बतायीं।
पाषाणमें अग्निने प्रवेश किया; पाषाण गल रहा था।
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- ↑ अनुवादक की भ्रान्ति। मूलमें है:
जनम अवधि हम रूप निहारनु नयन न तिरपित भेल।
सोई मधुर बोल श्रवणहि सुननु श्रुतिपथे परस न गेल॥
कत मधुयामिनी रभसे गोंयाइनु न बुझनु कैछन केल।
लाख-लाख युग हिये-हिये राखनु तबू हिया जुड़न न गेल॥
यत-यत रसिक जन रसे अनुगमन अनुभव काहू न पेख।
विद्यापति कहे प्राण जुड़ाइते लाखे ना मिलल एक॥
विद्यापति।