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घर की तरफ

कपालकुण्डला धीरे-धीरे घर की तरफ चली। बहुत ही धीरे मृदु-पादविक्षेपसे। इसका कारण यह था कि वह बहुत ही गहरी चिन्तामें डूबी हुई थी। लुत्फुन्निसाकी दी हुई खबरसे कपालकुण्डलाका चित्त बिल्कुल परिवर्तित हो गया था। वह अपने आत्म-विसर्जनके लिये तैयार हुई। आत्म-विसर्जन किसलिये? क्या लुत्फुन्निसाके लिये? यह बात नहीं।

कपालकुण्डला अन्तःकरण से तान्त्रिक की सन्तान है। जिस प्रकार तान्त्रिक भवानीके प्रसादके रूपमें दूसरेकी जान लेनेका आकांक्षी हैं, वैसे ही वह भी उसी आकांक्षासे आत्म-विसर्जनके लिये तैयार है। कापालिककी वजहसे कपालकुंडला केवल शक्तिप्रार्थिनी है, यह बात नहीं, बल्कि असली कारण यह है कि संगति प्रभावके कारण देवीकी श्रद्धाभक्तिमें मनसे अनुरागिनी है। वह मजेमें समझ चुकी है कि सृष्टिशासनकर्त्री और मुक्तिदात्री एकमात्र भैरवी ही हैं। यह सही है कि भैरवीपूजामें नरबलिके रक्तसे प्राङ्गण भर उठता है, यह उसका परदुःखकातर हृदय सहनेमें असमर्थ है, किन्तु और किसी कार्यमें उसकी भक्तिभावना कुंठित नहीं है। उन्हीं जगतशासनकर्त्री, सुख-दुःख-विधायिनी और मोक्षदायिनी भगवतीने स्वप्नमें उसे आत्मविसर्जनका आदेश दिया है। फिर कपालकुण्डला क्यों न उस आज्ञाको माने?

[ ११६ ]हम तुम प्राणत्याग करना नहीं चाहते। बड़े प्रेम से जो कहते हैं कि यह संसार सुखमय है, सुखकी ही आशासे बैलकी तरह बराबर घूम रहे हैं—दुःखकी प्रत्याशासे नहीं। कहीं यदि आत्मकर्मदोषसे इस प्रत्याशामें सफलता प्राप्त न की, तो दुःख कहकर हम चिल्लाने लगते हैं किन्तु ऐसा होनेसे ही नियम नहीं बन जा सकता, ऐसा सिद्धान्त होता है। नियमका व्यतिक्रम माना है। हमें तुम्हें हर जगह सुख ही है। उसी सुखसे संसार में हम बँधे हुए हैं, छोड़ना नहीं चाहते। लेकिन इस संसार-बन्धनमें प्रणय ही प्रधान रस्सी है। कपालकुण्डलाके लिए वह बन्धन या नहीं कोई भी बन्धन नहीं। फिर कपालकुण्डलाको कौन रोक सकता है? जिसके लिए बन्धन नहीं है, वही सबसे अधिक बलशाली है। गिरिशिखरसे नदीके उतरने पर कौन उसका गतिरोध कर सकता है? एक बार आँधी आनेपर उसे कौन रोक सकता है? कपालकुण्डलाका चित्त डाँवाडोल हो जाये, तो उसे कौन स्थिर कर सकता है? नये हाथीके मस्त हो जाने पर उसे कौन शान्त करे?

कपालकुंडलाने अपने हृदयसे पूछा—“अपने इस शरीरको जगदीश्वरीके लिए क्यों न समर्पण करूँ? पंचभूतको रखकर क्या होगा। प्रश्न वह करती थी, लेकिन कोई निश्चित उत्तर न दे सकती थी। संसारमें और कोई भी बन्धन न होनेपर पंचभूतका बन्धन तो है ही।

कपालकुंडला नीचा सिर किये चलने लगी। जब मनुष्यका हृदय किसी बड़े भावमें डूबा रहता है, तो उस समय चिन्ताकी एकाग्रतामें बाहरी जगतकी तरफ ध्यान नहीं रहता। उस समय अनैसर्गिक वस्तु भी प्रत्यक्षीभूत जान पड़ती है। इस समय कपालकुंडलाकी ऐसी ही अवस्था थी।

मानों ऊपरसे उसके कानोंमें वह शब्द पहुँचा—“वत्से, मैं राह दिखाती हूँ।” कपालकुंडला चकितकी तरह ऊपर देखने लगी। देखा, मानो आकाशमें नवनीरद-निन्दित मूर्ति है; गलेमें लटकनेवाली नरमुंडमालासे खून टपक रहा है; कमरमें नरकरराजि झूल [ ११७ ]रही है; बाँये हाथमें नरकपाल; अंगमें रुधिरधारा, ललाटपर विषम उज्जवल ज्वाला विभासित है और लोचन प्रान्तोंमें बालशशि शोभित है; मानों दाहिने हाथसे भैरवी कपालकुंडलाको बुला रही है।

अब कपालकुंडला ऊर्ध्र्वमुखी होकर चली। वह अद्भुत देवी रूप आकाशमें उसे राह दिखा रहा था, कभी कपालमालिनीका अंग बादलोंमें छिपता, कभी सामने प्रकट होकर चलता। कपालकुंडला उन्हींको देखती हुई चलने लगी।

नवकुमार या कापालिकने यह सब कुछ न देखा। नवकुमारने सुरा-गरल-प्रज्ज्वलित-हृदयसे—कपालकुंडलाके धीरपदक्षेपसे असहिष्णु होकर साथीसे कहा, “कापालिक!”

कापालिकने पूछा—“क्या?”

“पानीयं देहि मे।”

कापालिकने नवकुमारको फिर शराब पिलायी।

नवकुमारने पूछा—“अब देर क्यों?”

कापालिकने भी कहा—“हाँ-हाँ, कैसी देर?”

नवकुमारने भीमनादसे पुकारा—“कपालकुंडला!”

कपालकुंडला सुनकर चकित हुई। अभी तक यहाँ कपालकुंडला कह कर किसीने पुकारा न था। वह पलटकर खड़ी हो गयी। नवकुमार और कापालिक उसके सामने आकर खड़े हो गये। कपालकुंडला पहले उन्हें पहचान न सकी, बोली—“तुम लौग कौन हो? यमदूत?”

लेकिन दूसरे ही क्षण पहचान कर बोली—“नहीं नहीं, पिता! क्या तुम मुझे बलि देनेके लिए आये हो?”

नवकुमारने मजबूतीके साथ कपालकुंडलाका हाथ पकड़ लिया। कापालिकने करुणार्द्र, मधुर स्वरमें कहा—“वत्से! हम लोगोंके साथ आओ।” यह कह कर कापालिक श्मशानकी राह दिखाता आगे चला।

कपालकुंडलाने आकाशकी तरफ फिर निगाह उठायी, जिधर [ ११८ ]उस भैरवीकी विकराल मूर्तिको देखा था, उधर देखा। देखा, रणरंगिणी खिलखिला कर हँस रही है। कपालकुंडला अदृष्टविमूढ़की तरह कापालिकका अनुसरण करती चली। नवकुमार उसी तरह उसे पकड़े हुए साथ ले चले।