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पुनर्वार्ता

“तद्गच्छ सिद्धं कुरु देवकार्यम्।”
—कुमारसंभव

कापालिक ने आसन ग्रहण कर अपनी दोनों बाहें नवकुमारको दिखाई। नवकुमार ने देखा कि दोनों हाथ टूटे हुए थे।

पाठकोंकी याद रह सकता है कि जिस रात कपालकुण्डला के साथ नवकुमार कापालिक-आश्रमसे भागे, उसी रात खोजने में व्यस्त बालियाड़ीके शिखरसे गिरा था। गिरनेके समय उसने शरीर-रक्षाके लिए दोनों हाथोंसे सहारा लिया। इससे उसका शरीर तो बचा, लेकिन दोनों हाथ टूट गये। सारा हाल कहकर कृपालिक ने कहा—“इन हाथों द्वारा यद्यपि दैनिक कार्य हो जाते हैं, किन्तु, इनमें अब बल नहीं है, यहाँतक कि मैं लकड़ी भी उठा नहीं सकता।”

इसके बाद बोला—“गिरते ही मैं जान गया कि मेरे दोनों हाथ टूट गये, लेकिन बादमें मैं बेहोश हो गया। पहले बेहोश और इसके बाद धीरे-धीरे जब मुझे ज्ञान हुआ तो मैं नहीं जानता था कि इस तरह मुझे कितने दिन बीते। शायद दो रातें और एक दिन था। सबेरेके समय मैं फिर पूरी तरह होशमें आया। इससे ठीक पहले मैंने स्वप्न देखा—मानो भवानी—यह कहते-कहते [ १०९ ]
कापालिकको रोमांच हो आया—मेरे सामने प्रत्यक्ष आकर खड़ी हो गयी हैं। भौंहें टेढ़ी कर ताड़ना करती और कहती हैं—‘अरे दुराचारी! तेरी ही चित्तकी अशुद्धिके कारण मेरी इस पूजामें विघ्न हुआ है। इतने दिनोंतक इन्द्रिय-लालसा के वशीभूत होकर उस कुमारीके रक्तसे तूने मेरी पूजा नहीं की। अतएव इसी कुमारी द्वारा तेरे सारे पूर्व कर्मोंका नाश हो रहा है। अब मैं तेरी पूजा ग्रहण न करूँगी।’ इसपर मैं रोकर भगवतीके चरणोंपर लोटने लगा, तो उन्होंने प्रसन्न होकर कहा—‘भद्र! इसका सिर्फ एक प्रायश्चित्त बताती हूँ। उसी कपालकुण्डलाका मेरे सामने बलिदान कर। जितने दिनोंतक तुझसे यह न हो सके, मेरी पूजा न करना।’

कितने दिनों तक और किस प्रकार मैं आरोग्य हुआ, यह बताने की आवश्यकता नहीं है। क्रमशः आरोग्यलाभ करनेके बाद देवीकी आज्ञा पूरी करनेकी कोशिशमें लग गया। लेकिन मैंने देखा कि इन हाथोंमें एक बच्चे जैसा बल भी नहीं। बिना बाहुबलके यत्न सफल होनेका नहीं। अतएव इसमें सहायताकी आवश्यकता हुई। विदेशी और विधर्मी राजमें इस बातमें कौन सहायक हो सकता है। बड़ी कोशिशसे पापिनीका आभास मालूम हुआ। लेकिन बाहुबलके अभावसे कार्य पूरा नहीं होता है। केवल मानससिद्धिके लिए होमादि करता हूँ। कल रातको मैंने स्वयं देखा कि कपालकुण्डलाके साथ ब्राह्मणकुमारका मिलन हुआ। आज भी वह उससे मिलने जा रही है। देखना चाहो, तो मेरे साथ आओ।

वत्स! कपालकुण्डला वधके योग्य है। मैं भवानीके आज्ञानुसार उसका वध करूँगा। वह तुम्हारे प्रति भी विश्वासघातिनी है, अतएव तुम्हें भी उसका वध करना चाहिए। अविश्वासीको पकड़ कर मेरे यज्ञ-स्थान पर ले चलो। वहाँ अपने हाथसे उसका [ ११० ]
बलिदान करो। इससे भगवतीका उसने जो अपकार किया है, उसका दण्ड होगा, पवित्र कर्मसे अक्षय पुण्य होगा; विश्वासघातिनीका दण्ड होगा, चरम प्रतिशोध होगा।”

कापालिक चुप हुआ। नवकुमार कुछ भी न बोले। कापालिक ने उन्हें चुप देखकर कहा—“अब चलो, वत्स! जो दिखानेको कह चुका हूँ, दिखाऊँगा|”

नवकुमार पसीनेसे तर कापालिकके साथ चले।